बुधवार, 30 सितंबर 2015

हैं जी के जंजाल , सभी धर्म पंथ व मजहब !




   मजहब धर्म के वेश में ,पनप रहे ठग -भृष्ट।

   महिमा  बढ़ी पाखंड की , बढ़ा  रही जग कष्ट।।

   बढ़ा रही  जग कष्ट , खिलाफत की चिंगारी।

   कहने को  जेहाद , तेल पर कब्जे की तैयारी।।

   हुआ जगत बदनाम ,सोच  आतंकी करतब।

   हैं जी के  जंजाल , धरम  पंथ और मजहब।।

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    मजहब -धर्म   का  ही करें ,आतंकी उपभोग ।

    सत्ता की जूँठन चरें , बाजारू ठग  लोग।।

    जाति कुटिल  विमर्श में  , जो जन गए भटकाय ।

    जुमला  राष्ट्र विकास का  , उनको कहाँ सुहाय।।

     जो  पशुचारा खा चुके ,महा भृष्ट अवतार।

     उन्ही की हांडी काठ की ,चढ़ती बारम्बार।।        


 श्रीराम तिवारी

            

                                                             

             

सोमवार, 28 सितंबर 2015

मोदी जी आपके आँसू तो राष्ट्रीय सम्पदा हैं ,इन्हे यों ही जाया न करें !


जब अमेरिका स्थित फेसबुक कार्यक्रम में मोदी जी उपस्थित लोगों के  सवालों के जबाब दे रहे थे ,तब मैं टीवी  पर  उस कार्यक्रम का लाइव टेलीकास्ट देख रहा था। अचानक एक व्यक्तिगत सवाल का जबाब देते  हुए प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र  मोदी जी को  रोते  हुए देखकर मुझे भी रोना आ गया। उनकी वह क्षणिक भावुकता नितांत सहज , स्वाभाविक और अप्रत्याशित थी।  मोदी जी ये के आँसू  वनावटी तो  कतई नहीं थे।जैसा कि उनके धुर  विरोधी  राजनीतिक लोग प्रचारित  रहे हैं । किन्तु जिस सवाल के जबाब में वे रो पड़े वह  निश्चय ही इतना क्रूरतम या 'रोने योग्य ' नहीं था कि एक विराट देश का प्रधान मंत्री ही  एक पराये देश की धरती पर जाकर अपनी माता की गरीबी को याद कर  इस तरह आँसू  बहाने लगे। मोदी जीजब तक प्रधान  मंत्री हैं तब तकउन्हें  यह  याद रखना चाहिए कि उन के आँसू अब  महज व्यक्तिगत  नहीं रहे। वे अब उनके देश की राष्ट्रीय सम्पदा  हैं ,उन्हें सिर्फ फेस  बुक  या जुकरवर्ग के सामने ही जाया नहीं किया जा सकता।   मोदी जी आपके आँसू  तो राष्ट्रीय सम्पदा हैं इन्हे यों  जाया न  करें !

यह सुप्रसिद्ध है कि आदि कवि की  काव्य प्रेरणा  भी 'क्रोंच बध 'की कारुणिक व्यथा से ही जन्मी थी। मोदी जी को  रोता हुआ देखकर  देश के करोड़ों लोगों को  भी अपनी  व्यक्तिगत दैन्यता और अभाव पर रोना आ सकता  है। जब मोदी जी अपनी पारिवारिक गरीबी और माता के कठिन जीवन संघर्ष को रो-रोकर दुनिया के सामने पेश कर सकते हैं तो देश में  करोड़ों  सनातन सर्वहारा को  भी अपनी बात कहने में  कोई हिचक क्यों होनी  चाहिए ? मोदी  जी की गरीबी तो कब की  मिट गयी। क्योंकि वे प्रधान मंत्री बन गए हैं । उनकी माता जी भी धन्य हो गईं । अब मोदी जी को अपने बचपन की गरीबी पर या  माता के कष्टमय अतीत पर नहीं रोना चाहिए ! बल्कि देश में भूँखों मर रहे सूखा पीड़ित  किसानों ,वेरोजगारी से पीड़ित युवाओं ,सिस्टम के अधः पतन से पीड़ित आवाम और भृष्ट  सरकारी मशीनरी से पीड़ित देश  के दुःख दर्द पर नरेंद्र मोदी  को रोना आता तो कोई और बात होती । 

