उत्तराखण्ड में हाहाकार ..!.कौन है इसका जिम्मेदार ...? कौन सुनेगा पीड़ितों की पुकार ...?
आदिकाल या पाषाण युग या हिमयुग से या सभ्यता के उदयकाल से ही जिसने- आग ,हवा ,पानी ,आकाश और बुद्धि की प्रबलता को स्वीकार किया था वो 'मानव' 'इंसान'- जगतीतल के समस्त प्राणियों में सबसे चालाक और मेधा शक्तिसंपन्न होने से प्रकृति का सबसे बड़ा दोहनकर्ता , उपभोगकर्ता एवं विनाशकर्ता था , उसीने गाँव ,नगर ,महानगर ,राष्ट्र और 'संयुक्त राष्ट्र ' बनाये . राज्य , नियम -क़ानून, शिक्षा ,स्वास्थ्य , सामाजिक -आर्थिक -सांस्कृतिक रीतिरिवाज ,सड़कें बिजली ,यांत्रिकी , दूर-संचार ,नहरें ,तालाब और बाँध बनाए . उसने विगत बीस हजार सालों में भी प्रकृति के साथ उतने बुरे सलूक नहीं किये होंगे जितने कि विगत बीस साल में कर डाले . शोषण-कारी प्रवृत्ति के मानवों ने ही इस उत्तर-आधुनिक युग में न केवल धरती को बल्कि आसमान और अन्तरिक्ष को भी बदरंग कर डाला है । उसके शारीरिक परिश्रम,आन्वेश्कीय मानसिकता और प्रकृति प्रदत्त बौद्धिक विशषता के योग ने उसे अन्य समस्त 'जलचर-थलचर -नभचर ' प्राणियों पर वेशक भारी बढ़त उपलब्ध कराई है ,लेकिन उसके भयानक-स्वार्थी-ऐय्यास -कपटी -क्रूर -क्रोधी और प्रकृति के अकूत दोहन का लालची होने से जब -तब होने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार समस्त जगतीतल को होना पड़ रहा है।
उत्तराखण्ड ,मुंबई ,ठाणे ,सम्पूर्ण भारत तथा सारे संसार में आये दिन जो प्राकृतिक प्रकोप हो रहे हैं उनमे मनुष्य जाति का ही सबसे बड़ा हाथ है . अन्य देशों की तुलना मैं भारत की अधिसंख्य जनता फिर भी आम तौर पर प्रकृति प्रेमी है .हालांकि गुलामी के दि नों में विदेशियों ने और स्वतंत्रता के बाद देशी पूंजीपतियों ,सत्ता के दलालों और खनन माफिया के गठजोड़ ने भारत की प्राकृतिक - प्रचुर संपदा का दोहन विगत तीस सालों में सर्वाधिक किया है . प्रकारांतर से ये तत्व भी उत्तराखंड की मौजूदा विभीषिका के लिए जिम्मेदार हैं .इसी तरह देश के पूंजीवादी राजनैतिक दल , समर्थक -पोषक - हितधारक और उन्हें सत्ता में बिठाने वाले मतदाता भी कदाचित इस महा विनाश लीला के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं . और आपदा का ठीक से सामना नहीं कर पाने के लिएपूरा देश जिम्मेदार हैं . तात्पर्य यह कि इस दुर्दशा के लिए वे भी जिम्मेदार हैं जो इसके शिकार हुए हैं .
