गुरुवार, 9 नवंबर 2023

 जैसे समाधि को उपलब्ध होने के लिए आपका शरीर में होना आवश्यक है, वैसे ही, आपके मार्गदर्शन के लिए, आपके सतगुरु का भी शरीर में होना अत्यावश्यक है।

जीवंत सतगुरु ही सहायक हो सकता है। शरीर छोड़ चुके सतगुरु के प्रति श्रद्धा बनी रहेगी ही, लेकिन, समझ कर रहें, कि, उस ट्रेन का डिपार्चर टाइम हो गया, वह बैठ चुके यात्रियों को लेकर निकल चुकी है।
अब आप को, स्वयं ही, अपने सानिध्य और सत्संग के लिए सतगुरु खोजना है, जो शरीर में है।
यदि कुछ प्यास सही में होगी, तो, जितना आप उसे खोजेंगे, उतना ही वह भी आपको खोजते हुए, आपको अपने पास बुला ही लेगा।
लेकिन, यह सब तभी सम्भव होगा, जब आपकी नजरें नहीं, हृदय उसे खोज रहा होगा। नजरों से खोजने वाले ऊलजलूल गुरु के चक्कर में पड़ जाते हैं, क्योंकि, वे भी ऊलजलूल शिष्य होते हैं।
और जो कोई, शरीर छोड़े सतगुरु के बाद, बिना सतगुरु के ही चलने की सोचते हैं, उनका चलना तो बहुत दूर की बात है, हिल भी नहीं पाते अपनी जगह से। वे मन से लकवाग्रस्त हो जाते हैं।
2+2 सीखने के लिए तो, गुरु लगता है, तो क्या, परमात्मा को आप यूं ही सीख लेंगे। यदि आप इतने प्रतिभाशाली ( प्यासे ) होते, तो, शरीर छोड़े सतगुरु के रहते ही परमात्मा को उपलब्ध हो गए होते।
गलतफहमी में जीवन न गुजारें। जो भी प्यास है, उसी से खोजना शुरू करें, आपके शरीर छोड़े सतगुरु की चेतना भी सहयोगी होगी, आपकी सतगुरु की खोज में।

*मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का नाम 'ईश्वर 'है !*

 *मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का नाम 'ईश्वर 'है !*

सैकड़ों साल पहले जब नीत्से ने कहा था कि ''ईश्वर मर चुका है '' तब फेस बुक ,ट्विटर और वॉट्सअप नहीं थे , वरना साइंस पढ़े -लिखे और साइंस को ही आजीविका बना चुके धर्मांध सपोले उस 'नीत्से' को भी डसे बिना नहीं छोड़ते। आज चाहे आईएसआईएस के खूंखार जेहादी हों ,चाहे पाकिस्तान प्रशिक्षित कश्मीरी आतंकी हों ,चाहे जैश ए मुहम्मद और सिमी के समर्थक हों या जिन्होंने दाभोलकर,पानसरे ,कलबुर्गी और अखलाख को मार डाला ऐंसे स्वयम्भू कट्ररपंथी हिंदुत्ववादी हों ये सबके सब 'नीत्से' की स्थापना के जीवन्त प्रमाण हैं।
मानव सभ्यता के इतिहास में बेहतरीन मनुष्यों द्वारा आहूत उच्चतर मानवीय मूल्यों को धारण करने की कला का नाम 'धर्म' है !मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का नाम 'ईश्वर' है। भारतीय वांग्मय के 'धर्म' शब्द का अर्थ 'मर्यादा को धारण करना' माना गया है। जबकि दुनिया की अन्य भाषाओं में 'मर्यादा को धारण करना'याने 'धर्म' शब्द का कोई वैकल्पिक शब्द ही नहीं है। जिस तरह मजहब ,रिलिजन इत्यादि शब्दों का वास्तविक अर्थ या अनुवाद 'धर्म' नहीं है। उसी तरह 'परमात्मा या ईश्वर जैसे शब्दों का अभिप्राय भी अल्लाह या गॉड कदापि नहीं है। कुरान के अनुसार 'अल्लाह' महान है और मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं तथा अल्लाह ही कयामत के रोज सभी मृतकों के उनकी नेकी-बदी के अनुसार फैसले करता है।इसी तरह बाईबिल का 'गॉड ' भी अलग किस्म की थ्योरी के अनुसार पूरी दुनिया का निर्माण महज ६ दिनों में करता है और अपने 'पुत्र' ईसा को शक्ति प्रदान करता है की धरती के लोगों का उद्धार करे। जबकि गीता ,वेद और उपनिषद का कहना है की 'आत्मा ही परमात्मा है' ''तत स्वयं योग संसिद्धि कालेन आत्मनि विन्दति''या ''पूर्णमदः पूर्णमिदम ,पूर्णात पूर्णम उदचचते। पूर्णस्य पूर्णमादाय ,पूर्णम एवाविष्य्ते '' याने प्रत्येक जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य अपनी पूर्णता को प्राप्त करना है ,अर्थात परमात्मा में समाहित हो जाना है। इस उच्चतर दर्शन को श्रेष्ठतम मानवीय सामाजिक मूल्यों से संगति बिठाकर जो जीवन पद्धति बनाई गयी उसे 'सनातन धर्म' कहते हैं। कालांतर में स्वार्थी राजाओं ,लोभी बनियों और पाखण्डी पुरोहितों ने अपने निजी स्वार्थ के लिए धर्मको शोषण-उत्पीड़न का साधन बना डाला। उन्होंने पवित इस धर्म को जात -पांत ,ऊंच -नीच घृणा ,अहंकार और अनीति का भयानक कॉकटेल बना डाला जिसे सभी लोग अब 'अधर्म' कहते हैं। इस अधर्म में जब अंधराष्ट्रवाद और धर्मान्धता का बोलवाला हो गया तब कार्ल मार्क्स ने उसे अफीम कहा था । धर्म-मजहब की यह अफीम इन दिनों पूरी दुनिया में इफरात से मुफ्त में मिल रही है। श्रीराम तिवारी !
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सतगुरु की चेतना

