"जीवन में जो भी है उसे मित्रता से और अनुग्रह से स्वीकार करो।शत्रुता का भाव अधार्मिक है।स्वीकार से परिवर्तन का मार्ग सहज ही खुलता है।शक्ति तो सदा ही तटस्थ है।वह न बुरी है न अच्छी। शुभ या अशुभ सीधे नहीं वरन् उसके उपयोग से ही जुड़े हैं।"
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गीता के दो श्लोक महत्वपूर्ण हैं।एक तो ईश्वरीय शक्ति सबको घुमाती रहती है।दूसरा जीव अहंमूर्छित होकर,'मैं कर्ता हूं' ऐसा मानकर कर्म करता है।
पुनरावृत्ति हर जीव की कथा का आधार है।पहले के जो संस्कार हैं,जो संचित वृत्तियां हैं वे बलपूर्वक प्रकट होती हैं।वे अपना कार्य करती हैं।जीव को उनके अनुसार चलना ही पडता है।जब जैसे सुखद,असुखद अनुभव होते हैं वे बरबस होंगे ही।इसे साक्षी भाव से जानते रहा जा सकता है मित्रतापूर्वक, स्वीकार भाव से।क्रोधलोभ, भयचिंता, शोकमोहविषाद आदि वृत्तियां तटस्थ हैं,न वे हमारी दोस्त हैं,न दुश्मन।वे जैसी हैं वैसी हैं।हम ही उनका उपयोग करके संसारी बन जाते हैं या जब अपने को साधक मानते हैं तो उनका विरोध करते हैं।
दोनों ही बाधक हैं।जब भी जो भी वृत्ति उठे न कर्ताभाव से उन्हें करना है,न भोक्ताभाव से उनका विरोध करना है।केवल उनका अनुभव करना है मैत्रीभाव से,स्वीकारभाव से।
जैसे अवसाद(डिप्रेशन)को बडा बुरा माना है।काफी मनोवैज्ञानिक तथा चिकित्सकीय चर्चा हुई है उस पर।यह तमोगुणी वृत्ति है।प्रकृति है जैसी है वैसी।इसे हमसे कोई प्रयोजन नहीं।
हम ही कर्ताभाव से अहंमूर्छित होकर इसे करने लगते हैं या इसका प्रतिरोध करते हैं।इसे रोक देना चाहते हैं।न रोक सकें तो चिंताएं बढ जाती हैं।
सच बात यह है कि इसे प्रकृति समझकर इसके प्रति मैत्री का भाव रखना चाहिए।तब यह स्वत:स्वीकार हो जाता है।शत्रुता का भाव रखने से स्वीकार नहीं होता,विरोध रहता है।
एक बात है कि शत्रुता भी एक संचित या दमित वृत्ति है।अच्छाई के नाम पर इसे पहले बहुत दबाया गया है तो अब यह बलपूर्वक प्रकट होती है।आदमी या तो स्वयं को उसका कर्ता मानकर इससे उससे शत्रुता करने में लग जाता है या फिर से उसे दबाने में लग जाता है।भीतर नाराजगी,चेहरे पर मुस्कान-ऐसा अक्सर देखने को मिलता है।
मेरे मित्र में अक्सर क्रोध और नाराजगी के भाव प्रकट होते मगर वह उनका साक्षी बना रहता।उनसे बेहोश न होता।
अगले ही क्षण हंस भी देता।
आम आदमी के लिये यह मुश्किल है।या तो वह क्रोध ही करता रहेगा या फिर समझ आयी तब भी उबरने में,संतुलित होने में समय लगता है।
ये जो मनोवैज्ञानिक समस्याएं हैं इनकी समझ और समाधान के लिये अनुभवी का सत्संग चाहिए।गीता यह अनुभव देते हुए कहती है-
तुम इन प्रकृति के गुणों का बेहोश कर्ता मत बनो,इनके द्रष्टा बनो।जो द्रष्टा बनता है वह स्वत:आत्मस्वरुप को प्राप्त हो जाता है।यदि वह अहंभाव से,कर्ताभाव से मूर्छित है तो उसे बलपूर्वक घुमाया जाता रहेगा।भ्रामयन्सर्वभूतानि यंत्रारुढानि मायया।
आदमी शिकायत ही करता रहेगा मेरे साथ ऐसा क्यों होता है?