 वैसे भी  मोदी  परिवार के लोगों ने ही कई बार  उजागर किया है कि श्री  नरेंद्र मोदी जी को अपने परिव्राजक [सन्यासी]जीवन में बर्षों तक अपने परिवार और माँ की याद नहीं आयी। वे  जब गुजरात में मुख्यमंत्री बने थे  तबसे  ही  माँ   की खोज खबर लेने लगे हैं। पत्नी जशोदा बेन  का तो उन्होंने कभी नामोल्लेख भी नहीं किया। शायद किशोर वय  की गरीबी के दिनों का नॉस्टेलजिया  ही मोदी जी को सत्ता रहा  है। इसीलिये वे अमेरिका  की उस महफ़िल  में रो पड़े  ,जो 'नमो-नमो' के जयकारे लगा रही थी।  मोदी जी ने जब अपनी माताजी के संघर्ष  का खुलासा पूरी दुनिया के सामने कर  ही दिया है  तो जनता क्यों चुप रहेगी ?  देश के गरीबों को भी इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। कम से कम मेरे जैसे सर्वहारा वर्ग के प्राणी तो फेसबुक फ्रेंड्स  के समक्ष अपना  पक्ष अवश्य ही पेश  करेंगे। हालाँकि  हमें तो बचपन से यही  सिखाया गया है कि गरीबी उतनी बुरी चीज नहीं जितना कि नैतिक और  चारित्रिक पतन।

 मेरे  पूज्य पिताजी   पंडित तुलसीराम बेहद गरीब थे। मैं  भी  कुल मिलाकर मोदी जी के बचपन से तो गरीब  ही हूँ । मेरे बच्चे तो और भी गरीब हैं। तो क्या मैं अपनी  इस सनातन गरीबी पर दिन रात आंसू  बहाता  रहूँ ? नहीं ! कदापि नहीं ! पिताश्री का कहना  था -धन गया तो कुछ न  गया ! तन  गया तो कुछ गया ! ! चरित्र गया तो सब कुछ गया !!! हमारे कुल की रीति है कि  यदि किसी का चारित्रिक पतन देखो तो उसपर आँसू  बहाओ ! गरीबी पर आँसू  बहाने की जरुरत नहीं। क्योंकि यदि अमीर बनोगे तो किसी को धोखा देकर या लूटकर ही बनोगे। याने चरित्र  को लुटाकर ही धन दौलत ओहदा हासिल किए जा सकता है। चरित्रवान व्यक्ति कभी धनवान नहीं हो सकता !  वेशक खुशहाल जीवन कोई बुरी बात नहीं और निपट गरीबी कोई गर्व की बात नहीं। किन्तु यह सब कुछ व्यक्ति के हाथ की बात नहीं है। देश ,काल , परिस्थितयां और  व्यक्तिगत प्रयास  इसके लिए उत्तरदायी हैं।  मेरे एक  गजियावादी मित्र मामूली सी सुपरवाइजर की नौकरी में  थे। उन्होंने  कभी कोई बेईमानि नहीं की  किन्तु वे अचानक मालदार हो गये। हुआ यों कि  उनके मामूली  गरीब किसान पिता  की  कुछ जमीन  किसी बिल्डर और  इंडस्ट्रयलिस्ट को पसंद आ गयी और वे रातों रात  करोड़पति  हो गए। यह व्यक्तिगत गरीबी अमीरी तो परिवर्तनीय है किन्तु राष्ट्रीय गरीबी और राष्ट्रीय चरित्र अत्यंत चिंतनीय है।  किसी देश का प्रधान मंत्री और राष्टाध्यक्ष का चरित्र  उच्चतर है तो वह वंदनीय है। उसकी व्यक्तिगत गरीबी या अमीरी से देश की आवाम को क्या मतलब ? जिस गरीबी को मोदी जी इतना गंभीर या नकारात्मक समझते हैं कि  भरी महफ़िल में रोना आ गया। उस गरीबी से  तो सारा भारत बजबजा रहा है। क्या देश के मजदूर -किसान कामधाम छोड़कर सिर्फ  रोने लग जाएँ ?  