 जैसे समाधि को उपलब्ध होने के लिए आपका शरीर में होना आवश्यक है, वैसे ही, आपके मार्गदर्शन के लिए, आपके सतगुरु का भी शरीर में होना अत्यावश्यक है।

जीवंत सतगुरु ही सहायक हो सकता है। शरीर छोड़ चुके सतगुरु के प्रति श्रद्धा बनी रहेगी ही, लेकिन, समझ कर रहें, कि, उस ट्रेन का डिपार्चर टाइम हो गया, वह बैठ चुके यात्रियों को लेकर निकल चुकी है।
अब आप को, स्वयं ही, अपने सानिध्य और सत्संग के लिए सतगुरु खोजना है, जो शरीर में है।
यदि कुछ प्यास सही में होगी, तो, जितना आप उसे खोजेंगे, उतना ही वह भी आपको खोजते हुए, आपको अपने पास बुला ही लेगा।
लेकिन, यह सब तभी सम्भव होगा, जब आपकी नजरें नहीं, हृदय उसे खोज रहा होगा। नजरों से खोजने वाले ऊलजलूल गुरु के चक्कर में पड़ जाते हैं, क्योंकि, वे भी ऊलजलूल शिष्य होते हैं।
और जो कोई, शरीर छोड़े सतगुरु के बाद, बिना सतगुरु के ही चलने की सोचते हैं, उनका चलना तो बहुत दूर की बात है, हिल भी नहीं पाते अपनी जगह से। वे मन से लकवाग्रस्त हो जाते हैं।
2+2 सीखने के लिए तो, गुरु लगता है, तो क्या, परमात्मा को आप यूं ही सीख लेंगे। यदि आप इतने प्रतिभाशाली ( प्यासे ) होते, तो, शरीर छोड़े सतगुरु के रहते ही परमात्मा को उपलब्ध हो गए होते।
गलतफहमी में जीवन न गुजारें। जो भी प्यास है, उसी से खोजना शुरू करें, आपके शरीर छोड़े सतगुरु की चेतना भी सहयोगी होगी, आपकी सतगुरु की खोज में। धन्यवाद।

ज़रा होश में आ लूँ तो चलूँ!

 अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूँ तो चलूँ !