लोगों ने व्यर्थ ही गलत-सलत अवधारणायें या सिद्धांत गढ़ रखे हैं कि 'जो जैसी करनी करे सो तेसो फल पाय ' यदि यह सही होता तो वे लोग जो 'चारधाम ' के दर्शन की अभिलाषा लेकर घर से निकले थे वे 'पुण्यात्मा ' लोग देवभूमि -ऋषिकेश - बद्रीनाथ -केदारनाथ और हेमकुंड साहिब के दरवार में असमय की काल -कवलित न होते . इन लाखों निर्दोष नर-नारियों ,आबाल -बृद्ध - बालकों ने किसी का क्या बिगाड़ा था कि तथाकथित ईश्वर स्वरूप -हिमालय और उसकी दुहिता सद्रश्य -मंदाकिनी-अलकनंदा और साक्षात् 'सुरसरिता ' याने गंगा ने भयानक कालरात्रि का रूप धारण कर अपने भक्तों को न केवल असमय ही मौत के मुंह में धकेला बल्कि लाखों श्रद्धालुओं की वो दुर्गति की जो -सिकंदर,चंगेज ,तेमूर ,गौरी या बाबर जैसे किसी विदेशी आक्रान्ता ने भी कभी इस देश के वाशिंदों की नहीं की होगी . भारत में कुछ धर्मांध लोग सदा से ही इस अवधारणा में यकीन करते रहे हैं कि उनके दुखों का कारण विदेशी आक्रमणकारी थे . गंगा -आग-सूरज और समुद्र तो देवता हैं ,यदि उनके कारण मौत हो जाए तो समझो जीवन धन्य हो गया ! तो अब काहे को इस आपदा पर दोषारोपण किया जा रहा है . समझो कि हरि इच्छा यही थी .'समरथ कहूँ नहिं दोष गुसाईं .. रवि -पावक -सुरसरी की नाई .. अब जबकि एक-तिहाई उत्तराखण्ड भूलुंठित है ,लाखों मनुष्यों, हजारों पशुवों , सेकड़ों मकानों और दर्जनों सड़कों को भीषण प्राकृतिक आपदा ने निगल लिया तो भी कहने वाले कह रहे हैं कि सरकार कसूरवार है।
वेशक केंद्र या राज्य सरकार दोनों ने ही बहुत देर बाद आपदा प्रबंधन हेतु संज्ञान लिया . किन्तु फिर भी यह बहुत ही भोलेपन की अवधारणा है, क्योंकि केंद्र -राज्य सरकार और स्थानीय प्रशाशन को भृष्टाचार से फुर्सत मिले तो वे इस ओर ध्यान दें . जो लोग सामन्य बुद्धि बाले हैं वे भी यह जानते हैं .क्या इस दौर में किसी सरकार से जन-हित की उम्मीद करने वाले समझदार कहे जा सकते हैं ? इस दौर में जो सरकार के भरोसे सुबह घर से निकलते हैं वे शाम को घर वापिस नहीं लौटते ! फिर जो लोग उत्तराखंड- याने साक्षात् मौत की खाई- में कून्दने घर से निकले और फिर भी जीवित बच गए उन्हें अपने दो-चार दिन की भूंख -प्यास का रोना नहीं रोना चाहिए और अपनी नादानी का ठीकरा और के सर नहीं फोड़ना चाहिए . जो इस हादसे में मारे गए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए इस घटना से सबक सीखने की सभी को कोशिश करनी चाहिए। चीन,जापान ,इंडोनेशिया ,फिलिपीन्स और अमेरिका इत्यादि में ऐंसे वाकये -सुनामी ,चक्रवात ,भूकंप और बाढ़ के रूप मैं हर साल आते हैं . वहाँ की जनता अपनी सरकार को कोसने के बजाय अपनी जिम्मेदारी और अपनी कर्तव्य परायणता को बेहतर समझती है। वे अनावश्यक दोहन और प्रदुषण के प्रति सजग हो रहे हैं . वेशक वहाँ की सरकारें ज्यादा संवेदनशील हुआ करती हैं . भारतीय समाज और सरकार को भी इसी तरह सोचना चाहिए कि न केवल उत्तराखंड बल्कि देश भर में जहां भी जरुरत से ज्यादा जन-समूह का जमावड़ा हो तो कम-से कम वहाँ बड़े-बड़े विज्ञापन बोर्ड लगवा दे , जिन पर लिखा हो -यहाँ आने पर आपका हार्दिक अभिनन्दन ... कृपया अपने जान-माल की हिफाजत स्वयम करें , यदि आप किसी हादसे में मारे जाते हैं तो इसकी जिम्मेदारी आपकी होगी ..! सरकार पर दोष लगाने पर मानहानि समझी जायेगी ...!! धन्यवाद् ...!
