रविवार, 13 मई 2012

लोकतंत्र का अमृत कलश जनता के हाथ में होना चाहिए.

  भारतीय इतिहास के देशी-विदेशी जानकारों में से अधिसंख्य इतिहासवेत्ताओं  की राय है  की भारतीय उपमहादीप    कई  शताब्दियों से अनेक  राष्ट्रीयताओं  का चारागाह बनता रहा है। समेकित 
 वास्तविक भारत राष्ट्र की अवधारणा  का सामंतयुग में चरितार्थ हो  पाना कभी संभव नहीं रहा।उत्तर वैदिक 
कालीन तथ्यों में अवश्य  कुछ प्रमाण उपलब्ध हैं जो सिद्ध करते हैं की 'आर्यावर्त''  'जम्बूदीप' में 'एक राष्ट्र राज्य'
  की अवधारणा का प्रयास ' सदियों तक चलता रहा ;-

  ऋग्वेद 10/19/3 के अनुसार  आदिम साम्यवादी युग में लोकतांत्रिक अवधारणा को स्पष्ट देखा जा सकता है।

  संग्च्छद्द्वाम संवदध्वं , सम वो मनासी जानताम!
 देवा भागम यथा पूर्वे,संजानाना उपासते!!
    
    " हम सब साथ-साथ  चलें,प्रेमपूर्वक सम्भाषण या  वार्तालाप  [disscussion] करें,हम शांत भाव से 
      सह चिंतन करें,जिस प्रकार हमारे पूर्वज अपने -अपने हिस्से या भाग में आने वाली संपदा को परस्पर
      सह सम्मति और समता के आधार पर प्रसाद रूप में ग्रहण किया करते थे उसी प्रकार हम भी एकमत होकर अपना-अपना दायित्व और अंश[उत्पादित  या अर्जित धन -सम्पदा] सहर्ष स्वीकार करें"

   आधुनिक  भारत राष्ट्र को  इस रूप में आने में 10 हज़ार साल लग गए  जिसकी प्रस्तावना में लिखा गया है ;-

   " हम  भारत  के जन-गन[लोग]  भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न,  धर्मनिरपेक्ष ,समाजवादी 
लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक -आर्थिक और राजनैतिक न्याय विचार, अभिव्यक्ति ,विश्वास ,धर्म और उपासना की स्वतंत्रता , प्रतिष्ठा और
 अवसर की
 समानता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता
सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए कृत संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज ..... को एतद  द्वारा इस संविधान को अंगीकृत,अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं"'
         इसके बाद क्या हुआ?आज 13 मई -2012 को संसद में देश के वर्तमान जन-प्रतिनिधियों ने स्वयम  स्वीकार किया है की हम  भले ही आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश होने का गौरव पाते हैं किन्तु  यह  सच है की देश के मुठ्ठी भर लोग हीविगत 60 वर्षों से  उन संवैधानिक
 स्थापनाओं की गौ माता का दुग्ध पान करते  आ रहे हैं  और अधिसंख्य जनता -मजदूर,किसान,भूमिहीन ग्रामीण और रोजगार बिहीन शहरी सबके हिस्से में  तो वही अरण्यरोदन आया है जो आज लोक सभा में   कांग्रेस ,भाजपा,समाजवादी,जदयू और वामपंथी नेताओं ने प्रस्तुत किया है। भारत ने अभी सच्चे लोकतंत्र की ऊंचाई को नहीं छुआ है।विगत 60-65 सालों में देश ने  भारी तरक्की तो की है किन्तु तरक्की का लाभ उनको ही मिला जो सबल थे। वर्तमान लोकतान्त्रिक व्यवस्था ने लाखों -करोड़ों लोगों को खुशहाल बनाया है किन्तु एक अरब आबादी महज़  बिकाऊ,भटकाऊ और गंबाऊ वोटर के रूप में सदियों के लिए अभिशप्त है।
                              सच्चे लोकतंत्र के लिए संघर्ष  जारी है।वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था में भी कम से कम इतनी तो  गुंजायश होनी ही चाहिए की जिन मालों -उत्पादनों और संपदाओं पर समाज के चंद चोट्टे एश कर रहे हैं उन संपदाओं,मालों और उत्पादनों तथा उत्पादन के साधनों
  के साधनों को जिस पसीने की जरुरत है ,जिस परिश्रम की जरुरत है  वो 'मेहनतकश  सर्वहारा '  से ही हासिल हो सकता है और इस शोषित वर्ग को जिन्दा रहने लायक कुछ टुकड़ा फेंकना लाज़मी है .इसीलिये
 कभी -कभी  मन रेगा ,आंगनवाडी और 'काम के बदले अनाज '  जैसे शागुफे छोड़े जाते हैं।इसमें भी लुब्बो-लुआब ये है की 80% धन राशी चोट्टे अधिकारी खा जाते हैं .जनता अपनी बदहाली के लिए नेताओं को कोसती है
जबकि नेताओं को अँगुलियों पर नछाने  वाली भृष्ट प्रशासनिक मशीनरी ने न केवल लोकतंत्र रूपी अमृत कलश को   बल्कि राष्ट्र की
अस्मिता  को  भी  किडनेप   कर रखा है।जब तलक शक्तिशाली समाज द्वारा निर्वल समाज का शोषण जारी रहेगा,जब  तलक दवंगों आततायिओं द्वारा गरीबों -मेहनतकशों का शोषण जारी रहेगा जब तलक अमीर और गरीब के बीच की खाई और ज्यादा  चौड़ी होती रहेगी 
 तब तलक भारतीय लोकतंत्र ,संविधान और संसद  केवल 'सभ्रांत-लोक'  के  हितों का सबब बने रहेंगे।....   
                                                                         श्रीराम तिवारी 


  




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