अपने ग़म-ख़ाने में इक धूम मचा लूँ तो चलूँ !!
और इक जाम-ए-मय-ए-तल्ख़ चढ़ा लूँ तो चलूँ !
अभी चलता हूँ ज़रा ख़ुद को सँभालूँ तो चलूँ !!
जाने कब पी थी अभी तक है मय-ए-ग़म का ख़ुमार !
धुँदला धुँदला नज़र आता है जहान-ए-बेदार!!
आँधियाँ चलती हैं दुनिया हुई जाती है ग़ुबार !
आँख तो मल लूँ ज़रा होश में आ लूँ तो चलूँ!!
वो मिरा सेहर वो एजाज़ कहाँ है लाना!
मेरी खोई हुई आवाज़ कहाँ है लाना !!
मिरा टूटा हुआ वो साज़ कहाँ है लाना !
इक ज़रा गीत भी इस साज़ पे गा लूँ तो चलूँ !!
मैं थका हारा था इतने में जो आए बादल !
किसी मतवाले ने चुपके से बढ़ा दी बोतल!!
उफ़ वो रंगीन पुर-असरार ख़यालों के महल!
ऐसे दो चार महल और बना लूँ तो चलूँ !!
मुझ से कुछ कहने को आई है मिरे दिल की जलन!
क्या किया मैं ने ज़माने में नहीं जिस का चलन !!
आँसुओ तुम ने तो बेकार भिगोया दामन !
अपने भीगे हुए दामन को सुखा लूँ तो चलूँ !!
मेरी आँखों में अभी तक है मोहब्बत का ग़ुरूर!
मेरे होंटों को अभी तक है सदाक़त का ग़ुरूर !!
मेरे माथे पे अभी तक है शराफ़त का ग़ुरूर !
ऐसे वहमों से ज़रा ख़ुद को निकालूँ तो चलूँ !!
अपने ग़म-ख़ाने में इक धूम मचा लूँ तो चलूँ!
अपनी सोई हुई दुनिया को जगा लूँ तो चलूँ !!