अक्सर लोग सैर --सपाटे और तीर्थ यात्रा में बेहद लापरवाही बरतते हैं इस वजह से उन्हें कभी-कभी जिन्दगी से भी महरूम होना पड़ता है , जो जीवित बच जाते हैं वे अपने खुद के कर्मों पर रंच मात्र शर्मिन्दा नहीं होते। वे सोचते हैं "जो कुछ अच्छा हुआ वो मेने किया और जो बुरा हुआ वो ईश्वर की मर्जी या सरकार की गलती थी " कमरे के सामने वे लाशों के ढेर पर भी मुस्करा कर सरकार को कोस सकते हैं . उलटे जो उनके आंसू पोंछना चाहते उन सरकारी मददगारों और सेवकों पर ताव दिखाया करते हैं, जैसे अभी बद्री-केदारनाथ में जीवित बचे बदहाल सेलानी कर रहे हैं। मानों वे चारधाम यात्रा करके देश और समाज पर बड़ा एहसान करने चले थे .या देश की रक्षा के लिए सीमाओं पर लड़ने गए थे . उनकी शिकायतें हैं कि सरकार ने ये नहीं किया ! सरकार ने वो नहीं किया ..! वैसे केंद्र और राज्य सरकार से तो सनातन से सभी को ढेरों शिकायतें रहतीं हैं। मुझे भी हमेशा शिकायत रहती है कि देश में क़ानून व्यवस्था चौपट हैं ,महंगाई चरम पर है , डालर ने रूपये की ऐंसी -तैंसी कर रखी है ,दवा-इलाज सब बेहद मेंहगा है ,गाँव-गाँव में बिजली -सड़क-पानी नहीं ,स्कूल में ढोर -बेल बांधे जाते हैं ,नक्सलवादी उधम मचाये हुए हैं ,पाकिस्तान के मंसूबे ठीक नहीं , अमेरिका भारतीय नागरिक की जासूसी कर रहा है ,चीन हमें लगातार बेइज्जत किये जा रहा है , भारतीय 'फ़ूड कर्पोरेसन के गोदामों में और रेलवे के गोदामों में अनाज -गेंहूँ सड़ रहा है और लाखों गाँव के गरीब बच्चे कुपोषण के शिकार हो रहे हैं जो अभी नहीं तो भर जवानी में जरुर मर जायेंगे उनके लिए कोई प्रधानमंत्री या 'वेटिंग प्रधानमंत्री' हवाई जहाज से देखने या हज़ार करोड़ का पैकेज देने नहीं आने वाला ..बगैरह ...बगैरह ...!
मुझे विपक्ष से और खास तौर से भाजपा से शिकायत है कि वे उस कुर्सी के लिए आपस में लड़-मर रहे हैं -जो उन्हें कांग्रेस से छीनकर एनडीए को दिलानी है ,वो नरेन्द्र मोदी को दिलाने में जुटे हैं , आडवाणी जी ,शरद जी अब बेरोजगार हो चुके हैं ,जदयू और नितीश कांग्रेस से प्यार की पेगें बढ़ा रहे हैं , क्षेत्रीय पार्टियां किम्कर्तब्य्व विमूढ हैं सो बेपर की उड़ा रहे हैं कि हम फेडरल फ्रंट बना रहे हैं . वाम मोर्चे को नागनाथ और सांपनाथ की लड़ाई देखने की नियति बन चुकी है . सारा विपक्ष बुरी तरह बंटा हुआ है ,भारतीय डिजिटल और इलेक्ट्रोनिक मीडिया केवल अप्रिय घटनाओं ,अवांछनीय व्यक्तियों और असत्य ख़बरों को महत्व देकर वातावरण प्रदूषित कर रहा है और मुझे इन सभी से शिकायत है किन्तु यदि मैं जीते जी कभी किसी तीर्थ यात्रा पर गया या घूमने -फिरने अपनी मर्जी से गया और वहाँ विपदा में पडा तो सिर्फ और सिर्फ अपने को गुनाहगार मानूगा और यदि इस दौरान मैं मर भी जाऊं तो दुनिया वालों के सामने घोषणा करता हूँ की मेरी मौत का जिम्मेदार मैं स्वयम रहूंगा ...! केंद्र सरकार,राज्य सरकार,मीडिया , प्राकृतिक आपदा ,खनन माफिया ,देश-समाज या भगवान् -मेरे अन्तकालऔर मेरी दुर्गति के 'कारण ' नहीं माने जावें ..!धन्यवाद् ...!