 मेरे पिता ने  गाँव के जंगल से लकड़ियाँ  बीनकर -बैल गाड़ी जोतकर  शहर की सड़कों पर फेरी लगाकर बेचीं हैं।  उन्होंने दूसरों की मजूरी करके हम सब भाई -बहिनों को  पाला-पोषा। तथाकथित मनुवादी  ब्राह्मण कुल  के जन्मना  होते हुए भी हम सभी भाइयों ने उन जमीन्दारों  और दवंगों के  यहाँ मजूरी की  है जो आज कल पिछड़े   वर्ग में गिने जाते हैं। जो लोग पिछड़ा  होने का नाटक कर -विगत ६५ साल से आरक्षण की मलाई चांट रहे हैं उन अमीरों के यहाँ  'बचपन' में मैंने स्वयं रोजनदारी से मजदूरी की है।तब कोई कैलाश सत्यार्थी हमें उबारने नहीं आया। शहर से बहुत दूर जंगलों से घिरे मेरे गाँव में आज भी मेरे भाइयों की आर्थिक स्थति उन नामधारी पिछ्ड़ों और दलितों से बदतर है।और वे प्रधान मंत्री  श्री नरेंद्र मोदी जी के अच्छे दिनों का बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।

 चूँकि मेरे पिता की हैसियत नहीं थी कि वे हम भाइयों  को भी उच्च शिक्षा  दिला सकें। इसलिए मेरे सभी बड़े भाई मिडिल पास होकर कास्तकारी और मजदूरी में खपकर  अपना जीबन यापन करने लगे । लेकिन मैंने पिता से विद्रोह किया। घर छोड़ा और  भागकर सागर  पहुँच कर  शहर में एक आयल मिल में तीन रुपया रोज की  उजरती मजूरी  की।  रात  पाली में  काम किया। ट्यूशन पढ़ाया। अपने विद्यार्थी जीवन में ही मैं अपने छोटे भाइयों की भी फ़िक्र करने लगा। एक -एक कर अपने छोटे भाइयों को  भी गाँव से ला-लाकर मैं उन्हें भी पढ़ने के लिए प्रेरित करने लगा । हम  रात -पाली की मजूरी से  लौटकर अपनी  खोली में आकर अपने  हाथों से ज्वार के  दो  टिक्क्ड़  [रोटियाँ ] सेक लिया करते थे। खोली वाले पटेल कक्का हमारी गरीबी देखकर नहीं बल्कि सात्विक   ब्राह्मण के नाते खोली का  किराया नहीं लेते थे। हमारे समकालीन और  गाँव के एक  गब्दू चमार भी शहर में आकर खिलान सिंह अहिरवार हो आ गये थे। वे  आर्ट  विषय लेकर यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे। वे वहां सरकारी  छत्रावास में रहते थे। एक बार वे मुझे छात्रावास ले गए।  वहाँ  जाकर मैंने देखा कि हॉस्टल के एक कोने में बहुत सारे पके हुए चावलों का ढेर लगा हुआ है । मैंने पूँछा  कि  कितने बढियाँ  चावल हैं  ?और बर्तन के बजाय जमीन पर ही रख दिए हैं ? गब्दु उर्फ़ खिलान सिंह का जबाब  था -ये तो जूँठन है। इतना तो रोज फिकता है। चूँकि मैंने  सालों  से चावल  चखे ही नहीं थे। अतः मेरे मन में  इस व्यवस्था के प्रति और अपनी दैन्य स्थति के प्रति घोर आक्रोश उतपन्न हुआ। किन्तु मैं मोदी जी की तरह रोया  नहीं।

    हालाँकि  मुझे मेरिट स्कालरशिप तो मिलने लगी थी। किन्तु  जाति  से ब्राह्मण होने के नाते ,महा गरीब होते हुए भी मुझे तब विश्वविद्यालय के तत्कालीन नियमो के अनुसार पूरी फीस भरनी  पड़ती थी । जबकि गाँव के ही सौ एकड़ जमीन के मालिक जमीन्दार ने अपने सदा ही  थर्ड डिवीज़न पास होने वाले- जाहिल बेटे की फीस पता नही किस तिकड़म से माफ़ करवा ली ? यह रहस्य मुझे कभी नहीं सूझ पड़ा।  बहुत बाद में मालूम पड़ा कि  उनके रिस्तेदार यूनिवर्सिटी में किसी बड़े पद पर थे। खैर  मैंने यह अन्याय भी झेल लिया।  मोदी जी की तरह नहीं रोया। हालांकि तब तक   मुझे अपनी बेहतरीन पढाई और साहित्यिक अभिरुचि में प्रसिद्धि मिलने लगी थी। सभी प्रोफेसर और सहपाठी मुझे सम्मान देने लगे थे। मैं धन से  न सही अपनी योग्यता और कर्मठता से धनी तो अवश्य हो चला था।  मेरे माता -पिता को  मेरी इन तुच्छ सफलताओं की खबर जब गाँव में मिली तो यह सब  सुनकर उन्हें जितना आनंद प्राप्त हुआ , उतना तो मोदी जी के पधान  मंत्री बनने पर उनकी माता को भी नहीं  हुआ होगा। 

