नक्सलवादियों को सबक सिखाया जाना चाहिए ....!
छत्तीसगढ़ के दर्भा-जीरम घाटी क्षेत्र में तथाकथित माओवादियों [नक्सलवादियों] ने २ ५ मई-२ ० १ ३ को घात लगाकर कांग्रेस के नेताओं - नंदकुमार पटेल ,महेन्द्र कर्मा और मुदलियार समेत अनेक कार्यकर्ताओं तथा कतिपय अन्य लोगो की जिस दरिंदगी से ह्त्या की है वो सामंत और बर्बर युग से भी क्रूरतम मिशाल है ,उससे मैं इतना बिचलित हुआ कि शारीरिक रूप से 'अस्वस्थता ' के वावजूद भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अपने आपको रोक नहीं सका .हालाँकि नक्सलवादियों ने यह हमला करके कोई नई नजीर कायम नहीं की है। देश की ,प्रदेश की सरकारों और तमाम पढ़े-लिखे संवेदनशील भारतवासियों को मालूम है कि नक्सलवादियों ने पूरे बस्तर को बारूदी सुरंगों से पाट रखा है और वे कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को निशाना तो अवश्य ही बनायेंगे . क्योंकि उस यात्रा का नेत्रत्व कर रहे स्वर्गीय श्री महेन्द्र करमा जी और श्री पटेल अब तक बस्तर क्षेत्र ही नहीं बल्कि एक तिहाई छत्तीस गढ़ नाप चुके थे और निसंदेह आम आदिवासी को लगने लगा था की परिवर्तन यात्रा ही नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन करना जरुरी हो गया है . नक्सलवादियों को यह कैसे सहन हो सकता था . वे नहीं चाहते थे कि भारतीय जनतंत्र की पताका के तले कोई परिवर्तन हो . वे शायद किसी अन्य किस्म के परिवर्तन के आकांक्षी हो सकते हैं , अतएव उनकी राह में फौरी तौर पर केवल-व्-केवल कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा का काफिला था और उन्होंने उस काफिले के साथ जो अमानवीय नृशंस व्यवहार किया वो शब्दों में अंकित किया जाना संभव नहीं है .
वेशक इस जघन्यतम नरसंहार में वीरगति को प्राप्त हुए कांग्रेसी काफिले को लोकतंत्र के रक्षकों और भारतीय गणतंत्र के अमर शहीदों की गाथा में शुमार किये जाने का हक़ है . अब यदि रमण बाबु लाख कहें कि चूक हो गई ,क्षमा करें ! किन्तु यह तो सावित हो ही चूका है की नक्सलवादियों को भाजपा की सदाशयता अवश्य ही प्राप्त थी या है . कुछ ढपोरशंखी भाजपाई तो बड़ी बेशर्मी से कह रहे हैं कि इन हमलों में अजीत जोगी का हाथ है याने अब भी भाजपा की नज़र में नक्सलवादी कसूरवार नहीं हैं . वास्तव में सिर्फ भाजपा ही भ्रमित नहीं है , कांग्रेस में भी ऐंसे अनेक मिल जायेंगे जिनको अपने मानसिक दिवालियेपन के इलाज की आवश्यकता है , जो 'जीरम-दर्भा घाटी' नरसंहार के लिए केवल भाजपा को कसूरवार मानते हैं . उन्हें मालूम हो कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी [एन आई ए ] की शुरूआती रिपोर्ट में ही वे स्वयम फँसते नजर आ रहे हैं . कांग्रेस के चार-चार क्षेत्रीय नेता स्वयम हमले वाले रोज दिन भर नक्सलियों के संपर्क में रहे हैं .इन नेताओं ने पल-पल की जानकारी नक्सलियों को दी थी .एन आई ए को ये यह जानकारी नेताओं के काल डिटेल से प्राप्त हुई है .हालाँकि जिन नम्बरों से कांग्रेसियों का संपर्क था वे अब बंद हैं .ये सारे नंबर फर्जी और बेनामी पाए गए जो सभी के सभी प्राइवेट आपरेटर्स द्वारा जारी किये गए थे .अब कांग्रेसियों की बोलती बंद है . वे नक्सलवाद के खिलाफ बोलने में हिचकते हैं ये तो सभी को मालूम था किन्तु अपने ही साथियों से गद्दारी का यह एक जीवंत एवं शर्मनाक प्रमाण है और यह एक स्वाभाविक परिणिति है
कुछ स्वनामधन्य पत्रकार ,वुद्धिजीवी ,दिग्गज वामपंथी साहित्यकार भी है जो कहेंगे कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बराबर के कसूरवार हैं, आदिवासियों का सनातन से शोषण हो रहा है उनके जल-जंगल-जमीन छीनोगे और जिनका शोषण करोगे वे तो हथियार उठाएंगे ही . बगेरह-बगेरह . बहुत कम हैं जो साफ़-साफ़ कहें कि 'जीरम-दर्भा 'नरसंहार के लिए केवल और केवल नक्सलवादी जिम्मेदार हैं। जो कि भारत राष्ट्र के ही खिलाफ है. जो भारतीय संविधान को नहीं मानते , भारत को अपना देश नहीं मानते और पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ 'वर्ग युद्ध' छेड़ने के बहाने अब तक केवल निर्दोष लोगों का खास तौर से निर्धन आदिवासियों का रक्त बहाते आये हैं . जिस नरसंहार से राष्ट्र को उद्देलित होना चाहिए था ,नक्सलवाद का सफाया किया जाना चाहिए था उस पर कांग्रेस और भाजपा ' चुनावी चौसर' बिछा रही हैं। संसद में गंभीरता से बहस करने के बजाय केवल मीडिया के समक्ष बयानबाजी में लिप्त हैं . मीडिया आई पी एल ,क्रिकेट और सटोरियों के जीवन परिचय में व्यस्त है और आम आदमी -बेतहासा मंहगाई,बिजली-संकट,जलसंकट ,लूट,ह्त्या,बलात्कार तथा हर किस्म के व्यवस्थागत दोषों से पीड़ित है . किसी को इस नर संहार से कोई खास वेदना नहीं ,कुछ तो यहाँ तक कहते पाए गए कि नेताओं को मारना ही चाहिए क्योंकि ये इसी लायक हैं . मुझे भारतीय समाज के वर्तमान चारित्रिक पतन और संवेदना शून्य होने का उतना दुःख नहीं जितना इस बात का कि नाहक ही सिर्फ वो लोग मारे जा रहे हैं जो सच बोलने की हिमाकत करते हैं . उधर हत्यारे हैं कि एक क्रान्तिकारी दर्शन के साथ 'बलात्कार ' किये जा रहे हैं .
मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' जिन्होंने नहीं पढ़ी वे अवश्य पढ़ें और जिन्होंने पढ़ी है वे फिर से पढ़े ,'एक 'कफ़न ' के लिए जनता ने जो पैसे दिए थे ,किस तरह से उनका 'सदुपयोग' किया गया कैसे मर्त्यका के पति और श्वसुर मद मस्त पड़े रहे और जनता को खुद आगे होकर उस असमय म्रत्यु को प्राप्त हुई 'अबला का 'क्रिया कर्म ' करना पड़ा . इसी तरह भारतीय जनतंत्र में जब-जब रक्त रंजित क्षण आते हैं तो 'सत्ता रुपी मर्त्यका' के ये सपरिजन -भाजपा और कांग्रेस जनता की हमदर्दी को वोट में बदलने के लिए वावले हो उठते हैं और 'बिडंबनाओं' का क्रियाकर्म भारत की जनता को करना पड़ता है . चूँकि मैं आम आदमी हूँ ,जनता का हिस्सा हूँ अतएव देश के -समाज के हर दुःख -सुख को समेकित रूप से अनुभव करता हूँ और कुछ कर सकूँ यह तो मालूम नहीं किन्तु स्वयम सत्यान्वेष्न कर सकूँ यह माद्दा अवश्य अपने आप में देखता हूँ . यदि मैं 'कफ़न ' चोरों की बदमाशी को उजागर करने में सक्षम हूँ तो अवश्य करूंगा . भारत की वेदना का कारण-पूंजीवादी सरमायादारी ,आतंकवाद ,अलगाववाद या नक्सलवाद जो भी हो यदि में जानता हूँ की 'इस मर्ज़ की दावा क्या है तो उसे उजागर अवश्य करूंगा .अब ये बाकि लोगों का काम है कि नरसंहार जनित राष्ट्रीय पीड़ा को व्यवस्था परिवरतन की अहिंसक यात्रा के विमर्श को अंजाम तक ले जाने में सहयात्री हों . साथी महेन्द्र करमा और अन्य साथियों की कुर्वानी को व्यर्थ न जाने दें .
