गुरुवार, 6 जून 2013

जो सामूहिक निर्णय से घृणा करे ओर व्यक्तिवादी हो वो हीरो नहीं ज़ीरो है..!

     भारतीय मुद्रा का निरंतर अवमूल्यन हो रहा है,आयात-निर्यात का असंतुलन भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट किये जा रहा है ,महंगाई ,बेकारी और  भृष्टाचार अपने चरम पर हैं और ये सभी विषय अर्थशाश्त्र से जुड़े हैं और हमारे  देश के प्रधानमंत्री महान  अर्थशाष्त्री हैं   हम चीन,जापान,अमेरिका की कोई भी अच्छाई  तो ग्रहण भले न कर पाए हों किन्तु इन देशों के कूड़े-कबाड़े को गले से लटकाए हुए गा रहे  हैं ...हो रहा भारत निर्माण .....!    इस अर्थशाश्त्र को कोई अमेरिका का बताता है कोई मनमोहनसिंह का बताता है और कोई कहता  कि  स्व नरसिंम्हाराव का है ,अटलजी ,शौरी जी और यशवंत सिन्हा जी भी इसे  मुफीद मानते  थे और  इसी से उनका' शायनिंग इंडिया ' और' फील गुड '   फ़ैल हो चूका है . अब नरेन्द्र मोदी बताएं देश को  कि  वे कौनसा   अर्थशास्त्र पढ़े हैं  और कौनसा लागू  करेंगे .रही बात गुजरात की तो वो तो सारे देश को मालूम है कि  कैसे कितना और कब उसका विकाश हुआ ?  कौनसा अर्थशाश्त्र  वहां विगत सौ साल से लागु है .लेकिन जिस तरह शिमला -अबूझमाड़ नहीं हो सकता,नेनीताल  जैसलमेर नहीं हो सकता या डल  झील हिन्द-महासागर नहीं हो सकती ,जापान भारत नहीं हो सकता ,उसी तरह गुजरात -बिहार नहीं हो सकता और मोदी नितीश नहीं हो सकते ...!लालू भी नहीं हो सकते ...! अटलजी होने का तो सवाल ही नहीं  उठता  ...!  मनमोहन सिंह जरुर हो सकते हैं क्योंकि देश-विदेश  का कारपोरेट  जगत जिस तरह पहले मनमोहनसिंह का मुरीद था उसी तरह इन दिनों देश - विदेश का पूंजीपति वर्ग और कार्पोरेट जगत नरेन्द्र मोदी का मुरीद है और जब ये सरमायादारी उनके साथ है तो आम जनता का नहीं इन पूंजीपतियों के अर्थशाश्त्र पर  ही चलना होगा मोदी को . यदि वे प्रधानमंत्री पद पाकर बौराए नहीं तो कम से कम पूंजीपतियों का भला तो कर ही सकेंगे . आम आदमी को  कोई उम्मीद नहीं रखना चाहिए नरेन्द्र मोदी और उनके अर्थशात्र से .  ये बात देश की जनता के सामने   क्यों नहीं राखी जा रही ?                              सूचना एवं संचार माध्यमों की महती कृपा से उपलब्ध जानकारियों और निरंतर गतिशील फिर भी   एक  'ठहरे ' हुए  राष्ट्र की  सामाजिक -राजनैतिक -सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन्तता  में आ रहे गतिरोध  के परिणाम स्वरूप   मुझे भी अपने देश  के ' अन्ध्-राष्ट्रवादियों ' की तरह कभी-कभी  लगता है  कि   पडोसी देशों-चीन -पाकिस्तान इत्यादि  से मेरे मुल्क को  खतरा है, कभी कभी वामपंथियों  की वैज्ञानिक समझ से इत्तफाक़  रखते हुए  लगता है  कि  एलपीजी [ Libralization