रविवार, 31 जनवरी 2016

भारत के खिलाफ पाकिस्तान की क्रिकेट कूटनीति और राजनैतिक कुटिलता !



 अभी-अभी टी ट्वन्टी क्रिकेट मैच  श्रृंखला में आस्ट्रेलिया को क्लीन स्वीप कर भारतीय क्रिकेट टीम ने दुनिया में भारत का झंडा ऊँचा किया है।  इस जीत ने चारों ओर निराशा के सागर  में आकंठ डूबी  भारत की जनता को जो क्षणिक ऊर्जा प्रदान की है ,उसके लिए न केवल  भारतीय क्रिकेट टीम  के शतकबाज खिलाडी बल्कि कप्तान धोनी भी बधाई के हकदार हैं।उनकी इस महाविजय के कारण भारत भूमि में खदबदा रहे -आतंक कांडों, रेपकांडों  , टेपकांडों  ,दलित कांडों, अल्पसंख्यक और  स्त्री विमर्श कांडों से देश की जनता का ध्यान कुछ क्षणों के लिए ही सही,कुछ तो अवश्य भंग होगा । इस दौर में उपलब्ध हर किस्म के सूचना संचार माध्यम और सोशल मीडिया पर सत्ता के बौराये पूंजीवादी भांडों के नकारात्मक कोलाहल से भी जनताजनार्दन को कुछ तो राहत  मिलगी।न केवल टी ट्वन्टी की जीत बल्कि जूनियर क्रिकेट टीम की जीत और सानिया मिर्जा की जीत से भारत का मान बढ़ा है। आस्ट्रेलिया में तो भारत के एनआरआई और समर्थक दर्शकों का 'दर्प'  अपने सर्वोच्च शिखर पर जा  पहुंचा है। सभी  खेल प्रेमियों को बधाई ! वेशक भारतीय टीम की इस जीत से भारत के  जिन दुश्मनों को बहुत तकलीफ हुई होगी ! उनके लिए शोक संवेदना !

देश और दुनिया में करोड़ों लोग होंगे जिन्हें क्रिकेट बिलकुल पसंद नहीं।अरबों ऐंसे होंगे जिन्हें मेहनत मजदूरी से ही फुर्सत नहीं ,क्रिकेट का खेल हो या उस जैसा कोई अन्य मनोरंजन  का सभ्रांत साधन -उनके नसीब में कदापि नहीं। परन्तु इनमें से  अधिकांस लोग न  केवल क्रिकेट बल्कि किसी भी खेल  में अपने देश की हार-जीत से  प्रभावित अवश्य होते हैं । भारतीय  चिंतन -दर्शन परम्परा के अनुसार  तो कोई  भी वानप्रस्थ नर-नारी लाभ-हानि ,जीवन-मरण , शत्रु -मित्र , यश-अपयश और शीत -उष्ण के  प्रभाव  से परे  ही होता है । वह सर्वथा वीतरागी और सम्यकदृष्टि वाला होता है।  वह 'विश्व बंधू' या 'विश्व नागरिक'जैसा हो जाता  है। उसके लिए दुनिया के सभी देश  और उनके खिलाडी  एक समान  दिखने लगते हैं। यह  विचित्र किन्तु नितांत सत्य है कि  मार्क्सवादी  दर्शन अर्थात वैज्ञानिक साम्यवाद भी यही सिद्धांत पेश करता है। खैर यह इस आलेख का मकसद भारतीय दर्शन और वैज्ञानिक भौतिकवादी  दर्शन का तुलनात्मक अध्यन प्रस्तुत करना नही है। मुझसे अगर  कोई पूंछे कि  दुनिया की सबसे रोमांचक घटना कौनसी है ? मेरा जबाब होगा -भारत बनाम पाकिस्तान क्रिकेट !

 दुनिया की सबसे  रोमांचक घटना तब हुआ करती है जब  भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहे क्रिकेट मैच को पाकिस्तानी खिलाडियों ,दाउदों ,अजहर मसूदों ,याकूब मेमनों व  आईएस पोषित आतंकियों द्वारा युद्ध' क्षेत्र   में बदल दिया जाता है। आतंकवाद से पीड़ित पाकिस्तान ,अलगाववाद से पीड़ित पाकिस्तान ,सर्वाधिक  विदेशी कर्ज से पीड़ित पाकिस्तान ,सर्वाधिक निर्धनता से पीड़ित पाकिस्तान और बेहद अशांत पाकिस्तान तब उन्मादी हो जाता है जब उसके खिलाड़ी भारत की  क्रिकेट टीम को  हारने के लिए  निहायत नीचता पर उतर  आते हैं। विगत ५० साल से पाकिस्तान ने सिर्फ  यही प्रमाणित किया है कि वह भारत को बरबाद करना चाहता है। लेकिन भारत ने हमेशा उसे इज्जत दी और दोस्ती का भी हाथ बढ़ाया। अब  चूँकि पाकिस्तानी क्रिकेट की फायनेंसियल स्थति बहुत दयनीय हालत में जा पहुँची है ,उसे उबारने के लिए उसे भारतीय क्रिकेट की अभिलाषा है। किन्तु भारत को यह याद  चाहिए कि  जो चीज पाकिस्तान के हित में हो वो भारत के हित  में कभी नहीं होती !भारत जब -जब पाकिस्तान पर मेहरवान हुआ है तब-तब पाकिस्तान ने धोखा और अवसाद ही दिया है। श्रीराम तिवारी
 

शुक्रवार, 29 जनवरी 2016

दक्षिणपंथी विचार धारा के लोगों के अभी अच्छे दिन चल रहे हैं।



 आज बापू निर्वाण दिवस है ! आज ही के दिन महात्मा गाँधी की नृशंस हत्या की गयी थी ! चूँकि  कोई भी सच्चा वतनपरस्त बापू के अवदान को कभी भूल ही नहीं सकता ,इसलिए वह गांधी जी को साल में एक दिन विशेष रूप से याद करने की  औपचारिक तामझाम का तलबगार  भी नहीं होता। वैसे भी शहादत कोई वैयक्तिक पूँजी नहीं  अथवा इतिहास  की इकलौती चीज नहीं हुआ करती। कौम के लिए ,देश के लिए अथवा सम्पूर्ण मानवता के लिए आत्म बलिदान  कोई ऐंसी शै नहीं कि इतिहास की धरोहर होकर रह  गयी.कि फिर दुबारा कभी न हुयी न होगी ।   महात्मा गाँधी जैसे ही अन्य हजारों बलिदानी लोग  स्वाधीनता संग्राम के हवन कुण्ड में स्वाहा हो गए। गांधी जी से पहले भी होते रहे हैं ,और अभी भी हो रहे हैं। लाला लाजपत राय ,उधमसिंग ,भगतसिंह और आजाद  जैसे तो देवतुल्य हैं ही किन्तु  आजादी के बाद भी सफदर हाशमी ,डाभोलकर ,पानसरे ,कलीबुरगी  का अवदान गांधी जी या  अन्य शहीदों से कुछ  कमतर नहीं आंका जा सकता। गांधी जी की शहादत इसलिए महिमामंडित है कि   उनके परमशिष्य पँ  नेहरू देश के प्रधान मंत्री थे। कांग्रेस सत्ता में थी। उस के नेताओं ने अपने आपको सत्ता में निरंतर बनाये रखने के लिए गांधी जी को कुछ ज्यादा ही इस्तेमाल किया। पँ नेहरू ,सरदार पटेल ,लाला बहादुर शाश्त्री और इंदिराजी ने महात्मा  गांधी से आगे किसी के भी बलिदान को ज्यादा महत्व नहीं दिया । स्वामी श्रद्धानन्द  ,लाला लाजपत राय ,शहीद भगतसिंह ,गणेश शंकर विद्यार्थी , चंद्रशेखर आजाद  से लेकर सफ़दर हांशमी ,दाभोलकर ,गोविन्द पानसरे ,प्रोफेसर कलीबुरगी  जैसे लोगों की  शहादत को गांधी जी की शहादत से कमतर क्यों आंका जाना चाहिए ?

 अधिकांस शहीदों की हत्या किसी  खास  व्यक्ति  के हाथों नहीं हुई। बल्कि दुनिया की सबसे खतरनाक विचारधाराओं में एक खास  फासिस्ट और असहिष्णु विचारधारा  ही इसके लिए दोषी है। यह विचारधारा इन दिनों दुनिया के हर देश में बहुत फलफूल रही है। उसके आक्रामक प्रहार से अनेक साहसी ईमानदार और मानव-तावादी  शहीद हो रहे हैं। जरूरत इस बात की है कि शहादत का पेटेंट किसी एक के नाम नहीं मान  लिया जाये। जिन उन्मादी कट्टरवादी विचारों  ने  नाथूराम गोडसे के हाथों में पिस्तौल थमाई ,उस दक्षिणपंथी विचार धारा के लोगों के  भारत में अभी अच्छे दिन चल रहे हैं।  उसी  सोच के लोग इराक,सीरिया और आंधी एशिया में आग मूत रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि  कमसेकम भारत की गंगा जमुनी तहजीव और मानवतावादी चेतना  इन  तमाम स्वार्थपरस्त  विचारधाराओं  को इतिहास के कूड़ेदाबन में फेंक देगी । इसके साथ ही तमाम दमन  शोषण भृष्टाचार,लूट ,आतंकवाद ,नक्सलवाद और जातीय-धर्म के राजनैतिक पाखंडवाद  को ध्वस्त कर देश में शहीदों के सपनों का भारत आगे बढ़ेगा ,,,,,,,!  महात्मा गांधी अमर रहें !,,बापू हम शर्मिदा हैं ,,,तेरे कातिल ज़िंदा हैं ,,,,!
  श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 26 जनवरी 2016

दलित विमर्श में घृणा की स्वार्थी विचारधारा ही रोहित वेमुला की मौत का कारण है।

इक्कीसवें शताब्दी के शुरुआती  दौर में तो  मध्यप्रदेश  विदर्भ -मराठवाड़ा  और  देश के अन्य कई  क्षेत्रों में सूखा,बाढ़ , अकाल ,गरीबी,बेरोजगारी और लाइलाज बीमारी से पीड़ित लोगों द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबरें आम होतीं रहीं  हैं। इन आत्महत्याओं को पूर्णतः कायरता या मनोरोग की समस्या नहीं कहा जा सकता ! आत्महन्ता की  आर्थिक , सामाजिक और मानसिक अवस्था को जाने बिना  वस्तुस्थिति जाने  बिना या शासन तंत्र और उसका वर्ग चरित्र जाने बिना  उसे कायर या मनोरोगी नहीं कहा जा सकता। और सरकार या प्रशासन  पर इस गंभीर समस्या  की जिम्मेदारी डालकर आधुनिक सम्पन्न वर्ग आत्महत्याओं  के सवाल पर मौन कैसे रह सकता  है ? भेड़िया धसान  पूँजीवादी  समाज और उसका  शासनतंत्र आत्महत्या करने पर  ही संज्ञान क्यों लेता है ?

वेशक इस चुनौती से राष्ट्र का मुख  नहीं मोड़ा जा सकता। वैसे यह बीमारी पूँजीवादी मुल्कों में  ही ज्यादा है। भारत चूँकि उन्ही के नक़्शे कदम पर  ही चल रहा है ,इसलिए कुछ उसका असर भारत के युवा वर्ग पर भी है। किन्तु  यूरोप और अमेरिका का  पूंजीपति वर्ग अपनी  कमाई का बहुत  बड़ा हिस्सा जनकल्याण कोष में खर्च कर्ता है वेशक इसमें भी उनका राजनैतिक स्वार्थ हो सकता है कि उनके पूँजीवादी सिस्टम और  समाज में किसी भी तरह के वर्ग संघर्ष को पनपने ही न दिया जाए ! किन्तु भारतीय नवधनाढ्य वर्ग और भूस्वामी जमींदार वर्ग  केवल अंधाधुंध लूट  ,ऐय्याशी ,भृष्टाचार और देशद्रोह में जुटा है। यह वर्ग  अपनी  काली कमाई स्विश बैंकों में , हवाला कारोबार में या भृष्ट नेताओं को चुनाव जीतने में  तो खर्च कर देगा किन्तु  देश की पीड़ित -दमित और  दलित  जनता के शिक्षा,स्वास्थ्य एवं रोजगार निर्माण में एक  फूटी कौड़ी भी नहीं देगा। चूँकि भारत के समस्त सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा दलित समाज  ही है। और इस समाज को बजाय पूंजीवाद से संघर्ष के लिए प्रेरित करने के दलित तमाम नेताओं ने पूँजीवाद से  ही पवित्र गठजोड़ कर लिया।  दलित-शोषित समाज को आरक्षण के नाम पर पूँजीवादी व्यवस्था की चाकरी के लिए उन्मादी बनाने वाले दलित नेताओं ने भारत के दलित-पिछड़े - गरीब वर्ग को नंगे-भूंखे  'ब्राह्मण या सवर्ण सर्वहारा वर्ग से ही भिड़ा दिया। दलित विमर्श में घृणा की स्वार्थी विचारधारा ही रोहित वेमुला की मौत का कारण है। आजादी के बाद देश  भर में  जारी जातीय संघर्ष भी इसी का परिणाम है!
 रोहित वेमुला ने आत्महत्या क्यों कि  इसका खुलासा करना या तीर में तुक्का भिड़ाना  देश के बुद्धिजीवियों का मकसद नहीं होना चाहिए ! उन्हें इस तरह की मौतों के कारण और उसके निदान की तार्किक परिणीति तक हर  कीमत पर  पहुंचना  चाहिए।  हर किस्म की आत्महत्या के आलोचकों और वेमुला  जैसे युवाओं की  मौत पर मगरमच्छ के आंसू बहाने वालों को  यह भी याद रखना  चाहिए  कि दुनिया के किसी भी सभ्य समाज में आत्म हत्या करने वाले  सम्मान की नजर से नहीं देखा जाता।आमतौर पर आत्महंता  व्यक्ति किंचित अपराधबोध या नैराश्य से  जैसे मनोविकारों पीड़ित हुआ करता है । फिर भी उसे  पूर्णतः दोषी या कायर नहीं कहा जा सकता।