सिर्फ उत्तराखण्ड ही नहीं बल्कि अभी कल-परसों मुंबई में और कुछ दिनों ,पहले ठाणे में एक पुरानी जर्जर इमारत के धराशाई होने से सेकड़ों जाने चलीं गईं जबकोई मंत्री ,नेता ,विधायक और पार्षद उनके दुःख बाँटने गए तो लोग उनपर टूट पड़े .जबकि सरकार ने इमारत को वर्षों पहलेही खतरनाक घोषित कर दिया था ,लोगों ने एक तो खतरनाक और जर्जर इमारत का मोह नहीं छोड़ा दुसरे उन्हें सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गए वैकल्पिक निवास को किराये पर उठा दिया और सरकार या देश का इन्होने शुक्रिया भी अदा नहीं किया। अब - जबकि खुद अपनी मौत मर - मरा गए तो, उनके बगलगीर ताव दिखा रहे हैं . क्या ये जायज है? उत्तराखंड में जो लोग अबैध रूप से -स्थानीय भृष्ट अधिकारीयों और नेताओं से साठ -गाँठ करके ऐन नदियों के उद्गम और किनारों पर खिसकैले पहाड़ों पर होटल ,लाज या रहवासी भवन बनाकर राहगीरों और तीर्थ् यात्रियों को लूटते रहे ये लुटेरे आज भी इस महाविकट विपत्ति मेंअपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं .
पानी की एक बोतल के सौ रूपये ,चार बिस्कुट के सौ रूपये, मुठ्ठी भर चावल के सौ रूपये और एक रोटी के सौ रूपये धडल्ले से वसूले जा रहे हैं ,इन्ही लुटेरों ने -भ्रष्टाचार करके सम्पूर्ण उत्तराखंड को न केवल लूट का बाज़ार बना डाला अपितु इतना खोखला कर दिया कि ज़रा सा कोई बादल गरजा नहीं कि पहाड़ किसका और नदी उफनी . जो तीर्थ यात्री और स्थानीय रहवासी इस प्रकृति जन्य नर-संहार में असमय ही मारे गए उनके लिए सभी को दुःख है किन्तु जो रहवासी या तीर्थ यात्री जीवित बचे वे हिम्मत बनाए रखें, देश उनके साथ है उन्हें सही सलामत घर लाने के लिए भारतीय फौज के जवान रात-दिन कड़ी मेहनत कर रहे हैं .उन्हें किसी पर दोषारोपण करने के बजाय खुद के गरेवान में एक बार जरुर झांकना चाहिए और फिर बताएं कि समाज और राष्ट्र के प्रति उनका क्या योगदान रहा? वे किस सलूक के हकदार हैं?