इस तरह कोरे वीआईपी बनने से काम नहीं चलता,समझना पडता है।समझे बिना कोई चारा नहीं।
जो भी सात्विक, राजसी,तामसी वृत्तियां जमा हैं चित्त में वे समय समय पर उठती ही हैं प्रक्षेपित होकर।
बाहर कुछ अनुकूल घटा,भीतर शांति घटी,बाहर प्रतिकूल घटा,भीतर अशांति घटी।इसे न समझकर जो पूरी तरह से बहिर्मुखी है वह जीवन भर बाहरी परिस्थितियां ठीक करने में ही लगा रहता है।जो अंतर्मुखी है वह भीतर संचित वृत्तियों के पास आ जाता है।उन्हें देखता है मैत्री भाव से,स्वीकार भाव से चाहे वह क्रोधक्षोभ हो,चाहे घृणाप्रेम,शोकमोहविषाद जो भी।वह उन्हें अनुभव करता है।करना ही पडेगा वर्ना जायेगा कहां,वह हो ही रहा है।प्रकृति के गुण अपना काम कर रहे हैं।अब मैत्री भाव से स्वयं उपस्थित रहकर उनका अनुभव किया जाय नहीं तो शत्रु की तरह देखने से तो पलायन होगा,बचाव होगा।बचा नहीं जा सकता है।व्यक्ति से कोई बच सके,वृत्ति से बचना संभव नहीं।वहां तो यही उपाय है कि उपस्थित रहें तथा हर वृत्ति को अनुभव करें।भागना असंभव है।
या फिर साहस चाहिए।साहस पूर्वक या मैत्रीपूर्वक हर वृत्ति जन्य अनुभव के साथ रहा जा सकता है अर्थात् अहंवृत्ति(स्वयं)भी रहे तथा अन्य आगंतुक वृत्ति भी रहे।"जीयो और जीने दो" के भाव से।
इसमें अहम्मन्यता(मैं कुछ हूँ, वीआईपी पन)बाधक है।अनुभव सुखद है तो स्वीकार है,असुखद है तो अस्वीकार है।पर अपना आग्रह काम नहीं देता।
बाहर भीतर प्रकृति पूर्ण है।बाहर घटना,परिस्थिति है भीतर अंत:करण है।दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।कभी भीतर अनुकूल तो बाहर अनुकूल, भीतर प्रतिकूल तो बाहर प्रतिकूल; कभी बाहर अनुकूल तो भीतर अनुकूल, बाहर प्रतिकूल तो भीतर प्रतिकूल।प्रकृति के राज्य में तो यह सब स्वाभाविक है।
इसे समझना चाहिए।अहंबुद्धि का कोई अर्थ नहीं।वह इस व्यवस्था को समझने में बाधक है।उसके अपने आग्रह होते हैं।आग्रह काम देते नहीं और मनुष्य की व्यथा कथा जारी रहती है।
उसे सब अनुकूल चाहिये।वह देखता नहीं कि यह संभव नहीं है।यहां अनुकूल प्रतिकूल दोनों चलेंगे।
समझ का फर्क है।अनुकूल-प्रतिकूल अहंबुद्धि के,अहम्मन्यता के शब्द हैं।
समझ के लिये न कुछ अनुकूल है,न प्रतिकूल।वह अहंदृष्टि ही नहीं है शत्रुमित्र का निर्धारण करनेवाली।
तथ्य को जहाँ प्रकृति की दृष्टि से समझा जा सकता है वहां पुरुष अर्थात् आत्मा की दृष्टि से भी समझा जा सकता है।
मैं हूं यह सीधा सरल आत्मबोध है।