 नरेंद्र मोदी जी की माताजी ने मेहनत -मजूरी करके  अपने बच्चों को पाला पोषा और मोदी जी को रोटी दी होगी।उनकी यह महानता युगों-युगों तक बखानी जायगी। किन्तु  मैंने जो  ११ साल की उम्र में ही घर छोड़ दिया और फिर माँ  के हाथ की रोटी कभी नसीब नहीं हुई। उलटे मेने  खुद १६ साल की उम्र से कमाकर अपनी माँ  को कुछ न कुछ देना शुरू कर दिया  उसका कोई जिक्र इतिहास में अंहिं होने वाला। हालाँकि  मेरी माताजी शतायु होकर ही दिवंगत हुईं। किन्तु  उनकी जिंदगी गाँव में गायों -ढोरों की सेवा  में या घर के  अन्य सदस्यों  की सेवा में ही बीत गयी। मेरी माँ  को यह भी नहीं मालूम था कि  मैं कहाँ रहता हूँ ? क्या खाता  हूँ ? कौनसी कक्षा में पढता हूँ।  छोटे भाइयों को क्या खिलाता हूँ ? कहाँ से खर्च जुटाता हूँ ?  सड़क किनारे लेम्प पोस्ट के उजाले में पढाई  करने वाले ,रोज पैदल ही सात किलोमीटर की दूरी तय कर ऊँची पहाड़ी पर स्थित सागर विश्वविद्यालय  में एक रेगुलर छात्र के रूप में  जैसे- तैंसे अपनी स्नातकीय पढ़ाई  पूरी करने वाले को कभी रोना नहीं आया।

चूँकि  आज से ४५ साल पहले साइंस में स्नातक की  डिग्री बहुत मायने रखती थी। चूँकि में साइंस इंजीनियरिंग विषय के  हर दर्जे में  फर्स्ट डिवीजन उत्तीर्ण हुआ था। अतः  न केवल मुझे मेरिट स्कॉलरशिप मिली अपितु  मेरे लिए फिर जीवन में कभी भूंख का सामना नहीं  करना  पड़ा। तब मुझे राज्य सरकार के वन विभाग में और केंद्र   सरकार के टेलीकॉम विभाग में  पर्याप्त अवसर उपलब्ध थे । ४० साल की शानदार सर्विस लाइफ में कभी किसी को अपने कद का नहीं पाया। क्योंकि पिताश्री के उस आदर्श का हमेशा  अक्षरसः पालन   किया जिसमें उन्होंने कहा था कि "चरित्र है तो सब कुछ है "  'पैसा तो हाथ का  मैल  है ' शोषण -उत्पीड़न के खिलाफ लड़ने के लिए शानदार संगठन मिला। उसके  उच्च  पद तक  पहुँचने में  ढेरों बाधाएं आई किन्तु किन्तु मोदी जी की तरह रोया कभी नहीं !  जीवन संग्राम के संघर्ष की इकलोती मिसाल सिर्फ मोदी जी की माताजी ही नहीं हैं ,बल्कि पूरा भारत और पूरा संसार ही एक रंगमंच है।

   वैसे तो यह मुझे यह जानकर बहुत फक्र होता है कि नरेंद्र मोदी जी हिंदी के बड़े मुरीद हैं। किन्तु अफ़सोस इस बात का  है कि उन्होंने  हिंदी का यह  दोहा कभी -कहीं  पढ़ा -सुना ही  नहीं कि  "तुलसी पर घर जायके ,दुख्ख न कहिये रोय "। सिर्फ तुलसी ही नहीं  बल्कि हिन्दी के महानतम  नीति कवि अब्दुल रहीम खान-ए -खाना  ने तो इस 'आत्मरोदन 'की बार-बार मनाही की है। उनकी एक बानगी पेश है ;-