शुक्रवार, 3 नवंबर 2023

वर्ण व्यवश्था - एक वैज्ञानिक सिद्धांत 🤔

 वर्ण - एक वैज्ञानिक सिद्धांत

🤔
कृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि और सब बातें छोड़ भी दो, तो भी क्षत्रिय हो, और क्षत्रिय के लिए युद्ध से भागना श्रेयस्कर नहीं है।
इसे थोड़ा समझ लेना जरूरी है, कई कारणों से।
एक तो विगत पांच सौ वर्षों में, सभी मनुष्य समान हैं, इसकी बात इतनी प्रचारित की गई है कि #कृष्ण की यह बात बहुत अजीब लगेगी, बहुत अजीब लगेगी, कि तुम क्षत्रिय हो। #समाजवाद के जन्म के पहले, सारी पृथ्वी पर, उन सारे लोगों ने, जिन्होंने सोचा है और जीवन को जाना है, बिल्कुल ही दूसरी उनकी धारणा थी। वह धारणा यह थी कि कोई भी व्यक्ति समान नहीं है। एक।
और दूसरी धारणा उस #असमानता से ही बंधी हुई थी और वह यह थी कि व्यक्तियों के टाइप हैं, व्यक्तियों के विभिन्न प्रकार हैं। बहुत मोटे में, इस देश के मनीषियों ने चार प्रकार बांटे हुए थे। वे चार वर्ण थे। वर्ण की धारणा भी बुरी तरह, बुरी तरह निंदित हुई। इसलिए नहीं कि वर्ण की धारणा के पीछे कोई मनोवैज्ञानिक सत्य नहीं है, बल्कि इसलिए कि वर्ण की धारणा मानने वाले लोग अत्यंत नासमझ सिद्ध हुए। #वर्ण की धारणा को प्रतिपादित जो आज लोग कर रहे हैं, अत्यंत प्रतिक्रियावादी और अवैज्ञानिक वर्ग के हैं। संग-साथ से सिद्धांत तक मुसीबत में पड़ जाते हैं!
इसलिए आज बड़ी मुश्किल पड़ती है यह बात कि कृष्ण का यह कहना कि तू क्षत्रिय है। जिस दिन यह बात कही गई थी, उस दिन यह मनोवैज्ञानिक सत्य बहुत स्पष्ट था। अभी जैसे-जैसे पश्चिम में #मनोविज्ञान की समझ बढ़ती है, वैसे-वैसे यह सत्य पुनः स्थापित होता जाता है। कार्ल गुस्ताव #जुंग ने फिर आदमी को चार टाइप में बांटा है। और आज अगर पश्चिम में किसी आदमी की भी मनुष्य के मनस में गहरी से गहरी पैठ है, तो वह जुंग की है। उसने फिर चार हिस्सों में बांट दिया है।
नहीं, आदमी एक ही टाइप के नहीं हैं। पश्चिम में जो मनोविज्ञान का जन्मदाता है #फ्रायड, उसने तो मनोवैज्ञानिक आधार पर समाजवाद की खिलाफत की है। उसने कहा कि मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूं, लेकिन जितना ही मैं मनुष्य के मन को जानता हूं, उतना ही मैं कहता हूं कि मनुष्य असमान है। इनइक्वालिटी इ.ज दि फैक्ट, और इक्वालिटी सिर्फ एक झूठी कहानी है, पुराणकथा है। समानता है नहीं; हो नहीं सकती; क्योंकि व्यक्ति-व्यक्ति बुनियाद में बहुत भिन्न हैं।
इन भिन्नताओं की अगर हम बहुत मोटी रूप-रेखा बांधें, तो इस मुल्क ने कृष्ण के समय तक बहुत मनोवैज्ञानिक सत्य को विकसित कर लिया था और हमने चार वर्ण बांटे थे। चार वर्णों में राज है। और जहां भी कभी मनुष्यों को बांटा गया है, वह चार से कम में नहीं बांटा गया है और चार से ज्यादा में भी नहीं बांटा गया; जिन्होंने भी बांटा है--इस मुल्क में ही नहीं, इस मुल्क के बाहर भी। कुछ कारण दिखाई पड़ता है। कुछ प्राकृतिक तथ्य मालूम होता है पीछे।