जब ये नर संहार हुआ तब मैं अस्पताल में एडमिट था और घटना के चार घंटे वाद जब न्यूज़ चेनल्स पर नजर डाली तो सन्निपात की डबल स्थति में मुझे देख डॉ समझ नहीं पा रहे थे कि ये मेरी बीमारी- [एलर्जी +ब्रोंकलअस्थमा +उच्च रक्तचाप] के सिम्तमस हैं या महेन्द्र करमा ,दिनेश पटेल समेत दर्जनों कांग्रेसियों को जो की न केवल निहथ्ते थे बल्कि अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप शांतिपूर्ण और अहिंसक तौर -तरीकों से 'जन-जागरण ' यात्रा पर प्रदेश का भ्रमण कर रहे थे- पर नक्सलवादियों की बर्बर कार्यवाही का असर है . मैं अपने आपको बेहद तनाव पूर्ण स्थति में स्वयम भी अनुभव कर रहा था . ड्यूटी डॉ का कहना था कि आप नीदं में विचित्र आवाजें निकाल रहे थे, हाथ पैर पटक रहे थे ओर लड़ाई के अनुरूप 'मुखमुद्रा ' बना रहे थे. मैं स्वयम भी अर्धनिद्रा या सन्निपात की स्थति में अपने अवचेतन मन में अपने आपको' भारतीय सनातन पराजयों ' के लिए जिम्मेदार मानकर अपराधबोध की पीड़ा से छट पटा रहा था ,१ ० ४ डिग्री बुखार और ऊपर से इन दुर्दात्न्त -जघन्य - विजुगुप्सपूर्ण सूचनाओं का निरंतर आसवन सभी ने मेरा लगभग कीमा ही बनाकर रख दिया था . होश आने पर लगा कि सिर्फ कलम ही मुझे इस गर्त से बाहर खींच कर ला सकती है तब सलायन चढ़े हुए कांपते दायें हाँथ से बमुश्किल लिख पाया "ये नितांत निंदनीय अमानवीय हिंसा है" लगा कि वाक्य में मृदु वर्णों की पुनरावृत्ति ने लालित्य ला दिया है जबकि घटना बेहद डरावनी-वीभत्स और रक्त रंजित थी ,सोचा की कठोर वर्णों का अधिक प्रयोग होना चाहिए ,हो सके तो कुछ गन्दी गालियाँ भी होना चाहिए . लेकिन बहुत प्रयास के वावजूद अपने आपको ज्यादा देर तक उस मानसिक अवस्था में नहीं रख सका जिसमें इंसान कुछअतिरंजित सृजन करता है .
और फिर लिखा -गुमराह -खूनी -दरिन्दे नक्सल वादियों की कायराना- हरकत -प्रतिशोध ...! कलम फिर यहाँ हिचकिचाई .. भावनाओं पर सभ्रांत लोक की विजय हुई और सारा विष वमन जो कागज पर उकेरा था वो पलंग के नीचे पडी डस्ट विन के हवाले कर दिया . मेरा गुस्सा भी औसत भारतीय की तरह क्वंटल से माशा रत्ती हो गया . और तथाकथित प्रज्ञा शक्ति ने काम करना बंद कर दिया , सोचा क्या यह बाकई कायराना प्रतिशोध ही था या 'वर्ग संघर्ष ' की वीरतापूर्ण कार्यवाही ! क्या आदिवासी युवा[युवतियां भी ] नहीं जानते थे की वे जिन्हें मारने निकले हैं उनमे भी अधिकांस आदिवासी ही होंगे? जो इस देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था मैं ही अपने दुखों -अभावों का निदान खोज रहे हैं ..! भले ही कांग्रेस और भाजपा ने अन्य पूंजीवादियों ने आजादी के ६ ५ सालों में केवल पूँजीवाद -साम्राज्यवाद को खाद पानी दिया है , साम्प्रदायिकता को पाला पोषा है, सलवा जुडूम के बहाने आदिवासियों को आपस में भिड़ाया है ,किन्तु ये भी तो सच है की इन्ही भाजपा और कांग्रेस ने ही नक्सलवाद को भी तो अपनी -अपनी बारी आने पर खूब सहलाया है…! फिर इस 'नरसंहार' के लिए क्या कोई एक विचार,व्यक्ति या समूह ही जिम्मेदार है ? क्या सलवा जुडूम से जुड़े आदिवासी और नक्सलवाद से जुड़े आदिवासी 'एक ही खान'के नहीं हैं ? फिर ये बस्तर के दर्भा-जीरम क्षेत्र का नर संहार 'वर्ग संघर्ष' के लिए की गई कार्यवाही कैसे हो सकता है .' क्या यह नर संहार अपनों का रक्त अपनों के द्वारा बहाकर पूंजीवाद के लिए ' किया गया निष्कंटक रास्ता नहीं हो सकता . और फिर माओ,चे ,फिदेल ,लेनिन ने कब कहाँ कहा कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए हर समय गोलियां ही दागते रहो . भारत के नक्सलवादी[माओवादी] अब तक जिस माओवाद का रोना रो रहे हैं वो तो माओ के जीते जी ही मरणासन्न हो चला था और माओ की मौत के बाद तो 'देंग् शियाओ -पेंग 'के अनुयाइयों ने उस माओवाद की जो ऐसी तैसी की उसे क्यों भुलाया जा रहा है . क्या वे भूल गए कि चीन में ही उसे जमीन के अन्दर सदा के लिए दफना दिया गया है . "सत्ता बन्दुक की नोंक से मिलती है " मिलती होगी कहीं शायद ये सिद्धांत अब भी सही हो सकता हो किन्तु जिस देश में गौतम बुद्ध ,महावीर स्वामी ,स्वामी रामक्रष्ण परमहंस ,स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी, गुरु नानक देव और संत कबीर हुए हों नम्बूदिरिपाद- और श्रीपाद अमृत डांगे जैसे अहिंसा और मानवता के पुजारी हुए हों उस देश में सब कुछ बन्दुक की नोंक पर ही होना असम्भव है . नक्सलवादियों ने जो मौत का तांडव किया उससे किनका हित साधा गया ये भी तो विचारणीय है .
इस खुनी खेल में विज'य किसकी हुई ? क्या पूंजीवाद हार गया ? क्या शोषण विहीन समाज व्यवस्था कायम हो गई या उसकी राह आसान हुई ?पूंजीवादी साम्राज्वाद का बाल भी बांका नहीं हुआ और नक्सलवाद तो पूंजीवाद की नाजायज औलाद साबित भी हो चूका है . देश का और छत्तीस गढ़ का सर्वहारा वर्ग तो अब हासिये से भी बाहर होने की स्थति में आ गया है . अब तक तो स्थानीय आदिवासी को सदियों से केवल उत्तरवर्ती वणिक ,जमींदार ,अफसर वर्ग के शोषण का शिकार होना पड़ता था .अब उसे दो पाटों के बीच पिसना पड़ रहा है . एक ओर सनातन से शोषण कारी और दूसरी ओर आज के ये तथाकथित स्वयम्भू क्रान्तिकारी जिनकी समझ बूझ पर, उनकी सैध्नातिक समझ पर, माओ ,फेदेल कास्त्रो या छे-गुए वेरा का कुत्ता भी मूतने को तैयार नहीं होगा . इन महामूर्ख नक्सलवादियों को इतनी मामूली सी समझ नहीं है कि अमेरिका का, चीन का, पाकिस्तान का, या किसी 'राष्ट्र घाती ' का भी कोई ऐंसा अजेंडा भी हो सकता है जो नक्सलवादियों के नापाक हाथों से पूरा हो रहा हो . सत्ता का देशी दलाल भी कोई छिपा हुआ मकसद पूरा करने में जुटा हो !
