जैसे समाधि को उपलब्ध होने के लिए आपका शरीर में होना आवश्यक है, वैसे ही, आपके मार्गदर्शन के लिए, आपके सतगुरु का भी शरीर में होना अत्यावश्यक है।
जीवंत सतगुरु ही सहायक हो सकता है। शरीर छोड़ चुके सतगुरु के प्रति श्रद्धा बनी रहेगी ही, लेकिन, समझ कर रहें, कि, उस ट्रेन का डिपार्चर टाइम हो गया, वह बैठ चुके यात्रियों को लेकर निकल चुकी है।
अब आप को, स्वयं ही, अपने सानिध्य और सत्संग के लिए सतगुरु खोजना है, जो शरीर में है।
लेकिन, यह सब तभी सम्भव होगा, जब आपकी नजरें नहीं, हृदय उसे खोज रहा होगा। नजरों से खोजने वाले ऊलजलूल गुरु के चक्कर में पड़ जाते हैं, क्योंकि, वे भी ऊलजलूल शिष्य होते हैं।
और जो कोई, शरीर छोड़े सतगुरु के बाद, बिना सतगुरु के ही चलने की सोचते हैं, उनका चलना तो बहुत दूर की बात है, हिल भी नहीं पाते अपनी जगह से। वे मन से लकवाग्रस्त हो जाते हैं।
2+2 सीखने के लिए तो, गुरु लगता है, तो क्या, परमात्मा को आप यूं ही सीख लेंगे। यदि आप इतने प्रतिभाशाली ( प्यासे ) होते, तो, शरीर छोड़े सतगुरु के रहते ही परमात्मा को उपलब्ध हो गए होते।
गलतफहमी में जीवन न गुजारें। जो भी प्यास है, उसी से खोजना शुरू करें, आपके शरीर छोड़े सतगुरु की चेतना भी सहयोगी होगी, आपकी सतगुरु की खोज में।
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