#ब्राह्मण से अर्थ है ऐसा व्यक्ति, जिसके प्राणों का सारा समर्पण बौद्धिक है, इंटेलेक्चुअल है। जिसके प्राणों की सारी ऊर्जा बुद्धि में रूपांतरित होती है। जिसके जीवन की सारी खोज ज्ञान की खोज है। उसे प्रेम न मिले, चलेगा; उसे धन न मिले, चलेगा; उसे पद न मिले, चलेगा; लेकिन सत्य क्या है, इसके लिए वह सब समर्पित कर सकता है। पद, धन, सुख, सब खो सकता है। बस, एक लालसा, उसके प्राणों की ऊर्जा एक ही लालसा के इर्द-गिर्द जीती है, उसके भीतर एक ही दीया जल रहा है और वह दीया यह है कि ज्ञान कैसे मिले? इसको ब्राह्मण... ।
आज पश्चिम में जो वैज्ञानिक हैं, वे ब्राह्मण हैं। आइंस्टीन को ब्राह्मण कहना चाहिए, लुई पाश्चर को ब्राह्मण कहना चाहिए। आज पश्चिम में तीन सौ वर्षों में जिन लोगों ने विज्ञान के सत्य की खोज में अपनी आहुति दी है, उनको ब्राह्मण कहना चाहिए।
दूसरा वर्ग है #क्षत्रिय का। उसके लिए ज्ञान नहीं है उसकी आकांक्षा का स्रोत, उसकी आकांक्षा का स्रोत शक्ति है, पावर है। व्यक्ति हैं पृथ्वी पर, जिनका सारा जीवन शक्ति की ही खोज है। जैसे नीत्से, उसने किताब लिखी है, विल टु पावर। किताब लिखी है उसने कि जो असली नमक हैं आदमी के बीच--नीत्से कहता है--वे सभी शक्ति को पाने में आतुर हैं, शक्ति के उपासक हैं, वे सब शक्ति की खोज कर रहे हैं। इसलिए नीत्से ने कहा कि मैंने श्रेष्ठतम संगीत सुने हैं, लेकिन जब सड़क पर चलते हुए सैनिकों के पैरों की आवाज और उनकी चमकती हुई संगीनें रोशनी में मुझे दिखाई पड़ती हैं, इतना सुंदर संगीत मैंने कोई नहीं सुना।
ब्राह्मण को यह आदमी पागल मालूम पड़ेगा, संगीन की चमकती हुई धार में कहीं कोई संगीत होता है? कि सिपाहियों के एक साथ पड़ते हुए कदमों की चाप में कोई संगीत होता है? संगीत तो होता है कंटेंप्लेशन में, चिंतना में, आकाश के नीचे वृक्ष के पास बैठकर तारों के संबंध में सोचने में। संगीत तो होता है संगीत में, काव्य में। संगीत तो होता है खोज में सत्य की। यह पागल है नीत्से!
लेकिन #नीत्से किसी एक वर्ग के लिए ठीक-ठीक बात कह रहा है। किसी के लिए तारों में कोई अर्थ नहीं होता। किसी के लिए एक ही अर्थ होता है, एक ही संकल्प होता है कि शक्ति और ऊर्जा के ऊपरी शिखर पर वह कैसे उठ जाए! उसे हमने कहा था क्षत्रिय।
कृष्ण पहचानते हैं अर्जुन को भलीभांति। वह टाइप क्षत्रिय का है। अभी बातें वह ब्राह्मण जैसी कर रहा है। इसमें कनफ्यूज्ड हो जाएगा। इसमें उपद्रव में पड़ जाएगा। उसके व्यक्तित्व का पूरा का पूरा बनाव, स्ट्रक्चर, उसके मनस की एनाटामी, उसके मनस का सारा ढांचा क्षत्रिय का है। तलवार ही उसकी आत्मा है; वही उसकी रौनक है, वही उसका संगीत है। अगर परमात्मा की झलक उसे कहीं से भी मिलनी है, तो वह तलवार की चमक से मिलनी है। उसके लिए कोई और रास्ता नहीं है।
तो उससे वे कह रहे हैं, तू क्षत्रिय है; अगर और सब बातें भी छोड़, तो तुझसे कहता हूं कि तू क्षत्रिय है। और तुझसे मैं कहता हूं कि क्षत्रिय से यहां-वहां होकर तू सिर्फ दीन-हीन हो जाएगा, यहां-वहां होकर तू सिर्फ ग्लानि को उपलब्ध होगा, यहां-वहां होकर तू सिर्फ अपने प्रति अपराधी हो जाएगा। व्यवश्था
और ध्यान रहे, अपने प्रति अपराध जगत में बड़े से बड़ा अपराध है। क्योंकि जो अपने प्रति अपराधी हो जाता है, वह फिर सबके प्रति अपराधी हो जाता है। सिर्फ वे ही लोग दूसरे के साथ अपराध नहीं करते, जो अपने साथ अपराध नहीं करते। और कृष्ण की भाषा में समझें, तो अपने साथ सबसे बड़ा अपराध यही है कि जो उस व्यक्ति का मौलिक स्वर है जीवन का, वह उससे च्युत हो जाए, उससे हट जाए।