Privatization - Globelization ] और   प्रणेता पूँजीवाद    से  मेरे इस 'महानतम -प्रजातांत्रिक -राष्ट्र' को  खतरा है ,कभी विपक्षी  नेताओं  की  भांति  लगता है कि   जो  सत्तासीन  लोग  हैं  उनसे ही   इस मुल्क को खतरा है, कभी सत्तापक्ष  की  सोच  सही   लगती  है  कि   'विपक्ष   'से  इस  मुल्क  को  खतरा  है, कभी  तीसरे  मोर्चे  की  तरह  लगता  है  की  कांग्रेस   और  भाजपा  दोनों  ही  बड़ी  पार्टियों  से ही  देश को खतरा है,कभी-कभी  अराजकतावादियों और  नक्सलवादियों  की  इस  अवधारणा  पर  यकीन  करने को दिल करता है कि  ये जो वर्तमान 'व्यवस्था' है अर्थात '  तथाकथित " बनाना-गणतंत्र" इस देश में  मौजूद है उसी से इस 'मुल्क ' को सबसे बड़ा खतरा है ,
                                         कभी-कभी    अमेरिका  के  इस  निष्कर्ष  को  मान्यता  देने को जी चाहता है  कि  इस देश के सनातन  'भुखमरे' अब ज्यादा खाने-पीने लगे हैं  सो  इस खाऊ  'आवाम' से  से देश को खतरा है, कभी-कभी बाबाओं- स्वामियों  और  साम्प्रदायिक  उन्मादियों  पर  यकीन  करने  को  जी  चाहता है कि-भगवान् इस मुल्क से नाराज है सो भगवान्  से इस मुल्क को खतरा है     क्योंकि   'भगवान्' के इस  मुल्क  में  जो   प्रतिनिधि  है उनके   'विशेषाधिकार 'पर हमले हो रहे है सो इश्वर-अल्लाह-ईसु[कहने को तो   सब  एक  हैं ] इत्यादि  सभी   इस  देश की आवाम से नाराज हैं और इसीलिये इस देश को 'इन धर्म सम्प्रदायों   ; और  उनके अवतारों से ख़तरा है . कभी-कभी   मन में सवाल उठता है की जो   - माध्यम या सूचना तंत्र हमें ये ज्ञान  दनादन   दे रहे हैं हैं कहीं  उन्ही से तो  इस मुल्क को खतरा  नहीं है ?
                                             एक बहुत  छोटी  सी घटना  इन दिनों देश  के विमर्श के केंद्र में है -क्रिकेट की आईपीएल श्रखला में एक-दो  खिलाडियों  की बचकानी हरकत  पर सारे देश  में मानों ख़बरों की सुनामी आ गई है .. इन खिलाडियों ने कोई   सट्टे -वट्टे  वालों से   अवैध रूप से कुछ रूपये लेकर देश को और क्रिकेट को तथाकथित रूप से  बर्बाद कर  दिया है . कम -से-  कम दिल्ली  पुलिस  कमिश्नर  का तो यही ख्याल है  ,इन  कमिश्नर महोदय ने अपने कार्यकाल में दिल्ली में 'गेंग रेप' के कीर्तिमान बनवा डाले हैं ,  इन को जब जनता ने  ललकारा और  नारा दिया कि " त्यागपत्र दो या   महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करो" तो इन महानुभाव ने बड़ी निर्लज्जता से  जनता की पुकार को हवा में  उड़ा  दिया, पुलिस  के  आला  अफसर  हैं  तो  जनता  की  नब्ज  और  देश के भृष्ट  राजनीतिज्ञों  का  कब्ज   बखूबी  जानते  हैं  इसीलिये  ज्यों  ही  आई  पीएल  के   सट्टे  में  खिलाडियों की लिप्तता  