सोचता हूँ कि मुझे कभी कहीं कोई माओवादी मिले[और वो बन्दुक से नहीं मुँह से बात करे ] तो मैं उसे वैचारिक विमर्श की चुनौती देते हुए पूंछुंगा कि बता - इस मौत के तांडव से बस्तर के , छतीसगढ़ के ,भारत के या विश्व के सर्वहारा के किस हिस्से को क्या मिला? क्या क्रांति सम्पन्न हो चुकी ? क्या छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का शोषण अब नहीं होगा ?क्या वस्तर और छ ग समेत समस्त भारत की प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा के लुटेरों का बाल भी बांका हुआ ? क्या अब लूट नहीं होगी? क्या किसी एक भी भूखे - नंगे आदिवासी -मजदूर -वेरोजगार को इस नर संहार से रंचमात्र भी फायदा हुआ ?यदि इस घटना से नहीं तो और किस 'नरसंहार'से और कब -कब ?फायदे हुए ? ये भी तुम जैसे देश के गुमराह नौजवानों को देश की मेहनतकश आवाम के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए .तुम्हे यदि बन्दुक की ही भाषा आती है तो क्यों न तुम्हें विराट शक्तिशाली भारतीय फौजों के हवाले कर दिया जाए ? भारतीय फौजों ने अपने हाथों में मेहंदी नहीं लगा रखी है ,जिस दिन देश की संसद फरमान जारी करेगी कि ' आक्रमण'....! तो तुम नक्सलवादी चन्द घंटों में नेस्तोनाबूद कर दिए जाओगे . अभी आप वर्तमान व्यवस्था के भृष्ट तंत्र और ढीली पोली स्थानीय पुलिस के सामने शेर बन रहे हो ,भारतीय फौजों के सामने गीदड़ भी नहीं रह पाओगे . यदि नक्सलवादी-माओवादी सोचते हैं कि 'वो सुबह कभी तो आयेगी ....!जब क्रांति का सूर्योदय होगा ...तो हम भी इस 'उदयगान'के सहु-उद्घोषक बनने के लिए तैयार हैं किन्तु जब ' दर्भा -जीरम जैसे हज़ारों नरसंहार के बाद भी वर्तमान ' व्यवस्था ' का एक रोम भी नहीं हिला तो 'वैचारिक आत्मालोचना' में क्या बुराई है ?सोचो की कहीं न कहीं कोई तो खामी है .कम -से -कम तब तलक तो देश के सम्विधान को मानो जब तलक आप स्वयं 'राज्यसत्ता'के तथाकथित अधिनायक नहीं बन जाते . आप अपना वो एजेंडा जो तात्कालिक रूप से इम्प्लीमेंट करना चाहते हैं ,वर्तमान राज्यसत्ता के समक्ष और जनता के समक्ष रखते क्यों नहीं ? और बातचीत के रास्ते जब कुछ भी हासिल नहीं कर पाते तब 'अंजाम' की चुनौती देते तो कोई और बात होती . किन्तु आप नक्सलवादी लोग विचारधारा और सिद्धांत से तो बुरी तरह दिग्भ्रमित हैं ही साथ में देश के सर्वहारा वर्ग के लिए अब आप 'अनाड़ी की दोस्ती जी का जंजाल 'सावित हो चुके हैं .वर्ग संघर्ष की लाइन छोड़कर आप आतंकवादियों-अलगाववादियों -देशद्रोहियों की सी हरकत करते हुए निहत्थे काफिले पर धोखे से वार करते हैं एक-एक शरीर को सौ -सौ घाव देकर उनकी मौत पर जश्न मनाते हो ,आपको और आपकी विचारधारा को बारम्बार धिक्कार है…! इस स्थति में हम आपको पूंजीवादी साम्राज्यवाद और देशी साम्प्रदायिकतावाद का एजेंट करार देते हैं . और कामना करते हैं कि आपको जल्दी से जल्दी जडमूल से खत्म कर दिया जाए .
कॉम लेनिन ,कॉम कास्त्रो ,कॉम हो-चिन्ह-मिन्ह या स्वयम कॉम .माओ ने अपने-अपने राष्ट्रों के संविधान को क्रांति से पहले कभी नहीं छेड़ा . हालाँकि वे उसे पूँजीवादी राज्यसत्ता का मज़बूत औजार मानते थे . क्रांतियों से पहले नहीं बल्कि क्रांतियों के बाद 'सर्वहारा-अधिनायकबाद ' के अनुरूप आंशिक रूप से दुनिया के तमाम क्रान्तिकारियों ने अपने-अपने राष्ट्रों के संविधानों को संशोधित किया था . यही उचित भी था . यह संभव भी नहीं था कि राज्यसत्ता पर पूँजीपति या सामंत वर्ग काबिज हो और संविधान सर्वहारा वर्ग का हो यही नियम अब भी प्रासंगिक है ..क्या साल में दो-चार सौ आदिवासियों ,एक-दो दर्जन पेरा मिलिट्री फ़ोर्स के जवानों और एक-दो नेताओं-अफसरों की ह्त्या से 'लाल किले पर लाल निशाँ आ जाएगा'? इन हरकतों से संविधान बदल जाएगा ? बाबा साहिब को मानने वाले न केवल करोड़ों दलित बल्कि करोड़ों सुशिक्षित माध्यम वर्गीय सवर्ण वर्ग को वर्तमान संविधान में आस्था है वे आपके उस संविधान के बारे में जो खुद आप लोगों को भी नहीं मालूम- जाने बिना ,अपने वर्तमान 'प्रजातांत्रिक - धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद' से ओत -प्रोत संविधान को क्योकर त्यागने को तैयार होंगे ? आपके प्रति एक संवेदनात्मक भाव कुछ वुद्धिजीवियों में हो सकता है किन्तु वे भी आपकी हरकतों से निराशा के गर्त में डूबने को हैं . वेशक दर्भा - जीरम घाटी के हत्यारे किसी भी तरह से क्रान्तिकारी तो क्या नक्सलवादी या माओ वादी कहलाने लायक भी नहीं हैं . ये तो चोर-उच्चकों बटमारों या पिंडारियों के गिरोह हैं .. इनमे और उन में जो पाकिस्तान से प्रशिक्षण प्राप्त कर भारत में खून की होली खेलते हैं कोई फर्क नहीं। इनमें और उनमें बी कोई फर्क नहीं जो धर्म-मजहब के नाम पर हिसा का तांडव करने को उद्द्यत रहते हैं . इनसे अच्छे तो डाकू मानसिंग ,मोहरसिंह देवीसिंह थे जो पीछे से वार नहीं करते थे और गरीब को मारना तो दूर कभी डराते भी नहीं थे , जब -जब देश को बाहरी दुश्मन ने ललकारा इन डाकुओं ने तो देश को अपनी सेवायें देने का भी ऐलान किया .आज नक्सलवादी कितने गिर चुके हैं ? रोज-रोज की ख़बरें बता रही हैं कि वे विदेशों से हथियार पाते हैं , थाने लूटते हैं,जन-अदालतें लगाते हैं ,क्या खाप पंचायतों के तौर तरीकों और इन नक्लवादियों की आचरण शैली में कुछ फर्क है? अरे भाई ..! आप अपने आपको वैज्ञानिक विचारधारा का प्रवर्तक मानते हो और अति उन्नतशील प्रोग्रेसिव कहते हो ,लेकिन आपकी कथनी -करनी से किसका हितसाधान हो रहा है ये भी तो जनता को बताते जाओ .
आपने सीने पर तमगा लगा रखा है कि आप भगतसिंह हैं,छे-ग्वे -वेरा हैं,फिदेल कास्त्रो या ह्युगोचावेज हैं, आप गैरीबाल्डी हैं आप लेनिन -स्टालिन -माओ सब कुछ हैं किन्तु इन महा -क्रांतिकारियों ने आम जनता को नहीं राज्य सत्ता को उखड़ा फेंका था .आप तो बस्तर को बारूदी सुरंगों से पाटकर गरीब आदिवासियों को जीते जी मार रहे हो उनका जीना मुहाल कर रखा है और आप लोग बन्दुक के अलावा किसी की नहीं सुनते हो .आपको लगता है की आप इस राह पर ज्यादा देर तक टिक पायेंगे ? तो ये दिवा स्वप्न भी तभी तक देख पाओगे जब तक इस देश में भाजपा -कांग्रेस जैसी भृष्टाचार प्रिय पूंजीवादी डरपोंक पार्टियां सत्ता में हैं ,जिस दिन संसद में ईमानदार और बहादुर देशभक्त बहुमत में आ जायेंगे और भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल या फौज को आपके सफाए का आदेश दे देंगे उसके २ ४ घंटे के पेश्तर न आप बच पायेंगे और न आपके शुभचिंतक आपको .लाल सलाम ...! कहने के लिए कॉम माओ की आत्मा और दर्शन दोनों नहीं आयेंगे .