तीसरा एक वर्ग और है, जिसको तलवार में सिर्फ भय के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ेगा; संगीत तो कभी नहीं, सिर्फ भय दिखाई पड़ेगा। जिसे ज्ञान की खोज नासमझी मालूम पड़ेगी कि सिरफिरों का काम है। तो तीसरा वर्ग है, जिसके लिए धन महिमा है। जिसके लिए धन ही सब कुछ है। धन के आस-पास ही जिसके जीवन की सारी व्यवस्था निर्मित होती है। अगर वैसे आदमी को मोक्ष की भी बात करनी हो, तो उसके लिए मोक्ष भी धन के रूप में ही दिखाई पड़ सकता है। अगर वह भगवान का भी चिंतन करेगा, तो भगवान को लक्ष्मीनारायण बनाए बिना नहीं रह सकता। इसमें उसका कोई कसूर नहीं है। सिर्फ फैक्ट, सिर्फ तथ्य की बात कर रहा हूं मैं। ऐसा है। और ऐसा आदमी अगर छिपाए अपने को, तो व्यर्थ ही कठिनाई में पड़ेगा। अगर वह दबाए अपने को, तो कठिनाई में पड़ेगा। उसके लिए जीवन की जो परम अनुभूति का द्वार है, वह शायद धन की खोज से ही खुलने वाला है। इसलिए और कहीं से खुलने वाला नहीं है।
अब एक राकफेलर या एक मार्गन या एक टाटा, ये कोई छोटे लोग नहीं हैं। कोई कारण नहीं है इनके छोटे होने का। ये अपने वर्ग में वैसे ही श्रेष्ठ हैं, जैसे कोई याज्ञवल्क्य, जैसे कोई पतंजलि, जैसे कोई अर्जुन अपने वर्गों में होंगे। इसमें कोई #तुलना नहीं है, कोई कंपेरिजन नहीं है।
वर्ण की जो धारणा है, वह तुलनात्मक नहीं है, वह सिर्फ तथ्यात्मक है। जिस दिन वर्ण की धारणा तुलनात्मक हुई कि कौन ऊपर, कौन नीचे, उस दिन वर्ण की वैज्ञानिकता चली गई और वर्ण एक सामाजिक अनाचार बन गया। जिस दिन वर्ण में तुलना पैदा हुई--कि क्षत्रिय ऊपर, कि ब्राह्मण ऊपर, कि #वैश्य ऊपर, कि #शूद्र ऊपर, कि कौन नीचे, कि कौन पीछे--जिस दिन वर्ण का शोषण किया गया, वर्ण के वैज्ञानिक सिद्धांत को जिस दिन सामाजिक शोषण की आधारशिला में रखा गया, उस दिन से वर्ण की धारणा अनाचार हो गई।
सभी सिद्धांतों का अनाचार हो सकता है, किसी भी सिद्धांत का शोषण हो सकता है। वर्ण की धारणा का भी शोषण हुआ। और अब इस मुल्क में जो वर्ण की धारणा के समर्थक हैं, वे उस वर्ण की वैज्ञानिकता के समर्थक नहीं हैं। उस वर्ण के आधार पर जो शोषण खड़ा है, उसके समर्थक हैं। उनकी वजह से वे तो डूबेंगे ही, वर्ण का एक बहुत वैज्ञानिक सिद्धांत भी डूब सकता है।
एक चौथा वर्ग भी है, जिसे धन से भी प्रयोजन नहीं है, शक्ति से भी अर्थ नहीं है, ज्ञान की भी कोई बात नहीं है, लेकिन जिसका जीवन कहीं बहुत गहरे में सेवा और सर्विस के आस-पास घूमता है। जो अगर अपने को कहीं समर्पित कर पाए और किसी की सेवा कर पाए, तो फुलफिलमेंट को, आप्तता को उपलब्ध हो सकता है।
ये जो चार वर्ग हैं, इनमें कोई नीचे-ऊपर नहीं है। ऐसे चार मोटे विभाजन हैं। और कृष्ण की पूरी साइकोलाजी, कृष्ण का पूरा का पूरा मनोविज्ञान इस बात पर खड़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति को परमात्मा तक पहुंचने का जो मार्ग है, वह उसके स्वधर्म से गुजरता है। स्वधर्म का मतलब #हिंदू नहीं, स्वधर्म का मतलब मुसलमान नहीं, स्वधर्म का मतलब जैन नहीं; स्वधर्म का मतलब, उस व्यक्ति का जो वर्ण है। और वर्ण का जन्म से कोई संबंध नहीं है।