कितने हजार मरे ,कितने हजार लापता ,कितने घायल-बीमार -भूंखे -प्यासे नारकीय वेदना और भयानक तांडव से रूबरू हुए वो आंकड़े मिल भी जाएँ तो उससे किसी एक दिवंगत के सपरिजन को भी तसल्ली मिल सकेगी क्या ? टूटती झीलें ,खिसकते पहाड़ ,उफनती नदियाँ ,ध्वस्त होते देवालय ,जल मग्न होती देव -प्रतिमाएं ,बहते मकान, ,डूबते-उतराते-कांपते-मरते -मनुष्य ,पशु,पेड़ पोधे ,पहाड़ और तहस-नहस होतीं वस्तियों -क्या यही है देवभूमि-पुण्यभूमि ? क्या लाशों के ढेर से ही देवताओं को और धरती पर उनके धन्धेबाज़ प्रतिनिधियों को तसल्ली मिला करती है ? क्या प्रकृति द्वारा किये गए इस नरसंहार ने कुछ नए प्रश्न खड़े किये हैं ? इन सवालों के जबाब वे लोग नहीं दे सकते जो प्रत्येक समस्या के लिए सरकार ,इश्वर या सिस्टम को देते हैं .यदि हवाई जहाज क्रेश होने से या पहाड़ों पर घूमने से मौत पर मीडिया में कोहराम मच जाता है तो भूंख से मरने वालों, बिना इलाज के मरने वालों ,कुपोषण से मरने वालों और बेरोजगारी या कर्ज से मरने वालों के लिए भी मीडिया ,सभ्रांत लोक तथा मलाईदार -बुर्जुआ वर्ग के दिलों में थोडा सा दर्द और थोड़ी सी सहानुभूति अवश्य होनी चाहिए .यदि यह संभव नहीं तो सरकार या व्यवस्था से सहयोग की उम्मीद देश के मध्यम वर्ग को नहीं रखनी चाहिए क्योंकि वे सरकारों से दोस्ती तो रख सकते हैं किन्तु लड़ नहीं सकते . जबकि संगठित सर्वहारा वर्ग से सरकारें भयभीत रहा करतीं हैं . यह सर्वहारा वर्ग गर्मियों की छुट्टियां मनाने उत्तराखंड ,कुल्लू-मनाली ,उटकमंड ,बदीनाथ ,केदारनाथ नहीं जा सकता क्योंकि अव्वल तो उसकी कोई स्थाई आमदनी नहीं दूजे वो मजदूरी से जेसे -तेसे ज़िंदा रहने की मशक्कत में ही खुद को प्यारा हो जाता है . याने पहाड़ों, सेरगाहों और सामाजिक लूट के प्रतीक 'पूजा -स्थलों ' पर होने वाले हादसों और उनमें मरने वाले सम्पन्न वर्ग के ही हो सकते हैं . बाज-मर्तबा कोई वेरोजगार ,जेब-कतरा ,मक्कार ,चोर या क़ानून से भागा अपराधी जरुर 'बाबा 'या स्वामी बनकर कभी कुम्भ में कभी 'चारधाम ' में लोगों को ठगने पहुच जाता हो ..! हम उसे लम्पट सर्वहारा मानते हैं और वास्तविक सर्वहारा का 'वर्ग शत्रु' मानते हैं .ये भी यदि प्राकृतिक आपदा में सेकड़ों की तादाद में मर गए हों तो कोई अचरज की बात नहीं .ये यदि वहाँ नहीं मरते तो यहाँ जेलों में सड़ते या निर्दोष जनता को सताते , उनके लिए शोक करना कहा तक उचित है ? यदि कोई सच्चा संत ,देशभक्त -वंदा इस हादसे में मारा गया हो या अपाहिज हुआ हो तो उसे भी इसके आश्था आधारित दृष्टिकोण से परिभषित किया जाना चाहिए याने 'ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं ...क्षीणे पुण्ये मर्त लोकं विशन्ति ....!
आम तौर पर लोगों की प्रतिक्रिया रहती है कि यह 'मनुष्य द्वारा प्रकृति से की गई छेड़छाड़ का नतीजा है, कुछ लोगों का मानना है कि यह प्रकृति के स्खलन की स्वाभाविक प्रक्रिया का एक अल्प विराम है . कुछ लोग इसे दैवीय प्रकोप मान रहे हैं कि जिनके पापों का घडा घर गया था वे सभी एक साथ इस हादसे मैं काल के गाल में समा गए . कुछ लोगों का मानना है कि देवभूमि में जिन्हें सद्गति मिलना थी वे पुण्यात्मा इस मौजूदा आपदा के आर्फत शिवलोक गमन कर गए ....इत्यादि...इत्यादि… ! माना कि विगत दो-तीन दशकों से न केवल उत्तराखण्ड बल्कि देश के प्राकृतिक संपदा और खनिज संसाधनों से सम्पन्न इलाकों में भी अंधाधुन्द 'अप्राकृतिक' 'अवैज्ञानिक 'तरीकों से खनन -दोहन और क्षरण किया जाता रहा है किन्तु क्या पंद्रह -सोलह जून की घटना के पीछे यह छेड़छाड़ मात्र ही है या मरने वालों की भी कोई गलती या चूक हो सकती है ? क्या यह भारत की सवा सौ करोड़ कर्मठ जनता में से केवल एक-दो लाख उन चंद 'भरे-पेट ' फुरसतियों की अमर गाथा नहीं है ? जिन्हें देश की ,समाज की कोई चिंता नहीं थी ,कमाने-धमाने की कोई चिंता नहीं थी ..! क्योंकि ये अधिकांस उस वर्ग के लोग थे जिन्हें पेटी - बुर्जुआ कहा जा सकता है . ये जमींदार वर्ग के हो सकते हैं , ये सम्पन्न वर्ग के हो सकते हैं . इनमें कोई वो शख्स नहीं था जिसे मजदूर कहते हैं या जो देश का अकिंचन गरीब -किसान वर्ग है ,जो रोज कमाता -खाता है उसे चारधाम यात्रा के लिए न तो फुर्सत है और न ही उसके पास इतने दिन का राशन है और न ही किराया -भाडा।.