  "रहिमन अँसुआ नयन ढरि ,जिय दुःख प्रगट करेय। जाहि निकारो ह्रदय से ,कस ने भेद कहि  देय।। "


                                                          या


      " रहिमन निज मन की व्यथा ,मन ही रखिये गोय। सुन इठलैहैं  लोग सब ,बाँट न लैंहें  कोय।। "

मोदी जी , आपकी माँ  ने बहुत -दुःख कष्ट उठाया और लोगों के बर्तन मांजकर ,कपड़े धोकर आपको और आपके भाई -बहिनों को पाला। आप भारत के प्रधान मंत्री बन गए। इसमें रोने की बात क्या है ? आप को तो इस पर गर्व होना चाहिए। आप फक्र से अपना '५६'इंच का सीना तानकर सिर्फ  भारत के ५० करोड़ सर्वहारा के समक्ष ही नहीं बल्कि विश्व  सर्वहारा के समक्ष  भी अपनी इस नेकनामी पर गर्वान्वित हो सकते हैं। भारत की उस गरीब जनता के लिए  प्रधान मंत्री श्री मोदी जी क्या सन्देश देना चाहते हैं ? क्या दूसरों के घरों में काम करने वाली अन्य लाखों महिलाएं अपने बेटे को प्रधान मंत्री बनवा सकतीं हैं ? जो महिलायें ओरों  के यहाँ बर्तन मांजती हैं ,कपड़े धोती हैं ,साफ़-सफाई का काम  करती हैं ,दाई-आया और मजदूरी का काम करती हैं, जमीन्दारों के खेतों में काम करतीं हैं यदि वे सिलिकन  वेली  मोदी जी को इसी बात पर रोता देखतीं तो शायद मोदी जी हिन्दुओं के २५ अवताराहो जाते। किन्तु उन्होंने तो केवल अपनी माँ  के दुखों को याद कर आंसू बहाये इसलिए मुझे उनके रुदन पर दुःख नहीं  बल्कि उन लोगों पर तरस आया जो उनकी जुमलेबाजी और भाषणबाजी के कायल हैं।  सिलिकॉन वेली  में  माइ क्रो सॉफ्ट ,गूगल,फेसबुक और एपल  के प्रमुख सीईओ के समक्ष  इस तरह आंसू बहाने से 'मेक इन इण्डिया ,डिजिटल इण्डिया और स्वर्णिम इण्डिया नहीं होगा। बल्कि यदि देश का प्रधान मंत्री किसी गधे को भी नबा डोज तो भी भारत उतना ही तरक्की करेगा जितनी होती  नजर आ रही है। भारत का आप्त वाक्य 'राष्ट्रीय नारा है। इस देश का भगवान ही मालिक है। इसीलिये घर-घर में तीज त्यौहार और उत्सव की धूम है। किसान मरें-मजदूर मरें। महिलाएं बर्तन मांजें ,कपड़े धोयं यह सिलसिला रुकने वाला नहीं। मोदी जी  की माता धन्य हैं ,सौभाग्यशाली हैं कि  उनका बेटा प्रधान मंत्री बन गया।   लेकिन दुनिया में ऐंसा कहाँ सबका नसीब है ?

अपनी अमेरिकी यात्रा [सितमबर-२०१५] के दौरान मोदी जी न फिर वही सब दुहराया जो वे विगत १६ महीने से हर विदेश यात्रा में  करते-कहते आ रहे  हैं। अपने  हर दौरे में मोदी जी के भाषण में दो चार जुमले बेटी-दामाद के  द्वारा किये गए तथाकथित  भयानक भृष्टाचार  पर होते हैं। लोग पूँछते हैं कि  आप बार -बार अमेरिका -चीन-जापान  जाकर  जो कथित भृष्टाचार  दुनिया भर को बता रहे हो ,उसके दोषियों को सजा क्यों नहीं दिलाते ? उन्हें जेल क्यों नहीं भेजते?