शहीद चंद्रशेखर आजाद को इलाहाबाद के अल्फ्रेड पार्क [अब शहीद  आजाद पार्क] में  जब अंग्रेजों की घुड़सवार पलटन ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया तब अंग्रेजों का मकसद था कि चंद्रशेखर आजाद जीवित पकडे जाएँ। जबकि  आजाद  का संकल्प  था कि 'मैं आजाद ही मरूँगा'' इसलिए उन्होंने अपनी  ही माउजर पिस्तौल से खुद की  'इहलीला' समाप्त कर ली! उनकी शहादत  के बाद भी अंग्रेजों को अंदेशा था की आजाद  संभवतः जीवित हैं अतः उन्होंने आजाद की मृत देह पर काफी देर तक अँधाधुंध गोलियाँ बरसाई ! उन्हें डर था कि महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद  यदि जीवित हैं तो वे अकेले  ही उस अंग्रेज सेना का भी काम तमाम कर सकते थे ।अब सवाल उठ सकता है कि  क्या आजाद ने आत्म हत्या की ? क्या आजाद  कायर थे ? क्या उनकी मौत पर किसी ने कभी वैसी राजनीति की जैसी कुछ स्वार्थी लोगों ने  रोहित वेमुला की आत्महत्या पर की  है? इस सवाल का जबाब हर देशभक्त भारतीय का एक ही  होगा - नहीं  ! नहीं ! नहीं !  बल्कि आजाद ने  तो  देश के लिए सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया !इसी तरह  भगतसिंह और अन्य शहीदों ने भी समझबूझकर कुर्बानियाँ  दीं हैं। कोई विकृत मनोरोगी ही उन्हें आत्महंता  कह सकता है।

 मुगलों के  रक्तरंजित दौर में अकबर के दूध भाई आदमख़ाँ ने जब  माण्डू [मालवा]के सुलतान बाजबहादुर को मारकर उनकी रानी रूपमती  के साथ दुष्कर्म करने का प्रयास किया तो रानी ने जहर खाकर अपने प्राण त्याग दिए ! क्या रानी  रूपमती ने आत्महत्या की ? नहीं ! अकबर के एक  अन्य सेनापति  आसफखां की आदमखोर  सेना ने  गढ़ा -मंडला  के राजा दलपति शाह को धोखे से मार दिया। राजा की मौत के बाद गौंड़  रानी दुर्गावती ने मोर्चा संभाला। युद्ध में जब रानी के सभी सैनिक मारे गए तो आसफखां ने रानी को  जीवित पकड़ने की कोशिश की। ताकी  उसे अपने हरम में  डाल सके। लेकिन  उसे रानी की मृत देह ही मिली। क्योंकि तब युद्ध के मैदान में  घायल  रानी ने महावत के हाथ से कटार छीनकर अपनी 'इहलीला' समाप्त कर ली ! क्या उस वीरांगना दुर्गावती ने 'आत्महत्य' की ? नहीं ! बिलकुल नहीं !

वप्पा रावल से लेकर राणा सांगा तक और गोरा -बादल से लेकर राणा प्रताप तक,तमाम सिख गुरुजनों से लेकर सरदार ऊधमसिंह तक  देश और कौम के लिए जितने भी बलिदान हुए हैं वे सभी क्या आत्महत्याएं हैं ?नहीं !

 अपने  सगे काका जलालुद्दीन ख़िलजी की धोखे से हत्या करने वाले  दिल्ली के सुलतान अलाउदीन ख़िलजी ने हाड़ोती के राजा रतनसेन को दोस्ती की मीठी -मीठी बातों में उलझाकर,पहले तो रानी पद्मिनी का मुँह आईने में देख लिया।  बाद में राजा को धोखे से मरवा दिया। और पद्मिनी को पाने के लिए उसने जो कत्लेआम किया उस कलंकित इतिहास को कौन नहीं जनता ? रानी पद्मिनी और अन्य महिलाओं ने भी उस दुष्ट अय्यास सुलतान से अपनी अस्मत की रक्षा के लिए अग्निकुंड में कूँदकर  इहलीला  समाप्त कर ली।  जिसे इतिहासकार सम्मान से जौहर  भी कहते हैं ।  क्या यह उन मजबूर  बच्चों और महिलाओं की आत्म हत्या थी ? नहीं ! कदापि नहीं  !

इक्कीसवें शताब्दी के शुरुआती  दौर में तो  मध्यप्रदेश  विदर्भ -मराठवाड़ा  और  देश के अन्य कई  क्षेत्रों में सूखा,बाढ़ , अकाल ,गरीबी,बेरोजगारी और लाइलाज बीमारी से पीड़ित लोगों द्वारा आत्महत्या किये जाने की खबरें आम होतीं रहीं  हैं। इन आत्महत्याओं को पूर्णतः कायरता या मनोरोग की समस्या नहीं कहा जा सकता ! आत्महन्ता की  आर्थिक , सामाजिक और मानसिक अवस्था को जाने बिना  वस्तुस्थिति जाने  बिना या शासन तंत्र और उसका वर्ग चरित्र जाने बिना  उसे कायर या मनोरोगी नहीं कहा जा सकता। और सरकार या प्रशासन  पर इस गंभीर समस्या  की जिम्मेदारी डालकर आधुनिक सम्पन्न वर्ग आत्महत्याओं  के सवाल पर मौन कैसे रह सकता  है ?

 भेड़िया धसान  पूँजीवादी  समाज और उसका  शासनतंत्र आत्महत्या करने पर ही संज्ञान क्यों लेता है ? इस थेरेपी  से राष्ट्र का इस आत्महंता बीमारी का  इलाज  नहीं किया जा सकता। वैसे यह बीमारी पूँजीवादी मुल्कों में ही ज्यादा है। भारत चूँकि उन्ही के नक़्शे कदम पर चल रहा है ,इसलिए कुछ उसका असर भारत के युवा वर्ग पर भी है। किन्तु  यूरोपियन और अमेरिकी पूंजीपति वर्ग अपनी  कमाई का बहुत  बड़ा  हिस्सा जनकल्याण कोष में खर्च कर्ता है । वेशक इसमें भी उनका राजनैतिक स्वार्थ हो सकता है. कि उनके पूँजीवादी  बुर्जुवा समाज में किसी भी तरह के वर्ग संघर्ष को पनपने ही न दिया जाए ! किन्तु भारतीय धनाढ्य वर्ग तो केवल अंधाधुंध भृष्टाचार अय्याशी ,मुनाफाखोरी,कालाबाजारी और देशद्रोह में जुटा है। यह वर्ग  अपनी  काली कमाई स्विश बैंकों,हवाला कारोबार या भृष्ट नेताओं को चुनाव जीतने में खर्च कर देगा किन्तु  देश की पीड़ित -दमित -दलित जनता के शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार निर्माण में  एक  फूटी कौड़ी भी नहीं देगा। यदि कोई व्यक्ति आत्महत्या कर ले तो उसके लिए मुफ्त के राजनैतिक आंसू उपलब्ध है।  चूँकि भारतीय सर्वहारा वर्ग का बड़ा हिस्सा दलित समाज  ही है और इस समाज को देश के अन्य सर्वहारा के साथ एकजुट होकर इस लूट की व्यवस्था से संघर्ष करना चाहिए। यह दुर्भाग्य ही है कि भारत की  डॉमिनेंट  राजनीतिक लॉबियों  ने चालाकी से  अपने-अपने खाँचे के दलित नेता गढ़ लेते हैं।  और वे दलित नेता ही इस दलित -शोषित-पिछड़े समाज  के स्वयंभू ठेकेदार बनकर समाज को बांटते रहते हैं। वे  दलितों को गरीब ब्राह्मणों या  मेहनतकश सवर्णों से भिड़ाते रहते हैं। पूँजीवादी  शोषण से नहीं लड़ने देते। परिणाम सामने है कि रोहित बेमुला  को आत्महत्या करनी पड़ती है।

कुछ साल पहले भारत के 'विदर्भ'क्षेत्र में लगातार सूखा पड़ा। सरकार की अनदेखी और प्रशासनिक मक्कारी के कारण सूखा पीड़ित किसानों को कहीं से कोई मदद नहीं मिली। कम रकवा वाले सूखा पीड़ित किसान गाँव -घर  छोड़कर शहरों में मजूरी करने लगे। लेकिन  एक किसान ने उस पुरानी कहावत को चरितार्थ किया कि' भले ही  मर जाऊंगा पर चाकरी नहीं करूंगा'।उसने अपने ही  खेत की मेड पर खड़े पेड़ की शाख पर फाँसी लगाकर आत्म हत्या  कर ली। और सुसाइट नोट छोड़ गया।  जिसमें उसने लिखा:-

 '' मेरे बृद्ध माता-पिता बीमार हैं ,मैं उनका भरण - पोषण और इलाज नहीं करवा सकता। कोऑपरेटिव बैंक से लिया खाद-बीज का कर्ज मय व्याज के बाकी है. जिसे में नहीं चुका सकता। शादी के लिए दो जवान बहिनें घर में कुंआरी बैठी हैं। पढाई खर्च नहीं जुटा पाने  के कारण बच्चों का स्कूल छूट गया है। पत्नी गर्भवती है ,डिलेवरी का इंतजाम नहीं हो पा रहा है । घर में खाने को अन्न का दाना नहीं है। चारे के अभाव में गाय -बैल -ढोर मरने लगे  हैं।  यह बदहाली तीन साल से लगातार चल रही है। भगवान -ईश्वर से निराश हो चुका हूँ। सरकार नाम की कोई चीज नहीं है । रिस्तेदार  और दोस्त खुद गऱीब और परेशान हैं। साहूकार के यहाँ  घर-जमीन सब  गिरवी  रखा है. अब जिन्दा रहना मुश्किल है ,अतः में आत्महत्या कर रहा हूँ '' !  इस सुसाइड नोट को  मीडिया ने भी अपने-अपने तरीके से प्रकाशित किया।  किसानों ने उसकी मौत पर जमकर हंगामा किया। और तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार ने आनन-फानन उस दिवंगत  किसान के सपरिजनों को आर्थिक सहायता पहुंचायी। नेता ,अफसर मंत्री  और एनजीओ वाले भी उसके घर की परिक्रमा कर आये।

उस आत्महंता किसान के सपरिजनों के वारे-न्यारे देख विदर्भ ,मराठवाड़ा और मध्यप्रदेश के किसानों की मानसिकता में पतनोन्मुखी बदलाव आने लगा। रोज-रोज आत्महत्याओं की खबरें आने लगीं। सरकार  और अधिकारी  मरने वालों के घर तो चेक लेकर पहुंचे ,किन्तु जो जिन्दा रहना चाहते थे या भूंख से लड़ते हुए मरे उनकी ओर सरकार का दिन ही नहीं गया। मीडिया और विपक्षी नेता आत्महत्या करने वालो के घर तो तुरंत  पहुंचते हैं किन्तु जो इस दुरवस्था में भी भय-भूंख ,भृष्टाचार से लड़ते हुए ,गरीबी -बेकारी से लड़ते हुए जिन्दा रहना चाहता है उसके घर कोई नहीं पहुँचता।  जब यह समाज और शासनतंत्र आत्महत्या करने पर ही संज्ञान  लेता है , तो कौन  वंचित ,दमित और शोषित होगा जो आत्महत्या के लिए तैयार  नहीं होगा  ?

इन हालात में भी अधिकांस  गरीब किसान ,दलित या शोषित -पीड़ित व्यक्ति आत्महत्या नहीं करते हुए जिजीविषा के लिए संघर्ष करना उचित समझते हैं । उनकी इस वीरता और साहस को सम्मान देने के बजाय उसके परिवार वाले और रिस्तेदार ताने देने लगते हैं कि  तुम नामर्द हो ! तुम्हारे जीने से तो मर जाना बेहतर है ,कम से कम  मरने पर सरकार कुछ तो देगी। और कुछ  परेशान लोग नाह्काबे में आकर आत्महत्या कर लेते हैं।

किसी भी सभ्य समाज में आत्महत्या करने वाले को महिमामंडित कया जाना उचित नहीं माना गया ।बल्कि उसे सामाजिक शर्मिंदगी और लाचारगी का सबब माना गया है। आत्महत्या करने वाला कितना ही महान क्यों न हो  किसी सभ्य समाज द्वारा उसे 'आइकॉन ' कभी नहीं बनाया गया । ब्रम्हाण्ड का प्रत्येक कण और प्रत्येक पिंड एवं  प्रत्येक चेतन प्राणी अन्योन्याश्रित है। स्वतंत्र रूप से न तो कोई प्राणी जीवित रह सकता है और न ही कोई प्राणी अपने आप को नष्ट कर सकता है। किसी भी प्राणी को  जिन्दा रहने के लिए धरती, आकाश , जल ,वायु, अग्नि  इत्यादि पंच महाभूत  तो जरुरी हैं ही ,साथ ही  देश-काल ,समाज,-राष्ट्र और प्रकृति की अनुकूलता भी जरुरी है। इसी तरह कार्य-कारण के सिद्धांतनुसार बिना ओरों की वजह से कोई स्वेच्छा से मर भी नहीं सकता। अर्थात उपलब्ध बाह्य कारण ही आत्महन्ता  के मनोविकारों के लिए उत्तरदायी हैं। हालाँकि वैश्विक परिदृश्य   पर इस विषय में  विभिन्न मनोविज्ञानियों की अनेक स्थापनाएं हो सकतीं  हैं । किन्तु भारतीय संदर्भ में यह विषय बहुत जटिल और अकथनीय वैसे तो किसी भी सभ्य समाज में आत्महत्या करने वाले को महिमामंडित किया जाना उचित नहीं माना जाता । बल्कि उसे सामाजिक शर्मिंदगी और लाचारगी का सबब  ही माना गया है। आत्महत्या करने वाला कितना ही महान क्यों न हो  किसी सभ्य समाज द्वारा उसे 'आइकॉन ' कभी नहीं बनाया गया । लेकिन आत्महत्या करने की परिस्थति को जाने बिना किसी भी दिवंगत का अपमान भी नहीं करना चाहिए

कुछ लोग अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय  हैदरावाद के शोध छात्र रोहित वेमूला की आत्म हत्या के उपरान्त उसे न केवल आइकॉन  बंनाने पर तुले हैं, बल्कि उसे शहीद जैसा सम्मानित किये जा रहे हैं। हो सकता है कि रोहित के साथ बाकई  अन्याय अत्याचार हुआ हो। किन्तु वह तथ्य और तर्क समाज और राष्ट्र को दिखना भी चाहिए। केवल अन्दाजी घोड़े दौड़ाने या धुएँ में लट्ठ घुमाकर धुंध को नष्ट नहीं किया जा सकता। दलित वोटों की राजनीति के लिए भी इस बलिदान को जाया नहीं किया जा सकता। वर्ण संघर्ष को हर हाल में रोकना ही होगा। तभी नए  क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की  कोई उम्मीद की जा सकती है। -:श्रीराम  तिवारी :-

सोमवार, 18 जनवरी 2016

भारत तो दुनिया का सबसे सहिष्णु राष्ट्र है। कोई शक !