पूंजीवाद के विरोधी हैं आप! तो किस जगह ?कब? कहाँ? आपने पूंजीवाद का बाल उखाड़ा है वो भी बजा फरमाइए . कहने को तो सारा देश कहता है कि पूंजीवाद से देश और समाज का भला नहीं होने वाला और इस व्यवस्था को बदलने के लिए बहुत सारे लोग अहिंसक तरीके से सोचने और कार्यान्वित करनमें जुटे हैं .अंडा जब पक जाएगा तो चूजा भी बाहर आ जाएगा .वक्त से पहले जबरन फोड़ दोगे तो क्या निकलेगा ? वक्त से पहले कुछ हो भी गया तो अपरिपक्व ही हो सकेगा जो बाद में सर धुन कर पछताने का सबब बनकर रह जाएगा .ये कार्यवाही और उससे पूर्व दंतेवाडा समेत देशभर में की गई नक्सलवादी कार्यवाहियों का सार क्या है ? निसंदेह ये द्वंदात्मक ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन के उस सिद्धांत का अमलीकरण नहीं है जिसे वैज्ञानिक भौतिकवादी या साम्यवादी 'वर्ग संघर्ष' के नाम से संबोधित किया करते हैं ;बल्कि ये पूर्णत: वैचारिक दिग्भ्रम और नितांत भयाक्रांत प्रतिशोधात्मक ,अमानवीय, वीभत्स कार्यवाहियां हैं .राष्ट्र द्रोही ,जन-विरोधी हत्यारों द्वारा सर्वहारा वर्ग पर किया गया दरिंदगीपूर्ण-कायराना - हमला है .
विश्व इतिहास में जब-जब जय-पराजय की चर्चा होगी ,भारतीय पराजयों का इतिहास सबसे विराट और वीभत्स प्रतिध्वनित होगा . हांलांकि दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति,समाज[कबीला], कौम या राष्ट्र हो जिसे सदा विजयश्री ही मिली हो . हारना तो कभी उन्हें भी पडा था जो बाद में बड़े नामी विजयेता होकर दुनिया के लिए 'अवतार-पैगम्बर - ईश्वर -नायक -क्रुशेदर या मार्गदर्शक बने . भले ही वे दुनिया भर के दिलों में अब राज कर रहे हैं किन्तु एक न एक दिन वे भी अपने प्रतिद्वंदी / प्रतिश्पर्धी या खलनायक के हाथों पराजित अवश्य हुए थे .बाज मर्तवा तो ये भी हुआ की खलनायक जीत गए और 'सत्य-न्याय-मानवता' के अलमबरदार पराजित हुए . याने जो जीता वही सिकंदर , बाद में कतिपय खलनायकों ने तो दुनिया को अपना मजहब-पंथ भी बिन मांगे दे डाला . दुनिया भर के लोग इन ' मिस्डोक्टोरिन्स ' को फालो करते हुए सनातन से अपनी-अपनी अधोगति को प्राप्त हो रहे हैं . विश्व कल्याण और विश्व हितेषी अनेक महामानवों को उनकी सांसारिक और लोकोत्तर पराजय के कारण हमने या तो उन्हें विसरा दिया या खलनायक की कतार में खडा कर उनके प्रति कृतघ्नता प्रदर्शित कर दुनिया को 'विचारधाराओं के संघर्ष का अखाड़ा ' बना डाला है .नक्सलवादियों की न्रुशंश्ता ने न केवल सिध्धान्तों के साथ 'दुष्कर्म ' किया है बल्कि भारत को दुनिया में उसकी नैतिक अपंगता के लिए दिगम्बर कर दिया है। दुनिया आज हम पर हंसती है कि ये देश जो मुट्ठी भर गुमराह आदिवासी युवाओं को काबू में नहीं कर सकता वो अपने किसी भी शत्रु राष्ट्र से कैसे पार पा सकेगा ? वक्त आने पर वो दुश्मन से अपनी रक्षा कैसे करेगा ? अति - मानव-अधिकारवाद, 'अंध-पूंजीवाद विरोध ' के साथ-साथ उग्र -वाम पंथ पर भी भारत की जनता को 'विमर्श के केंद्र' में लाना होगा, उचित कार्यवाही भी करनी होगी तभी ये नासूर भरे जा सकेंगे जो विचारधाराओं के नाम पर 'धरतीपुत्रों' ने ही इस देश को दिए हैं . इस दिशा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी [मार्क्सवादी] बेहतर भूमिका अदा कर सकती है .
भारत की मु ख्य धारा के वामपंथी[ सी पी एम् ,सी पी आई इत्यादि] जिन्होंने पंजाब में लाखों की तादाद में 'भारत राष्ट्र' के लिए खालिस्तानी उग्रवादियों से लोहा लिया और वीरगति को प्राप्त हुए,जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय सरकार के भीषण 'नर संहार' में अपने प्राण गँवाए ,जिन्होंने आंध्र,बंगाल,बिहार झारखण्ड तथा छतीस गढ़ में नक्सलवादियों-माओवादियों से संघर्ष करते हुए प्राण गँवाए . अपने लाखों साथियों को खोया वे आज भी शिद्दत से नक्सलवाद का मुकाबला कर रहे हैं वे न केवल भौतिक रूप से बल्कि वैचारिक रूप से नक्सलवाद को भारत की जमीनी हकीकतों से बेमेल बताकर हमेशा ख़ारिज करते आये हैं .और वे आज भी कर रहे हैं उग्र्वाम पंथ के रूप में 'साम्यवादी क्रांति ' के सपने देखने वाले नक्सलवादियों ने इसीलिये पहले छतीस गढ़ में चुन-चुनकर माध्यम मार्गी -अहिसक वाम पंथियों को मारा ,अब कांग्रेस को मार रहे हैं , महेन्द्र करमा जो कि पहले सी पी आई में थे और बाद में कांग्रेस में आये थे वे भी इसी कारण मारे गए कि वे 'सत्ता बन्दुक की नोंक से मिलती है" का समर्थन नहीं कर सके। नक्सलवादी किसी के सगे नहीं हुए , अभी तक कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों को मारा अब भाजपा को भी अंत में निपटायेंगे . कोई नहीं बचेगा . वे केवल एक ही सूत्र जानते हैं 'सत्ता बन्दुक की नोंक से निकलती है .' उन्हें गाँधी,गौतम,अहिंसा और भारतीय लोकतंत्र से कोई सरोकार नहीं वे तो भारत का केंसर हैं और उन्हें चिन्हित कर फौजी कार्यवाही रुपी शल्य क्रिया के द्वारा फना किया जाना ही देश की जनता के हित में हैं .
चूँकि नक्सलवादी वर्तमान भारतीय संविधान को नहीं मानते याने वे 'भारत राष्ट्र' को नहीं मानते याने वे देशद्रोही हैं ,वे हमलावर हैं , वे कृतघ्न हैं , दर्भा-जीरम नरसंहार के लिए वे केवल कांग्रेसी काफिले की सामूहिक ह्त्या के लिए नहीं बल्कि भारत राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले के लिए जिम्मेदार हैं , वे जब भारतीय क़ानून व्यवस्था में यकीन नहीं रखते तो उस क़ानून के तहत कार्यवाही न करते हए ,उन पर सीधे फौजी कार्यवाही किये जाने का रास्ता साफ़ है .देश की संसद को चाहिए की सेनाओं को आदेश करे और न केवल छतीसगढ़ बल्कि सम्पूर्ण भारत से 'नक्सलवाद' माओवाद का खात्मा करे…! जनता को भय मुक्त करना ,जान-माल की हिफाजत और उसके जीने के अधिकार की हिफाजत सबसे पहला काम है यदि पोलिस और कानून व्यवस्था से यह संभव नहीं तो जनता को और देश की संसद को और लोकतंत्र के चारों खम्बों को चाहए कि इस नक्सलवाद रुपी नासूर को फौज रुपी शल्य चिकित्सक के हवाले कर दिया जाए ...! . 'नर संहार ' पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने से भी पक्ष-विपक्ष को बाज आना चाहिए ...!