 मोदी जी एक साँस में  कहते हैं कि - हम भारत के लोग जगद्गुरु हैं ,हम दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेटिक कंट्री हैं ,हम मंगल पर पहुँच गए हैं ,हमने पीएसएलवी-६ छोड़ दिया है । हम खाद्यान्न में निर्भर हैं। हम मानव श्रम  - संसाधन और दूसरी साँस में मोदी जी का वही  'राग कटोरा' शुरू हो जाता है कि  मेरे भारत के ढाई लाख गाँव में ऑप्टिकल फाइबर नहीं डला। हमें आपकी पूँजी  चाहिए। जबकि आपको मालूम है कि  भारत के गाँव तो छोड़िये बड़े-बड़े शहरों में गंदा पानी पीकर लोग डेंगू-मलेरिया और चिकनगुनिया के शिकार हो रहे हैं।  सिर्फ जुमलों और  भाषणों  से  नहीं ,या आँसू  बहाने से नहीं बल्कि  कार्पोरेट सेक्टर ,साम्प्रदायिक विचार त्यागकर और मजदूर-किसान परक नीतियाँ  लागू करके ही उन तमाम माता-बहिनों  के आंसू पोछे जा सकते हैं। जो मोदी जी की माताजी की तरह  ही दुःख कष्ट उठा रही हैं।

  श्रीराम तिवारी
                             
           

सोमवार, 21 सितंबर 2015

कहीं महाभारत के शल्य की भूमिका में अब मोहन भागवत जी तो नहीं आ गए ?



  लालू यादव  की महाभृष्ट  छवि , नीतीश की प्रशाशनिक असफलताएँ और उन का बिहारी डीएनए रोदन एवं  उनके ' घोर जातिवादी महागठंबधन  को मुलायम द्वारा लतियाये जाने के बाद बिहार में  एनडीए की जीत के आसार  बनने लगे थे ।  प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी  की आम सभाओं में  भी  काफी  भीड़  जुटती  रही। इसीलिये  भाजपा  नीत एनडीए गठबंधन  वाले आश्वस्त होने लगे  कि  बिहार में अबकी बार -मोदी सरकार जरूर बनेगी। लेकिन अब बिहार की आवाम बुरी तरह 'कन्फ़्यूजिया' रही  है। कुछ नहीं कहा जा सकता की ऊंट किस करवट बैठेगा ? ओवेसी,मुलायम और वामपंथ वाले भले ही चुनाव में सफंलता प्राप्त न कर सकें किन्तु ये सभी  'लालू-नीतीश-कांग्रेस गठबंधन 'के ही वोट काटेंगे।  जबकि भाजपा का वोट बैंक  न केवल सुरक्षित है बल्कि  एनडीए के बिहारी समर्थकों को मोदी जी के 'विकासवादी' नारे  भी लुभा रहे हैं । अतः बिहार में एनडीए की जीत के चान्सेस बनने लगे थे। किन्तु अब संघ प्रमुख  के बोल  बचन से एनडीए का भविष्य बिहार में अनिश्चित हो चला है।

 प्रधान मंत्री श्री  मोदी जी , भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ,रविशंकर प्रसाद ,सुशील मोदी ,शाहनवाज  हुसेन ,रूढ़ी , पासवान ,माझी और  कुशवाहा जैसे नेताओं को आइन्दा बिहार विधान सभा में चुनाव में यदि  हार का मुँह  देखना पड़े तो , यदि एनडीए की पराजय  होती है तो ,उसके दो प्रमुख कारण  हो सकते हैं  ! एक तो पासवान  , माझी  और कुशवाह  का घोर जातीयतावाद और परिवारिक कुकरहाव ।दूसरा कारण होगा श्री मोहन  भागवत का  पाञ्चजन्य और आर्गेनाइजर में आरक्षण सम्बन्धी वयान।  हो सकता है कि श्री मोहन भागवत  जी ने  सही  बात कही हो !किन्तु सही तो  महाभारत युद्द के दरम्यान कर्ण  के सारथि शल्य ने भी कहा था ! जब कर्ण  के बाणों से अर्जुन और कृष्ण का रथ छत -विक्षत हो रहा था और  कर्ण  जीत की ओर  बढ़ रहा था ,तब  शल्य ने ही  कर्ण  को हतोत्साहित करना शुरू कर दिया था । शल्य  का इरादा क्या था यह कर्ण  नहीं जनता था। शल्य   जब  हारते हुए  पाण्डु पुत्र  अर्जुन की झूँठी  तारीफ कर रहा था तब उसका इरादा  क्या था?  कि 'पांडव' ही जीते। और  कर्ण  हारे या मार दिया  जाए ।  कहीं शल्य की भूमिका में अब  मोहन भागवत जी तो नहीं आ गए ?  एनडीए और भाजपा के सारथि श्री मोहनराव  भागवत  जी भी  शायद यही कोशिश  कर रहे हैं कि  बिहार में 'नरेंद्र मोदी ' रुपी कर्ण  हार जाए। शायद इसीलिये  भागवत जी ने  महाभारत के शल्य की तरह गलत वक्त पर  आरक्षण सम्बन्धी सही बात कह  दी है । इसीलिये बदनाम चारा  घोटाले बाज -जातीयवादी  लालू प्रसाद यादव की बाँछें  खिल गयीं हैं।  और उसकी जुबान लम्बी हो चली है।  बेबस नीतीश  जैसे निहत्ते वीरों और  डूबते सेनापतियों को तिनके का सहारा मिल गया है। दरअसल  आरक्षण की बहस में भाजपा को उलझाकर मोहनराव  भागवत जी ऐसे पाहुने बन गए हैं. जो साँप मारने चले थे किन्तु  साँप  तो नहीं मरा लाठी जरूर टूटने वाली है।