मानव सभ्यता के प्रारंभिक दिनों से ही मनुष्य को 'संवाद' याने 'बोली-बानी' की ताकत का एहसास हो चला था। भारतीय वांग्मय में खास तौर  से संस्कृत साहित्य में  'सुभाषित' को निंविवाद मान्यता प्राप्त रही है। जिस देश  के संस्कृत वाङ्ग्मय के आदि कवि बाल्मीकि की प्रथम रचना की प्रथम पंक्ति ही करुणामयी हो,जिस धरती के  कवि कुल गुरु कालिदास की ललित - लावण्यमयी कोमलकांत पदावली की काव्य  मंजरी पर मानवता के भ्रमर  निरंतर गुंजायमान होते रहे हों  ,जिस देश में विद्यापति से लेकर मतिराम बिहारी तक की रूप - रस- गंध-की  छंदमयी शब्द यात्रा की कोमल काव्य लहरी सतत  प्रवाहमान  रही हो ,जिस देश  में  नबाबों  के दौर में आगरा दिल्ली -लखनऊ -भोपाल -हैदराबाद वालों को उर्दू की नफासत का  गुमान हुआ करता हो ,उस देश की विराट  - नरमेदिनी में  साम्प्रदायिकता का देवासुर संग्राम बहुत दुखदायी है। किन्तु  भारतीय कौम के डीएनए में हिंसक आक्रामकता नहीं है। उतनी तो कदापि नहीं जितनी  आईएसआईएस जैसे लड़ाकों में उफ़न रही है।

 भारत की साहित्यिक  सांस्कृतिक  विरासत में धर्मनिरपेक्षता और  सर्वधर्म समभाव का दर्प सदा विद्यमान रहा है और सदा बना  रहेगा।  जिस तरह पुरातन संस्कृत ,पाली,अपभृंश और द्रविड़ साहित्य के अध्येताओं को , व्याकरणवेत्ताओं  को, सुसंस्कृत -सभ्य जनों को , अपनी  वाग्मिता एवं कथोपकथन  पर हजारों साल से बड़ा  अभिमान  रहा है उसी  तरह भारत  के  स्वाधीनता संगाम  के दौर में क्रांतिकारियों को  भी अपनी  कौमी एकता पर बहुत गर्व या  अभिमान रहा है। यह स्वयंसिद्ध है कि  भारतीय संस्कृति की इन दो मुख्य धाराओं ने  ही भारत की गंगा जमुनी तहजीव को परवान  चढ़ाया है। निसंदेह अंगेर्जो ने भारत में साइंस,टेक्नॉलॉजी और लोकतंत्र का बीजारोपण किया है। लेकिन यह सब अपने ब्रिटिश साम्राज्य को अक्षुण रखने के लिए ही किया होगा। आजादी के बाद कांग्रेस ने  देश को तो कुछ हद तक आगे बढ़ाया किन्तु अधिकांस जनता पीछे रह  गयी। जन जनाकांक्षा ने गैरकांग्रेस वाद को भी  कई बार आजमाया। किन्तु  बात कुछ नहीं बनी। इस जन -गफलत में उलटे जब-कभी दक्षिणपंथी स्वयंभू राष्ट्रवादियों को सत्ता मिली  तो वे  यह सिद्ध करने में ही जुटे रहे  कि चाँद-तारे और सूरज उन्ही के इशारों पर चल रहे हैं।उनकी नजर में  वे खुद तो  भारत के सहज सहिष्णु हैं लेकिन जो धर्मनिरपेक्ष हैं, वे असहिष्णु हैं। उनकी  जिद है कि जो कोई भी 'संघ परिवार' की हाँ में हाँ नहीं मिलायेगा और धर्मनिपेक्षता या  असहिष्णुता की शिकायत  करेगा उसे पूर्णतः देशद्रोही माना जाएगा । उनके कुल में  केवल  अकूत अंधश्रद्धा का बोलवाला है। कोई प्रतिप्रश्न नहीं ,कोई  वैज्ञानिक निषेध नहीं। कोई सार्थक विमर्श या तर्क नहीं। और मानसिक  गुलामी उधर अभी तक  बरक़रार है।  स्वर्णिम अतीत में खोये रहने वाले 'संघी 'नास्ट्रेलजिया के मरीज  हैं। 

वैसे भी सामंतयुग में  गुलाम भारत की जनता को  बोलने का अधिकार ही नहीं था। हालाँकि उस कठिन दौर में भी प्रतिरोध की शक्तियाँ निरंतर  संघर्षरत रहीं हैं । जब यूरोप के  बुर्जुवा वर्ग ने उधर  सामंतवाद को उखाड़ फेंका और पूँजीवादी लोकतंत्र कायम किया तो गुलाम  भारत के सचेत योद्धाओं और अमर शहीदों ने भी इधर भारत में आजादी का बिगुल  बजाया। मजूर-किसानों ने अनगिनत कुर्बानियाँ दीं। कोई  भी साम्प्रदायिक नेता  व्यापारी,भृष्ट अफसर या जातीय नेता जेल नहीं गया।देशी राजाओं ने सिर्फ अपनी जागीरों की चिंता की।आम जनता ने  बड़ी ही मशक्क़त और कुर्बानी के बाद ब्रिटिश साम्राज्य से मुक्ति पायी। लोकतंत्र की जननी  ब्रिटिश पार्लियामेंट्री डेमोक्रसी  ने  गुलाम  भारत में  भी 'कानून के राज' की स्थापना की। सिर्फ उतनी  ही आजादी दी जिससे  'किंग एंड क्वीन 'के ताज पर कोई आँच न आये। जबकि भारत  के  मजहबी - साम्प्रदायिक एवं जाति  -वादी नेता और तत्कालीन  राजे-रजवाड़ों अपने  विशेषाधिकारों के लिए अंग्रेजों की जय-जैकार करते रहे। वही  अंग्रेजों की जैकार करने वाली विचारधारा के लोग कांग्रेस और कम्युनिस्टों को  गालियाँ  देते हुए अब स्वयंभू राष्ट्रवादी बन गए.और  कांग्रेस तो फिर भी  सत्ता में रही  है और उसके धत -कर्मों की बदौलत सियासत रुपी  नाई का उस्तरा अब साम्प्रदायिक बंदरों के  हाथ लग चुका  है। इसीलिये देश के चेहरे पर कुछ -कुछ  खरोंचें सी   दिखने लगीं हैं। लेकिन देश के गरीबों-किसानों और उनकी राजनैतिक पार्टियों के रूप में भारतीय वामपंथ ने हमेशा  क़ुर्बानियाँ  ही दीं हैं।

वामपंथ ने  हमेशा यह  ध्यान रखा कि  हर किस्म की साम्प्रदायिकता व  मजहबी पाखंड की आलोचना तो की जाए और  उससे संघर्ष भी किया जाए  किन्तु  लोकतान्त्रिक जनादेश का सम्मान  भी किया जाये । लेकिन अन्य क्षेत्रीय दलों और दक्षिणपंथी एनडीए को यह सिद्धांत कतई पसंद नहीं। वे केवल झूंठ दर झूंठ बोले जारहे हैं और अपनी असफलताओं का दोष विपक्ष पर मढ़ते रहते  हैं। जबसे एनडीए -दो की मोदी सरकार सत्ता में आई है ,तबसे'संघ परिवार' लगातार यह जताने में  ही जुटा हुआ है कि आजादी के आंदोलन का इतिहास या उससे पहले वाले सामन्तकालीन  भारत का इतिहास- अब तक जो पढ़ाया जाता रहा है ,वह दोषपूर्ण ही लिखा गया है। गुलामी के शर्मनाक खंडहरों के ढेर में  वे अतीत का स्वर्णिम भारत  खोज रहे हैं। हिन्दुत्ववादी भाजपाईं  और   'संघ परिवार' वाले अन्य  धर्मनिरपेक्षतावादी और लोकतंत्रवादी दलों  की लकीर पोंछने में जुटे हैं।

विरोध की रौ में आकर धर्मनिरपेक्ष और जनवादी  विद्वान भी भूल गए कि वे न केवल भैंस  के आगे बीन बजा रहे हैं। बल्कि जाने-अनजाने 'राष्ट्रवाद 'की सारी ठेकेदारी 'संघ परिवार' को ही  सौंपने में जुटे हुए हैं। वेशक कुछ लोग सोच सकते हैं कि यह एनडीए-दो की मोदी सरकार  तो उस बामी  की तरह है जिसमें साम्प्रदायिक घृणा  और असहिष्णुता के साँप पल रहे हैं ! और  इसीलिये समूचा  लोकतांत्रिक -वामपंथी विपक्ष अब अपने असहमति के सब्बलों से उस राजनैतिक बामी को ध्वस्त करने की असफल चेष्टा किये जा रहा है । किंतू यह अकाट्य सत्य है कि यह बामी  भले ही ध्वस्त हो जाए किन्तु साम्प्रदायिकता रुपी नाग कभी  खत्म नहीं होगा। क्योंकि बामी कूटने वालों के आस्तीन में भी तो कुछ भृष्टाचार और शोषण के वासुकि  -तक्षक नाग छिप्र हुए हैं। लोकतांत्रिक सिंधु मंथन की  मशक्क़त में  अलगाववाद और सामाजिक दुराव का महाविष उतपन्न हो रहा है। इसे पीने के लिए किस 'नीलकंठ' के अवतार  की प्रत्याशा है ?

 स्वाधीनता संग्राम के दौर में  शहीदों की अनगिनत कुरबानियों ने और सोवियत वोल्शेविक क्रांति के सर्वव्यापी असर ने ब्रटिश साम्राज्य और यूरोप  समेत दुनिया के तमाम उपनिवेशवादियों की नींद हराम कर रखी थी, काला  इतिहास  गवाह है कि खंड-खंड  में मिला टूटा-फूटा  स्वतंत्र  भारत' हमारे राजनैतिक अतीत की गफलतों-भूलों और राजवंशों की कायरता का दुखद  परिणाम है। हमारे स्वाधीनता संग्राम के  महान नेताओं ने एक बेहतर संविधान बनाये जाने की पुरजोर कोशिश की , जिसमें सभी को  हर किस्म  की सम्वैधानिक आजादी प्राप्त है। जीवन के हर क्षेत्र में उन्नति के लिए समान अवसर और सभी भारतीयों को अपने तरीके से जीवन यापन तथा लिखने -पढ़ने बोलने की  पूरी आजादी है। हाल की घटनाओं से ऐंसा लगता है कि यह संविधान  उन्ही लोगों को रास नहीं आ रहा है। जो कि आरक्षण  के नामपर  जातीयता की रोटी खा रहे  हैं। दलित अस्मिता के बहाने कुछ स्वार्थी लोग हिन्दू समाज में वैमनस्य फैला रहे हैं। इसी तरह कुछ लोग अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के दवंद   में साम्प्रदायिक राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं। दलित बनाम सवर्ण ,पिछड़ा बनाम दलित ,हिन्दू बनाम मुस्लिम और बहुसंख्यक बनाम  अल्पसंख्यक  के अलगाव का गरल चारों ओर उफ़न रहा है।इसके वावजूद उन्हें बहुत  खुशफहमी है कि अच्छे दिन आये हैं।

ज्यों-ज्यों  बक्त गुजर रहा है ,जाने-अनजाने  कुछ लोग राष्ट्र -कृतघ्नता की ओर अग्रसर हो रहे हैं। हो सकता है कि देश तो  तरक्की कर रहा हो किन्तु अधिकांस लोगों को उसका लाभ न मिल पा रहां हो। और असमानता भी तेजी से  बढ़  रही हो। और हर र्किस्म की  असहिष्णुता का  भी कुछ-कुछ असर बढ़ रहा है। न केवल सत्ता पक्ष  की तरफ , बल्कि विपक्ष सहित ,सभी वर्ग,जाति ,धर्म,मजहब और विचारधारा के नर-नारी भी बोल -बचन की हदें तोड़ने पर आमादा हैं। जिसको जो नहीं मालूम उस पर भी बोले जा रहा है। इतना ही नहीं  'सूप  बोले सो बोले  चलनियाँ  इस दौर में कुछ ज्यादा ही बोल रहीं हैं। विचारों से गूंगे बहरे भी बोलने को आतुर हैं। वे यह भूल जाते हैं कि उनकी इन  नादानियों ,असहमतियों, असहिष्णुताओं से  दुनिया में बाकई  गलत संदेश जा रहा है। जबकि  भारत तो  दुनिया  का सबसे सहिष्णु राष्ट्र है। वेशक  कुछ लोग अवश्य असहिष्णु हो सकते  हैं। खास तौर से मजहबी कटटरतावादी , साम्प्रदायिक प्रतिक्रियावादी एवं जातीयता की राजनीति करने वाले। परजीवी लोग  इन  दिनों कुछ ज्यादा ही असहनशील हो रहे हैं। इसके लिए  निहित स्वार्थ की विचारधारा पर आधारित  मजहबी,साम्प्रदायिक और जातीय संगठन पूर्णतः जिम्मेदार हैं।  भारत से बाहर  की दुनिया में फ़ैल रहा मजहबी आतंकवाद और पास -पड़ोस में छिपे -बैठे भारत के दुश्मन  भी  कदाचित इस उस असहिष्णुता के लिए कुछ हद तक  जिम्मेदार हैं।

साइंस- टेक्नॉलॉजी की दुहिता नव संचार क्रांति की असीम अनुकम्पा से न केवल 'जन नेता ' बल्कि अब तो  जन साधारण के जी में जो आता है सो बके जा  रहा है। वास्तव में  भारत एक सनातन सहिष्णु राष्ट्र है,  हो सकता है की इन दिनों कुछ लोग सत्ता पाकर असहिष्णु  हो गए हों !लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि यह क्रिया है।  बल्कि यह तो  विलम्बित प्रतिक्रिया मात्र है। इसे टाला  भी नहीं जा सकता। क्योंकि प्राकृतिक  न्याय के सिद्धांत अनुसार प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक है। लकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि  हरेक  प्रतिक्रिया के विरोध में भी अन्योन्य प्रतिक्रिया का श्रीगणेश होना स्वाभाविक  है। जब द्वन्द मुखरित होने लगता है  तो  कुछ लोग असहिष्णुता की शिकायत करने लगते हैं। लेकिन वे सिर्फ एक पक्षीय ,एक ध्रुवीय और एकमंचीय दबदबा चाहते हैं। यह कैसे संभव  है?

दरअसल जब किसी को अपनी बात ठीक से कहना नहीं आती तो उसके अनेक  नकारात्मक नतीजे हो सकते हैं।कभी-कभी बात का बतंगड़  भी बन जाया करता  है। कभी अर्थ का अनर्थ भी हो जाता है। कभी -कभी उनके  कथोप -कथन की कठोरता से 'महाभारत' भी हो जाते हैं।जिन लोगों को कहना चाहिए था कि 'वर्तमान सरकार के शासन में असहिष्णुता बढ़ रही है ',वे कह देते हैं कि 'यह देश [भारत] रहने लायक ही नहीं। याने  उनकी नजर में असहिष्णुता है। अब यह  बोल बचन बोल कर साम्प्रदायिकता के साँप  को उकसाकर -डसने के लिए उकसाना कौनसी प्रगतिश्लीता है ? इससे  तो सत्ता पक्ष को अपनी गलती  छुपाने का  भरपूर अवसर मिल जाया करता है।  अपनी अनुदार छवि  के नीबू को राष्ट्रवाद के  दूध  में  निचोड़ते हुए यदि  बहुसंख्यक दक्षिणपंथी सत्ता पक्ष ने  तमाम विरोधियों को 'राष्ट्र विरोधी' लाइन में जबरन खड़ा कर दिया तो इससे देश को क्या लाभ होगा ?