का 'सोसा' हाथ लगा तो देश के सामने उद्धारक के रूप में पेश हो कर  जनता  के   आक्रो श को पुलिस  और  सरकार  से  हटाकर   क्रिकेटर्स  और आईपीएल के खिलाफ कर दिया . मीडिया ने भी उनके  वयान  के आधार पर सारे ज्वलंत -प्रश्नों पर चलने वाले परम्परागत विमर्शों से पल्ला झाड़ा और   अधिकांस खबरची  'हेंचू-हेंचू ' करने लगे . कतिपय चेनलों के  उदगार तो ऐंसे  थे मानों ' हा  हा   हा  दुर्दैव  भारत  दुर्दशा  देखि  न  जाये।  इस  क्रिकेटी   अरण्य  रोदन  से उनकी  टी  आर  पी   में कितना इजाफा हुआ और  व्यवसाय  गत प्रतिस्पर्धा  के लिए  कितनी प्राण  वायु प्राप्त  हुई यह अभी जाहिर होने  के लिए प्रतीक्षित है . .                                        पाकिस्तान   में हमारे खिलाफ क्या चल रहा है? ,चीन हमें कहाँ-कहाँ पछाड़ चूका है ?,हम सूखे के लिए क्या कर रहे हैं ?  मुद्रा स्फीति,महंगाई ,बेकारी,हिंसा ,गेंग-रेप को  रोकने के लिए क्या उपाय किये जा  रहे  हैं ?  इन तमाम  सवालों  पर मीडिया कवरेज और आवाम  की  वैचारिक चेत ना  नितांत  नकारात्मक  और  'सुई पटक सन्नाटे जैसी " क्यों  हो  गई  है    ,सरकारी  अफसरों  और  मंत्रियों  द्वारा  की गई  लूट पर बंदिश के लिए आवाम को क्या कदम  उठाने चाहिए ? इस विमर्श को एक   खेल विशेष की किसी  नगण्य घटना के बहाने  जान बूझकर हासिये पर तो नहीं धकेला  जा सकता ! मीडिया को और जनता को राष्ट्रीय सुरक्षा के सरोकारों से सम्बन्धित बैठक में पृथक-पृथक नेताओं की भूमिका और उनके राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की पड़ताल करनी चाहिए थी किन्तु  इस विमर्श से परे किसी एक नेता को विशेष  हाय =लाईट करना  क्या  बे  मौसम की टर्र-टर्र  नहीं है ?
                        कभी-कभी तो लगता है कि  प्रकारांतर  से   उपरोक्त  सभी  कारकों  से  इस  देश  को  खतरा  है  क्योंकि  इन सभी कारकों ने एक-दुसरे पर दोषारोपण करने के अलावा 'राष्ट्र' की  सुरक्षा  या  आम  जनता  की  दुश्वारियों के निवारण हेतु आज तक कोई रणनीति नहीं बनाई और न ही इनमें से किसी ने  इस  बाबत  अपने  हिस्से की आहुति देने का प्रमाण दिया। हम भारत के जन-गण  महाछिद्रान्वेशी हैं, सिर्फ  'अपनों'  के  अवगुणों  पर  हमारी नज़र है हमें  अपने ही स्वजनों-सह्यात्रोयों और स्व-राष्ट्र्बंधुओं  का हित या  अच्छा तो  मानों   सुहाता ही  नहीं,कहीं किसी ने ज़रा सा  सफलता हासिल की या कोई तुक का काम   किया की हम लठ्ठ लेकर  उसके  पीछे पड  जायेंगे ,हम अपने हिस्से की जिम्मेदारी   छोड़ 'शत्रु-राष्ट्र' के  हिस्से  की  जिम्मेदारी   पूरी करने में जुट  जायेंगे . वास्तविक शत्रु को बाप बना लेंगे और अपने बंधू-बांधवों पर लठ्ठ लेकर पीछे पड़  जायेंगे .