यह अहंवृत्ति से जुडा है तो हर बात को प्रकृति की दृष्टि से समझना पडेगा।यह स्वस्थ है तो फिर इसमें अनुकूल, प्रतिकूल का भाव अनुपस्थित होगा।गीता का समता का निरंतर प्रतिपादन इसीकी वजह से है।स्वयं को जानें, स्वानुभव में स्थित रहें(विचारों में,कल्पनाओं में नहीं)।
यह संभव नही है तो सभी तरह की वृत्तियों के अनुभवों के साथ जीना ही पडेगा।भागना व्यर्थ सिद्ध होगा।मैत्रीभाव है तो ठीक है वर्ना साहस की जरूरत पडेगी जो अहंबुद्धि के लिये मुश्किल काम है क्योंकि वह अपने स्वार्थ की प्रबल पक्षपाती होती है।
वह अपने सच्चे स्वार्थ से अनभिज्ञ होती है।उसे पता नहीं कि भीतर जो भी वृत्ति जन्य अनुभव हो टिककर उसका अनुभव किया जाय तो बाहरी परिस्थितियां स्वत: प्रभावित होती हैं।
यदि बाहरी परिस्थितियों को ही बदलने में लगा रहा जाय तथा भीतर संचित(या दमित)वृत्ति जन्य अनुभव से भागते रहा जाय तो सारा जीवन भगोड़े की तरह बिताना पडता है।
इसलिए या तो अपने हर अनुभव के साथ रहें मित्रता पूर्वक प्रस्तुत रहकर उसका स्पष्ट अनुभव करते हुए या बाहरी व्यक्ति, घटना ,परिस्थिति से भागते रहें।
आंतरिक अवस्था जिम्मेदार है।भीतर साहस है तो बाहर पलायन नहीं है।तब बाहरी परिस्थिति को बदला जा सकता है।भीतर भय है,भय से पलायन है तो बाहरी परिस्थितियों को बदलने में कोई मदद नहीं मिलती।क्या जरूरी है यह समझदार आदमी खुद समझ लेगा।बेशक भीतर भय चिंता की वृत्ति है तो वह उसका स्वयं प्रस्तुत रहकर अनुभव कर सकेगा।भागेगा नहीं।
तब वृत्ति की क्षणभंगुरता का भी पता चल जायेगा।जो क्षणभंगुर वृत्ति से,उसके क्षणभंगुर अनुभव से भागता रहता है,बाह्य परिस्थिति को बदलने में लगा रहता है वह फिर जीवनभर भागता ही रहता है जैसा कि देखा जा सकता है।
भय भी तटस्थ शक्ति की वृत्ति मात्र है।इसे ठीक से समझे तो इसके तात्कालिक अनुभव के साथ रहा जा सकता है,बिना इससे डरे।शोक के,अवसाद के अनुभव के साथ रहा जा सकता है,बिना शोक का शोक किये या अवसाद का अवसाद किये।आदमी अवसाद शब्द से जितना अवसादग्रस्त होता है उतना अवसाद के प्रत्यक्ष अनुभव से भी नहीं।अनुभव तात्कालिक है,अस्थायी है।शब्द की प्रतिक्रिया उसे स्थायी बना देती है।इसे न समझने से जीवन मानसिक संघर्ष के स्तर पर जीया जाता रहता है।उसे वास्तविक भी मान लिया जाता है।जबकि ऐसी वास्तविकता भ्रामक होती है।
'Reality is illusion.'
वस्तुतः न प्रकृति का कुछ भी बुरा है,न अच्छा।यह सारा आयोजन है ही ऐसा।हमें लगता है पहले हमसे पूछ लेना था इसलिए ठीक कहा है-शुभ या अशुभ उससे सीधे नहीं-वरन् उसके उपयोग से ही जुडे हैं।'
अर्थात् उपयोकर्ता से।
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