हालाँकि इसके लिए  देश का इतिहास भी जिम्मेदार है। इस बाकयुद्ध में  दोनों पक्ष  भूल जाते हैं कि  वे सीसे के मकानों में रहते हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि  इस देश पर हजार साल तक 'असहिष्णु' लोगों ने  ही राज किया है। उस भयानक सामन्तकालीन निरंकुशता का कुछ तो असर रहेगा।  वैसे भी इस  दुनिया में ऐंसा कौनसा राष्ट्र  है जो भारत जैसा  सांस्कृतिक बहुलतावादी है ? दुनिया का कौन सा राष्ट्र भारत से ज्यादा सहिष्णु है ?  वेशक इस देश में कुछ गुमराह लोग कभी -कभार असहिष्णु हो जाया करते हैं।खास  तौर से सत्ता में आने के बाद  तो : ''जो रहीम ओछो बढे, तो अति ही इतराय। प्यादे से फर्जी भयो ,टेढ़ो-टेढ़ो जाय। ''

जब से सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता का विमर्श प्रकट हुआ है ,तबसे प्रिंट मीडिया ,इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और  सोशल मीडिया का सार्थक उपयोग बहुत कम और दुरूपयोग  कुछ ज्यादा ही होने लगा है। तमाम नव संचार - तकनीकी संसाधनों से लेस  युवा पीढ़ी  इसके संचालन में तो दक्ष है, विभिन्न एंगल से अपने-अपने फोटो पोस्ट करने या फूहड़ किस्म की अनुपयोगी अगम्भीर सामग्री  फेसबुक ,वाट्सएप इत्यादि पर पेलने में खूब माहिर है।  इसी तरह  अन्य वे  लोग जो अन्तरजाल [Internet]  से संबद्ध हैं ,वे संचार क्रांति के दो दशक बीत जाने के बाद भी साइंस की इस खोज  का  उचित सामाजिक ,आर्थिक और राजनैतिक  सरोकार नहीं शोध पाये हैं। देश में चल रहे सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता के  कुकरहाव से दुनिया में  भारत की छवि खराब हुई है। सार्थक विमर्श अभी भी अपेक्षित है। देश तो सहिष्णुता से लबरेज है किन्तु शासक वर्ग की कतारों में असहिष्णुता की फसल लहलहा रही है। हालाँकि  कुछ लोगों का दावा है कि  हम  सनातनी तो अनादिकाल से सहिष्णु हैं ,ये तो विदेशी'हमलावरों ने हमारे  भारत में 'असहिष्णुता'फैलाई है।  ऐंसे लोग  महा भारत  युद्ध और आदिशंकराचार्य का 'भारत विजय' अभियान क्यों भूल जाते हैं ? अतीत में महापद्मनंद जैसे घटिया पियक्क्ड़ बौद्ध राजाओं  ने हिन्दुओं का सफाया किया तो चाणक्य जैसे सदाचारी किन्तु बदले की भावना से प्रेरित  हिन्दू ब्राह्मण ने नन्द वंश का नाश ही कर दिया। भारत का  रक्त  रंजित इतिहास  तो असहिष्णुता का महासागर ही  है।

 कुछ लोगों का कहना है कि गाय को मारकर खाना ,चार-चार शादियां करना , देश के दुश्मनों से  सहानुभूति रखना उनका   जायज हक  है ! यदि सरकार उस पर रोक-टॉक करती  है तो यह उसकी 'असहिष्णुता' है। इस तरह की सोच के लोगों  का साथ देने वाले सच का सामना नहीं कर सकेंगे। रात को दिन और काले को सफेद कह दो तो  फिर भी चलेगा किन्तु दोगलेपन को राष्ट्रप्रेम नहीं कहा जा सकता। देश में दोनों तरह के लाभ लेने वालों  को  सही नहीं कहा जा सकता। एक तरफ तो वे भारतीय लोकतंत्र की  उस प्रदत्त  आजादी का मजा लूट रहे हैं जो इस्लामिक राष्ट्रों की गुलाम  जनता को मयस्सर नहीं है। दूसरी तरफ भारत जैसे  लोकतान्त्रिक देश में अपने  लिए मजहब  के नाम पर  'पर्सनल लॉ ' वाली  स्थिति का बेजा  फायदा उठा रहे हैं. और इस पर कोई एतराज करे तो अराजकता  फ़ैलाने  ,पत्थर फैंकने और मारकाट के लिए तैयार रहते हैं। यदि एक वर्ग विशेष के लोग  मजहब  के बहाने डबल लाभ लेंगे तो बाकी जनता सिर्फ -टुकुर -टुकुर देखने के लिए कब तक बैठी रहेगी ?

इस मजहबी विमर्श में  दुनिया  के समक्ष मौजूद आतंकवाद की तात्कालिक  चुनौतियों को भी  बखूबी समझा जा सकता है कि कैसे हर किस्म के साइंस का 'दुरूपयोग' बढ़ता ही जा रहा है। बनिस्पत मानव कल्याण -सृजन और निर्माण के। दूरगामी नीतियों के संदर्भ में ,वैज्ञानिक विचार सम्प्रेषण,तार्किक -बौद्धिक अनुसन्धान के संदर्भ में और हर किस्म के क्रांतिकारी मानवीय विमर्श के संदर्भ में अभी तक बहुत कम लोग शामिल हो पाये हैं। जिन मजहबी -उन्मादियों को मानवतावाद ,समाजवाद और लोकतांत्रिक मूल्यों में रत्ती भर विश्वास नहीं है। वे साइंस का उपयोग बम बारूद और बिनाशक हथियारों के संग्रह में लगाते रहते हैं। जो शान्तिकामी हैं वे असहिष्णुयता के विमर्श में  गोते  लगा रहे हैं।
 
विगत कुछ महीनों से  भारत में 'असहिष्णुता' को लेकर काफी-कुछ कहा सुना गया। देश मानों दो पक्षों में नहीं दो विपरीत ध्रुवों में  बट  चुका है। लेकिन किसी भी बहस का नतीजा  कुछ भी नहीं निकला। यह कैसी अराजकता है कि जनता,मीडिया और विपक्ष तो फिर भी परस्पर नियंत्रित हैं ,किन्तु सत्ताधारी नेतत्व के मन में जो भी आता है वही उगल देता है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से मानों आयं -बायं -शायं  बकने की होड़ मची है। जिम्मेदार पदों पर बैठे नेताओं और प्रवक्ताओं  की  ऐंसी गैरजिम्मेदार बयानबाजी सुनने को संभवतः विगत ५० सालों में  कभी नहीं मिली। मोदी  सरकार का मानना है की जो उनके खिलाफ है वो देश के खिलाफ है ! यह कैसी रीति चल पडी है कि सरकार की रीति-नीति या असफलता पर  किसी ने कुछ खिलाफ कह दिया तो देश के खिलाफ मान लिया जाता है। क्या  भूंख, गरीबी ,शोषण,हिंसा , लूट पर सवाल उठाना गुनाह है ?क्या व्यवस्था  पर सवाल उठाना  देशद्रोह है ? यदि शासकों  द्वारा इस प्रश्न का जबाब  हाँ में होगा तो फासिज्म- असहिष्णुता की बहस  सही मान ली जायेगे । और तब उसके खिलाफर  लड़ाई  भी तेज होगी। -:श्रीराम  तिवारी :-
 

रविवार, 17 जनवरी 2016

''जय हनुमंत अतुल बल धामा। तुमको भजे भक्त ओबामा।।

सलमान खान ने अपनी फिल्म 'बजरंगी भाई जान ' में सिर्फ बजरंग शब्द का प्रयोग ही किया है ,कथावस्तु का कोई सरोकार बजरंगबली से नहीं है। इतने अवदान मात्र से  फिल्म की अप्रत्यासित सफलता -कमाई और  'हिट एंड रन 'केस से बाइज्जत बरी होना। एक साथ इतना बम्फर बोनांजा ! जय हो बजरंगबली ! ये तो महिमा नाम की या में सलमान का क्या कसूर है ?  हालाँकि  सलीम -सलमान खानदान में सुना है गणेश स्थापना और पूजा का भी चलन है।वेशक  यह  निजी निष्ठां का प्रश्न हो सकता है कि भाववादी दर्शन या धर्म-अध्यात्म जगत में कौन किससे कितनी  प्रेरणा लेता है?  मैं निहायत ही नास्तिक किस्म का प्राणी  हूँ ,किन्तु जब कभी कहीं  मंदिर, मस्जिद  ,गुरुद्वारा गिरजा देखता  हूँ तो श्रद्धा से  अनायास ही मेरा सर झुक जाया  करता है। लेकिन चमत्कार का दावा करने वालों , कर्मकांड और दिखावा करने वालों  और राजनीति के लिए धर्म को सड़क पर लाने वालों से मुझे  शख्त नफरत  है। तीर में तुक्का लगने पर या चांस लगने पर ,या निजी तौर पर अच्छे  दिन आने पर, हर  कोई  प्रतिमान या अवलम्ब गढ़ लेता है। जैसा कि सलमान ने गढ़ा होगा और अब बराक ओबामा गढ़ रहे  हैं ! 

अब तक तो हनुमान जी केवल भारत जैसे गरीब देश के  दींन -हीन मूर्तिपूजक हिन्दुओं के ही तारणहार हुआ करते थे। किन्तु अब तो वे  बाजारीकरण - उदारीकरण के दौर में वैश्विक हुए जा रहे हैं। खबर है कि नाटो और पेंटागन पर बराक ओबामा को जब भरोसा नहीं रहा, जब उन्हें लगा कि अमेरिकी फौजें और नाटो की ताकतें मिलकर भी आईएसआईएस का मुकाबला नहीं  कर सकतीं और वे  अमेरिकन साम्राज्य्वाद  की रक्षा नहीं  कर सकेंगे। तो  उन्होंने '' पवन तनय बल पवन समाना । बुधि विवेक  विज्ञान निधाना'' भजना शुरू कर दिया है। बराक ओबामा की  भक्ति पर प्रशन्न होकर महावीर बजरंगबली  ने अब उनके परिवार और अमेरिका की रक्षा का उत्तरदायित्व  भी मंजूर कर लिया  है। शायद यही  वजह है कि भारत के सनातनी हिन्दुओं को ओबामा की इस बजरंग भक्ति  पर  बड़ा गर्व और गुमान हो चला है। किन्तु उनकी मंदिर वाली राजनीति से बजरंग बलि बहुत नाराज हैं। इसीलिये  आजकल नकली रामभक्तों की  कोई सुनवाई नहीं हो रही है।वे बातें तो बड़ी लच्छेदार कर लेते हैं लेकिन चाल-चरित्र-चेहरे की विद्रूपता में खोट होने से तेतीस करोड़ में से  कोई एक भी देवता उन पर विश्वास नहीं कर पा रहा है। रामा दल वाले भले ही ठाठ  से हों किन्तु 'राम लला ' तो अभी भी टाट में ही हैं।

यूरोपियन हैनीमैन से निराश होने के बाद ओबामा को किष्किन्धा के हनुमान जी की असीम ताकत पर बड़ा  भरोसा है। अब यदि  सनातनी हिन्दू भक्तगण चाहें तो हनुमान चालीसा में यह तो जोड़ ही सकते हैं कि  ''जय हनुमंत अतुल बल धामा। तुमको भजे भक्त ओबामा।। सुना है कि मार्क जुकुरवर्ग ने  भी मोदी जी की अमेरिका यात्रा के दौरान उन्हें बताया कि एफबी की स्थापना से पूर्व वह  भारत के हिमालय क्षेत्र स्थित नीम करौली वाले बाबा से  आशीर्वाद लेकर ही अमेरिका लौटा था। इस खबर से भारत के  तमाम बाबाओं की इज्जत में चार चाँद  लग गए।  इस आधार पर रामायण या हनुमान चालीसा में यह  भी  शामिल किया जा सकता है कि   ,,,,,,,,,

''जब वह  नीम  करौली आवे। जुकरवर्ग भी ध्यान लगावे ''

सुना है  कार्ल मार्क्स बहुत विद्वान थे। उन्होंने भारत के बारे में बहुत कुछ लिख मारा  है। उनकी एक मसहूर पुस्तक ''भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम ''तो मैंने भी जवानी के दिनों में पढ़ी है। यह एक नायाब यथार्थ और सत्यापित दस्तावेज के रूप में  है।मार्क्स ने भारतीय प्राच्य संस्कृति ,उपनिषद,अष्टाध्यायी और वैदिक साहित्य का भी खूब सांगोपांग अध्यन किया था। किन्तु मुझे यह समझ नहीं आया कि उन्होंने सृष्टि के प्रथम क्रांतिकारी मारुतिनंदन -बजरंगबली को क्यों छोड़ दिया। जबकि ये लाल लंगोटे वाले ब्रह्मचारी महाबली वीर  हनुमान जी तो विश्व के  प्रथम क्रूसेडर अथवा  वोल्शेविक थे । हनुमान जैसे प्रबुद्ध ,चैतन्य  और वर्ग चेतना से समृद्ध सर्वहारा के मामले में मार्क्स -एंगेल्स और लेनिन ही नहीं बल्कि भारत के तमाम वामपंथी भी गच्चा  खा गए ! मेरा  दावा है कि जिस किसी ने भी हनुमान जी द्वारा लिखित ''हनुमन्नाटक '' पढ़ा होगा  वह  उन्हें पौराणिक - मिथकीय पात्र नहीं मानकर सिद्ध देवता ही मानेगा और  ओबामा की  तरह अपनी जेब में रखना पसंद  करेगा।

मार्क्स ने 'हनुमन्ननाटक 'तो क्या  हनुमान चालीसा भी नहीं  पढ़ा होगा।और यदि  बजरंगबाण  पढ़ा होता तो वे अपनी प्रसिद्ध पुस्तक पूँजी [दास केपिटल]में या  अपने प्रसिद्ध अविष्कार 'द्वन्दात्मक-भौतिकवाद 'में या अपने वैज्ञानिक -  विकासवाद के सिद्धांत में उनका उल्लेख जरूर करते। तब वे  शायद अपनी 'अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत 'जैसी थीसिस को  किंचित यूरोपियन नजरिये से नहीं बल्कि 'भारतीय नजरिये'से पेश करते। हालाँकि मार्क्स द्वारा सम्पादित 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो' अवश्य  ही हनुमान जी के पुरातन क्रांतिकारी  भावों को  ही व्यक्त करता है। कितना दुखद है कि  हनुमान जी को समझने या यों  कहें कि उन्हें  भंजने में  कार्ल मार्क्स चूक गए। यही वजह है कि  भारत के लाल झण्डे  वालों पर  इन लाल लंगोट वाले महावीर बजरंगबली की कृपादृष्टि  नहीं है।  इसीलिये वामपंथ के हर संघर्ष और क़ुरबानी का फल  कभी कांग्रेस , कभी भाजपा,कभी मुलायम ,कभी माया ,कभी ममता ,कभी द्रमुक पार्टियां खा जाती हैं ।