                                       अभी - कल  सम्पन्न राष्ट्रीय   सुरक्षा परिषद्  में लगभग ऐंसा ही वाकया  पेश हुआ जब  माननीय प्रधानमंत्री जी  ने  भारत की मानक परम्परानुसार मीटिंग में उपस्थित सभी  मुख्यमंत्रियों और परिषद् सदस्यों से निवेदन किया कि'  राजनैतिक अहम और दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर हमें 'नक्सलवाद-माओवाद' का डटकर मुकाबला करना चाहिए . देश की आंतरिक सुरक्षा पर राजनीती से परे -मिलजुलकर काम करना चाहिए .बगैरह - बगैरह ...! उनके वक्तव्य   की  और परिषद् के तमाम सदस्यों के विचारों और सुझावों की 'ऐंसी -तैसी ' करते हुए मीटिंग में उपस्थित   एक महान मुख्यमंत्री और नए-नए  ' पी .एम. इन वेटिंग ' ने बहती गंगा में हाथ धोते हुए न केवल  बैठक के अजेंडे की  अवहेलना की अपितु अपना व्यक्तिगत अजेंडा पेश करते हुए सी बी आई ,आयकर विभाग और  अन्य  केन्द्रीय एजेंसियों   के दुरूपयोग के मार्फ़त उन्हें परेशान करने का अरण्यरोदन तो  किया  किन्तु नक्सलवाद के खिलाफ या उसके निदान विषयक एक शब्द नहीं कहा .    ये स्वनामधन्य  भाजपाई मुख्यमंत्री महोदय इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए और  लगभग आसमान पर  थूंकने  की मुद्रा में ने केवल केंद्र सरकार अपितु    कतिपय देशभक्त बुद्धिजीवियों और परिषद् सदस्यों को  भी  नक्सल्यों का सहोदर ठहराने से  नहीं   चूके .  उनकी इस बिगडेल  भावभंगिमा और  ओजस्विता के अस्थायी भाव  के   पीछे  शायद  गुजरात के उपचुनावों में  अभी-अभी   मिली सफलता  की अपार ख़ुशी  थी या उनके अलायन्स पार्टनर नितीश- जदयू को बिहार के महराजगंज में मिली करारी हार   का  प्रतिशोधजनित आनंद , ये  तो वक्त आने पर ही मालूम हो सकेगा किन्तु  उनकी राष्ट्र निष्ठां की असलियत तो इस बैठक में साफ़ दिख गई है . प्रधानमंत्री जी ,गृह मंत्री जी और  तमाम मुख्यमंत्रियों की देश की आंतरिक सुरक्षा से सम्बंधित  कोई सामूहिक रणनीति बनती कोई  सर्वसम्मत  निर्णय  होता और मीडिया उसे 'जन-विमर्श' के माध्यम से सर्टिफाइड  करता तो कुछ  और बात होती किन्तु जब कोई अपने चरम अहंकार के वशीभूत होकर अजेंडे को ही दुत्कार दे तो बात न केवल चिंतनीय अपितु निंदनीय भी ही है .
                                                           देश की जनता और मीडिया को सोचना चाहिए  कि  जिस व्यक्ति पर इस दौरान   सर्वाधिक विमर्श और फोकस किया जा रहा है वो व्यक्ति  राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की बैठक में 'राष्ट्रीय 'हितों  से ज्यादा अपने वैयक्तिक हित-अनहित के लिए ज्यादा चिंतित है, जिसे गुजरात दंगों के भय-भूत ने जकड रखा हो    और जो  गुजरात के  साम्प्रदायिक   दंगों की परछाई से   मुक्त होने की छटपटाहट  से  आक्रान्त  है , जो अपने अलायन्स पार्टनर्स की हार से खुश है जो अपने दल के वरिष्ठों   के प्रति  ही अनादर भाव  से तुष्ट रहता हो  वो यदि  दुर्भाग्य से  देश का प्रधान मंत्री  बन जाता है तो  गुजरात  की जनता का,देश की जनता का ,  और  समग्र भारत राष्ट्र के हितों की    रक्षा कैसे  कर सकेगा ? 

                           श्रीराम तिवारी
      
                                        
                        
            
           

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