श्रीराम तिवारी
छत्तीसगढ़ के दर्भा-जीरम घाटी क्षेत्र में तथाकथित माओवादियों [नक्सलवादियों] ने २ ५ मई-२ ० १ ३ को घात लगाकर कांग्रेस के नेताओं - नंदकुमार पटेल ,महेन्द्र कर्मा और मुदलियार समेत अनेक कार्यकर्ताओं तथा कतिपय अन्य लोगो की जिस दरिंदगी से ह्त्या की है वो सामंत और बर्बर युग से भी क्रूरतम मिशाल है ,उससे मैं इतना बिचलित हुआ कि शारीरिक रूप से 'अस्वस्थता ' के वावजूद भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अपने आपको रोक नहीं सका .हालाँकि नक्सलवादियों ने यह हमला करके कोई नई नजीर कायम नहीं की है। देश की ,प्रदेश की सरकारों और तमाम पढ़े-लिखे संवेदनशील भारतवासियों को मालूम है कि नक्सलवादियों ने पूरे बस्तर को बारूदी सुरंगों से पाट रखा है और वे कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा को निशाना तो अवश्य ही बनायेंगे . क्योंकि उस यात्रा का नेत्रत्व कर रहे स्वर्गीय श्री महेन्द्र करमा जी और श्री पटेल अब तक बस्तर क्षेत्र ही नहीं बल्कि एक तिहाई छत्तीस गढ़ नाप चुके थे और निसंदेह आम आदिवासी को लगने लगा था की परिवर्तन यात्रा ही नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन करना जरुरी हो गया है . नक्सलवादियों को यह कैसे सहन हो सकता था . वे नहीं चाहते थे कि भारतीय जनतंत्र की पताका के तले कोई परिवर्तन हो . वे शायद किसी अन्य किस्म के परिवर्तन के आकांक्षी हो सकते हैं , अतएव उनकी राह में फौरी तौर पर केवल-व्-केवल कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा का काफिला था और उन्होंने उस काफिले के साथ जो अमानवीय नृशंस व्यवहार किया वो शब्दों में अंकित किया जाना संभव नहीं है .
वेशक इस जघन्यतम नरसंहार में वीरगति को प्राप्त हुए कांग्रेसी काफिले को लोकतंत्र के रक्षकों और भारतीय गणतंत्र के अमर शहीदों की गाथा में शुमार किये जाने का हक़ है . अब यदि रमण बाबु लाख कहें कि चूक हो गई ,क्षमा करें ! किन्तु यह तो सावित हो ही चूका है की नक्सलवादियों को भाजपा की सदाशयता अवश्य ही प्राप्त थी या है . कुछ ढपोरशंखी भाजपाई तो बड़ी बेशर्मी से कह रहे हैं कि इन हमलों में अजीत जोगी का हाथ है याने अब भी भाजपा की नज़र में नक्सलवादी कसूरवार नहीं हैं . वास्तव में सिर्फ भाजपा ही भ्रमित नहीं है , कांग्रेस में भी ऐंसे अनेक मिल जायेंगे जिनको अपने मानसिक दिवालियेपन के इलाज की आवश्यकता है , जो 'जीरम-दर्भा घाटी' नरसंहार के लिए केवल भाजपा को कसूरवार मानते हैं . उन्हें मालूम हो कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी [एन आई ए ] की शुरूआती रिपोर्ट में ही वे स्वयम फँसते नजर आ रहे हैं . कांग्रेस के चार-चार क्षेत्रीय नेता स्वयम हमले वाले रोज दिन भर नक्सलियों के संपर्क में रहे हैं .इन नेताओं ने पल-पल की जानकारी नक्सलियों को दी थी .एन आई ए को ये यह जानकारी नेताओं के काल डिटेल से प्राप्त हुई है .हालाँकि जिन नम्बरों से कांग्रेसियों का संपर्क था वे अब बंद हैं .ये सारे नंबर फर्जी और बेनामी पाए गए जो सभी के सभी प्राइवेट आपरेटर्स द्वारा जारी किये गए थे .अब कांग्रेसियों की बोलती बंद है . वे नक्सलवाद के खिलाफ बोलने में हिचकते हैं ये तो सभी को मालूम था किन्तु अपने ही साथियों से गद्दारी का यह एक जीवंत एवं शर्मनाक प्रमाण है और यह एक स्वाभाविक परिणिति है
कुछ स्वनामधन्य पत्रकार ,वुद्धिजीवी ,दिग्गज वामपंथी साहित्यकार भी है जो कहेंगे कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बराबर के कसूरवार हैं, आदिवासियों का सनातन से शोषण हो रहा है उनके जल-जंगल-जमीन छीनोगे और जिनका शोषण करोगे वे तो हथियार उठाएंगे ही . बगेरह-बगेरह . बहुत कम हैं जो साफ़-साफ़ कहें कि 'जीरम-दर्भा 'नरसंहार के लिए केवल और केवल नक्सलवादी जिम्मेदार हैं। जो कि भारत राष्ट्र के ही खिलाफ है. जो भारतीय संविधान को नहीं मानते , भारत को अपना देश नहीं मानते और पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ 'वर्ग युद्ध' छेड़ने के बहाने अब तक केवल निर्दोष लोगों का खास तौर से निर्धन आदिवासियों का रक्त बहाते आये हैं . जिस नरसंहार से राष्ट्र को उद्देलित होना चाहिए था ,नक्सलवाद का सफाया किया जाना चाहिए था उस पर कांग्रेस और भाजपा ' चुनावी चौसर' बिछा रही हैं। संसद में गंभीरता से बहस करने के बजाय केवल मीडिया के समक्ष बयानबाजी में लिप्त हैं . मीडिया आई पी एल ,क्रिकेट और सटोरियों के जीवन परिचय में व्यस्त है और आम आदमी -बेतहासा मंहगाई,बिजली-संकट,जलसंकट ,लूट,ह्त्या,बलात्कार तथा हर किस्म के व्यवस्थागत दोषों से पीड़ित है . किसी को इस नर संहार से कोई खास वेदना नहीं ,कुछ तो यहाँ तक कहते पाए गए कि नेताओं को मारना ही चाहिए क्योंकि ये इसी लायक हैं . मुझे भारतीय समाज के वर्तमान चारित्रिक पतन और संवेदना शून्य होने का उतना दुःख नहीं जितना इस बात का कि नाहक ही सिर्फ वो लोग मारे जा रहे हैं जो सच बोलने की हिमाकत करते हैं . उधर हत्यारे हैं कि एक क्रान्तिकारी दर्शन के साथ 'बलात्कार ' किये जा रहे हैं .
मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' जिन्होंने नहीं पढ़ी वे अवश्य पढ़ें और जिन्होंने पढ़ी है वे फिर से पढ़े ,'एक 'कफ़न ' के लिए जनता ने जो पैसे दिए थे ,किस तरह से उनका 'सदुपयोग' किया गया कैसे मर्त्यका के पति और श्वसुर मद मस्त पड़े रहे और जनता को खुद आगे होकर उस असमय म्रत्यु को प्राप्त हुई 'अबला का 'क्रिया कर्म ' करना पड़ा . इसी तरह भारतीय जनतंत्र में जब-जब रक्त रंजित क्षण आते हैं तो 'सत्ता रुपी मर्त्यका' के ये सपरिजन -भाजपा और कांग्रेस जनता की हमदर्दी को वोट में बदलने के लिए वावले हो उठते हैं और 'बिडंबनाओं' का क्रियाकर्म भारत की जनता को करना पड़ता है . चूँकि मैं आम आदमी हूँ ,जनता का हिस्सा हूँ अतएव देश के -समाज के हर दुःख -सुख को समेकित रूप से अनुभव करता हूँ और कुछ कर सकूँ यह तो मालूम नहीं किन्तु स्वयम सत्यान्वेष्न कर सकूँ यह माद्दा अवश्य अपने आप में देखता हूँ . यदि मैं 'कफ़न ' चोरों की बदमाशी को उजागर करने में सक्षम हूँ तो अवश्य करूंगा . भारत की वेदना का कारण-पूंजीवादी सरमायादारी ,आतंकवाद ,अलगाववाद या नक्सलवाद जो भी हो यदि में जानता हूँ की 'इस मर्ज़ की दावा क्या है तो उसे उजागर अवश्य करूंगा .अब ये बाकि लोगों का काम है कि नरसंहार जनित राष्ट्रीय पीड़ा को व्यवस्था परिवरतन की अहिंसक यात्रा के विमर्श को अंजाम तक ले जाने में सहयात्री हों . साथी महेन्द्र करमा और अन्य साथियों की कुर्वानी को व्यर्थ न जाने दें .
जब ये नर संहार हुआ तब मैं अस्पताल में एडमिट था और घटना के चार घंटे वाद जब न्यूज़ चेनल्स पर नजर डाली तो सन्निपात की डबल स्थति में मुझे देख डॉ समझ नहीं पा रहे थे कि ये मेरी बीमारी- [एलर्जी +ब्रोंकलअस्थमा +उच्च रक्तचाप] के सिम्तमस हैं या महेन्द्र करमा ,दिनेश पटेल समेत दर्जनों कांग्रेसियों को जो की न केवल निहथ्ते थे बल्कि अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप शांतिपूर्ण और अहिंसक तौर -तरीकों से 'जन-जागरण ' यात्रा पर प्रदेश का भ्रमण कर रहे थे- पर नक्सलवादियों की बर्बर कार्यवाही का असर है . मैं अपने आपको बेहद तनाव पूर्ण स्थति में स्वयम भी अनुभव कर रहा था . ड्यूटी डॉ का कहना था कि आप नीदं में विचित्र आवाजें निकाल रहे थे, हाथ पैर पटक रहे थे ओर लड़ाई के अनुरूप 'मुखमुद्रा ' बना रहे थे. मैं स्वयम भी अर्धनिद्रा या सन्निपात की स्थति में अपने अवचेतन मन में अपने आपको' भारतीय सनातन पराजयों ' के लिए जिम्मेदार मानकर अपराधबोध की पीड़ा से छट पटा रहा था ,१ ० ४ डिग्री बुखार और ऊपर से इन दुर्दात्न्त -जघन्य - विजुगुप्सपूर्ण सूचनाओं का निरंतर आसवन सभी ने मेरा लगभग कीमा ही बनाकर रख दिया था . होश आने पर लगा कि सिर्फ कलम ही मुझे इस गर्त से बाहर खींच कर ला सकती है तब सलायन चढ़े हुए कांपते दायें हाँथ से बमुश्किल लिख पाया "ये नितांत निंदनीय अमानवीय हिंसा है" लगा कि वाक्य में मृदु वर्णों की पुनरावृत्ति ने लालित्य ला दिया है जबकि घटना बेहद डरावनी-वीभत्स और रक्त रंजित थी ,सोचा की कठोर वर्णों का अधिक प्रयोग होना चाहिए ,हो सके तो कुछ गन्दी गालियाँ भी होना चाहिए . लेकिन बहुत प्रयास के वावजूद अपने आपको ज्यादा देर तक उस मानसिक अवस्था में नहीं रख सका जिसमें इंसान कुछअतिरंजित सृजन करता है .
और फिर लिखा -गुमराह -खूनी -दरिन्दे नक्सल वादियों की कायराना- हरकत -प्रतिशोध ...! कलम फिर यहाँ हिचकिचाई .. भावनाओं पर सभ्रांत लोक की विजय हुई और सारा विष वमन जो कागज पर उकेरा था वो पलंग के नीचे पडी डस्ट विन के हवाले कर दिया . मेरा गुस्सा भी औसत भारतीय की तरह क्वंटल से माशा रत्ती हो गया . और तथाकथित प्रज्ञा शक्ति ने काम करना बंद कर दिया , सोचा क्या यह बाकई कायराना प्रतिशोध ही था या 'वर्ग संघर्ष ' की वीरतापूर्ण कार्यवाही ! क्या आदिवासी युवा[युवतियां भी ] नहीं जानते थे की वे जिन्हें मारने निकले हैं उनमे भी अधिकांस आदिवासी ही होंगे? जो इस देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था मैं ही अपने दुखों -अभावों का निदान खोज रहे हैं ..! भले ही कांग्रेस और भाजपा ने अन्य पूंजीवादियों ने आजादी के ६ ५ सालों में केवल पूँजीवाद -साम्राज्यवाद को खाद पानी दिया है , साम्प्रदायिकता को पाला पोषा है, सलवा जुडूम के बहाने आदिवासियों को आपस में भिड़ाया है ,किन्तु ये भी तो सच है की इन्ही भाजपा और कांग्रेस ने ही नक्सलवाद को भी तो अपनी -अपनी बारी आने पर खूब सहलाया है…! फिर इस 'नरसंहार' के लिए क्या कोई एक विचार,व्यक्ति या समूह ही जिम्मेदार है ? क्या सलवा जुडूम से जुड़े आदिवासी और नक्सलवाद से जुड़े आदिवासी 'एक ही खान'के नहीं हैं ? फिर ये बस्तर के दर्भा-जीरम क्षेत्र का नर संहार 'वर्ग संघर्ष' के लिए की गई कार्यवाही कैसे हो सकता है .' क्या यह नर संहार अपनों का रक्त अपनों के द्वारा बहाकर पूंजीवाद के लिए ' किया गया निष्कंटक रास्ता नहीं हो सकता . और फिर माओ,चे ,फिदेल ,लेनिन ने कब कहाँ कहा कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए हर समय गोलियां ही दागते रहो . भारत के नक्सलवादी[माओवादी] अब तक जिस माओवाद का रोना रो रहे हैं वो तो माओ के जीते जी ही मरणासन्न हो चला था और माओ की मौत के बाद तो 'देंग् शियाओ -पेंग 'के अनुयाइयों ने उस माओवाद की जो ऐसी तैसी की उसे क्यों भुलाया जा रहा है . क्या वे भूल गए कि चीन में ही उसे जमीन के अन्दर सदा के लिए दफना दिया गया है . "सत्ता बन्दुक की नोंक से मिलती है " मिलती होगी कहीं शायद ये सिद्धांत अब भी सही हो सकता हो किन्तु जिस देश में गौतम बुद्ध ,महावीर स्वामी ,स्वामी रामक्रष्ण परमहंस ,स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी, गुरु नानक देव और संत कबीर हुए हों नम्बूदिरिपाद- और श्रीपाद अमृत डांगे जैसे अहिंसा और मानवता के पुजारी हुए हों उस देश में सब कुछ बन्दुक की नोंक पर ही होना असम्भव है . नक्सलवादियों ने जो मौत का तांडव किया उससे किनका हित साधा गया ये भी तो विचारणीय है .
इस खुनी खेल में विज'य किसकी हुई ? क्या पूंजीवाद हार गया ? क्या शोषण विहीन समाज व्यवस्था कायम हो गई या उसकी राह आसान हुई ?पूंजीवादी साम्राज्वाद का बाल भी बांका नहीं हुआ और नक्सलवाद तो पूंजीवाद की नाजायज औलाद साबित भी हो चूका है . देश का और छत्तीस गढ़ का सर्वहारा वर्ग तो अब हासिये से भी बाहर होने की स्थति में आ गया है . अब तक तो स्थानीय आदिवासी को सदियों से केवल उत्तरवर्ती वणिक ,जमींदार ,अफसर वर्ग के शोषण का शिकार होना पड़ता था .अब उसे दो पाटों के बीच पिसना पड़ रहा है . एक ओर सनातन से शोषण कारी और दूसरी ओर आज के ये तथाकथित स्वयम्भू क्रान्तिकारी जिनकी समझ बूझ पर, उनकी सैध्नातिक समझ पर, माओ ,फेदेल कास्त्रो या छे-गुए वेरा का कुत्ता भी मूतने को तैयार नहीं होगा . इन महामूर्ख नक्सलवादियों को इतनी मामूली सी समझ नहीं है कि अमेरिका का, चीन का, पाकिस्तान का, या किसी 'राष्ट्र घाती ' का भी कोई ऐंसा अजेंडा भी हो सकता है जो नक्सलवादियों के नापाक हाथों से पूरा हो रहा हो . सत्ता का देशी दलाल भी कोई छिपा हुआ मकसद पूरा करने में जुटा हो !
सोचता हूँ कि मुझे कभी कहीं कोई माओवादी मिले[और वो बन्दुक से नहीं मुँह से बात करे ] तो मैं उसे वैचारिक विमर्श की चुनौती देते हुए पूंछुंगा कि बता - इस मौत के तांडव से बस्तर के , छतीसगढ़ के ,भारत के या विश्व के सर्वहारा के किस हिस्से को क्या मिला? क्या क्रांति सम्पन्न हो चुकी ? क्या छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का शोषण अब नहीं होगा ?क्या वस्तर और छ ग समेत समस्त भारत की प्रचुर प्राकृतिक सम्पदा के लुटेरों का बाल भी बांका हुआ ? क्या अब लूट नहीं होगी? क्या किसी एक भी भूखे - नंगे आदिवासी -मजदूर -वेरोजगार को इस नर संहार से रंचमात्र भी फायदा हुआ ?यदि इस घटना से नहीं तो और किस 'नरसंहार'से और कब -कब ?फायदे हुए ? ये भी तुम जैसे देश के गुमराह नौजवानों को देश की मेहनतकश आवाम के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए .तुम्हे यदि बन्दुक की ही भाषा आती है तो क्यों न तुम्हें विराट शक्तिशाली भारतीय फौजों के हवाले कर दिया जाए ? भारतीय फौजों ने अपने हाथों में मेहंदी नहीं लगा रखी है ,जिस दिन देश की संसद फरमान जारी करेगी कि ' आक्रमण'....! तो तुम नक्सलवादी चन्द घंटों में नेस्तोनाबूद कर दिए जाओगे . अभी आप वर्तमान व्यवस्था के भृष्ट तंत्र और ढीली पोली स्थानीय पुलिस के सामने शेर बन रहे हो ,भारतीय फौजों के सामने गीदड़ भी नहीं रह पाओगे . यदि नक्सलवादी-माओवादी सोचते हैं कि 'वो सुबह कभी तो आयेगी ....!जब क्रांति का सूर्योदय होगा ...तो हम भी इस 'उदयगान'के सहु-उद्घोषक बनने के लिए तैयार हैं किन्तु जब ' दर्भा -जीरम जैसे हज़ारों नरसंहार के बाद भी वर्तमान ' व्यवस्था ' का एक रोम भी नहीं हिला तो 'वैचारिक आत्मालोचना' में क्या बुराई है ?सोचो की कहीं न कहीं कोई तो खामी है .कम -से -कम तब तलक तो देश के सम्विधान को मानो जब तलक आप स्वयं 'राज्यसत्ता'के तथाकथित अधिनायक नहीं बन जाते . आप अपना वो एजेंडा जो तात्कालिक रूप से इम्प्लीमेंट करना चाहते हैं ,वर्तमान राज्यसत्ता के समक्ष और जनता के समक्ष रखते क्यों नहीं ? और बातचीत के रास्ते जब कुछ भी हासिल नहीं कर पाते तब 'अंजाम' की चुनौती देते तो कोई और बात होती . किन्तु आप नक्सलवादी लोग विचारधारा और सिद्धांत से तो बुरी तरह दिग्भ्रमित हैं ही साथ में देश के सर्वहारा वर्ग के लिए अब आप 'अनाड़ी की दोस्ती जी का जंजाल 'सावित हो चुके हैं .वर्ग संघर्ष की लाइन छोड़कर आप आतंकवादियों-अलगाववादियों -देशद्रोहियों की सी हरकत करते हुए निहत्थे काफिले पर धोखे से वार करते हैं एक-एक शरीर को सौ -सौ घाव देकर उनकी मौत पर जश्न मनाते हो ,आपको और आपकी विचारधारा को बारम्बार धिक्कार है…! इस स्थति में हम आपको पूंजीवादी साम्राज्यवाद और देशी साम्प्रदायिकतावाद का एजेंट करार देते हैं . और कामना करते हैं कि आपको जल्दी से जल्दी जडमूल से खत्म कर दिया जाए .
कॉम लेनिन ,कॉम कास्त्रो ,कॉम हो-चिन्ह-मिन्ह या स्वयम कॉम .माओ ने अपने-अपने राष्ट्रों के संविधान को क्रांति से पहले कभी नहीं छेड़ा . हालाँकि वे उसे पूँजीवादी राज्यसत्ता का मज़बूत औजार मानते थे . क्रांतियों से पहले नहीं बल्कि क्रांतियों के बाद 'सर्वहारा-अधिनायकबाद ' के अनुरूप आंशिक रूप से दुनिया के तमाम क्रान्तिकारियों ने अपने-अपने राष्ट्रों के संविधानों को संशोधित किया था . यही उचित भी था . यह संभव भी नहीं था कि राज्यसत्ता पर पूँजीपति या सामंत वर्ग काबिज हो और संविधान सर्वहारा वर्ग का हो यही नियम अब भी प्रासंगिक है ..क्या साल में दो-चार सौ आदिवासियों ,एक-दो दर्जन पेरा मिलिट्री फ़ोर्स के जवानों और एक-दो नेताओं-अफसरों की ह्त्या से 'लाल किले पर लाल निशाँ आ जाएगा'? इन हरकतों से संविधान बदल जाएगा ? बाबा साहिब को मानने वाले न केवल करोड़ों दलित बल्कि करोड़ों सुशिक्षित माध्यम वर्गीय सवर्ण वर्ग को वर्तमान संविधान में आस्था है वे आपके उस संविधान के बारे में जो खुद आप लोगों को भी नहीं मालूम- जाने बिना ,अपने वर्तमान 'प्रजातांत्रिक - धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद' से ओत -प्रोत संविधान को क्योकर त्यागने को तैयार होंगे ? आपके प्रति एक संवेदनात्मक भाव कुछ वुद्धिजीवियों में हो सकता है किन्तु वे भी आपकी हरकतों से निराशा के गर्त में डूबने को हैं . वेशक दर्भा - जीरम घाटी के हत्यारे किसी भी तरह से क्रान्तिकारी तो क्या नक्सलवादी या माओ वादी कहलाने लायक भी नहीं हैं . ये तो चोर-उच्चकों बटमारों या पिंडारियों के गिरोह हैं .. इनमे और उन में जो पाकिस्तान से प्रशिक्षण प्राप्त कर भारत में खून की होली खेलते हैं कोई फर्क नहीं। इनमें और उनमें बी कोई फर्क नहीं जो धर्म-मजहब के नाम पर हिसा का तांडव करने को उद्द्यत रहते हैं . इनसे अच्छे तो डाकू मानसिंग ,मोहरसिंह देवीसिंह थे जो पीछे से वार नहीं करते थे और गरीब को मारना तो दूर कभी डराते भी नहीं थे , जब -जब देश को बाहरी दुश्मन ने ललकारा इन डाकुओं ने तो देश को अपनी सेवायें देने का भी ऐलान किया .आज नक्सलवादी कितने गिर चुके हैं ? रोज-रोज की ख़बरें बता रही हैं कि वे विदेशों से हथियार पाते हैं , थाने लूटते हैं,जन-अदालतें लगाते हैं ,क्या खाप पंचायतों के तौर तरीकों और इन नक्लवादियों की आचरण शैली में कुछ फर्क है? अरे भाई ..! आप अपने आपको वैज्ञानिक विचारधारा का प्रवर्तक मानते हो और अति उन्नतशील प्रोग्रेसिव कहते हो ,लेकिन आपकी कथनी -करनी से किसका हितसाधान हो रहा है ये भी तो जनता को बताते जाओ .
आपने सीने पर तमगा लगा रखा है कि आप भगतसिंह हैं,छे-ग्वे -वेरा हैं,फिदेल कास्त्रो या ह्युगोचावेज हैं, आप गैरीबाल्डी हैं आप लेनिन -स्टालिन -माओ सब कुछ हैं किन्तु इन महा -क्रांतिकारियों ने आम जनता को नहीं राज्य सत्ता को उखड़ा फेंका था .आप तो बस्तर को बारूदी सुरंगों से पाटकर गरीब आदिवासियों को जीते जी मार रहे हो उनका जीना मुहाल कर रखा है और आप लोग बन्दुक के अलावा किसी की नहीं सुनते हो .आपको लगता है की आप इस राह पर ज्यादा देर तक टिक पायेंगे ? तो ये दिवा स्वप्न भी तभी तक देख पाओगे जब तक इस देश में भाजपा -कांग्रेस जैसी भृष्टाचार प्रिय पूंजीवादी डरपोंक पार्टियां सत्ता में हैं ,जिस दिन संसद में ईमानदार और बहादुर देशभक्त बहुमत में आ जायेंगे और भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल या फौज को आपके सफाए का आदेश दे देंगे उसके २ ४ घंटे के पेश्तर न आप बच पायेंगे और न आपके शुभचिंतक आपको .लाल सलाम ...! कहने के लिए कॉम माओ की आत्मा और दर्शन दोनों नहीं आयेंगे .
पूंजीवाद के विरोधी हैं आप! तो किस जगह ?कब? कहाँ? आपने पूंजीवाद का बाल उखाड़ा है वो भी बजा फरमाइए . कहने को तो सारा देश कहता है कि पूंजीवाद से देश और समाज का भला नहीं होने वाला और इस व्यवस्था को बदलने के लिए बहुत सारे लोग अहिंसक तरीके से सोचने और कार्यान्वित करनमें जुटे हैं .अंडा जब पक जाएगा तो चूजा भी बाहर आ जाएगा .वक्त से पहले जबरन फोड़ दोगे तो क्या निकलेगा ? वक्त से पहले कुछ हो भी गया तो अपरिपक्व ही हो सकेगा जो बाद में सर धुन कर पछताने का सबब बनकर रह जाएगा .ये कार्यवाही और उससे पूर्व दंतेवाडा समेत देशभर में की गई नक्सलवादी कार्यवाहियों का सार क्या है ? निसंदेह ये द्वंदात्मक ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन के उस सिद्धांत का अमलीकरण नहीं है जिसे वैज्ञानिक भौतिकवादी या साम्यवादी 'वर्ग संघर्ष' के नाम से संबोधित किया करते हैं ;बल्कि ये पूर्णत: वैचारिक दिग्भ्रम और नितांत भयाक्रांत प्रतिशोधात्मक ,अमानवीय, वीभत्स कार्यवाहियां हैं .राष्ट्र द्रोही ,जन-विरोधी हत्यारों द्वारा सर्वहारा वर्ग पर किया गया दरिंदगीपूर्ण-कायराना - हमला है .
विश्व इतिहास में जब-जब जय-पराजय की चर्चा होगी ,भारतीय पराजयों का इतिहास सबसे विराट और वीभत्स प्रतिध्वनित होगा . हांलांकि दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति,समाज[कबीला], कौम या राष्ट्र हो जिसे सदा विजयश्री ही मिली हो . हारना तो कभी उन्हें भी पडा था जो बाद में बड़े नामी विजयेता होकर दुनिया के लिए 'अवतार-पैगम्बर - ईश्वर -नायक -क्रुशेदर या मार्गदर्शक बने . भले ही वे दुनिया भर के दिलों में अब राज कर रहे हैं किन्तु एक न एक दिन वे भी अपने प्रतिद्वंदी / प्रतिश्पर्धी या खलनायक के हाथों पराजित अवश्य हुए थे .बाज मर्तवा तो ये भी हुआ की खलनायक जीत गए और 'सत्य-न्याय-मानवता' के अलमबरदार पराजित हुए . याने जो जीता वही सिकंदर , बाद में कतिपय खलनायकों ने तो दुनिया को अपना मजहब-पंथ भी बिन मांगे दे डाला . दुनिया भर के लोग इन ' मिस्डोक्टोरिन्स ' को फालो करते हुए सनातन से अपनी-अपनी अधोगति को प्राप्त हो रहे हैं . विश्व कल्याण और विश्व हितेषी अनेक महामानवों को उनकी सांसारिक और लोकोत्तर पराजय के कारण हमने या तो उन्हें विसरा दिया या खलनायक की कतार में खडा कर उनके प्रति कृतघ्नता प्रदर्शित कर दुनिया को 'विचारधाराओं के संघर्ष का अखाड़ा ' बना डाला है .नक्सलवादियों की न्रुशंश्ता ने न केवल सिध्धान्तों के साथ 'दुष्कर्म ' किया है बल्कि भारत को दुनिया में उसकी नैतिक अपंगता के लिए दिगम्बर कर दिया है। दुनिया आज हम पर हंसती है कि ये देश जो मुट्ठी भर गुमराह आदिवासी युवाओं को काबू में नहीं कर सकता वो अपने किसी भी शत्रु राष्ट्र से कैसे पार पा सकेगा ? वक्त आने पर वो दुश्मन से अपनी रक्षा कैसे करेगा ? अति - मानव-अधिकारवाद, 'अंध-पूंजीवाद विरोध ' के साथ-साथ उग्र -वाम पंथ पर भी भारत की जनता को 'विमर्श के केंद्र' में लाना होगा, उचित कार्यवाही भी करनी होगी तभी ये नासूर भरे जा सकेंगे जो विचारधाराओं के नाम पर 'धरतीपुत्रों' ने ही इस देश को दिए हैं . इस दिशा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी [मार्क्सवादी] बेहतर भूमिका अदा कर सकती है .
भारत की मु ख्य धारा के वामपंथी[ सी पी एम् ,सी पी आई इत्यादि] जिन्होंने पंजाब में लाखों की तादाद में 'भारत राष्ट्र' के लिए खालिस्तानी उग्रवादियों से लोहा लिया और वीरगति को प्राप्त हुए,जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय सरकार के भीषण 'नर संहार' में अपने प्राण गँवाए ,जिन्होंने आंध्र,बंगाल,बिहार झारखण्ड तथा छतीस गढ़ में नक्सलवादियों-माओवादियों से संघर्ष करते हुए प्राण गँवाए . अपने लाखों साथियों को खोया वे आज भी शिद्दत से नक्सलवाद का मुकाबला कर रहे हैं वे न केवल भौतिक रूप से बल्कि वैचारिक रूप से नक्सलवाद को भारत की जमीनी हकीकतों से बेमेल बताकर हमेशा ख़ारिज करते आये हैं .और वे आज भी कर रहे हैं उग्र्वाम पंथ के रूप में 'साम्यवादी क्रांति ' के सपने देखने वाले नक्सलवादियों ने इसीलिये पहले छतीस गढ़ में चुन-चुनकर माध्यम मार्गी -अहिसक वाम पंथियों को मारा ,अब कांग्रेस को मार रहे हैं , महेन्द्र करमा जो कि पहले सी पी आई में थे और बाद में कांग्रेस में आये थे वे भी इसी कारण मारे गए कि वे 'सत्ता बन्दुक की नोंक से मिलती है" का समर्थन नहीं कर सके। नक्सलवादी किसी के सगे नहीं हुए , अभी तक कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों को मारा अब भाजपा को भी अंत में निपटायेंगे . कोई नहीं बचेगा . वे केवल एक ही सूत्र जानते हैं 'सत्ता बन्दुक की नोंक से निकलती है .' उन्हें गाँधी,गौतम,अहिंसा और भारतीय लोकतंत्र से कोई सरोकार नहीं वे तो भारत का केंसर हैं और उन्हें चिन्हित कर फौजी कार्यवाही रुपी शल्य क्रिया के द्वारा फना किया जाना ही देश की जनता के हित में हैं .
चूँकि नक्सलवादी वर्तमान भारतीय संविधान को नहीं मानते याने वे 'भारत राष्ट्र' को नहीं मानते याने वे देशद्रोही हैं ,वे हमलावर हैं , वे कृतघ्न हैं , दर्भा-जीरम नरसंहार के लिए वे केवल कांग्रेसी काफिले की सामूहिक ह्त्या के लिए नहीं बल्कि भारत राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले के लिए जिम्मेदार हैं , वे जब भारतीय क़ानून व्यवस्था में यकीन नहीं रखते तो उस क़ानून के तहत कार्यवाही न करते हए ,उन पर सीधे फौजी कार्यवाही किये जाने का रास्ता साफ़ है .देश की संसद को चाहिए की सेनाओं को आदेश करे और न केवल छतीसगढ़ बल्कि सम्पूर्ण भारत से 'नक्सलवाद' माओवाद का खात्मा करे…! जनता को भय मुक्त करना ,जान-माल की हिफाजत और उसके जीने के अधिकार की हिफाजत सबसे पहला काम है यदि पोलिस और कानून व्यवस्था से यह संभव नहीं तो जनता को और देश की संसद को और लोकतंत्र के चारों खम्बों को चाहए कि इस नक्सलवाद रुपी नासूर को फौज रुपी शल्य चिकित्सक के हवाले कर दिया जाए ...! . 'नर संहार ' पर राजनैतिक रोटियाँ सेंकने से भी पक्ष-विपक्ष को बाज आना चाहिए ...!
श्रीराम तिवारी
हम आपके उत्तम स्वस्थ्य की मंगलकामना करते हैं।
जवाब देंहटाएंकांग्रेस के मनमोहन गुट/भाजपा/नक्सल गठजोड़ का नमूना है यह नर-संहार।
thank you comrade for encouraging...!
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