''कनक  भूधराकार शरीरा । समर भयंकर अति  बलवीरा।। ''  की तर्ज पर यदि किसी भी देवता या अवतार की छवि का  इस तरह भयानक चित्रण या व्यक्तित्व निरूपण किया जाता रहा हो तब उससे प्यार कैसे किया जा सकता है ? इसीलिए प्यार -व्यार और श्रद्धा -आश्था तो दूर उनके  नजदीक जाने का साहस भी बहुत कम लोगों में  ही होगा।'भूत-पिशाच निकट नहीं आवें ' से लेकर अष्ट-सिद्धि नव निधि के दाता ''की छवि गढ़ने में भारतीय सनातन समाज की  शहस्त्राब्दियाँ खप  गयीं। प्राचीन काल में हर देश की  आस्तिक आवाम  ने अपने  दुखों-कष्टों के निवारण और हर्किस्म के शत्रु से सुरक्षा बाबत अपनी अपनी समझ ,रुचि ,सभ्यता,संस्कृति,देशकाल के अनुरूप धर्म-मजहब एवं  देवीय शक्तियों की कल्पना की थी ।  कालांतर में उन धर्मो-मजहबों और अवतारों में हेर-फेर  होते रहना स्वाभाविक प्रक्रिया है। हिन्दुओं ने तो  इस मामले में वर्ल्ड  रिकार्ड  भी हजारों साल पहले ही कायम  कर लिया था। तेतीस करोड़  देवताओं की  परिकल्पना ,उनके मन्त्र ,स्तुति ,पूजा -अर्चना ,उनके  चित्र-विचित्र विग्रहों की कल्पना को साकार रूप प्रदान करना और उनके अनुरूप नैवेद्य -पत्रं-पुष्पम समर्पयामि की उचित व्यवस्था  करना कोई आसान काम नहीं रहा होगा।

 अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा  की जेब में  तो सिर्फ 'बजरंगबली'ही विराजमान हैं। वैसे भी  यदि इस धरती पर उपलब्ध  समस्त  देवताओं ,अवतारों ,पीर-पैगंबरों की प्रसिद्धि विषयक  मीजान निकला जाये तो  ''प्रात ले जो नाम हमारा। तेहि दिन ताह  न मिले अहारा '' वाले अन्जनीनंदन की टीआरपी  ही सर्वाधिक पायी जाएगी। हजारों साल से  भारत के करोड़ों अमीर-गरीब ,दलित- सवर्ण और अगड़े-पिछड़े राजा-रंक  समान रूप से  इन  रुद्रावतार  महाबली  वीर बजरंग बलि पर सर्वाधिक भरोसा करते आये हैं। अब यदि बराक ओबामा भी  उनके भक्तों में शुमार हैं ,तो अमरीका का कोई बाल -बाँका नहीं कर सकता।

महाबली वीर हनुमान जी  चूँकि  गरीब वर्ग के देवता हैं। इसलिए वे देवताओं में 'सर्वहारा कहे जा सकते हैं। वे यदि अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा की जेब में हैं तो यह पूँजीवादी अमेरिका की कोई चाल है। क्योंकि यदि उसे हनुमान जी  बाकई प्यार है  तो  पेंटागन और नाटो की क्या जरुरत है ?  वैसे भी कुछ पक्के बजरंग भक्त तो हैनीमेन को भी हनुमान का अपभ्रंस  ही बताते हुए  पुलकित होते रहते हैं। मुझे भी बचपन से ही  बजरंग बली मे अगाध श्रद्धा रही है। उन्ही की बदौलत अपन किसी भी बड़े से बड़े तुरमखाँ को ,आधुनिक असुर या  लंकापति  को भुनगे से ज्यादा  कुछ नहीं समझते। मेरा जन्म चूँकि  खौपनाक जंगल वाले और दुर्दांत डाकुओं वाले इलाके में  हुआ है। और वहाँ  धामनिया, कोबरा ,करैत  साँप  और हिंसक जंगली जानवरों के अलावा मनुष्यमात्र में भी  विषाक्त  और  हिंसक प्रवृत्ति  प्रचुर मात्रा  में उपलब्ध है। वहाँ आज भी गाँव  से मीलों दूर-तक कोई पुलिस या मिलट्री नहीं है। वैसे यदि  होती भी तो क्या कर लेती ? उधमपुर ,पठानकोट ,मालदह , दादरी ,रतलाम व देवास में इन सुरक्षा बालों ने क्या कर लिया  ?केवल शहादत देना ही इनका उत्त्तरद्यित्व नहीं है ,असल चीज है जान-माल की सुरक्षा करना। चूँकि कांग्रेस और भाजपा सरकारें  भी अपने  देश और समाज की सुरक्षा नहीं कर पा रहीं हैं, इसलिए  भारत  के भोले -भाले  मजदूर -किसान अब इस वैज्ञानिक युग में भी कभी बजरंगवली कभी  हाजी अली पीर के समक्ष मत्था टेक रहे  हैं। श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 16 जनवरी 2016

दादरी [यूपी] के अख्लाख़ को  जब भीड़ ने मार दिया तो मुझे बहुत गुस्सा आया। तब  देश और दुनिया के सारे प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष  जगत को भी बहुत गुस्सा आया ? लेकिन  बहुत बाद में स्पष्ट  हुआ कि शुरुआत अख्लाख़ ने ही की थी। उसने मंदिर के पुजारी को चेलेंज किया कि ' मैं  तो  बीफ  अवश्य खाऊँगा। तुमसे  जो बने  सो कर लेना।'' वह  कहीं से  किसी अन्य  जानवर का माँस  ले  भी आया  और पुजारी परिवार को  दिखाते हुए कहा   कि  देखो  ये 'बीफ' है ! और हम इसे पकाकर  सपरिवार आज शाम  खाने वाले हैं। अख्लाख़  ने डींग हाँकी  और उन्मादी भीड़ ने उसे मार दिया। इस घटना में  हत्यारे तो कसूरवार हैं ही किन्तु  मरने वाला  भी दोषी हैं !

अख्लाख़ की तरह ही अफवाहों के आधार पर कल देवास [मध्यप्रदेश] में एक  साम्प्रदायिक उपद्रवी भीड़ ने एक निर्दोष युवक नरेंद्र राजोरिया को मार डाला। बागली -अर्जुन नगर का रहने वाला गऱीब युवक नरेंद्र राजोरिया इंदौर के आइआइपीएस कालेज  में एमबीए की पढाई कर रहा था। अपनी पढाई  का खर्च जुटाने के लिए  वह पढाई के साथ-साथ किसी कम्पनी  में डाटा इंट्री का भी काम करता था। चूँकि  इन  दिनों दो  समुदाय  विशेष के कटट्रपंथियों की खुरापात के कारण  मध्यप्रदेश का मालवा और निमाड़  साम्प्रदायिकता की आग में  धधक रहा है। अफवाहों के दौर में  भी नरेंद्र अपने घर से काम के लिए आफिस निकला था ,किन्तु समुदाय विशेष के दंगाईयों  ने उसे अकेला देखकर मार डाला। उसके माता-पिता का रोते -रोते  बुरा हाल है। वे बार-बार पूंछ रहे हैं कि  "मेरे बेटे का कसूर क्या है "? इस घटना में एक निर्दोष की जा गयी इसका जिम्मेदार कौन है ?

गुरुवार, 14 जनवरी 2016

किकू शारदा ने अनजाने में उस दाढ़ी में हाथ डाल दिया ,जिसमें असंख्य साँप -बिच्छू पल रहे हैं।

 गोस्वामी तुलसीदास जी कह गए हैं कि "प्रीत विरोध समान सन ,,,,,"अर्थात दोस्ती -दुश्मनी तो बराबरी वाले से ही ठीक है। ज्यादा ताकतवर से रार ठानना या असमान दर्जे की दोस्ती हो  दोनों ही स्थति में कमजोर की दुर्गति होना सुनिश्चित है। वैसे  यह ज्ञान आम तौर पर सभी को है। लेकिन लगता है कि यह अति  सामान्य सांसारिक ज्ञान के अभाव में कुछ सीधे -सादे बन्दे नाहक उलझ जाया करते हैं। यह सामान्य सा लौकिक व्यवहार शायद उस  मिमिक्रीबाज गुमनाम  हास्य व्यंग कलाकार -किकू  शारदा को कदाचित मालूम नहीं रहा होगा। वर्ना वह  "गुरमीत राम रहीम उर्फ़ मेसेंजर ऑफ गॉड '' की नकल  उतारने की जुर्रत  कदापि नहीं करता। उसे मालूम होना चाहिए था कि यदि कोई धूर्त, बदमाश ,पाखंडी ,हत्यारा, ठग,भाँड बलात्कारी सत्ता का  दलाल बन  जाए तो वह  एक  व्यक्ति नहीं 'गैंग' कहलाता है। यदि वह  सत्ताधारी पार्टी के नेताओं का  वित्त पोषण करता हो ,वर्ग विशेष के वोटों पर उसकी पकड़ हो तो वह सिर्फ पाखंडी  धर्म गुरु घंटाल या बाबा ही नहीं बल्कि खुद ही संविधानेतर सत्ता का केंद्र हो जाता  है। उसका रुतवा और ताकत किसी  सामंत कालीन राजा से कमतर नहीं होता । उससे टकराने वाला कोई दूसरा राजा या सामंत ही हो सकता है। ये दाऊद इब्राहीम,अजहर मसूद ,हाफिज सईद ही इस पाप के पोखरे की बराबरी कर सकते हैं। किकू शारदा ने अनजाने में उस दाढ़ी में  हाथ डाल  दिया ,जिसमें असंख्य साँप -बिच्छू पल रहे हैं।

 यदि किकू  शारदा की जगह सलमान खान या कोई और दबंग होता  तो बाबा राम रहीम को १३ साल लग जाते मुकदमा लड़ते -लड़ते। किन्तु सलमान खान  को एक दिन की भी जेल नहीं होती।  बन्दा बाइज्जत बरी होकर घर आ जाता। जिन  लोगों पर  देश  की रक्षा की जिम्मेदारी है ,जिन्हे सरकार तनखाह देती है, ऐंसे लोग ही यदि आतंकियों की  मदद करते हों , मात्र सौ रुपया लेकर उन्हें  मुंबई मरीन के मार्फ़त होटल ताज  के अंदरकमरे  तक पहुंचाते हों ,जो लोग मात्र बीस -बीस रूपये की रिस्वत लेकर पठान कोट एयरबेस में पाकिस्तानी आतंकियों को घुसाने में लगे रहे हों  ,उन्हें गिरफ्तार करने की  फुर्सत या ताकत जिस  पुलिस -प्रशासन या सरकार में न हो , जिस पुलिस  के एसपी ही संदेह के घेरे में हों वह  किकू जैसे माटी के लौंदे  को  गिरफ्तार कर अपना शौर्य दिखला रही है।

हाफिज सईद ,अजहर मसूद और तमाम  पाकिस्तानी आतंकी हमारे देश का मजाक उड़ा रहे हैं। वे हमारे प्रधान मंत्री का और हमारी फौज का भी  मजाक उड़ा रहे हैं।  उनके मात्र आधा दरजन आतंकी हम सवा करोड़ लोगों का उपहास कर जाते हैं ,हमारी सरकार और पुलिस उनकी गिरफ्तारी के लिए क्या कर रहे हैं ?  क्यों पाकिस्तान से चिरौरी कर रहे हैं? क्योंकि हमारी  राष्ट्र चेतना में सिर्फ मजहबी पाखंड और वयक्तिगत मान-अपमान का भूसा भरा हुआ है। इसलिए हम देश के दुश्मनों का तो बाल भी बांका नहीं  कर पा रहे हैं। उलटे  एक अदने से मिमिक्री - बाज  कलाकार की कला को बर्दास्त नहीं कर सकने की सूरत में उसे जेल अवश्य भेज देते हैं ।  वैसे भी आतंकी  मरजीवड़ों ने भारत की  हँसी  छीन रखी है। सीमाओं पर जवान शहीद हो रहे हैं, हमारी सरकार इस का निदान करने के बजाय  विदूषकों ,साहित्यकारों ,बुध्दिजीवियों और  कलाकारों पर हल्ला बोल रही है।

डेरा सच्चा सौदा के 'गुरमीत राम-रहीम ' की किसी ने ज़रा सी  नकल क्या उतारी ,सरकार ने उस बेचारे को जेल में ठूंस दिया।  सरकार की ऐंसी तत्परता तब कहाँ चली गयी जब अजहर मसूद के गुर्गे पठानकोट एयरबेस पर गोले बरसा रहे थे। देश की ३२ लाख फ़ौज और ५० लाख पुलिस  और एक  करोड़ चड्डीधारियों के होते हुए  भी सिर्फ  ६ आतंकी भारत की छाती पर मूँग  दलते  रहे।  किसी ने  एक हत्यारे -बलात्कारी बाबा की मिमिक्री या नकल क्या उतार दी   मानों  संसद पर हमला बोल  दिया हो !या देश के खिलाफ जंग छेड़ दी हो। अच्छा हुआ जमानत देकर जल्दी छोड़ दिया वरना इस  बाबा को भी आसाराम बनने में देर नहीं लगती।

किसी दार्शनिक ने बहुत  खूब कहा है "पवित्र मजाक से बढ़कर कोई पूजा नहीं हो सकती " भारतीय समाज के  देवर-भावी, जीजा -साली के विनोदपूर्ण संवादों  में ही नहीं बल्कि विश्व के सम्पूर्ण सभ्य समाजों की पुरातन  लोक परम्पराओं में ,लोक गीतों में  और उनके  जीवंत सामाजिक ,पारिवारिक ,धार्मिक सरोकारों में भी हँसी  - मजाक ,वाग्विनोद ,व्यंगोक्ति और  मिमिक्री इत्यादि  का प्रचलन हमेशा से रहा है।  यह मानवीय सद्गुणों की थाली में पापड़-आचार जैसी  भूमिका अदा करता है। लेकिन जब कभी इस विधा के व्यवहार से ओरों को जान-बूझकर  दुःख पहुँचाया गया हो तो सर्वनाश  रोक पाना भी मुश्किल  हुए हैं। द्रौपदी ने जब दुर्योधन से कहा "अंधे के लड़के अंधे ही रहे '' तो महाभारत हो कर ही रहा । सीता ने  भी जिस  व्यंग बाण का प्रयोग करते हुए लक्ष्मण को स्वर्ण मृग के पीछे भागते श्रीराम के पीछे भेजा वह  राम-रावण युद्ध का कारण बना। सिर्फ मिथ- पौराणिक कथाओं में ही नहीं बल्कि ज्ञात इतिहास में अनेक प्रमाण हैं जब 'हंसी-मजाक' जानलेवा बना गया। लेकिन जिस किसी राजा या सम्राट ने इस विधा को सम्मान दिया वह बीरबल का दोस्त  अकबर महान हो गया। किसी भी  रामलीला या पौराणिक नाटक  का मंचन बिना 'स्वांग' अर्थात विदूषक के बिना अधूरा ही है। इस बिधा के द्वारा उपस्थ्ति जन समूह में से कुछ  खास-लोगों का मजाक उड़ाकर उनका सम्मानपूर्वक संज्ञान लेना या उपस्थ्ति दर्ज करने का अलिखित विधान  शताव्दियों से चला आ रहा है।

 वेशक किसी का वैमनस्यपूर्ण मखौल या मजाक उड़ाना अनैतिक कर्म है। लेकिन यह भी सच है कि प्रत्येक सभ्य समाज ने स्वतः ही साहित्य और कला की विभिन्न विधाओं का विकास करते हुए इसे स्वीकृत किया है। महज अतीत के क्रूर  सामंत युग में ही नहीं बल्कि बीसवीं सदी के हिटलर ,मुसोलनि जैसे नाजी-फासिस्ट दौर में भी  साहित्य -कला-संगीत में व्यंग-  उपहास,सटायर,मेटाफर को जीवंतता की कसौटी  माना गया है। विशुद्ध मनोरंजन  के मंच से लेकर 'कला ' के मानवतावादी  लोकानुकरण में भी नृत्यकला , नाट्यकला एवं फिल्म इत्यादि  के  तमाम माध्यमों में 'पवित्र मजाक'की तरह मिमिक्री ,नकल और  व्यंगोक्ति को सम्मान प्राप्त रहा है। चर्चिल,हिटलर मुसोलनि,तोजो जैसे तानाशाहों  के घोर अमानवीय बिचलन के दौर में भी चार्ली चैप्लिन जैसे कलाकारों ने इस कला का भरपूर प्रदर्शन किया है। यदि हम एक जीवंत  लोकतान्त्रिक राष्ट्र हैं तो साहित्य-कला -संगीत में  में नादिरशाही का क्या काम है ?  क्या आज के शासक उस औरंगजेब के अवतार हैं ,जिसने साहित्य कला संगीत की मैय्यत  वालों से कहा था ' इन्हें  इतना नीचे गाड़  दो कि  दुबारा न उठ सके ''

                               श्रीराम तिवारी 
 

मंगलवार, 12 जनवरी 2016

तो देश के इतने बदतर हालात नहीं होते:-; श्रीराम तिवारी :-


 दुनिया में अगर धर्म-मजहब के साम्प्रदायिक पाखंड  और फसाद नहीं होते।

 तो किसी भी देश या कौम के नर-नारी इतने  स्वार्थी और दगाबाज नहीं होते।।

 किसान -मजदूर और आम जन जागरूक  होते तो बेईमानों के सिर ताज नहीं होते।

 जो क्रांतिकारी नेतत्व के धनी होते हैं ,वे  विदेशी सहायता के मुँहताज नहीं होते।।

 जो लोग कोमल ह्रदय व  मन  के सच्चे होते  हैं ,उनके कोई सीक्रेट राज नहीं होते।

 काश सिर्फ शोषित-शोषक का द्वन्द होता,और  आतंकी कोढ़ में खाज नहीं होते।।

 किसी  निर्दोष को 'बीफ' खाने के बहाने भीड़ मार दे ,इससे तो  राम राज नहीं होते।

 भारत के सभी नागरिक  देशभक्त होते तो देश के इतने बदतर हालात नहीं होते।।

    श्रीराम तिवारी 

वह सिद्धांत और दर्शन ,जो मनुष्यमात्र को -

जीवन जीना सिखाता हो , उसे  सत धर्म  कहते हैं।

वह संगीत-कला -साहित्य ,गीत  सम्पूर्ण जगत का  ,

करता हो संचार सरस रस , जीवन का  मर्म कहते हैं। 

 आये काम सताने के , निर्बल को जो काली ताकत

  उसी  बला को वसुंधरा पर ,मानवता की  शर्म कहते हैं।

  कार्य  विशेष को करने से ,या जिसेके  न करने से ,

  हो विश्व  का कल्याण  ,उसे सतकर्म कहते हैं। श्रीराम तिवारी
    

सोमवार, 11 जनवरी 2016

स्वामी विवेकानंद ने मंदिर-मस्जिद का फंडा कभी खड़ा नहीं किया।

 आज सारा भारतवर्ष  स्वामी विवेकानंद की जयंती पर उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित कर रहा है। उन्हें विनम्रता पूर्वक  सर्वश्रेष्ठ शब्दांजलि यही हो सकती है कि स्वामीजी की कालजयी  शिक्षाओं और उनके  वैचारिक  अभिमत   का   वर्तमान युवा पीढ़ी द्वारा अनुशीलन ,आत्मार्पण और मानवीयकरण किया जाए।

प्रत्येक दौर की भारतीय युवा पीढ़ी को स्वाधीनता संग्राम और भारतीय राजनीति के दिशा निर्देशों के लिए जो दिग्दर्शन 'शहीद भगत सिंह के  विचारों से   प्राप्त  हो सकता  है , विश्व धर्म-दर्शन अध्यात्म और हिन्दू धर्म  मीमांसा के लिए भारत के समस्त धर्मनिपेक्ष जनों को वही दिशानिर्देश  स्वामी विवेकानंद  के विचारों से प्राप्त हो सकता  है।

  स्वामी विवेकानंद जब उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारत से शिकागो 'विश्व धर्म सम्मेलन ' पहुँचे  तब तक वे केवल  विशुद्ध भारतीय आध्यार्मिक हिन्दू परिव्राजक मात्र  थे। किन्तु जब उन्होंने 'जल जहाज' द्वारा समुद्री मार्गों से  न केवल अमेरिका बल्कि फ़्रांस, इंग्लैंड एवं  यूरोप की  भी यात्राएँ कीं और जब  वे भारत लौटे तो वे एक विज्ञानवादी चिंतक , महान युगप्रवर्तक तथा  सर्वहारा एवं  शोषित समाज के उद्धारक के रूप में विश्व विख्यात हो चुके थे। वे जब तक विश्व धर्म  महा सम्मेलन के मंच पर थे तब तक वे  केवल एक आध्यात्मिक  शिशुक्षु  मात्र थे। वे वहाँ रामकृष्ण के एक मामूली शिष्य  की हैसियत से गए थे और 'हिन्दू 'धर्म के प्रवक्ता एवं  वेदान्त के भाष्यकार  मात्र थे। किन्तु जब उन्होंने  अमेरिका ,यूरोप देखा ,उनकी भौतिक समृद्धि के साथ-साथ वैचारिक क्रांति के अमरगीत पढ़े तो उनका व्यक्तित्व  और ज्यादा निखर गया। वे पूर्व और पश्चिम के नवीन  महानतम समन्वयक बनकर  जग प्रसिद्ध हो गए।  उन्ही  के शब्दों  में ]  ;-
 
''मैंने पाश्चात्य की शक्ति ,साहस,प्रतिभा,वैलेट की राजनीति और  डेमोक्रेसी को देखा।वैज्ञानिक आविष्कारों  को देखकर चकित हुआ। किन्तु जब  बनियों के धन लोभ को देखा, साम्राज्य्वादियों की बिकट साम्राज्य लिप्सा को  देखा तो मुझे किंचित क्षोभ और सम्भ्र्म  हुआ '',,,,,,,,,,

''संसारसमुद्र के सर्वविजयी वैश्य शक्ति के अभ्युत्थान रुपी महातरंग के शीर्ष पर शुभ्र फेन -राशि के बीच इंग्लैंड के सिंहासन को स्थापित देखा '',,,,,,,''

 "इंग्लैंड में मैंने ईसा मसीह ,बाइबिल ,राजप्रसाद और सैनिक शक्तिको देखा , प्रलयंकर के  पदाघात ,तूर्य-भेरी का निनाद ,राज सिंहासन का ऐश्वर्य आडंबर  देखा ,इन भौतिक भव्यताओं  के पीछे खड़े अनुशासंबद्द  वास्तविक इंग्लैंड को देखा ,,,,,,धुआँ  उगलती चिमनियां ,मटमैले मज़दूरों की असंख्य सेना और उनके निस्तेज चेहरों को देखा,,,,,,पण्यवाही जहाज़ों और युद्धक्षेत्र की नयी -नयी आधुनिकतम मशीनों ,तोपों ,टैंकों  के साथ -साथ 'जगत के बाजार'की जननी और उसकी  साम्राज्ञी को  भी देखा ,,,,,''

[सन्दर्भ ;-अब भारत ही केंद्र है - पृष्ठ -३१५ ,लेखक -स्वामी विवेकानंद ]

''यदि वंश परम्परा से भावसंक्रमण के नियमानुसार ब्राह्मण विद्या सीखने के लिए स्वतः योग्य है तो ब्राह्मणों की शिक्षा पर धन व्यय न करके 'अस्पृश्य'जाति की शिक्षा के लिए सारा धन लगा दो '',,,,,,दुर्बल की सहायता करो ,,,ब्राह्मण यदि बुद्धिमान  होकर ही पैदा हुए हैं तो वे दूसरों की सहायता के बिना ही शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु जो लोग बुद्धिमान होकर जन्म नहीं लेते शिक्षा  की जरुरत  उन्हें है '',,,,,,,,

''किसी महान आदर्श पुरुष में विशेष अनुरागी बनकर उनके झंडे के नीचे खड़े हुए ,एकजुट संघर्ष के बिना कोई भी राष्ट्र उठ नहीं सकता '',,,,,,,

''आत्मनो मोक्षार्थ जगद्धिताय च ,,,उत्तिष्ठत ,जागृत,प्राप्य  वरान्निवोधत'' [सन्दर्भ : उपरोक्त वही ]

वैसे तो स्वामी विवेकानंद ने जो कुछ भी कहा है और जो कुछ भी लिखा है उसकी इस सन्सार में कोई सानी  नहीं। किन्तु उपरोक्त  उद्धरित पुनरावृत्ति में सिर्फ अंतिम कथन-आत्मनो मोक्षार्थ ,,,,,, ही ऐंसा है जो विशुद्ध  आध्यात्मिक  किस्म का है। यह श्लोक भी स्वामी जी का स्वरचित नहीं बल्कि वेदप्रणीत है। बाकी सभी कथन स्वामी जी  के हैं जो बताते हैं कि स्वामी  विवेकानंद ने आज के हिन्दुत्ववादियों की तरह मंदिर-मस्जिद का फंडा खड़ा नहीं किया।

१८९१ के शिकागो विश्व धर्म महा सभा अथवा महा सम्मेलन में वैसे तो 'अखंड गुलाम भारत' से सभी धर्मो-मजहबों के प्रतिनिधि गए थे और वे  ततकालीन अंग्रेज सरकार से आज्ञा लेकर ही गए थे ,अर्थात वे सब उस सम्मेलन में ब्रिटिश सरकार के मान्यताप्राप्त  नुमाइंदे  थे । किन्तु स्वामी विवेकानंद ही एकमात्र भारतीय - जनप्रतिनिधि थे।  उस सर्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने न केवल हिन्दू धर्म  बल्कि विश्व के तमाम प्रचलित धर्म-मजहब के पाखंडवाद पर प्रहार किया और उनकी  मूल शिक्षाओं और उद्घोषणाओं की याद दिलाई। स्वामी विवेकानंद ही एकमात्र ऐंसे  धर्म -प्रतिनिधि थे जिन्होंने भाववादी आध्यात्मिक विचार यात्रा को पश्चिम की मानवीय ,युगांतकारी और  वैज्ञानिकवादी  भौतिकवादी चेतना से समन्वय का शंखनाद किया। 

स्वामी विवेकानद न केवल गुलाम भारत की अस्मिता को वापिस लाने में समर्थ रहे। बल्कि राष्ट्रीय चेतना  स्वाधीनता और पश्चिम  की  सर्वहारा  क्रांतियों से  भारतीय दरिद्रनारायण की मुक्ति का क्रांतिकारी सन्देश भी सर्वप्रथम स्वामी  विवेकानंद ही भारत में लाये थे।  उन्होंने अध्यात्म  और वैज्ञानिक भौतिकवाद के  आधुनिक  विशिष्टाद्वैत को वेदांत और अद्वैत वेदान्त के सामने खड़ा कर  दिया।  भारत की प्रबुद्ध जनता सदैव उनकी शिक्षाओं का आदर  करेगी। स्वामीजी के आह्वान का अनुशीलन करते हुए अपने अभीष्ट को प्राप्त करेगी।  श्रीराम तिवारी

 

मंगलवार, 5 जनवरी 2016

भारत -पाकिस्तान की आवाम का साझा दुश्मन कौन ? -पाकिस्तानी फौज ,,,!

 वैसे तो भारत-पाकिस्तान के जन  -निर्वाचित नेताओं के बीच कभी खुशी -कभी गम का भाव बना ही रहता है। २५ मई -२०१४ को जब मोदी जी की ताजपोशी के मौके  पर पाकिस्तानी प्रधान मंत्री नवाज शरीफ भारत तशरीफ़ लाये तो भारत में उनका सभी ने शानदार स्वागत  किया। लेकिन जब पिछले महीने भारतीय प्रधान मंत्री श्री  मोदी जी काबुल से लौटते  हुए लाहौर पहुंचे और  शरीफ को जन्म दिन की बधाई दी तो पाकिस्तान की फौज के मुखिया राहिल  शरीफ और आतंकी हाफिज सईद जैसे आदमखोरों को यह पसंद  नहीं  आया। हालाँकि  मोदी जी ने प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया था ,फिर भी भारत के अधिकांस राजनैतिक दलों और नेताओं ने मोदी जी की इस सौजन्य एवं  निजी यात्रा का आमतौर  पर स्वागत  ही किया। लेकिन आईएसआई  के पालतू कुत्तों ने,और  अमन के शत्रु  जेश -ऐ -मुहम्मद के अजहर मसूद के गुर्गों ने पठानकोट एयरबेस पर हमला कर भारत के सत्ता - सीन बड़बोले नेताओं को  उनकी असल औकात जरूर  दिखाई है। यह कडुवा सबक  भारत  की सेहत के लिए वैसे ही नसीहतमन्द होगा जैसा  कि १९६२ में चीन से मार खाकर हुआ था।जिस तरह १९६२ में चीन से बुरी तरह मार  खाने और हारने के बाद  भारत के तत्कालीन भृष्ट कांग्रेसी मंत्री और  नेता अपनी हार का ठीकरा  चीन के माथे मढ़ते रहे ,उसी तरह वर्तमान सत्ताधारी  एनडीए -मोदी सरकार के नेता भी बार-बार के आतंकी हमलों को रोक  नहीं पाने की खिसयाहट को पाकिस्तान की चुनी हुई 'कमजोर सरकार ' के मत्थे मढ़े  जा रहे हैं। कांग्रेस और भाजपा की रीति-नीति एक जैसी है। वे केवल धुएँ में लठ्ठ घुमाकर प्रशासनिक रस्म अदायगी किये जा रहे हैं , इनकी अज्ञानता के कारण इन दिनों  भारत के नौजवान  कुछ  ज्यादा ही शहीद हो रहे हैं। लगता है भारत रत्न लता मंगेशकर को एक बार फिर कोई 'ज़रा याद  करो कुर्बानी 'जैसा  कृतज्ञता गान करना होगा !

आईएसआई  के पालतू कुत्तों ने, जेश -ऐ -मुहम्मद के अजहर मसूद ने  पठानकोट एयरबेस पर हमला करके भारत के बड़बोले नेताओं को उनकी औकात दिखाई है।   तो  कांग्रेस और विपक्ष ने मोदी सरकार और भाजपा  को उनके बड़बोलेपन  की याद भर दिलाई है।  भारत -पाकिस्तान का साझा दुश्मन कौन ? -पाकिस्तानी फौज!

 पठानकोट एयरबेस आतंकी हमले में न केवल भारतीय सुरक्षा तंत्र मदहोश पाया गया बल्कि पंजाब पुलिस तो गले-गले तक नशे में डूबी हुई पाई गयी है। मोदी जी को उनके वीरतापूर्ण चुनावी तेवर भी अवश्य  याद दिलाये जाने चाहिए,'कि  हम जब कभी सत्ता में आयंगे और यदि आतंकियों ने भारत की ओर टेडी नजर से देखा,तो हम पाक्सितान में घुसकर  मारेंगे !" हमें यह याद रखना चाहिए कि  मोदी जी ने अभी तो  लाहौर में सिर्फ आधा कप कश्मीरी चाय ही पी है !  यदि कुछ और बेहतर कदम उठायँगे  तो क्या होगा ?  और क्या यही विषम स्थति डॉ मनमोहनसिंह के लिए नहीं थी ? फिर क्यों उन्हें 'संघ परिवार' ने कायर  और बुजदिल कहा  ?  वेशक काग्रेस ने    भी बहुत कुछ गलतियाँ की होंगी ! और इसीलिये कांग्रेस  सत्ता से बाहर है।  किन्तु अब सत्तारूढ़  भाजपा नेता और उनके  पिछलग्गुओं को अपनी शर्मिंदगी छिपाने के लिए कुछ तो शौर्य  दिखाना चाहिए! किन्तु वे तो अपने ही कपडे फाड़ने पर आमादा हैं। इनसे  देश तो संभल नहीं रहा ,आतंकियों ने उनकी नाक में दम  कर रखा  है और भाजपा प्रवक्ता उलटे अपने ही देशवासियों पर हमले किये जा रहे हैं ! नंगई  की हद है !'संघ परिवार' और मोदी जी को भी अपने पुराने बड़बोले वयानों के लिए प्रायश्चित करना चाहिए ! कि  'हम  होते तो घुसकर मारते '

 पाकिस्तान के प्रधान मंत्री नवाज शरीफ की शराफत पर संदेह नहीं किया जाना चाहिए। किन्तु सेना प्रमुख याने आर्मी चीफ -जनरल राहील शरीफ में  शराफत नामकी चीज नदारद है। यह शख्स  भारत के खिलाफ हमेशा ही जहर उगलता रहता है । कुछ दिनों पहले ही  उसने फ़रमाया था कि भारत कभी भी अमेरिका जैसी जुर्रत न करें, वर्ना  भारत को  बहुत बुरा अंजाम भुगतना पडेगा । इससे पहले भी कई मौकों पर उनके फौजी प्रवक्ताओं और खुद परवेज मुसर्रफ ने भी भारत के खिलाफ  एटम बम के इस्तेमाल की प्रत्यक्ष धमकियाँ दीं हैं। राहील शरीफ तो कश्मीर समेत तमाम नीतिगत मुद्दों पर भी बात करने से बाज नहीं आते।  दरअसल पाकिस्तान  के फौजी जनरल अपनी ही मुल्क की चुनी हुई सरकार को पैरों तले रौंदते रहने के आदी हैं। मुझे अच्छी तरह  याद है कि बीते दिनों ही नवाज शरीफ ने अपने बड़बोले पाकिस्तानी मंत्रियों को भारत के खिलाफ गैर जिम्मेदाराना और भड़काऊ बयान देने से बचने के लिए आह्वान किया था। लेकिन  इंतना काफी नहीं  है। बल्कि जिस दिन नवाज शरीफ अपने आर्मी चीफ  राहील शरीफ  की जुबान पर नियंत्रण कर सकेंगे या  जिस दिन  कोई और  निर्वाचित  पाकिस्तानी प्रधानमंत्री अपनी  फौज पर कंट्रोल कर सकेगा  उस दिन ही भारत-पाकिस्तान वार्ता सम्भव होगी ! तभी पाकिस्तान में  भी असली लोकतंत्र होगा।

 तमाम दुश्वारियों और विपरीत परिस्थितियों के भारत -पाकिस्तान के बीच दोस्ती की वकालत करने वाले लोग हिम्मतपस्त नहीं हैं। वे तो अब भी गाते हैं कि  सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है ,,,,,मशहूर शायर - शहरयार का शेर भी मौजू  है _

"स्याह रात नहीं लेती है नाम ढलने का ,यही तो वक्त है सूरज तेरे निकलने का। ''

 भारत-पाकिस्तान के आपसी समबन्धों की जटिलतम गहराई को नापने के लिए नरेंद्र मोदी और नवाज शरीफ बाकई  संजीदा हैं ! किन्तु मोदी जी मजबूर हैं ,क्योंकि उधर पाकिस्तान की ओर  से ताली बजाने में संगति  के लिए  नवाज शरीफ के हाँथ आजाद नहीं है। मोदी जी को यह याद रखना चाहिए कि यही मजबूरी भारत के अन्य  तमाम पूर्व  प्रधानमंत्रियों की  भी रही है। पाकिस्तान की सेना में ८०% पंजाबी हैं ,अर्थात पंजाबियों का कब्ज़ा है। ये घोर भारत विरोधी हैं। क्योंकि देश विभाजन के समय  हुई मारकाट की काली  छाया उधर अभी भी मंडरा रही है। और १९७१  में बाङ्लादेश  निर्माण के समय पाकिस्तानी फौज को भारतीय जनरलों के सामने जो शर्मनाक  अवस्था में घुटने  टेकने पड़े वो नासूर अभी तक ताजा  है। फिर भी अमन  के सिपाही  दोनों ओर  हैं ,जो अक्सर गाया करते हैं कि  "कोशिश करने वालों की कभी  हार  नहीं होती "!लकिन जब तक पाकिस्तान की नीति और नियत नहीं बदलती,जब तक वहाँ असल  जम्हूरियत आयद नहीं  होती  तब तक  भारत  की शांतिप्रिय जनता को सतर्क रहना ही  होगा !

यदि कोई  नापाक आतंकी समूह  हमारे [भारत के] मुल्क के  सुरक्षा तंत्र पर हमला करे , और हमारा सुरक्षा तंत्र  नाकाम साबित हो जाए  ,मात्र पांच आतंकियों को मारने में  हमारे १० जवान शहीद हो जायें  ,२० जवान घायल होकर मौत का इंतजार करते रहें , पंजाब पुलिस का एक एसपी और बीएसएफ वाले मुँह  छिपाते फिरें ,और प्रचंड जनादेश वाली 'राष्ट्रवादी'  केंद्र सरकार मुँह  बाए टुकुर-टुकुर  ताकती  रहे तो इस शर्मनाक स्थिति पर वही फ़िदा हो सकता है जिसका  जमीर  मर चुका हो ! पठानकोट एयरबेस पर हुए  आतंकी आक्रमण की घटना पर न केवल पंजाब सरकार,पंजाब पुलिस  को  ,न केवल केंद्र  सरकार  और बीएसएफ को बल्कि समूचे राष्ट्र की देशभक्त  आवाम   को  शर्मिंदा  होना चाहिये ! यह अत्यंत खेद की बात हैं कि दुश्मन के घ्रणित और परोक्ष आक्रमण का  उचित प्रतिकार करने के बजाय या तथाकथित 'मुँह तोड़ जबाब' देने के बजाय ,सत्ता पक्ष के नेता,प्रवक्ता अंट -शंट बयानबाजी किये जा रहे हैं। शायद यही स्थति देखकर किसी ने कहा है " कारवाँ गुर गया गुबार देखते रहे ,मर गया मरीज हम बुखार देखते रहे !मैं तो अब भी कहूँगा "आतंकवाद मुर्दावाद ,,,,भारत-पाकिस्तान मैत्री होकर रहेगी ,,,होकर रहेगी ,,,,!

आतंकी हमले की इस शर्मनाक व राष्ट्रघाती घटना  के बरक्स भारत में  कुछ लोग ,खास तौर से साम्प्रदायिक  मानसिकता के भौंदू- अधकचरे लोग और सत्ता के चारण -भाट , राष्ट्रवाद के स्वयंभू ढपोरशंखी ,पूँजीवाद के दलाल ,बजाय पाकिस्तानी फौज और उसकी नाजायज औलाद 'जेश-ए -मुहम्मद'के खिलाफ अपना  मुँह खोलने के , बजाय दुश्मन की आलोचना करने के , अपने ही हमवतन लोगों पर और खास तौर से बचे-खुचे विपक्ष और देशभक्त साहित्यकारों पर  ही भौंक  रहे हैं। साहित्यिक शब्दावली में इसे ही  'राष्ट्रघाती श्वान वृत्ति'कहते हैं !

जब -जब  भारत और पाकिस्तान की चुनी हुई सरकारें या जनता द्वारा  निर्वाचित लोकप्रिय नेतत्व  दोनों देशों में  अमन एवं  तरक्की के लिए कोई  कदम उठाते हैं ,कोई द्विपक्षीय वार्ता या मेल-मिलाप की कोशिश करते हैं , तब-तब अनायाश ही पाकिस्तान के अंदर की  कुछ अलोकतांत्रिक और हिंसक शैतानी ताकतें' रायता ढोल देतीं हैं। पाकिस्तान की  ये काली ताकतें हमेशा ही ऐंसा कुकृत्य किया  करती हैं। जैसा  कि अभी-२ से ६  दिसंबर -१६ तक उन्होंने पठानकोट एयरबेस  पर हमला करके अपना हरामीपन दिखाया  है ।अमन और  इंसानियत के शत्रु वर्ग  का  इरादा स्पष्ट  है कि भारत में खुशहाली  न आ पाये ! भले ही उसके लिए पाकिस्तान के दो नहीं बल्कि  पांच टुकड़े हो जाएँ ! उनका इरादा स्पष्ट है कि सीमाओं पर अमन तथा राष्ट्रों में परस्पर सौहाद्र के लिए भारत  - पाकिस्तान  में कोई वार्ता कभी भी सफल  न हो। उनके अनुसार यदि  कुछ करना हो तो  छिपकर जंग  ही करो , यदि लड़ाई भी हो तो भारत की सरजमीन पर हो ! यहीं विध्वंश करो। ताकि  अमन के फ़ाख्ते सांस ही न ले सकें  और  शैतान की अम्मा दोनों मुल्कों की  निर्दोष आवाम का लहू जी भरकर  अनंतकाल तक पीती रहे  !

यह सच है कि इन काली ताकतों में  पाकिस्तान के अधिकांस  कठमुल्ले ,मजहबी आतंकी और भारत से रार ठाने बैठे  फौजी जनरल शामिल हैं। ये  नहीं चाहते कि  भारत -पाकिस्तान में कोई समझौता हो !इसके विपरीत एक सच यह भी है कि बहुत से तरक्की पसंन्द पाकिस्तानी ,उदारवादी  राजनीतिज्ञ ,प्रगतिशील  बुद्धिजीवी  , कलाकार  ,संगीतकार,व्यापारी और पाकिस्तान  की  अमनपसंद आवाम  भी चाहती है कि  भारत-पाकिस्तान  के बीच द्विपक्षीय  वार्ता हो !  इधर भारत की अधिकांस शान्तिकामी  जनता ,सभी राजनीतिक दल [शिवसेना के अलावा], अधिकांस राज नेता ,,कलाजगत  , बुद्धिजीवी  और साहित्यकार तहेदिल से चाहते हैं कि  न केवल पाकिस्तान बल्कि सभी  पड़ोसि मुल्कों से हमारे  मैत्रीपूर्ण संबंध हों !  भारत की  विदेशनीति का सारतत्व है कि बिना किसी तीसरे को कष्ट पहुंचाए हमारी आपस में  हरएक  पड़ोसी  से दोस्ताना सुलह सफाई हो। पूरे दक्षेस में अमन हो। उपमहाद्वीप  के देशों में  शांति-मैत्री और भाईचारा हो ! भारत में इस सिद्धांत को नेहरू से लेकर मोदी तक सभी ने चाहे-अनचाहे माना है। क्योंकि भारत की गंगा-जमुनी तहजीव का यही नीति निर्देशक सिद्धांत है।

 भारत में चाहे -जिस विचारधारा की पार्टी का शासन हो ,कांग्रेस का नेहरू,शाश्त्री ,इंदिरा शासन हो ,जनता पार्टी का  मोरारजी शासन हो ,व्यक्तियों -गुटों -गठबंधनों -महागठबन्धनों का शासन हो या एनडीए -प्रथम अर्थात  अटल बिहारी  सरकार का शासन हो! यूपीए -एक या  यूपीए -दो का शासन हो , और अब एनडीए -दो की मोदी सरकार का शासन हो या आइन्दा कोई  क्रांति हो जाए और  किन्ही अज्ञात क्रांतिकारियों का शासन हो , लेकिन फिर भी भारत उन मानवीय मूल्यों को कभी नहीं छोड़ने वाला ,जो सृजन,अमन ,न्याय ,समानता ,विश्वबंधुता, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद  के लिए जगद विख्यात हैं।  लोकतंत्र और सहअस्तित्व से भारत कभी  मुँह नहीं मोड़ सकता। पाकिस्तान के फ़ौजी जनरल ,मजहबी कटटरवादी एवं  आईएस के खुनी दरिंदे  मानवता के नाम पर क्रूर कलंकी और पातकी  हैं।जबकि  दुनिया जानती है कि भारत -अमन और विश्व शांति का पक्षधर है।