वृत्ति जन्य अनुभव

 जीवन में जो भी है उसे मित्रता से और अनुग्रह से स्वीकार करो।शत्रुता का भाव अधार्मिक है।स्वीकार से परिवर्तन का मार्ग सहज ही खुलता है।शक्ति तो सदा ही तटस्थ है।वह न बुरी है न अच्छी। शुभ या अशुभ सीधे नहीं वरन् उसके उपयोग से ही जुड़े हैं।"

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गीता के दो श्लोक महत्वपूर्ण हैं।एक तो ईश्वरीय शक्ति सबको घुमाती रहती है।दूसरा जीव अहंमूर्छित होकर,'मैं कर्ता हूं' ऐसा मानकर कर्म करता है।
पुनरावृत्ति हर जीव की कथा का आधार है।पहले के जो संस्कार हैं,जो संचित वृत्तियां हैं वे बलपूर्वक प्रकट होती हैं।वे अपना कार्य करती हैं।जीव को उनके अनुसार चलना ही पडता है।जब जैसे सुखद,असुखद अनुभव होते हैं वे बरबस होंगे ही।इसे साक्षी भाव से जानते रहा जा सकता है मित्रतापूर्वक, स्वीकार भाव से।क्रोधलोभ, भयचिंता, शोकमोहविषाद आदि वृत्तियां तटस्थ हैं,न वे हमारी दोस्त हैं,न दुश्मन।वे जैसी हैं वैसी हैं।हम ही उनका उपयोग करके संसारी बन जाते हैं या जब अपने को साधक मानते हैं तो उनका विरोध करते हैं।
दोनों ही बाधक हैं।जब भी जो भी वृत्ति उठे न कर्ताभाव से उन्हें करना है,न भोक्ताभाव से उनका विरोध करना है।केवल उनका अनुभव करना है मैत्रीभाव से,स्वीकारभाव से।
जैसे अवसाद(डिप्रेशन)को बडा बुरा माना है।काफी मनोवैज्ञानिक तथा चिकित्सकीय चर्चा हुई है उस पर।यह तमोगुणी वृत्ति है।प्रकृति है जैसी है वैसी।इसे हमसे कोई प्रयोजन नहीं।
हम ही कर्ताभाव से अहंमूर्छित होकर इसे करने लगते हैं या इसका प्रतिरोध करते हैं।इसे रोक देना चाहते हैं।न रोक सकें तो चिंताएं बढ जाती हैं।
सच बात यह है कि इसे प्रकृति समझकर इसके प्रति मैत्री का भाव रखना चाहिए।तब यह स्वत:स्वीकार हो जाता है।शत्रुता का भाव रखने से स्वीकार नहीं होता,विरोध रहता है।
एक बात है कि शत्रुता भी एक संचित या दमित वृत्ति है।अच्छाई के नाम पर इसे पहले बहुत दबाया गया है तो अब यह बलपूर्वक प्रकट होती है।आदमी या तो स्वयं को उसका कर्ता मानकर इससे उससे शत्रुता करने में लग जाता है या फिर से उसे दबाने में लग जाता है।भीतर नाराजगी,चेहरे पर मुस्कान-ऐसा अक्सर देखने को मिलता है।
मेरे मित्र में अक्सर क्रोध और नाराजगी के भाव प्रकट होते मगर वह उनका साक्षी बना रहता।उनसे बेहोश न होता।
अगले ही क्षण हंस भी देता।
आम आदमी के लिये यह मुश्किल है।या तो वह क्रोध ही करता रहेगा या फिर समझ आयी तब भी उबरने में,संतुलित होने में समय लगता है।
ये जो मनोवैज्ञानिक समस्याएं हैं इनकी समझ और समाधान के लिये अनुभवी का सत्संग चाहिए।गीता यह अनुभव देते हुए कहती है-
तुम इन प्रकृति के गुणों का बेहोश कर्ता मत बनो,इनके द्रष्टा बनो।जो द्रष्टा बनता है वह स्वत:आत्मस्वरुप को प्राप्त हो जाता है।यदि वह अहंभाव से,कर्ताभाव से मूर्छित है तो उसे बलपूर्वक घुमाया जाता रहेगा।भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि मायया।
आदमी शिकायत ही करता रहेगा मेरे साथ ऐसा क्यों होता है?
इस तरह कोरे वीआईपी बनने से काम नहीं चलता,समझना पडता है।समझे बिना कोई चारा नहीं।
जो भी सात्विक, राजसी,तामसी वृत्तियां जमा हैं चित्त में वे समय समय पर उठती ही हैं प्रक्षेपित होकर।
बाहर कुछ अनुकूल घटा,भीतर शांति घटी,बाहर प्रतिकूल घटा,भीतर अशांति घटी।इसे न समझकर जो पूरी तरह से बहिर्मुखी है वह जीवन भर बाहरी परिस्थितियां ठीक करने में ही लगा रहता है।जो अंतर्मुखी है वह भीतर संचित वृत्तियों के पास आ जाता है।उन्हें देखता है मैत्री भाव से,स्वीकार भाव से चाहे वह क्रोधक्षोभ हो,चाहे घृणाप्रेम,शोकमोहविषाद जो भी।वह उन्हें अनुभव करता है।करना ही पडेगा वर्ना जायेगा कहां,वह हो ही रहा है।प्रकृति के गुण अपना काम कर रहे हैं।अब मैत्री भाव से स्वयं उपस्थित रहकर उनका अनुभव किया जाय नहीं तो शत्रु की तरह देखने से तो पलायन होगा,बचाव होगा।बचा नहीं जा सकता है।व्यक्ति से कोई बच सके,वृत्ति से बचना संभव नहीं।वहां तो यही उपाय है कि उपस्थित रहें तथा हर वृत्ति को अनुभव करें।भागना असंभव है।