गाँव में २ २ रुपया रोज और शहर में ३ २ रुपया रोज कमाने वाले की उत्तराखण्ड जाकर मरने की हैसियत नहीं हो सकती . उसके नसीब में तो सिर्फ श्रम बेचकर गुजारा करना बदा है . मौजूदा हादसे में मारे गए भद्रजन तो तीर्थाटन के माध्यम से निजी लाभ याने पुन्य कमाने या पहाड़ों पर जाकर मजा मौज करने, एयासी करने वाले मध्यवित्त वर्ग के चोंचले बाज ही हो सकते हैं , इस हादसे में शायद ही कोई 'सर्वहारा ' मारा गया हो ..! गरीब मेहनतकश मजदूर को तो अपने खून-पसीने में ही मंदाकिनी ,अलकनंदा ,भागीरथी और बद्री -केदार नज़र आते हैं . भद्रलोक के लिए सड़कें ,बनाना भवन बनाना ,गार्डन बनाना और पूंजीपति वर्ग के सुख साधन निर्मित करना और उनकी चौकीदारी करने से उसे फुर्सत कहाँ कि किसी देवभूमि में मरने जा सके . उसे तो मरना ही होगा तो दो-चार दिन के फांकों से या किसी पूंजीपति की कार से कुचलकर मर जाने की ही नियति है . ये तो देश और दुनिया के सम्पन्न लोगों का विशेषाधिकार है कि कभी पहाड़ों पर ,कभी किसी पांच सितारा होटल में ,कभी हवाई जहाज से बैकुंठ लोक को प्रस्थान करें .
उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र -चारधाम तीर्थ क्षेत्र और मंदाकिनी ,अलकनंदा ,भागीरथी अर्थात गंगा और उसकी सहायक नदियों के शीर्ष क्षेत्र में १ ५ -१ ६ जून -२ ० १ ३ के दरम्यान कुदरत के कहर ने जो आफत बरपा की, उस खंड प्रलय जैसी महाभयानक घटना से जान-माल का जो नुक्सान हुआ, उसका आकलन करने में उत्तराखंड सरकारऔर केंद्र सरकार पूरी तरह असफल आ रही है . इस महाभयानक प्राकृतिक विक्षोभ का पूर्वानुमान प्रस्तुत करने में सरकार और सिस्टम की कोई मजबूरी हो सकती है ,शायद भारत के मौसम विज्ञानी और भूगर्भ वेत्ता अ -योग्य और नकारा होंगे किन्तु महाविनाश्लीला के उपरान्त राज्य और केंद्र सरकार की सुस्ती ,हडबडी और तत्सम्बन्धी तैयारियों में संवेदनहीनता नाकाबिले -बर्दास्त है . दुनिया में हर कहीं इस तरह के हादसे होते रहे हैं और हो रहे हैं ,किन्तु लाशों के ढेर पर राजनीती करने वाले सत्ता पक्षीय और विपक्षी नेता सिर्फ भारत भूमि में ही पाए जाते हैं .
श्रीराम तिवारी
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें