मंगलवार, 25 जून 2013

                             उत्तराखंड  प्राकृत आपदा बनाम वोट की  राजनीति [दोहे ]

                  
                     मानसून  के मेघ  जब  , गरजे गगन  प्रचण्ड .

                     महाविनाशकारी  हुई , प्रलय उत्तराखण्ड  . .



                     चारधाम में आ पड़ी , प्राकृत  आपदा आन .

                     गिद्ध -बाज  उड़ने लगे , देवभूमि श्मशान . .


                     राजनीति  में मच रही ,प्रलय पर्यटन धूम .

                      लाखों -जन  बेबस  हुए , जीवन से महरूम . .


                   नभ -वाहन से  कर  चले ,   नेता  गगन -बिहार .

                  त्रासद घटना भी बनी ,   वोटों   का    आधार . .


                 
                                                                                                                                                                                           

                प्रलयंकर परिद्रश्य है ,  क्षत -विक्षत केदार .

            
                    अकर्मण्य सरकार हुई ,सेना तारणहार ..


                              श्रीराम तिवारी 

                    

शनिवार, 22 जून 2013


            उत्तराखण्ड  में  हाहाकार ..!.कौन है इसका जिम्मेदार  ...? कौन सुनेगा पीड़ितों की पुकार ...?

आदिकाल   या पाषाण युग   या हिमयुग  से  या सभ्यता के उदयकाल  से ही  जिसने- आग   ,हवा   ,पानी  ,आकाश  और बुद्धि  की प्रबलता को  स्वीकार किया था  वो  'मानव' 'इंसान'-   जगतीतल के समस्त  प्राणियों में  सबसे चालाक और मेधा शक्तिसंपन्न होने से प्रकृति का सबसे बड़ा दोहनकर्ता , उपभोगकर्ता  एवं विनाशकर्ता  था , उसीने  गाँव ,नगर ,महानगर ,राष्ट्र और 'संयुक्त राष्ट्र ' बनाये . राज्य , नियम -क़ानून, शिक्षा ,स्वास्थ्य , सामाजिक -आर्थिक -सांस्कृतिक  रीतिरिवाज ,सड़कें बिजली ,यांत्रिकी , दूर-संचार  ,नहरें  ,तालाब और बाँध  बनाए . उसने विगत बीस हजार सालों में भी   प्रकृति के साथ  उतने  बुरे सलूक नहीं  किये होंगे   जितने कि विगत बीस  साल  में  कर डाले .    शोषण-कारी  प्रवृत्ति के मानवों ने  ही  इस उत्तर-आधुनिक युग में  न केवल   धरती को    बल्कि   आसमान  और अन्तरिक्ष को भी  बदरंग कर   डाला  है ।  उसके   शारीरिक  परिश्रम,आन्वेश्कीय मानसिकता  और प्रकृति प्रदत्त   बौद्धिक विशषता  के योग ने उसे  अन्य  समस्त 'जलचर-थलचर -नभचर ' प्राणियों   पर  वेशक  भारी बढ़त उपलब्ध कराई है ,लेकिन   उसके      भयानक-स्वार्थी-ऐय्यास -कपटी -क्रूर -क्रोधी  और प्रकृति  के अकूत दोहन  का  लालची होने से  जब -तब होने वाले प्राकृतिक प्रकोप का शिकार   समस्त जगतीतल  को होना पड़  रहा है।
                                                        उत्तराखण्ड ,मुंबई ,ठाणे ,सम्पूर्ण  भारत  तथा सारे संसार में आये दिन जो  प्राकृतिक  प्रकोप हो रहे हैं उनमे मनुष्य जाति  का ही  सबसे बड़ा हाथ है . अन्य देशों की तुलना मैं भारत की अधिसंख्य  जनता फिर भी आम तौर  पर प्रकृति प्रेमी है .हालांकि  गुलामी के दि नों में विदेशियों ने और स्वतंत्रता के बाद देशी  पूंजीपतियों ,सत्ता के दलालों और  खनन माफिया के गठजोड़ ने  भारत  की प्राकृतिक  - प्रचुर संपदा का दोहन विगत तीस सालों में सर्वाधिक किया   है . प्रकारांतर से ये तत्व  भी उत्तराखंड की मौजूदा  विभीषिका के लिए जिम्मेदार हैं .इसी तरह देश के पूंजीवादी राजनैतिक दल , समर्थक -पोषक - हितधारक  और उन्हें सत्ता में बिठाने वाले मतदाता भी कदाचित  इस महा विनाश लीला के लिए समान  रूप से जिम्मेदार  हैं  .  और   आपदा का ठीक से सामना नहीं कर पाने के लिएपूरा देश  जिम्मेदार हैं . तात्पर्य यह कि  इस  दुर्दशा के लिए  वे भी  जिम्मेदार हैं  जो इसके शिकार हुए हैं .
                                                लोगों ने व्यर्थ ही गलत-सलत अवधारणायें या सिद्धांत गढ़ रखे हैं कि 'जो जैसी करनी करे सो तेसो फल पाय '  यदि यह सही होता तो वे लोग जो 'चारधाम ' के दर्शन की अभिलाषा लेकर घर से निकले थे वे 'पुण्यात्मा ' लोग देवभूमि -ऋषिकेश - बद्रीनाथ -केदारनाथ  और हेमकुंड   साहिब   के दरवार में असमय की काल -कवलित न होते . इन लाखों  निर्दोष नर-नारियों ,आबाल -बृद्ध - बालकों  ने किसी का क्या बिगाड़ा था कि  तथाकथित ईश्वर स्वरूप -हिमालय  और उसकी दुहिता सद्रश्य -मंदाकिनी-अलकनंदा  और   साक्षात्  'सुरसरिता ' याने  गंगा   ने भयानक कालरात्रि का रूप धारण कर अपने भक्तों  को न केवल असमय ही मौत के  मुंह में धकेला बल्कि  लाखों  श्रद्धालुओं की वो दुर्गति की जो -सिकंदर,चंगेज ,तेमूर ,गौरी या बाबर  जैसे  किसी विदेशी आक्रान्ता ने भी कभी इस देश के वाशिंदों  की नहीं की  होगी . भारत  में  कुछ धर्मांध लोग सदा से ही इस अवधारणा में यकीन करते रहे हैं कि   उनके दुखों का कारण विदेशी   आक्रमणकारी    थे . गंगा -आग-सूरज और समुद्र तो देवता हैं ,यदि उनके कारण मौत हो जाए तो  समझो जीवन धन्य हो गया !  तो अब   काहे को इस आपदा पर  दोषारोपण  किया जा रहा है . समझो  कि  हरि इच्छा यही थी .'समरथ कहूँ  नहिं  दोष गुसाईं .. रवि -पावक -सुरसरी की  नाई .. अब जबकि एक-तिहाई उत्तराखण्ड  भूलुंठित है ,लाखों मनुष्यों, हजारों पशुवों , सेकड़ों मकानों और दर्जनों सड़कों  को  भीषण प्राकृतिक आपदा ने निगल लिया  तो भी कहने वाले कह रहे हैं  कि    सरकार   कसूरवार  है।
                                            वेशक केंद्र या राज्य सरकार दोनों ने ही  बहुत देर बाद आपदा प्रबंधन हेतु संज्ञान लिया . किन्तु फिर भी  यह बहुत ही भोलेपन की अवधारणा है, क्योंकि केंद्र -राज्य सरकार और  स्थानीय प्रशाशन को भृष्टाचार से फुर्सत मिले तो वे इस ओर ध्यान दें . जो लोग सामन्य बुद्धि बाले हैं वे भी यह जानते हैं .क्या इस दौर में किसी सरकार से जन-हित  की उम्मीद करने वाले समझदार कहे जा सकते हैं ? इस दौर में जो सरकार के भरोसे सुबह घर से निकलते हैं वे  शाम को घर वापिस नहीं लौटते ! फिर जो लोग उत्तराखंड- याने साक्षात् मौत की खाई- में  कून्दने   घर से निकले   और फिर भी जीवित   बच  गए  उन्हें अपने दो-चार दिन की भूंख -प्यास का रोना नहीं रोना चाहिए  और अपनी नादानी का ठीकरा और के सर नहीं फोड़ना  चाहिए . जो इस हादसे में मारे गए उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि देते हुए  इस घटना से सबक सीखने की  सभी को कोशिश करनी  चाहिए। चीन,जापान ,इंडोनेशिया ,फिलिपीन्स और अमेरिका इत्यादि में  ऐंसे  वाकये -सुनामी ,चक्रवात ,भूकंप और बाढ़ के रूप मैं हर साल आते हैं . वहाँ  की जनता अपनी सरकार को कोसने के बजाय अपनी जिम्मेदारी  और अपनी कर्तव्य परायणता  को बेहतर समझती है। वे अनावश्यक दोहन और  प्रदुषण के प्रति सजग हो रहे हैं .  वेशक वहाँ की सरकारें ज्यादा संवेदनशील हुआ करती हैं .  भारतीय  समाज और सरकार को भी इसी तरह  सोचना चाहिए  कि   न केवल उत्तराखंड बल्कि  देश भर में जहां भी जरुरत से ज्यादा   जन-समूह का जमावड़ा हो तो कम-से कम  वहाँ बड़े-बड़े  विज्ञापन बोर्ड लगवा दे , जिन पर लिखा हो -यहाँ आने पर आपका हार्दिक अभिनन्दन ... कृपया  अपने जान-माल की हिफाजत स्वयम  करें ,  यदि आप किसी हादसे में मारे जाते हैं तो इसकी जिम्मेदारी आपकी होगी ..! सरकार पर दोष लगाने पर मानहानि समझी जायेगी ...!! धन्यवाद् ...!
                             अक्सर लोग  सैर --सपाटे और तीर्थ यात्रा  में बेहद लापरवाही बरतते हैं  इस वजह से उन्हें  कभी-कभी जिन्दगी से भी  महरूम होना पड़ता है , जो जीवित  बच  जाते हैं वे  अपने खुद के कर्मों पर रंच मात्र शर्मिन्दा नहीं होते। वे सोचते हैं "जो कुछ अच्छा हुआ वो मेने किया और जो बुरा हुआ वो ईश्वर  की मर्जी या सरकार  की गलती थी "  कमरे के सामने वे  लाशों के ढेर पर भी मुस्करा कर सरकार को कोस सकते   हैं .  उलटे जो उनके आंसू  पोंछना चाहते उन सरकारी मददगारों और सेवकों  पर ताव दिखाया करते  हैं, जैसे अभी  बद्री-केदारनाथ  में जीवित बचे बदहाल  सेलानी  कर रहे हैं।  मानों वे चारधाम यात्रा करके देश और समाज पर बड़ा एहसान करने चले थे .या   देश की रक्षा के लिए सीमाओं पर लड़ने  गए थे . उनकी शिकायतें हैं कि  सरकार ने ये नहीं किया ! सरकार ने वो नहीं किया ..! वैसे  केंद्र और राज्य  सरकार से तो  सनातन से सभी को ढेरों  शिकायतें रहतीं  हैं। मुझे भी हमेशा  शिकायत रहती   है कि  देश में क़ानून व्यवस्था चौपट हैं ,महंगाई चरम पर है , डालर ने रूपये की ऐंसी -तैंसी कर   रखी   है ,दवा-इलाज सब  बेहद मेंहगा  है ,गाँव-गाँव में बिजली -सड़क-पानी नहीं ,स्कूल में ढोर -बेल बांधे जाते हैं ,नक्सलवादी उधम मचाये हुए हैं ,पाकिस्तान  के मंसूबे ठीक नहीं , अमेरिका  भारतीय नागरिक की जासूसी कर रहा है ,चीन हमें लगातार बेइज्जत किये जा रहा  है , भारतीय  'फ़ूड कर्पोरेसन  के गोदामों में और रेलवे के गोदामों में अनाज -गेंहूँ  सड़  रहा है और लाखों गाँव के गरीब बच्चे  कुपोषण के शिकार हो रहे हैं जो  अभी नहीं तो भर जवानी में जरुर मर जायेंगे  उनके लिए कोई प्रधानमंत्री या 'वेटिंग प्रधानमंत्री' हवाई जहाज से देखने या हज़ार करोड़ का पैकेज देने नहीं आने वाला ..बगैरह ...बगैरह ...!
 
                                         मुझे विपक्ष से  और खास तौर  से भाजपा से  शिकायत है कि   वे  उस कुर्सी के लिए आपस में लड़-मर रहे हैं -जो उन्हें कांग्रेस से   छीनकर एनडीए को दिलानी है ,वो नरेन्द्र मोदी को दिलाने में जुटे हैं , आडवाणी जी  ,शरद जी अब बेरोजगार हो चुके  हैं ,जदयू और नितीश कांग्रेस से प्यार की  पेगें  बढ़ा रहे हैं , क्षेत्रीय पार्टियां किम्कर्तब्य्व विमूढ  हैं सो बेपर की उड़ा रहे हैं कि हम फेडरल फ्रंट बना रहे हैं . वाम मोर्चे को  नागनाथ और सांपनाथ की लड़ाई देखने की नियति बन चुकी है . सारा विपक्ष  बुरी तरह  बंटा  हुआ है ,भारतीय डिजिटल और इलेक्ट्रोनिक  मीडिया केवल अप्रिय घटनाओं ,अवांछनीय व्यक्तियों और असत्य ख़बरों  को महत्व देकर  वातावरण प्रदूषित कर रहा है  और मुझे इन सभी से शिकायत है किन्तु यदि मैं जीते जी  कभी किसी तीर्थ यात्रा पर गया या घूमने -फिरने अपनी मर्जी से गया और वहाँ विपदा में पडा तो सिर्फ और सिर्फ अपने को गुनाहगार  मानूगा और यदि इस दौरान मैं  मर भी  जाऊं तो दुनिया वालों के सामने घोषणा करता हूँ की मेरी मौत का जिम्मेदार  मैं स्वयम  रहूंगा ...!  केंद्र सरकार,राज्य सरकार,मीडिया , प्राकृतिक  आपदा ,खनन माफिया ,देश-समाज  या भगवान्  -मेरे अन्तकालऔर मेरी दुर्गति  के 'कारण ' नहीं माने  जावें ..!धन्यवाद् ...!
                           सिर्फ उत्तराखण्ड   ही नहीं  बल्कि अभी कल-परसों मुंबई में और   कुछ दिनों ,पहले ठाणे में एक पुरानी  जर्जर इमारत के धराशाई होने से सेकड़ों जाने चलीं  गईं  जबकोई  मंत्री ,नेता ,विधायक और पार्षद उनके दुःख बाँटने गए तो लोग उनपर  टूट पड़े .जबकि सरकार ने इमारत को वर्षों पहलेही  खतरनाक घोषित कर दिया था   ,लोगों ने एक तो  खतरनाक  और जर्जर इमारत का मोह नहीं छोड़ा दुसरे उन्हें सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गए  वैकल्पिक निवास को किराये पर उठा दिया  और सरकार या देश   का इन्होने शुक्रिया भी अदा   नहीं किया। अब - जबकि खुद अपनी मौत  मर - मरा गए तो, उनके बगलगीर ताव दिखा रहे हैं . क्या ये जायज है?  उत्तराखंड में जो लोग अबैध रूप से -स्थानीय भृष्ट अधिकारीयों और नेताओं से   साठ -गाँठ करके  ऐन   नदियों  के उद्गम और   किनारों पर  खिसकैले  पहाड़ों  पर होटल ,लाज या रहवासी भवन बनाकर  राहगीरों और तीर्थ् यात्रियों को लूटते रहे ये लुटेरे आज भी इस महाविकट  विपत्ति मेंअपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं .
                           पानी की एक बोतल  के सौ रूपये ,चार बिस्कुट के सौ रूपये, मुठ्ठी भर चावल के सौ रूपये   और  एक रोटी के सौ रूपये धडल्ले से  वसूले जा  रहे हैं ,इन्ही लुटेरों ने -भ्रष्टाचार करके सम्पूर्ण उत्तराखंड को न केवल लूट का  बाज़ार बना डाला अपितु इतना खोखला कर दिया कि  ज़रा सा कोई बादल गरजा नहीं  कि  पहाड़ किसका और नदी उफनी .  जो तीर्थ यात्री  और  स्थानीय रहवासी इस प्रकृति  जन्य नर-संहार  में असमय ही मारे गए उनके लिए सभी को दुःख है  किन्तु जो रहवासी  या तीर्थ यात्री  जीवित बचे वे हिम्मत बनाए रखें, देश उनके साथ है उन्हें सही सलामत घर लाने  के लिए भारतीय फौज के जवान रात-दिन कड़ी  मेहनत कर रहे हैं .उन्हें किसी पर दोषारोपण करने के बजाय खुद के गरेवान में एक बार  जरुर झांकना चाहिए और फिर बताएं   कि  समाज और राष्ट्र के  प्रति उनका क्या योगदान रहा? वे किस सलूक के हकदार हैं?
                      
                                   कितने हजार मरे ,कितने हजार लापता ,कितने घायल-बीमार -भूंखे -प्यासे नारकीय वेदना और भयानक तांडव से   रूबरू हुए वो आंकड़े मिल भी जाएँ तो उससे किसी एक दिवंगत   के सपरिजन   को भी तसल्ली  मिल सकेगी क्या ?  टूटती झीलें ,खिसकते पहाड़ ,उफनती नदियाँ ,ध्वस्त होते देवालय ,जल  मग्न होती देव -प्रतिमाएं ,बहते मकान, ,डूबते-उतराते-कांपते-मरते -मनुष्य ,पशु,पेड़ पोधे ,पहाड़  और तहस-नहस  होतीं वस्तियों -क्या यही है देवभूमि-पुण्यभूमि ? क्या लाशों के ढेर  से  ही  देवताओं  को और  धरती पर उनके धन्धेबाज़ प्रतिनिधियों को  तसल्ली मिला करती है ? क्या  प्रकृति  द्वारा किये गए इस नरसंहार ने कुछ नए प्रश्न खड़े किये हैं ? इन सवालों के जबाब वे लोग नहीं दे सकते जो  प्रत्येक समस्या के लिए सरकार ,इश्वर या सिस्टम को देते हैं .यदि हवाई जहाज  क्रेश होने  से या पहाड़ों पर घूमने से मौत पर मीडिया में कोहराम मच जाता है तो भूंख से मरने वालों, बिना इलाज के मरने वालों ,कुपोषण से मरने वालों  और बेरोजगारी या कर्ज से मरने वालों  के लिए  भी  मीडिया ,सभ्रांत लोक  तथा  मलाईदार -बुर्जुआ वर्ग के दिलों में थोडा सा दर्द और थोड़ी सी सहानुभूति अवश्य होनी चाहिए .यदि यह संभव नहीं तो सरकार या व्यवस्था  से सहयोग की उम्मीद देश के  मध्यम  वर्ग को नहीं रखनी चाहिए क्योंकि वे  सरकारों  से दोस्ती तो  रख  सकते हैं किन्तु  लड़  नहीं सकते . जबकि  संगठित सर्वहारा वर्ग से सरकारें भयभीत रहा करतीं हैं .  यह  सर्वहारा वर्ग गर्मियों की छुट्टियां मनाने   उत्तराखंड ,कुल्लू-मनाली ,उटकमंड ,बदीनाथ ,केदारनाथ नहीं जा सकता क्योंकि  अव्वल तो उसकी कोई स्थाई आमदनी नहीं दूजे वो मजदूरी से जेसे -तेसे ज़िंदा रहने   की मशक्कत में ही खुद को प्यारा हो जाता है . याने  पहाड़ों,  सेरगाहों  और सामाजिक लूट के प्रतीक 'पूजा -स्थलों ' पर  होने वाले हादसों और  उनमें  मरने वाले सम्पन्न वर्ग के ही हो सकते हैं . बाज-मर्तबा कोई  वेरोजगार ,जेब-कतरा ,मक्कार ,चोर  या क़ानून से भागा अपराधी जरुर 'बाबा 'या स्वामी बनकर कभी कुम्भ में कभी 'चारधाम ' में लोगों को ठगने पहुच जाता हो ..! हम उसे लम्पट सर्वहारा मानते हैं और वास्तविक सर्वहारा का 'वर्ग शत्रु' मानते हैं .ये भी यदि प्राकृतिक आपदा में सेकड़ों की तादाद में मर गए हों तो कोई अचरज की बात नहीं .ये यदि वहाँ नहीं मरते तो यहाँ जेलों में सड़ते या निर्दोष  जनता को  सताते , उनके लिए शोक करना कहा तक उचित है ?  यदि कोई सच्चा संत ,देशभक्त -वंदा  इस हादसे में मारा गया हो या अपाहिज हुआ हो तो उसे भी   इसके आश्था आधारित दृष्टिकोण से परिभषित किया जाना चाहिए याने 'ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं ...क्षीणे  पुण्ये मर्त लोकं विशन्ति ....! 
              
                       आम तौर  पर लोगों की प्रतिक्रिया  रहती है कि  यह 'मनुष्य द्वारा  प्रकृति से   की  गई छेड़छाड़ का नतीजा है, कुछ  लोगों का मानना है कि  यह प्रकृति के स्खलन की स्वाभाविक प्रक्रिया का एक अल्प  विराम है . कुछ लोग इसे दैवीय प्रकोप मान रहे हैं कि  जिनके पापों का घडा घर गया था वे सभी एक साथ इस हादसे मैं काल के गाल में समा गए . कुछ लोगों का मानना  है कि  देवभूमि में जिन्हें सद्गति मिलना थी वे पुण्यात्मा    इस मौजूदा  आपदा के आर्फत  शिवलोक  गमन कर गए ....इत्यादि...इत्यादि… !   माना कि  विगत दो-तीन दशकों से  न केवल उत्तराखण्ड  बल्कि देश के प्राकृतिक संपदा और खनिज   संसाधनों से सम्पन्न इलाकों में भी अंधाधुन्द 'अप्राकृतिक' 'अवैज्ञानिक 'तरीकों से  खनन -दोहन और क्षरण किया  जाता  रहा है किन्तु क्या  पंद्रह -सोलह जून की घटना  के पीछे   यह छेड़छाड़ मात्र ही है या मरने वालों की भी कोई गलती या चूक हो सकती है ? क्या यह  भारत की  सवा सौ करोड़  कर्मठ जनता   में से केवल एक-दो लाख  उन चंद  'भरे-पेट '  फुरसतियों की अमर गाथा नहीं है ? जिन्हें देश की ,समाज की कोई  चिंता नहीं थी  ,कमाने-धमाने की कोई चिंता  नहीं थी  ..!  क्योंकि ये अधिकांस उस वर्ग के लोग थे जिन्हें  पेटी - बुर्जुआ कहा जा सकता है . ये जमींदार वर्ग के हो सकते हैं  , ये सम्पन्न वर्ग के हो सकते हैं . इनमें कोई वो शख्स नहीं था जिसे मजदूर कहते हैं या जो देश का अकिंचन  गरीब -किसान  वर्ग है ,जो रोज कमाता -खाता है  उसे  चारधाम यात्रा के लिए न तो फुर्सत है और न ही उसके  पास इतने दिन का राशन  है और  न ही किराया -भाडा।.
                                                          गाँव में २ २ रुपया रोज और शहर में ३ २ रुपया रोज कमाने वाले  की   उत्तराखण्ड  जाकर मरने की हैसियत नहीं हो सकती . उसके नसीब में तो सिर्फ  श्रम बेचकर  गुजारा करना  बदा  है .     मौजूदा हादसे में मारे गए भद्रजन  तो    तीर्थाटन के माध्यम से निजी लाभ याने पुन्य कमाने या पहाड़ों पर जाकर  मजा मौज करने, एयासी करने  वाले मध्यवित्त वर्ग के चोंचले बाज ही हो सकते हैं  , इस हादसे में शायद ही कोई 'सर्वहारा ' मारा गया हो ..! गरीब मेहनतकश मजदूर को तो अपने खून-पसीने में ही मंदाकिनी ,अलकनंदा ,भागीरथी और बद्री -केदार नज़र आते हैं .  भद्रलोक के लिए सड़कें ,बनाना भवन बनाना ,गार्डन बनाना और पूंजीपति वर्ग के सुख साधन  निर्मित करना और उनकी चौकीदारी करने से उसे फुर्सत कहाँ कि  किसी देवभूमि में मरने जा सके . उसे तो मरना ही होगा तो दो-चार दिन के फांकों  से या किसी पूंजीपति की कार से कुचलकर मर  जाने  की ही नियति है . ये तो देश और दुनिया के सम्पन्न लोगों का विशेषाधिकार है कि  कभी पहाड़ों पर ,कभी किसी पांच सितारा होटल में ,कभी हवाई जहाज से  बैकुंठ लोक को प्रस्थान करें .
      
       उत्तराखण्ड  के गढ़वाल  क्षेत्र -चारधाम  तीर्थ क्षेत्र  और मंदाकिनी ,अलकनंदा ,भागीरथी   अर्थात गंगा  और उसकी सहायक नदियों के शीर्ष क्षेत्र में १ ५ -१ ६  जून -२  ० १ ३ के दरम्यान  कुदरत  के कहर ने  जो आफत बरपा की,  उस  खंड प्रलय  जैसी महाभयानक  घटना से  जान-माल का जो नुक्सान हुआ, उसका आकलन करने में उत्तराखंड   सरकारऔर केंद्र सरकार  पूरी तरह असफल आ रही है . इस महाभयानक प्राकृतिक विक्षोभ का पूर्वानुमान  प्रस्तुत करने  में सरकार और  सिस्टम की कोई मजबूरी हो सकती है ,शायद भारत के मौसम विज्ञानी और भूगर्भ  वेत्ता   अ -योग्य और नकारा होंगे   किन्तु   महाविनाश्लीला  के   उपरान्त  राज्य और केंद्र सरकार की सुस्ती ,हडबडी और तत्सम्बन्धी तैयारियों में   संवेदनहीनता नाकाबिले -बर्दास्त है . दुनिया में हर कहीं इस तरह के  हादसे होते रहे हैं और हो रहे हैं ,किन्तु लाशों के ढेर पर राजनीती करने वाले सत्ता पक्षीय और विपक्षी  नेता   सिर्फ भारत भूमि  में ही   पाए जाते हैं .

      श्रीराम तिवारी
                                     
                                                            
                                                     

 

गुरुवार, 6 जून 2013

जो सामूहिक निर्णय से घृणा करे ओर व्यक्तिवादी हो वो हीरो नहीं ज़ीरो है..!

     भारतीय मुद्रा का निरंतर अवमूल्यन हो रहा है,आयात-निर्यात का असंतुलन भारत की अर्थव्यवस्था को चौपट किये जा रहा है ,महंगाई ,बेकारी और  भृष्टाचार अपने चरम पर हैं और ये सभी विषय अर्थशाश्त्र से जुड़े हैं और हमारे  देश के प्रधानमंत्री महान  अर्थशाष्त्री हैं   हम चीन,जापान,अमेरिका की कोई भी अच्छाई  तो ग्रहण भले न कर पाए हों किन्तु इन देशों के कूड़े-कबाड़े को गले से लटकाए हुए गा रहे  हैं ...हो रहा भारत निर्माण .....!    इस अर्थशाश्त्र को कोई अमेरिका का बताता है कोई मनमोहनसिंह का बताता है और कोई कहता  कि  स्व नरसिंम्हाराव का है ,अटलजी ,शौरी जी और यशवंत सिन्हा जी भी इसे  मुफीद मानते  थे और  इसी से उनका' शायनिंग इंडिया ' और' फील गुड '   फ़ैल हो चूका है . अब नरेन्द्र मोदी बताएं देश को  कि  वे कौनसा   अर्थशास्त्र पढ़े हैं  और कौनसा लागू  करेंगे .रही बात गुजरात की तो वो तो सारे देश को मालूम है कि  कैसे कितना और कब उसका विकाश हुआ ?  कौनसा अर्थशाश्त्र  वहां विगत सौ साल से लागु है .लेकिन जिस तरह शिमला -अबूझमाड़ नहीं हो सकता,नेनीताल  जैसलमेर नहीं हो सकता या डल  झील हिन्द-महासागर नहीं हो सकती ,जापान भारत नहीं हो सकता ,उसी तरह गुजरात -बिहार नहीं हो सकता और मोदी नितीश नहीं हो सकते ...!लालू भी नहीं हो सकते ...! अटलजी होने का तो सवाल ही नहीं  उठता  ...!  मनमोहन सिंह जरुर हो सकते हैं क्योंकि देश-विदेश  का कारपोरेट  जगत जिस तरह पहले मनमोहनसिंह का मुरीद था उसी तरह इन दिनों देश - विदेश का पूंजीपति वर्ग और कार्पोरेट जगत नरेन्द्र मोदी का मुरीद है और जब ये सरमायादारी उनके साथ है तो आम जनता का नहीं इन पूंजीपतियों के अर्थशाश्त्र पर  ही चलना होगा मोदी को . यदि वे प्रधानमंत्री पद पाकर बौराए नहीं तो कम से कम पूंजीपतियों का भला तो कर ही सकेंगे . आम आदमी को  कोई उम्मीद नहीं रखना चाहिए नरेन्द्र मोदी और उनके अर्थशात्र से .  ये बात देश की जनता के सामने   क्यों नहीं राखी जा रही ?                              सूचना एवं संचार माध्यमों की महती कृपा से उपलब्ध जानकारियों और निरंतर गतिशील फिर भी   एक  'ठहरे ' हुए  राष्ट्र की  सामाजिक -राजनैतिक -सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन्तता  में आ रहे गतिरोध  के परिणाम स्वरूप   मुझे भी अपने देश  के ' अन्ध्-राष्ट्रवादियों ' की तरह कभी-कभी  लगता है  कि   पडोसी देशों-चीन -पाकिस्तान इत्यादि  से मेरे मुल्क को  खतरा है, कभी कभी वामपंथियों  की वैज्ञानिक समझ से इत्तफाक़  रखते हुए  लगता है  कि  एलपीजी [ Libralization Privatization - Globelization ] और   प्रणेता पूँजीवाद    से  मेरे इस 'महानतम -प्रजातांत्रिक -राष्ट्र' को  खतरा है ,कभी विपक्षी  नेताओं  की  भांति  लगता है कि   जो  सत्तासीन  लोग  हैं  उनसे ही   इस मुल्क को खतरा है, कभी सत्तापक्ष  की  सोच  सही   लगती  है  कि   'विपक्ष   'से  इस  मुल्क  को  खतरा  है, कभी  तीसरे  मोर्चे  की  तरह  लगता  है  की  कांग्रेस   और  भाजपा  दोनों  ही  बड़ी  पार्टियों  से ही  देश को खतरा है,कभी-कभी  अराजकतावादियों और  नक्सलवादियों  की  इस  अवधारणा  पर  यकीन  करने को दिल करता है कि  ये जो वर्तमान 'व्यवस्था' है अर्थात '  तथाकथित " बनाना-गणतंत्र" इस देश में  मौजूद है उसी से इस 'मुल्क ' को सबसे बड़ा खतरा है ,
                                         कभी-कभी    अमेरिका  के  इस  निष्कर्ष  को  मान्यता  देने को जी चाहता है  कि  इस देश के सनातन  'भुखमरे' अब ज्यादा खाने-पीने लगे हैं  सो  इस खाऊ  'आवाम' से  से देश को खतरा है, कभी-कभी बाबाओं- स्वामियों  और  साम्प्रदायिक  उन्मादियों  पर  यकीन  करने  को  जी  चाहता है कि-भगवान् इस मुल्क से नाराज है सो भगवान्  से इस मुल्क को खतरा है     क्योंकि   'भगवान्' के इस  मुल्क  में  जो   प्रतिनिधि  है उनके   'विशेषाधिकार 'पर हमले हो रहे है सो इश्वर-अल्लाह-ईसु[कहने को तो   सब  एक  हैं ] इत्यादि  सभी   इस  देश की आवाम से नाराज हैं और इसीलिये इस देश को 'इन धर्म सम्प्रदायों   ; और  उनके अवतारों से ख़तरा है . कभी-कभी   मन में सवाल उठता है की जो   - माध्यम या सूचना तंत्र हमें ये ज्ञान  दनादन   दे रहे हैं हैं कहीं  उन्ही से तो  इस मुल्क को खतरा  नहीं है ?
                                             एक बहुत  छोटी  सी घटना  इन दिनों देश  के विमर्श के केंद्र में है -क्रिकेट की आईपीएल श्रखला में एक-दो  खिलाडियों  की बचकानी हरकत  पर सारे देश  में मानों ख़बरों की सुनामी आ गई है .. इन खिलाडियों ने कोई   सट्टे -वट्टे  वालों से   अवैध रूप से कुछ रूपये लेकर देश को और क्रिकेट को तथाकथित रूप से  बर्बाद कर  दिया है . कम -से-  कम दिल्ली  पुलिस  कमिश्नर  का तो यही ख्याल है  ,इन  कमिश्नर महोदय ने अपने कार्यकाल में दिल्ली में 'गेंग रेप' के कीर्तिमान बनवा डाले हैं ,  इन को जब जनता ने  ललकारा और  नारा दिया कि " त्यागपत्र दो या   महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करो" तो इन महानुभाव ने बड़ी निर्लज्जता से  जनता की पुकार को हवा में  उड़ा  दिया, पुलिस  के  आला  अफसर  हैं  तो  जनता  की  नब्ज  और  देश के भृष्ट  राजनीतिज्ञों  का  कब्ज   बखूबी  जानते  हैं  इसीलिये  ज्यों  ही  आई  पीएल  के   सट्टे  में  खिलाडियों की लिप्तता  का 'सोसा' हाथ लगा तो देश के सामने उद्धारक के रूप में पेश हो कर  जनता  के   आक्रो श को पुलिस  और  सरकार  से  हटाकर   क्रिकेटर्स  और आईपीएल के खिलाफ कर दिया . मीडिया ने भी उनके  वयान  के आधार पर सारे ज्वलंत -प्रश्नों पर चलने वाले परम्परागत विमर्शों से पल्ला झाड़ा और   अधिकांस खबरची  'हेंचू-हेंचू ' करने लगे . कतिपय चेनलों के  उदगार तो ऐंसे  थे मानों ' हा  हा   हा  दुर्दैव  भारत  दुर्दशा  देखि  न  जाये।  इस  क्रिकेटी   अरण्य  रोदन  से उनकी  टी  आर  पी   में कितना इजाफा हुआ और  व्यवसाय  गत प्रतिस्पर्धा  के लिए  कितनी प्राण  वायु प्राप्त  हुई यह अभी जाहिर होने  के लिए प्रतीक्षित है . .                                        पाकिस्तान   में हमारे खिलाफ क्या चल रहा है? ,चीन हमें कहाँ-कहाँ पछाड़ चूका है ?,हम सूखे के लिए क्या कर रहे हैं ?  मुद्रा स्फीति,महंगाई ,बेकारी,हिंसा ,गेंग-रेप को  रोकने के लिए क्या उपाय किये जा  रहे  हैं ?  इन तमाम  सवालों  पर मीडिया कवरेज और आवाम  की  वैचारिक चेत ना  नितांत  नकारात्मक  और  'सुई पटक सन्नाटे जैसी " क्यों  हो  गई  है    ,सरकारी  अफसरों  और  मंत्रियों  द्वारा  की गई  लूट पर बंदिश के लिए आवाम को क्या कदम  उठाने चाहिए ? इस विमर्श को एक   खेल विशेष की किसी  नगण्य घटना के बहाने  जान बूझकर हासिये पर तो नहीं धकेला  जा सकता ! मीडिया को और जनता को राष्ट्रीय सुरक्षा के सरोकारों से सम्बन्धित बैठक में पृथक-पृथक नेताओं की भूमिका और उनके राष्ट्रीय उत्तरदायित्व की पड़ताल करनी चाहिए थी किन्तु  इस विमर्श से परे किसी एक नेता को विशेष  हाय =लाईट करना  क्या  बे  मौसम की टर्र-टर्र  नहीं है ?
                        कभी-कभी तो लगता है कि  प्रकारांतर  से   उपरोक्त  सभी  कारकों  से  इस  देश  को  खतरा  है  क्योंकि  इन सभी कारकों ने एक-दुसरे पर दोषारोपण करने के अलावा 'राष्ट्र' की  सुरक्षा  या  आम  जनता  की  दुश्वारियों के निवारण हेतु आज तक कोई रणनीति नहीं बनाई और न ही इनमें से किसी ने  इस  बाबत  अपने  हिस्से की आहुति देने का प्रमाण दिया। हम भारत के जन-गण  महाछिद्रान्वेशी हैं, सिर्फ  'अपनों'  के  अवगुणों  पर  हमारी नज़र है हमें  अपने ही स्वजनों-सह्यात्रोयों और स्व-राष्ट्र्बंधुओं  का हित या  अच्छा तो  मानों   सुहाता ही  नहीं,कहीं किसी ने ज़रा सा  सफलता हासिल की या कोई तुक का काम   किया की हम लठ्ठ लेकर  उसके  पीछे पड  जायेंगे ,हम अपने हिस्से की जिम्मेदारी   छोड़ 'शत्रु-राष्ट्र' के  हिस्से  की  जिम्मेदारी   पूरी करने में जुट  जायेंगे . वास्तविक शत्रु को बाप बना लेंगे और अपने बंधू-बांधवों पर लठ्ठ लेकर पीछे पड़  जायेंगे .
                                       अभी - कल  सम्पन्न राष्ट्रीय   सुरक्षा परिषद्  में लगभग ऐंसा ही वाकया  पेश हुआ जब  माननीय प्रधानमंत्री जी  ने  भारत की मानक परम्परानुसार मीटिंग में उपस्थित सभी  मुख्यमंत्रियों और परिषद् सदस्यों से निवेदन किया कि'  राजनैतिक अहम और दलगत स्वार्थों से ऊपर उठकर हमें 'नक्सलवाद-माओवाद' का डटकर मुकाबला करना चाहिए . देश की आंतरिक सुरक्षा पर राजनीती से परे -मिलजुलकर काम करना चाहिए .बगैरह - बगैरह ...! उनके वक्तव्य   की  और परिषद् के तमाम सदस्यों के विचारों और सुझावों की 'ऐंसी -तैसी ' करते हुए मीटिंग में उपस्थित   एक महान मुख्यमंत्री और नए-नए  ' पी .एम. इन वेटिंग ' ने बहती गंगा में हाथ धोते हुए न केवल  बैठक के अजेंडे की  अवहेलना की अपितु अपना व्यक्तिगत अजेंडा पेश करते हुए सी बी आई ,आयकर विभाग और  अन्य  केन्द्रीय एजेंसियों   के दुरूपयोग के मार्फ़त उन्हें परेशान करने का अरण्यरोदन तो  किया  किन्तु नक्सलवाद के खिलाफ या उसके निदान विषयक एक शब्द नहीं कहा .    ये स्वनामधन्य  भाजपाई मुख्यमंत्री महोदय इतने से ही संतुष्ट नहीं हुए और  लगभग आसमान पर  थूंकने  की मुद्रा में ने केवल केंद्र सरकार अपितु    कतिपय देशभक्त बुद्धिजीवियों और परिषद् सदस्यों को  भी  नक्सल्यों का सहोदर ठहराने से  नहीं   चूके .  उनकी इस बिगडेल  भावभंगिमा और  ओजस्विता के अस्थायी भाव  के   पीछे  शायद  गुजरात के उपचुनावों में  अभी-अभी   मिली सफलता  की अपार ख़ुशी  थी या उनके अलायन्स पार्टनर नितीश- जदयू को बिहार के महराजगंज में मिली करारी हार   का  प्रतिशोधजनित आनंद , ये  तो वक्त आने पर ही मालूम हो सकेगा किन्तु  उनकी राष्ट्र निष्ठां की असलियत तो इस बैठक में साफ़ दिख गई है . प्रधानमंत्री जी ,गृह मंत्री जी और  तमाम मुख्यमंत्रियों की देश की आंतरिक सुरक्षा से सम्बंधित  कोई सामूहिक रणनीति बनती कोई  सर्वसम्मत  निर्णय  होता और मीडिया उसे 'जन-विमर्श' के माध्यम से सर्टिफाइड  करता तो कुछ  और बात होती किन्तु जब कोई अपने चरम अहंकार के वशीभूत होकर अजेंडे को ही दुत्कार दे तो बात न केवल चिंतनीय अपितु निंदनीय भी ही है .
                                                           देश की जनता और मीडिया को सोचना चाहिए  कि  जिस व्यक्ति पर इस दौरान   सर्वाधिक विमर्श और फोकस किया जा रहा है वो व्यक्ति  राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद् की बैठक में 'राष्ट्रीय 'हितों  से ज्यादा अपने वैयक्तिक हित-अनहित के लिए ज्यादा चिंतित है, जिसे गुजरात दंगों के भय-भूत ने जकड रखा हो    और जो  गुजरात के  साम्प्रदायिक   दंगों की परछाई से   मुक्त होने की छटपटाहट  से  आक्रान्त  है , जो अपने अलायन्स पार्टनर्स की हार से खुश है जो अपने दल के वरिष्ठों   के प्रति  ही अनादर भाव  से तुष्ट रहता हो  वो यदि  दुर्भाग्य से  देश का प्रधान मंत्री  बन जाता है तो  गुजरात  की जनता का,देश की जनता का ,  और  समग्र भारत राष्ट्र के हितों की    रक्षा कैसे  कर सकेगा ? 

                           श्रीराम तिवारी
      
                                        
                        
            
           

सोमवार, 3 जून 2013

नक्सलवाद को ख़त्म करने के लिए फौज का इस्तेमाल किया जाना चाहिए .

    नक्सलवादियों   को सबक सिखाया जाना चाहिए ....!

 छत्तीसगढ़ के दर्भा-जीरम   घाटी क्षेत्र में तथाकथित  माओवादियों [नक्सलवादियों] ने  २ ५ मई-२ ० १ ३ को  घात लगाकर कांग्रेस के नेताओं - नंदकुमार पटेल ,महेन्द्र कर्मा  और मुदलियार  समेत अनेक कार्यकर्ताओं तथा कतिपय अन्य लोगो  की  जिस दरिंदगी से  ह्त्या की  है वो सामंत और बर्बर युग  से भी क्रूरतम  मिशाल   है ,उससे मैं इतना बिचलित हुआ  कि   शारीरिक रूप से  'अस्वस्थता ' के वावजूद  भी अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने से अपने आपको रोक नहीं सका  .हालाँकि नक्सलवादियों ने यह हमला करके कोई  नई  नजीर कायम नहीं की है।  देश की ,प्रदेश की सरकारों और तमाम पढ़े-लिखे संवेदनशील भारतवासियों को मालूम है कि  नक्सलवादियों ने पूरे बस्तर को बारूदी सुरंगों से  पाट  रखा है और वे  कांग्रेस  की परिवर्तन यात्रा को निशाना तो अवश्य ही बनायेंगे . क्योंकि उस यात्रा का नेत्रत्व कर रहे स्वर्गीय श्री महेन्द्र करमा जी और श्री पटेल  अब तक बस्तर क्षेत्र ही नहीं बल्कि एक तिहाई  छत्तीस गढ़ नाप चुके थे और निसंदेह आम आदिवासी को लगने लगा था की परिवर्तन यात्रा ही नहीं बल्कि सत्ता परिवर्तन  करना जरुरी हो गया  है . नक्सलवादियों को यह कैसे सहन हो सकता था . वे  नहीं चाहते  थे  कि  भारतीय जनतंत्र की पताका के तले  कोई परिवर्तन हो . वे शायद किसी अन्य किस्म के परिवर्तन के आकांक्षी हो सकते हैं , अतएव उनकी राह में फौरी तौर  पर केवल-व्-केवल कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा का काफिला था और उन्होंने  उस काफिले   के साथ जो अमानवीय नृशंस  व्यवहार किया वो शब्दों में अंकित  किया जाना  संभव नहीं है .
                     वेशक इस जघन्यतम नरसंहार में   वीरगति को  प्राप्त  हुए कांग्रेसी काफिले को लोकतंत्र के रक्षकों और   भारतीय गणतंत्र के  अमर शहीदों की गाथा में शुमार  किये जाने का हक़ है .   अब यदि रमण बाबु लाख कहें कि   चूक हो गई ,क्षमा  करें  !  किन्तु यह तो सावित हो ही चूका है की नक्सलवादियों को भाजपा की  सदाशयता अवश्य ही प्राप्त थी या  है . कुछ ढपोरशंखी भाजपाई तो बड़ी बेशर्मी से कह रहे हैं कि  इन हमलों में अजीत जोगी का हाथ है याने  अब भी भाजपा की नज़र में नक्सलवादी कसूरवार नहीं हैं .  वास्तव में सिर्फ भाजपा ही भ्रमित नहीं है  , कांग्रेस में भी  ऐंसे  अनेक मिल  जायेंगे जिनको अपने मानसिक दिवालियेपन के इलाज की आवश्यकता है , जो 'जीरम-दर्भा  घाटी' नरसंहार  के लिए केवल भाजपा को कसूरवार  मानते हैं . उन्हें  मालूम हो कि  राष्ट्रीय जांच एजेंसी [एन आई ए ] की शुरूआती रिपोर्ट में ही वे स्वयम फँसते नजर आ रहे हैं . कांग्रेस के चार-चार क्षेत्रीय नेता स्वयम हमले वाले रोज दिन भर नक्सलियों के संपर्क में रहे हैं .इन नेताओं ने पल-पल की जानकारी नक्सलियों को दी थी .एन आई ए को ये यह जानकारी नेताओं के काल डिटेल से प्राप्त हुई है .हालाँकि  जिन नम्बरों से कांग्रेसियों का संपर्क था वे अब बंद हैं .ये सारे नंबर फर्जी और बेनामी पाए गए जो सभी के सभी प्राइवेट आपरेटर्स द्वारा जारी किये गए थे .अब कांग्रेसियों की बोलती बंद है . वे नक्सलवाद  के खिलाफ बोलने में हिचकते हैं ये तो सभी को मालूम था किन्तु अपने ही साथियों से गद्दारी का यह एक जीवंत  एवं  शर्मनाक प्रमाण है  और यह एक स्वाभाविक परिणिति है
                                                                                                                         कुछ  स्वनामधन्य पत्रकार ,वुद्धिजीवी ,दिग्गज वामपंथी  साहित्यकार भी है जो कहेंगे कि  कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बराबर के कसूरवार हैं,  आदिवासियों का सनातन से शोषण हो रहा है  उनके जल-जंगल-जमीन  छीनोगे  और जिनका शोषण  करोगे  वे तो हथियार उठाएंगे ही . बगेरह-बगेरह . बहुत कम हैं जो साफ़-साफ़ कहें  कि  'जीरम-दर्भा 'नरसंहार के लिए केवल और केवल नक्सलवादी जिम्मेदार हैं। जो कि  भारत राष्ट्र के ही   खिलाफ   है.  जो भारतीय संविधान  को नहीं मानते , भारत को अपना देश नहीं मानते और पूंजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ  'वर्ग युद्ध' छेड़ने के बहाने अब तक केवल निर्दोष लोगों का खास  तौर  से निर्धन आदिवासियों का रक्त  बहाते आये हैं . जिस  नरसंहार से राष्ट्र को उद्देलित होना चाहिए था ,नक्सलवाद का सफाया किया जाना चाहिए  था उस पर कांग्रेस और भाजपा ' चुनावी चौसर' बिछा रही हैं। संसद में गंभीरता से बहस करने के बजाय केवल मीडिया के समक्ष बयानबाजी में लिप्त हैं .  मीडिया  आई पी एल ,क्रिकेट और  सटोरियों के जीवन परिचय में व्यस्त है और आम आदमी -बेतहासा मंहगाई,बिजली-संकट,जलसंकट ,लूट,ह्त्या,बलात्कार तथा हर किस्म के व्यवस्थागत दोषों से पीड़ित है .  किसी को इस नर संहार से कोई खास वेदना नहीं ,कुछ तो यहाँ तक कहते पाए गए कि  नेताओं को मारना ही चाहिए क्योंकि ये इसी लायक हैं .  मुझे  भारतीय समाज के  वर्तमान  चारित्रिक पतन और संवेदना शून्य होने का  उतना दुःख नहीं जितना इस बात का कि   नाहक ही सिर्फ वो लोग मारे जा रहे हैं जो सच बोलने की हिमाकत करते हैं . उधर हत्यारे हैं कि  एक क्रान्तिकारी  दर्शन के साथ 'बलात्कार ' किये जा रहे हैं .
    
    मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'कफ़न' जिन्होंने नहीं पढ़ी वे अवश्य  पढ़ें और जिन्होंने पढ़ी है वे फिर से पढ़े ,'एक 'कफ़न '  के लिए जनता ने जो पैसे दिए थे ,किस तरह से उनका 'सदुपयोग' किया गया कैसे  मर्त्यका के पति और श्वसुर  मद मस्त पड़े रहे और जनता को खुद आगे होकर उस असमय म्रत्यु को प्राप्त हुई 'अबला का  'क्रिया कर्म ' करना पड़ा . इसी तरह  भारतीय जनतंत्र में जब-जब रक्त रंजित क्षण आते हैं तो 'सत्ता रुपी मर्त्यका' के ये सपरिजन -भाजपा और कांग्रेस  जनता की हमदर्दी को वोट में बदलने  के लिए   वावले हो उठते हैं और  'बिडंबनाओं' का  क्रियाकर्म भारत की जनता को करना पड़ता है .  चूँकि मैं आम आदमी हूँ ,जनता का हिस्सा हूँ अतएव देश के -समाज के हर दुःख -सुख को समेकित रूप से अनुभव करता हूँ और कुछ कर सकूँ यह तो मालूम नहीं किन्तु  स्वयम  सत्यान्वेष्न  कर सकूँ यह  माद्दा अवश्य अपने आप में  देखता  हूँ . यदि  मैं 'कफ़न ' चोरों की बदमाशी को उजागर करने में सक्षम हूँ  तो  अवश्य करूंगा . भारत  की वेदना का कारण-पूंजीवादी सरमायादारी ,आतंकवाद ,अलगाववाद या नक्सलवाद  जो भी हो यदि में जानता हूँ की 'इस मर्ज़ की दावा क्या है  तो उसे उजागर अवश्य करूंगा .अब ये बाकि लोगों का काम है कि नरसंहार जनित राष्ट्रीय पीड़ा को व्यवस्था परिवरतन की अहिंसक यात्रा के   विमर्श को अंजाम तक ले जाने में सहयात्री  हों . साथी महेन्द्र करमा और अन्य साथियों की कुर्वानी को व्यर्थ न जाने दें .
                                    जब ये नर संहार हुआ   तब  मैं अस्पताल में एडमिट था और घटना के   चार घंटे वाद जब न्यूज़ चेनल्स पर नजर डाली तो सन्निपात की डबल  स्थति में मुझे देख डॉ समझ नहीं पा रहे थे कि  ये मेरी बीमारी- [एलर्जी  +ब्रोंकलअस्थमा +उच्च रक्तचाप] के सिम्तमस  हैं या महेन्द्र करमा ,दिनेश पटेल समेत दर्जनों कांग्रेसियों  को जो की न केवल निहथ्ते  थे बल्कि अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुरूप शांतिपूर्ण और अहिंसक तौर -तरीकों से  'जन-जागरण ' यात्रा  पर प्रदेश का भ्रमण कर रहे थे- पर नक्सलवादियों की  बर्बर कार्यवाही का असर है . मैं अपने आपको बेहद तनाव पूर्ण स्थति में स्वयम भी अनुभव कर रहा था . ड्यूटी डॉ का कहना था कि  आप नीदं में  विचित्र आवाजें निकाल रहे थे, हाथ पैर पटक रहे थे ओर लड़ाई  के अनुरूप 'मुखमुद्रा ' बना रहे थे.   मैं स्वयम भी अर्धनिद्रा या सन्निपात की स्थति में  अपने अवचेतन मन में  अपने आपको' भारतीय  सनातन पराजयों ' के लिए जिम्मेदार मानकर अपराधबोध की पीड़ा से छट पटा रहा था ,१ ० ४ डिग्री बुखार  और  ऊपर से इन दुर्दात्न्त -जघन्य -  विजुगुप्सपूर्ण सूचनाओं का निरंतर आसवन  सभी ने मेरा लगभग  कीमा ही  बनाकर रख दिया था . होश आने पर   लगा कि  सिर्फ कलम ही  मुझे  इस गर्त से बाहर खींच कर ला  सकती है तब सलायन  चढ़े  हुए  कांपते दायें हाँथ से बमुश्किल लिख पाया "ये नितांत निंदनीय अमानवीय हिंसा है" लगा कि  वाक्य में  मृदु वर्णों की पुनरावृत्ति ने लालित्य ला  दिया है जबकि घटना बेहद डरावनी-वीभत्स और  रक्त रंजित थी ,सोचा  की कठोर वर्णों  का अधिक प्रयोग  होना चाहिए ,हो सके तो  कुछ गन्दी गालियाँ भी होना चाहिए . लेकिन बहुत प्रयास के वावजूद अपने आपको  ज्यादा देर तक उस मानसिक अवस्था में नहीं रख सका जिसमें इंसान कुछअतिरंजित सृजन करता है .
                       और  फिर लिखा -गुमराह -खूनी -दरिन्दे  नक्सल वादियों   की  कायराना-  हरकत   -प्रतिशोध  ...!  कलम फिर यहाँ हिचकिचाई .. भावनाओं पर सभ्रांत लोक की विजय हुई और सारा विष   वमन  जो कागज पर उकेरा था वो  पलंग के नीचे पडी डस्ट विन के हवाले कर दिया . मेरा गुस्सा भी औसत  भारतीय की तरह   क्वंटल   से माशा रत्ती हो गया . और तथाकथित  प्रज्ञा शक्ति ने काम करना  बंद  कर दिया , सोचा  क्या  यह बाकई कायराना   प्रतिशोध  ही था या 'वर्ग  संघर्ष ' की वीरतापूर्ण कार्यवाही ! क्या  आदिवासी युवा[युवतियां भी ]  नहीं जानते थे की वे जिन्हें मारने निकले हैं   उनमे भी अधिकांस आदिवासी ही होंगे?  जो  इस देश की प्रजातांत्रिक व्यवस्था मैं ही अपने दुखों -अभावों  का निदान खोज रहे हैं ..! भले ही कांग्रेस और भाजपा ने अन्य  पूंजीवादियों    ने आजादी के ६ ५ सालों में केवल  पूँजीवाद -साम्राज्यवाद को खाद पानी दिया है , साम्प्रदायिकता को पाला  पोषा  है,  सलवा जुडूम के बहाने आदिवासियों को आपस में भिड़ाया है ,किन्तु ये भी तो सच है की इन्ही भाजपा और कांग्रेस ने ही नक्सलवाद को भी तो  अपनी -अपनी बारी आने पर खूब सहलाया है…!  फिर इस  'नरसंहार'  के लिए  क्या कोई  एक विचार,व्यक्ति या समूह  ही जिम्मेदार  है ? क्या  सलवा जुडूम से जुड़े आदिवासी और नक्सलवाद से जुड़े आदिवासी  'एक ही खान'के नहीं हैं ? फिर ये बस्तर के दर्भा-जीरम क्षेत्र  का  नर संहार  'वर्ग संघर्ष'   के लिए की गई कार्यवाही कैसे हो  सकता   है .'  क्या यह  नर संहार अपनों का रक्त  अपनों के द्वारा बहाकर  पूंजीवाद के लिए '  किया गया  निष्कंटक रास्ता नहीं हो सकता . और फिर माओ,चे ,फिदेल ,लेनिन ने कब कहाँ कहा कि व्यवस्था परिवर्तन के लिए हर समय गोलियां ही दागते रहो . भारत के नक्सलवादी[माओवादी] अब तक  जिस माओवाद का रोना रो रहे हैं  वो तो माओ के जीते जी ही मरणासन्न हो चला था और माओ की मौत के बाद तो 'देंग् शियाओ -पेंग 'के अनुयाइयों ने  उस माओवाद  की   जो ऐसी तैसी की उसे क्यों भुलाया जा रहा है . क्या वे भूल गए कि  चीन में  ही   उसे जमीन के अन्दर सदा के लिए दफना दिया गया  है . "सत्ता बन्दुक की नोंक से मिलती है " मिलती होगी कहीं शायद ये सिद्धांत अब भी सही हो सकता हो किन्तु जिस देश में गौतम बुद्ध ,महावीर स्वामी ,स्वामी  रामक्रष्ण परमहंस ,स्वामी विवेकानंद और महात्मा गाँधी, गुरु नानक देव और संत कबीर हुए हों नम्बूदिरिपाद- और श्रीपाद अमृत डांगे    जैसे अहिंसा और  मानवता के पुजारी  हुए हों उस देश में सब कुछ बन्दुक की नोंक पर ही होना असम्भव है . नक्सलवादियों ने जो मौत का तांडव  किया उससे  किनका  हित साधा गया ये भी तो विचारणीय है .
                                                             इस खुनी खेल में विज'य किसकी  हुई  ? क्या पूंजीवाद हार गया ? क्या शोषण विहीन समाज व्यवस्था कायम हो गई या उसकी राह आसान हुई ?पूंजीवादी साम्राज्वाद का बाल भी बांका नहीं हुआ और नक्सलवाद तो पूंजीवाद की नाजायज औलाद साबित भी  हो चूका है . देश का और छत्तीस गढ़ का सर्वहारा वर्ग  तो अब हासिये से भी बाहर होने  की स्थति में आ गया  है . अब तक तो  स्थानीय आदिवासी  को सदियों से केवल उत्तरवर्ती  वणिक ,जमींदार ,अफसर वर्ग के शोषण का शिकार होना पड़ता था .अब उसे दो पाटों के बीच पिसना पड़  रहा है . एक ओर सनातन से शोषण  कारी और दूसरी ओर आज के ये तथाकथित स्वयम्भू  क्रान्तिकारी  जिनकी समझ बूझ पर, उनकी सैध्नातिक समझ पर,   माओ ,फेदेल कास्त्रो या छे-गुए वेरा का कुत्ता भी मूतने को तैयार नहीं होगा . इन महामूर्ख नक्सलवादियों को इतनी मामूली सी समझ नहीं है कि   अमेरिका का,  चीन का, पाकिस्तान का, या किसी 'राष्ट्र घाती ' का भी कोई ऐंसा अजेंडा भी  हो सकता है जो नक्सलवादियों के नापाक हाथों से  पूरा हो रहा  हो . सत्ता का देशी  दलाल  भी कोई छिपा हुआ मकसद  पूरा करने  में  जुटा हो  !
                                             सोचता हूँ कि   मुझे कभी कहीं कोई माओवादी मिले[और वो बन्दुक से नहीं  मुँह  से बात करे ] तो मैं उसे वैचारिक विमर्श की चुनौती देते हुए पूंछुंगा कि बता -  इस मौत के तांडव से बस्तर के ,  छतीसगढ़ के  ,भारत के  या विश्व के  सर्वहारा  के किस हिस्से   को क्या मिला? क्या क्रांति सम्पन्न हो चुकी ?  क्या छत्तीसगढ़ के आदिवासियों का शोषण अब नहीं होगा ?क्या वस्तर और छ ग समेत  समस्त भारत की प्रचुर  प्राकृतिक सम्पदा  के लुटेरों का बाल भी बांका हुआ ? क्या अब लूट नहीं होगी?  क्या किसी एक भी भूखे - नंगे आदिवासी -मजदूर -वेरोजगार को इस नर संहार से रंचमात्र भी फायदा हुआ ?यदि इस घटना से नहीं तो और किस 'नरसंहार'से और कब -कब   ?फायदे हुए ? ये  भी तुम जैसे  देश के गुमराह नौजवानों को  देश की मेहनतकश  आवाम के समक्ष प्रस्तुत करना चाहिए .तुम्हे यदि बन्दुक की ही भाषा आती है तो क्यों न तुम्हें  विराट  शक्तिशाली भारतीय फौजों के हवाले कर दिया जाए ?  भारतीय फौजों ने  अपने हाथों में मेहंदी नहीं लगा   रखी है  ,जिस दिन देश की संसद फरमान जारी करेगी  कि  ' आक्रमण'....! तो तुम नक्सलवादी  चन्द घंटों में नेस्तोनाबूद कर दिए जाओगे . अभी आप वर्तमान व्यवस्था के भृष्ट तंत्र और ढीली पोली स्थानीय पुलिस के सामने शेर बन रहे हो ,भारतीय फौजों के सामने गीदड़ भी नहीं  रह पाओगे .   यदि नक्सलवादी-माओवादी सोचते हैं  कि  'वो सुबह कभी तो आयेगी ....!जब क्रांति का  सूर्योदय होगा ...तो हम भी इस 'उदयगान'के सहु-उद्घोषक बनने  के लिए तैयार हैं किन्तु जब ' दर्भा -जीरम जैसे हज़ारों नरसंहार के बाद भी वर्तमान ' व्यवस्था '   का एक रोम भी नहीं हिला तो  'वैचारिक आत्मालोचना' में क्या बुराई है ?सोचो की  कहीं  न कहीं कोई तो खामी है .कम -से -कम  तब तलक तो देश के सम्विधान  को मानो जब तलक आप स्वयं 'राज्यसत्ता'के तथाकथित अधिनायक नहीं  बन  जाते . आप अपना वो एजेंडा जो तात्कालिक  रूप से  इम्प्लीमेंट करना चाहते हैं ,वर्तमान राज्यसत्ता के समक्ष और जनता के समक्ष रखते क्यों नहीं ? और बातचीत के  रास्ते जब कुछ भी हासिल नहीं कर पाते तब 'अंजाम' की चुनौती देते तो कोई और बात  होती . किन्तु आप नक्सलवादी लोग विचारधारा और सिद्धांत से तो बुरी तरह दिग्भ्रमित हैं ही साथ में देश के सर्वहारा वर्ग के लिए अब आप 'अनाड़ी  की दोस्ती जी का जंजाल 'सावित हो चुके हैं .वर्ग संघर्ष की लाइन छोड़कर आप आतंकवादियों-अलगाववादियों -देशद्रोहियों की सी हरकत करते हुए निहत्थे काफिले  पर  धोखे से वार करते हैं  एक-एक शरीर को सौ -सौ घाव देकर उनकी मौत पर जश्न मनाते हो ,आपको और आपकी विचारधारा को   बारम्बार  धिक्कार है…! इस  स्थति में हम आपको पूंजीवादी साम्राज्यवाद और देशी साम्प्रदायिकतावाद  का एजेंट करार देते हैं . और कामना करते हैं कि  आपको  जल्दी से जल्दी जडमूल से खत्म कर दिया जाए .
                                             कॉम लेनिन ,कॉम कास्त्रो ,कॉम हो-चिन्ह-मिन्ह या स्वयम कॉम .माओ  ने अपने-अपने राष्ट्रों के संविधान को क्रांति से पहले कभी नहीं छेड़ा .  हालाँकि  वे उसे  पूँजीवादी  राज्यसत्ता का मज़बूत औजार मानते थे . क्रांतियों से पहले  नहीं बल्कि  क्रांतियों के बाद 'सर्वहारा-अधिनायकबाद ' के अनुरूप आंशिक रूप से दुनिया के तमाम  क्रान्तिकारियों  ने अपने-अपने राष्ट्रों के संविधानों को  संशोधित किया था . यही उचित भी था .  यह संभव भी नहीं था  कि  राज्यसत्ता पर  पूँजीपति या सामंत वर्ग  काबिज हो और संविधान  सर्वहारा वर्ग  का  हो  यही नियम अब भी प्रासंगिक है ..क्या  साल में दो-चार सौ आदिवासियों ,एक-दो दर्जन पेरा मिलिट्री फ़ोर्स के  जवानों और  एक-दो नेताओं-अफसरों  की ह्त्या से 'लाल किले पर लाल निशाँ आ जाएगा'? इन हरकतों से  संविधान बदल जाएगा ? बाबा साहिब को मानने वाले न केवल करोड़ों दलित बल्कि करोड़ों सुशिक्षित माध्यम वर्गीय सवर्ण वर्ग को वर्तमान संविधान में आस्था है   वे आपके उस संविधान के बारे में जो खुद आप लोगों को भी नहीं मालूम-  जाने बिना ,अपने वर्तमान 'प्रजातांत्रिक - धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद' से ओत -प्रोत संविधान को क्योकर त्यागने को तैयार होंगे ? आपके प्रति एक संवेदनात्मक  भाव कुछ वुद्धिजीवियों में हो सकता है किन्तु वे भी आपकी हरकतों से निराशा के गर्त में  डूबने  को हैं . वेशक दर्भा - जीरम  घाटी  के हत्यारे किसी भी तरह से  क्रान्तिकारी तो क्या  नक्सलवादी या माओ वादी  कहलाने लायक भी नहीं हैं . ये तो चोर-उच्चकों बटमारों या पिंडारियों के  गिरोह हैं .. इनमे और उन में जो पाकिस्तान से प्रशिक्षण प्राप्त कर भारत में खून की होली खेलते हैं कोई फर्क नहीं।  इनमें और उनमें बी कोई फर्क नहीं जो धर्म-मजहब के नाम पर हिसा का तांडव करने को उद्द्यत रहते हैं . इनसे अच्छे तो डाकू मानसिंग ,मोहरसिंह देवीसिंह थे जो  पीछे  से वार नहीं करते थे और गरीब को मारना  तो दूर  कभी  डराते भी नहीं थे , जब -जब  देश को बाहरी दुश्मन ने ललकारा इन डाकुओं ने तो  देश को अपनी सेवायें देने का भी  ऐलान किया .आज  नक्सलवादी कितने गिर चुके हैं ?  रोज-रोज की  ख़बरें बता रही हैं कि  वे विदेशों से हथियार पाते हैं , थाने लूटते  हैं,जन-अदालतें लगाते हैं ,क्या खाप पंचायतों  के तौर तरीकों और इन नक्लवादियों की आचरण शैली में कुछ फर्क है?   अरे भाई ..! आप अपने आपको  वैज्ञानिक विचारधारा  का प्रवर्तक मानते हो  और  अति उन्नतशील प्रोग्रेसिव  कहते हो ,लेकिन आपकी कथनी -करनी से किसका हितसाधान  हो रहा है ये भी तो जनता  को बताते जाओ .
                   आपने सीने पर तमगा लगा रखा है कि आप भगतसिंह हैं,छे-ग्वे -वेरा हैं,फिदेल  कास्त्रो या ह्युगोचावेज हैं, आप गैरीबाल्डी  हैं आप लेनिन -स्टालिन -माओ सब कुछ हैं किन्तु इन महा -क्रांतिकारियों ने आम जनता को नहीं राज्य सत्ता को उखड़ा फेंका था .आप तो बस्तर को बारूदी सुरंगों से पाटकर गरीब आदिवासियों को जीते जी मार रहे हो उनका जीना मुहाल कर रखा है  और आप लोग बन्दुक के अलावा  किसी की नहीं सुनते हो .आपको लगता है की आप इस राह पर ज्यादा देर तक टिक पायेंगे ? तो ये दिवा स्वप्न भी तभी तक देख पाओगे जब तक इस देश में  भाजपा -कांग्रेस जैसी भृष्टाचार प्रिय पूंजीवादी डरपोंक  पार्टियां  सत्ता में हैं ,जिस दिन संसद में ईमानदार और बहादुर देशभक्त  बहुमत में आ जायेंगे  और भारत-तिब्बत सीमा सुरक्षा बल या फौज को आपके सफाए का आदेश दे देंगे  उसके २ ४ घंटे के पेश्तर न आप  बच  पायेंगे और न आपके शुभचिंतक  आपको .लाल सलाम ...!  कहने के लिए कॉम माओ की आत्मा  और दर्शन दोनों नहीं आयेंगे .
                                                      पूंजीवाद के विरोधी हैं आप!  तो  किस जगह ?कब? कहाँ? आपने पूंजीवाद का बाल उखाड़ा है वो भी  बजा फरमाइए .  कहने को तो  सारा देश कहता है कि  पूंजीवाद से देश और समाज का भला नहीं होने वाला और इस व्यवस्था को बदलने के लिए बहुत सारे लोग अहिंसक तरीके से सोचने और कार्यान्वित करनमें जुटे हैं .अंडा जब पक जाएगा तो चूजा भी बाहर आ जाएगा .वक्त से पहले  जबरन फोड़ दोगे  तो क्या निकलेगा ?   वक्त से पहले कुछ हो भी गया तो  अपरिपक्व ही हो सकेगा जो बाद में सर धुन कर पछताने  का सबब बनकर रह जाएगा .ये कार्यवाही और उससे पूर्व दंतेवाडा समेत देशभर में की गई नक्सलवादी कार्यवाहियों का सार क्या है ?  निसंदेह  ये द्वंदात्मक ऐतिहासिक भौतिकवादी दर्शन के उस सिद्धांत का अमलीकरण नहीं है जिसे वैज्ञानिक भौतिकवादी या साम्यवादी 'वर्ग संघर्ष' के नाम से संबोधित किया करते हैं  ;बल्कि ये पूर्णत: वैचारिक दिग्भ्रम और नितांत भयाक्रांत  प्रतिशोधात्मक  ,अमानवीय, वीभत्स  कार्यवाहियां हैं .राष्ट्र द्रोही ,जन-विरोधी  हत्यारों   द्वारा   सर्वहारा वर्ग पर किया गया दरिंदगीपूर्ण-कायराना -  हमला  है .
                                          विश्व इतिहास में जब-जब  जय-पराजय की चर्चा होगी ,भारतीय पराजयों का इतिहास सबसे विराट और वीभत्स प्रतिध्वनित होगा . हांलांकि दुनिया में शायद ही कोई व्यक्ति,समाज[कबीला], कौम या  राष्ट्र हो जिसे  सदा  विजयश्री ही  मिली हो . हारना तो कभी उन्हें भी पडा था जो बाद में बड़े नामी विजयेता  होकर  दुनिया के लिए 'अवतार-पैगम्बर - ईश्वर -नायक -क्रुशेदर   या मार्गदर्शक  बने .  भले ही वे  दुनिया भर के दिलों में अब   राज  कर रहे हैं  किन्तु एक  न एक दिन वे भी  अपने प्रतिद्वंदी / प्रतिश्पर्धी या खलनायक के हाथों  पराजित अवश्य हुए थे .बाज मर्तवा तो ये भी हुआ की खलनायक जीत गए और 'सत्य-न्याय-मानवता' के अलमबरदार पराजित हुए . याने जो जीता  वही  सिकंदर , बाद में कतिपय खलनायकों  ने तो दुनिया को  अपना मजहब-पंथ  भी बिन मांगे दे डाला . दुनिया भर के लोग  इन   ' मिस्डोक्टोरिन्स ' को फालो  करते हुए  सनातन से अपनी-अपनी अधोगति को प्राप्त हो रहे हैं . विश्व कल्याण और विश्व हितेषी अनेक महामानवों को उनकी सांसारिक   और लोकोत्तर पराजय के कारण  हमने या तो उन्हें विसरा दिया या   खलनायक  की कतार में खडा कर उनके प्रति कृतघ्नता प्रदर्शित कर दुनिया को 'विचारधाराओं के संघर्ष का अखाड़ा ' बना डाला  है .नक्सलवादियों की न्रुशंश्ता ने न केवल सिध्धान्तों के साथ 'दुष्कर्म ' किया है बल्कि भारत को दुनिया में   उसकी नैतिक अपंगता के लिए दिगम्बर कर दिया है।  दुनिया आज हम पर हंसती है कि   ये देश जो मुट्ठी भर  गुमराह आदिवासी युवाओं को काबू में नहीं कर सकता वो  अपने किसी भी शत्रु राष्ट्र से कैसे पार पा सकेगा ?  वक्त आने पर वो दुश्मन से  अपनी रक्षा कैसे करेगा ? अति - मानव-अधिकारवाद, 'अंध-पूंजीवाद विरोध ' के  साथ-साथ उग्र -वाम पंथ  पर  भी भारत की जनता को 'विमर्श के केंद्र' में लाना होगा, उचित कार्यवाही भी करनी होगी  तभी ये नासूर भरे जा सकेंगे जो विचारधाराओं के नाम पर 'धरतीपुत्रों' ने ही इस देश को दिए हैं .  इस दिशा में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी [मार्क्सवादी]  बेहतर भूमिका अदा कर सकती है .
                                                        भारत की मु ख्य धारा के वामपंथी[ सी पी एम् ,सी पी आई  इत्यादि] जिन्होंने पंजाब में लाखों की तादाद में 'भारत राष्ट्र' के लिए खालिस्तानी उग्रवादियों से लोहा लिया और वीरगति को प्राप्त हुए,जिन्होंने सिद्धार्थ शंकर राय  सरकार के भीषण  'नर  संहार'   में अपने प्राण गँवाए ,जिन्होंने आंध्र,बंगाल,बिहार   झारखण्ड तथा छतीस गढ़ में नक्सलवादियों-माओवादियों  से संघर्ष करते हुए प्राण  गँवाए . अपने  लाखों  साथियों को खोया वे आज भी शिद्दत से नक्सलवाद का मुकाबला कर रहे हैं  वे  न केवल भौतिक रूप से बल्कि वैचारिक रूप से नक्सलवाद को  भारत की जमीनी हकीकतों से बेमेल बताकर हमेशा ख़ारिज करते आये हैं .और वे आज भी कर रहे हैं   उग्र्वाम पंथ के रूप में 'साम्यवादी क्रांति ' के सपने देखने वाले नक्सलवादियों ने इसीलिये पहले छतीस गढ़ में चुन-चुनकर  माध्यम  मार्गी -अहिसक  वाम पंथियों को मारा ,अब कांग्रेस को मार रहे हैं , महेन्द्र करमा जो कि  पहले सी पी  आई में थे और बाद में कांग्रेस में आये थे  वे भी इसी कारण मारे गए कि  वे 'सत्ता बन्दुक की नोंक से मिलती है" का समर्थन नहीं कर सके। नक्सलवादी किसी के सगे नहीं हुए , अभी तक कम्युनिस्टों और कांग्रेसियों को मारा अब     भाजपा को भी  अंत में निपटायेंगे . कोई नहीं बचेगा . वे केवल एक ही  सूत्र  जानते हैं 'सत्ता बन्दुक की नोंक से निकलती है .' उन्हें गाँधी,गौतम,अहिंसा और भारतीय लोकतंत्र से कोई सरोकार  नहीं वे तो  भारत का केंसर हैं  और उन्हें चिन्हित कर फौजी कार्यवाही रुपी शल्य क्रिया के द्वारा फना किया जाना ही देश की जनता के हित में हैं .
  
   चूँकि नक्सलवादी वर्तमान भारतीय संविधान को नहीं मानते याने वे 'भारत राष्ट्र' को नहीं मानते याने वे देशद्रोही हैं ,वे हमलावर हैं , वे कृतघ्न हैं , दर्भा-जीरम नरसंहार के लिए वे केवल कांग्रेसी काफिले की सामूहिक ह्त्या  के लिए नहीं बल्कि भारत राष्ट्र की संप्रभुता पर हमले के लिए जिम्मेदार हैं , वे जब भारतीय क़ानून व्यवस्था में यकीन नहीं रखते तो उस क़ानून के तहत कार्यवाही न करते हए ,उन पर सीधे फौजी कार्यवाही किये जाने का रास्ता साफ़ है .देश की संसद को चाहिए की सेनाओं को आदेश करे और न केवल छतीसगढ़ बल्कि सम्पूर्ण भारत से 'नक्सलवाद' माओवाद का खात्मा करे…! जनता को भय मुक्त करना ,जान-माल की हिफाजत और उसके  जीने के अधिकार की हिफाजत सबसे पहला काम है यदि पोलिस और कानून व्यवस्था  से  यह  संभव नहीं तो जनता को  और देश की संसद को  और लोकतंत्र के  चारों खम्बों को चाहए कि    इस नक्सलवाद रुपी  नासूर को   फौज रुपी शल्य चिकित्सक  के हवाले कर दिया जाए ...!  . 'नर संहार ' पर राजनैतिक रोटियाँ   सेंकने  से भी पक्ष-विपक्ष को  बाज आना चाहिए ...!
     
       श्रीराम तिवारी