या फिर साहस चाहिए।साहस पूर्वक या मैत्रीपूर्वक हर वृत्ति जन्य अनुभव के साथ रहा जा सकता है अर्थात् अहंवृत्ति(स्वयं)भी रहे तथा अन्य आगंतुक वृत्ति भी रहे।"जीयो और जीने दो" के भाव से।
इसमें अहम्मन्यता(मैं कुछ हूँ, वीआईपी पन)बाधक है।अनुभव सुखद है तो स्वीकार है,असुखद है तो अस्वीकार है।पर अपना आग्रह काम नहीं देता।
बाहर भीतर प्रकृति पूर्ण है।बाहर घटना,परिस्थिति है भीतर अंत:करण है।दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।कभी भीतर अनुकूल तो बाहर अनुकूल, भीतर प्रतिकूल तो बाहर प्रतिकूल; कभी बाहर अनुकूल तो भीतर अनुकूल, बाहर प्रतिकूल तो भीतर प्रतिकूल।प्रकृति के राज्य में तो यह सब स्वाभाविक है।
इसे समझना चाहिए।अहंबुद्धि का कोई अर्थ नहीं।वह इस व्यवस्था को समझने में बाधक है।उसके अपने आग्रह होते हैं।आग्रह काम देते नहीं और मनुष्य की व्यथा कथा जारी रहती है।
उसे सब अनुकूल चाहिये।वह देखता नहीं कि यह संभव नहीं है।यहां अनुकूल प्रतिकूल दोनों चलेंगे।
समझ का फर्क है।अनुकूल-प्रतिकूल अहंबुद्धि के,अहम्मन्यता के शब्द हैं।
समझ के लिये न कुछ अनुकूल है,न प्रतिकूल।वह अहंदृष्टि ही नहीं है शत्रुमित्र का निर्धारण करनेवाली।
तथ्य को जहाँ प्रकृति की दृष्टि से समझा जा सकता है वहां पुरुष अर्थात् आत्मा की दृष्टि से भी समझा जा सकता है।
मैं हूं यह सीधा सरल आत्मबोध है।
यह अहंवृत्ति से जुडा है तो हर बात को प्रकृति की दृष्टि से समझना पडेगा।यह स्वस्थ है तो फिर इसमें अनुकूल, प्रतिकूल का भाव अनुपस्थित होगा।गीता का समता का निरंतर प्रतिपादन इसीकी वजह से है।स्वयं को जानें, स्वानुभव में स्थित रहें(विचारों में,कल्पनाओं में नहीं)।
यह संभव नही है तो सभी तरह की वृत्तियों के अनुभवों के साथ जीना ही पडेगा।भागना व्यर्थ सिद्ध होगा।मैत्रीभाव है तो ठीक है वर्ना साहस की जरूरत पडेगी जो अहंबुद्धि के लिये मुश्किल काम है क्योंकि वह अपने स्वार्थ की प्रबल पक्षपाती होती है।
वह अपने सच्चे स्वार्थ से अनभिज्ञ होती है।उसे पता नहीं कि भीतर जो भी वृत्ति जन्य अनुभव हो टिककर उसका अनुभव किया जाय तो बाहरी परिस्थितियां स्वत: प्रभावित होती हैं।
यदि बाहरी परिस्थितियों को ही बदलने में लगा रहा जाय तथा भीतर संचित(या दमित)वृत्ति जन्य अनुभव से भागते रहा जाय तो सारा जीवन भगोड़े की तरह बिताना पडता है।
इसलिए या तो अपने हर अनुभव के साथ रहें मित्रता पूर्वक प्रस्तुत रहकर उसका स्पष्ट अनुभव करते हुए या बाहरी व्यक्ति, घटना ,परिस्थिति से भागते रहें।
आंतरिक अवस्था जिम्मेदार है।भीतर साहस है तो बाहर पलायन नहीं है।तब बाहरी परिस्थिति को बदला जा सकता है।भीतर भय है,भय से पलायन है तो बाहरी परिस्थितियों को बदलने में कोई मदद नहीं मिलती।क्या जरूरी है यह समझदार आदमी खुद समझ लेगा।बेशक भीतर भय चिंता की वृत्ति है तो वह उसका स्वयं प्रस्तुत रहकर अनुभव कर सकेगा।भागेगा नहीं।
तब वृत्ति की क्षणभंगुरता का भी पता चल जायेगा।जो क्षणभंगुर वृत्ति से,उसके क्षणभंगुर अनुभव से भागता रहता है,बाह्य परिस्थिति को बदलने में लगा रहता है वह फिर जीवनभर भागता ही रहता है जैसा कि देखा जा सकता है।
भय भी तटस्थ शक्ति की वृत्ति मात्र है।इसे ठीक से समझे तो इसके तात्कालिक अनुभव के साथ रहा जा सकता है,बिना इससे डरे।शोक के,अवसाद के अनुभव के साथ रहा जा सकता है,बिना शोक का शोक किये या अवसाद का अवसाद किये।आदमी अवसाद शब्द से जितना अवसादग्रस्त होता है उतना अवसाद के प्रत्यक्ष अनुभव से भी नहीं।अनुभव तात्कालिक है,अस्थायी है।शब्द की प्रतिक्रिया उसे स्थायी बना देती है।इसे न समझने से जीवन मानसिक संघर्ष के स्तर पर जीया जाता रहता है।उसे वास्तविक भी मान लिया जाता है।जबकि ऐसी वास्तविकता भ्रामक होती है।
'Reality is illusion.'
वस्तुतः न प्रकृति का कुछ भी बुरा है,न अच्छा।यह सारा आयोजन है ही ऐसा।हमें लगता है पहले हमसे पूछ लेना था इसलिए ठीक कहा है-शुभ या अशुभ उससे सीधे नहीं-वरन् उसके उपयोग से ही जुडे हैं।'
अर्थात् उपयोकर्ता से।