 इस सिद्धांत के अनुकरण से अतीत में भले ही नेहरू युग में भारत को कुछ असफलता मिली हो ,किन्तु इंदिरा युग में भारत ने  न केवल अतीत की भूलों से सीखा बल्कि पाकिस्तान को  चीरकर बांग्ला देश भी बना डाला।    वेशक उस दौर में कुछ समय के लिए भारत को  सोवियत संघ ' जैसा विश्वसनीय मित्र मिला। जिसने अपनी पूरी ताकत से  भारत  को संयुक्त राष्ट्र में सम्मान से खड़े होने लायक बनाया। इंदिरा जी ने भारत-सोवियत मैत्री संघी से भारत को गौरवान्वित किया। इस राष्ट्रीय सम्मान के लिए  तत्कालीन  विपक्ष के कद्दावर नेता अटल बिहारी  बाजपेई ने भी इंदिरा जी को 'दुर्गा' का अवतार कहा  था।

 लेकिन जब अटल जी प्रधान मंत्री बने तो एनडीए -1 के शासनकाल में भारत को तीन बार शर्मिंदा होना पड़ा। पहली बार तब जब कि कारगिल युद्ध हुआ और वेवजह भारत के सैकड़ों सपूत शहीद हो गये। तब भी एनडीए के नेता केवल ढपोरशंख बजाते रहे। दूजे तब जब भारत पाकिस्तान   के बीच चलने वाली समझौता एक्सप्रेस  को  आतंकियों ने बम से ही उड़ा दिया। तीसरा  तब जब एनडीए सरकार के विदेशमंत्री जसवंतसिंह खुद बिरयानी और कैदी आतंकी छुड़ाकर  लेकर काबुल गए. और विमान अपहर्ता आतंकियों के चंगुल से भारतीय सैलानियों को छुड़ा पाये ।  अटल सरकार की शर्मिंदगी का एक वाक्या  और है ,जब परवेज मुसर्रफ और उसके साथ आये लवाजमें को  दिल्ली -आगरा में खूब मटन -बिरयानी खिलाई गयी ,किन्तु बात  तब बिगड़ गयी जब खुद अटलजी के वामहस्त ने  ही वार्तारूपी दूध में नीबू निचोड़ दिया।  तब यदि 'संघ' या आडवाणी  रूकावट नहीं बनते तो अटल जी को  इस तरह शर्मिंदा नहीं  होना पड़ता और आज मोदी जी की भी जग हंसाई नहीं होती !आजादी के बाद स्वतंत्र भारत के इतिहास में  यह सबसे शर्मनाक दौर हैं कि जब पाक प्रशिक्षित आतंकी पंजाब की सीमाओं पर दनादन घुसते रहे ,क्वंटलों से गोला बारूद अपने साथ पठानकोट एयरबेस में ले गए।  क्या बीएसएफ वाले सोते रहे? क्या पंजाब पुलिस दारू-अफीम में ढेर थी ? क्या भारत सरकार के अफसर और मंत्री इतने नाकारा हैं कि  जब एयर बेस पर आतंकी गोलियां बरस रहने थीं तब ये लोग अपने -अपने तयशुदा प्रोग्राम   में व्यस्त थे ?

पठानकोट एयरबेस पर 'जैस -ए -मुहम्मद' नामक कुख्यात  आतंकी समूह के  हमले के ४ दिन बाद जब भारत सरकार की नींद खुली तो उसके प्रवक्ता ने अंगड़ाई लेकर अलसाते हुए पाकिस्तान सरकार से कहा- 'जब तक आप 'जैस-ए  -मुहम्मद 'पर उचित कार्यवाही नहीं करते ,तब तक हमारी- आपकी वार्ता आगे नहीं बढ़ सकती' !इसका तातपर्य है कि  'न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी '। वार्ता की सफलता  की शर्तों को अन्य  शब्दों में कुछ इस प्रकार भी कह -सुन सकते हैं !"जब तक सूरज पश्चिम से उदित नहीं होगा ,जब तक कोई बृहन्नला बाप नहीं बन जाता या जब तक कोई बाँझ स्त्री मातृत्व को प्राप्त नहीं कर लेती तब तक हम पाकिस्तान की इस चुनी हुई लोकतान्त्रिक सरकार से कोई बात नहीं करेंगे। यह भी संभव है कि ये नवाज कुछ शरीफ हो ,किन्तु वो  राहील कदापि 'शरीफ'  नहीं हो सकता। -:श्रीराम तिवारी:-
                      

रविवार, 3 जनवरी 2016

इन श्मशान वैराग्य के क्षणों में भी सत्ता पक्ष के नेता किस बात पर मुस्करा रहे हैं ?


 पिछले साल फ़्रांस [पैरिस]पर  दो बार  आतंकी हमला हुआ। हर बार राष्ट्रपति फ्रांक्वा ओलांद ने उनके देश के पक्ष-विपक्ष को एकजुट कर आतंकी हमले से निपटने में फ़्रांस की जनता को भी विश्वास में लिया। इतना ही नहीं उन्होंने यूरोप,अमेरिका और यूएनओ  को भी इन आतंकी हमलों के खिलाफ और फ्रांसीसी जनता के पक्ष में  पूरी तरह लाम बंद  किया। इसी तरह पिछले साल अमेरिका में भी दो-तीन आतंकी एकाँकी अभिनीत हो चुके हैं। और बराक भाई[मोदी की भाषा में ] ने न केवल पेंटागन ,न  केवल नाटो देश  ,बल्कि यूएनओ में भी इन आतंकी  हमलों को लेकर अपने पक्ष में  तगड़ी लाम् बंदी करायी। ये बात जुदा है कि आतंकवादियों  को निपटाने के बहाने  अमेरिका और नाटो देश -ईराक  और सीरिया पर ही चढ़ दौड़े। भारत के पंजाब स्थित पठानकोट एयरबेस पर पाकपरस्त अथवा इस्लामपरस्त आतंकी हमले को ४ दिन हो गए है और अभी तक भारत के पक्ष-विपक्ष की संयुक्त बैठक तो दूर,केबिनेट की बैठक का सर्कुलर ही जारी नहीं  हो पाया है । प्रधान मंत्री जी 'योगमन्त्र' पढ़ रहे हैं।  रक्षा मंत्री जी सिर्फ सूचनाओं  का आदान-प्रदान कर रहे हैं। ग्रह मंत्री जी  आतंकवाद  को 'करारा 'जबाब देने  का  तकिया कलाम हजार बार दोहरा चुके हैं। अब कोई शक नहीं कि इस समय  भारत  की सुरक्षा का दायित्व अनाड़ियों के हाथों में है। खुदा खैर करे !

 पठानकोट  एयरबेस पर आतंकी हमले को तीन -चार दिन हो चुके  हैं। प्रारम्भ से ही सरकार समर्थक सूत्रों और कयासजीवी  मीडिया ने एनएसजी कमांडो तथा  सैन्य बलों की विजय के काल्पनिक गीत गाना शुरू कर दिया  था।परसों कहा गया कि  आतंकी हमलावरों को मार गिराया जा चुका है। कल के  अखवारों में 'विजयी मुद्रा' के फोटो भी अखवारों में छप -छपा गए। लेकिन  यह जीत की ख़ुशी कुछ मिनटों में काफूर हो गयी जब एयरबेस में पुनः फायरिंग शुरू  हो गयी। इस बदहवास आपरेशन की असफलता से न केवल राष्ट्रीय  सुरक्षा सलाहकार श्री  अजीत धोबाल  साहब  की योग्यता के परखचे दनादन उड़ने लगे ,बल्कि देश की  सचेतन आवाम के माथे पर भी पसीना  झलकने लगा ।  चूँकि  मामला देश की सुरक्षा का है इसलिए पूरा देश  इस जघन्य आतंकी  हमले के खिलाफ एकजुट होकर भारतीय सेना और  सरकार के साथ  चट्टान की तरह खड़ा है । किन्तु इस आतंकनिरोध  आपरेशन  की असफलता  ने भारत की सुरक्षा पर सवालिया निशान लगा दिए हैं।

पहले भी म्यांमार सीमा पर मिलिट्री आपरेशन  करने को " आतंकियों को भीतर  घसकर मारा'  बताया गया।  जल्दबाजी  में किये गए 'आपरेशन'  की बेजा ख़ुशी तब काफूर हो गयी ,जब म्यांमार  की सरकार  ने अजीत  धोबाल को बुलाकर अच्छी तरह ' शुद्द हिन्दी में समझा दिया ' । इसी तरह नेपाल में जाकर हमारे प्रधान मंत्री ने पशुपतिनाथ के मंदिर में शंख बजाकर न जाने कौनसा मन्त्र पढ़ दिया कि  नेपाल अब  भारत को दुश्मन राष्ट्र मानने लगा है। हमारे पीएम  पिछले दिनों काबुल क्या गए अफगानिस्तान में बमबारी रुक ही नहीं रही। मोदी जी ने तो पाकिस्तान में  बिना बुलाये ,बिना अपनी संसद को विश्वाश में लिए ही घुसकर कीर्तिमान बना दिया।   और नवाज  शरीफ की अम्मी के  चरण छूकर आशीष भी माँगा की 'हे माते ! आतंकियों से बचाओ !' किन्तु अम्मी का आशीष और नातिन की दुआएं कोई काम नहीं आईं। भारतीय फौजी सीमाओं पर  अब भी शहीद हो रहे हैं। मोदी जी की वतन वापिसी होते  ही हाफिज सईद और  पाकिस्तानी आर्मी के आदमख़ोर आतंकी कभी कश्मीर कभी पठानकोट और कभी  काबुल में  भारतीय वाणिज्य दूतावाश को निशाना बना रहे हैं।क्या विडंबना  है कि वर्तमान सरकार में किसी भी तरह  के हमलों से निपटने का माद्दा नहीं है। अब देश  की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है।

  पाक प्रशिक्षित कुल जमा पांच आतंकियों को मारने में  पंजाब पुलिस ,भारत के ५०० जवान ,दर्जनों एनएसजी  कमांडो ,जनरल-कर्नल और खुद भारत सरकार की सम्पूर्ण मशीनरी को ४ दिन लग गए। इस आतंकी आपरेशन में सेना के लगभग १० जवान शहीद हो गये। गरुड़ के दो कमांडो ,एक-एक कर्नल और ब्रिगेडियर  भी शहीद हो गये। २० जवान बुरी तरह घायल हो गए। इसके वावजूद सत्ता पक्ष  के बड़बोले नेता गाल बजाने से बाज नहीं आ रहे हैं। कुछ सरकारी चम्मच और चमचियाँ तो वीर गाथाकाल के सामंती भांड हो रहे  हैं। इन विचारों को विपदा में भी  ढपोरशंख बजाने की पुरानी बीमारी है। 'अश्वत्थामा हतो -नरो वा -कुंजरो वा !'  चाहे कितने भी अभिमन्यु शहीद होते रहें लेकिन पाखंडियों  को उससे क्या ? इन श्मशान वैराग्य के क्षणों में भी सत्ता पक्ष के नेता  किस बात पर मुस्करा रहे हैं  ?  इतनी शर्मनाक हालात  में  भी नाच-गान रास -रंग जारी है। धिक्कार है !

  पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले के ७२ घंटे बाद सरकारी चैनल डी -डी न्यूज पर  खबर चल रही है कि  रक्षा मंत्री मनोहर परिकर ने प्रधान मंत्री  श्री नरेंद्र मोदी को इस आतंकी हमले की विधिवत सूचना दी है ! मुझे सरकारी चैनल -प्रसार भारती की इस खबर पर पूरा  यकीन है। अर्थात  हमारे  प्रधान मंत्री को ७२ घंटे बाद भी  यह नहीं मालूम था कि  "हमारे देश पर दुश्मन ने हमला कर दिया  है "! वास्तव में यह महज आतंकी हमला नहीं है ,बल्कि भारत को बर्बाद करने की शत्रु पक्ष की सनातन बदनीयत का एक  जीवंत और परोक्ष प्रमाण है। उचित होता कि  मोदी जी फ़्रांस के राष्ट्रपति  फ्रांक्वा ओलांद से या रुसी राष्ट्रपति पुतिन से ही कुछ सीखते !
 
   श्रीराम तिवारी 
                   

शनिवार, 2 जनवरी 2016

वर्तमान दौर के भृष्ट ब्यूरोक्रेट्स में कितनी राष्ट्र चेतना है ? श्रीराम तिवारी

राजस्थान के एक 'बिगड़ैल' आईएएस हैं उमरावमल ,उन्हें आउट ऑफ़  टर्न 'चीफ सेक्रेटरी  ऑफ़ राजस्थान' नहीं  बनाया गया ,तो वे  कुपित होकर 'मुसलमान' हो गए। इस अधिकारी के ऊपर कई  करोड़ की जमीन  घोटाले  समेत और भी कई  गंभीर आरोप हैं। चूँकि  यह अधिकारी आरक्षण का लाभ  लेकर  आईएएस बना है ,तो अब सवाल उठता है कि  धर्म परिवर्तन की दशा में उसे आरक्षण के तहत प्राप्त  इस पद पर  बने रहने का  अधिकार है या  नहीं ?  भारतीय  संविधान की अवधारणा के अनुसार आरक्षण का लाभ तो  हिन्दू समाज के  तथाकथित दलित  , वंचित आदिवासी और पिछड़े वर्ग के उम्मीदवारों को ही मिलना चाहिये। वैसे भी जब वह  अधिकारी   धर्मान्तरित होकर  मुसलमान  हो  गया है  तो उसको आइन्दा   मुस्लिम पर्सनल लॉ  एक्ट के अनुसार  हज सब्सिडी मिलेगी।  ,चार-चार शादियां का अधिकार मिल गया। ,सिर्फ जुबान से तीन बार -तलाक-तलाक - तलाक बोलने पर  अपनी वर्तमान बीबी से  तलाक  का अधिकार  भी मिल गया है। इसके अलावा  उसे  वे तमाम सुविधाएँ स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं जो शरीयत के अनुसार  और इस्लामी क़ानून के दायरे में आते हैं।  इतने साल से भृष्टाचार करते हुए जो कमाया है वो  भी कम नहीं है। इस व्यक्ति ने धर्म परिवर्तन किया यह तो कोई अनहोनी या अपराध नहीं है। किन्तु  बहुत बड़ी बिडंबना है कि  उसने अपने निजी स्वार्थ को  राष्ट्र  हित  से ऊपर रखा और यह बता दिया कि  वर्तमान दौर के भृष्ट ब्यूरोक्रेट्स में कितनी  राष्ट्र चेतना है ? श्रीराम तिवारी