                                                                                                                                  श्रीराम तिवारी

                                                            
                               

                       

                       
                         

रविवार, 20 सितंबर 2015

वैसे भी यह सभ्रांत लोक तो मनुवादी कहकर दुत्कारा जा चुका है।



 इस वर्ष  ऋषि पंचमी के अवसर पर निमाड़ [मध्यप्रदेश] के 'टांडा 'ग्राम में गायत्री परिवार द्वारा  एक विचित्र किन्तु अद्व्तीय  सामाजिक -सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया गया।खबर है कि यह  कार्यक्रम पूर्णतः  'आदिवासियों  का - आदिवासियों  के द्वारा ,आदिवासियों के लिए 'की तर्ज पर ही  सम्पन्न  किया गया , इस  कार्यक्रम में  राजस्थान ,छग ,झाबुआ ,निमाड़ ,मालवा  के लगभग पांच हजार आदिवासी  शामिल हुए।सभी का यगोपवीत संस्कार किया गया। मुंडन ,जनेऊ , कुश -आशन  एवं अधोवस्त्र इत्यादि  समस्त 'ब्राह्मण' प्रतीकों से सुसज्जित इन सहस्त्रों ' वटुकों ' की ग्रुप फोटो 'नई  दुनिया 'के रविवारीय अंक में प्रकशित हुई है।

     इन आदिवासियों के 'संत'  श्री डेमिन भाई डाबर ने वहाँ  स्वस्तिवाचन किया। आदिवासियों को वैदिक सूक्तियों के उद्धरणों से अभिषिक्त किया। उन्हें बताया गया कि "जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद् द्विज उच्चते '' अर्थात जन्म से तो सभी  मनुष्य एक जैसे 'असंस्कृत' ही हुआ करते हैं। किन्तु ज्यों-ज्यों कोई मनुष्य  उत्कृष्ट मानवीय  मूल्यों  की ,समाज  की ,देश की और विश्व  कल्याण की  भावनाओं को अंगीकृत करते हुए  'सुसंस्कृत'  होता जाता है, त्यों-त्यों वह मनुष्यत्व के  उच्चतर शिखर पर प्रतिष्ठित होता जाता है। तब वह  'विप्र' हो जाता है।" इस कार्यक्रम  में आदिवासियों के अलावा  और भी बहुत सारे स्थानीय पिछड़े -दलित और कास्तकार जन भी उपस्थित रहे।

 आदिवासी 'संत' डोमिन भाई के इन विचारों को सिरे से  ख़ारिज तो  नहीं किया जा सकता। किन्तु उन्हें यथावत स्वीकृति भी नहीं दी जा सकती। उनके इस उपक्रम  को 'नवब्राह्णवाद' कहें या क्रांतिकारी परिवर्तन यह निर्णय हर कोई एरा- गैरा -नत्थुखेरा नहीं कर सकता। बल्कि इसका फैसला  सिर्फ वही लोग कर सकते हैं ,जिन्हे भारत  के  आदिवासियों की  आर्थिक,सामाजिक,सांस्कृतिक और राजनैतिक जीवन यात्रा  का सम्पूर्ण ज्ञान है।  जिन्हे भारतीय सनातन  संस्कृति के साथ साथ  राष्ट्रीय एकीकरण की प्रक्रिया का  भी वास्तविक इतिहास मालूम है।  और जिन्हे आधुनिक दुनियावी वैज्ञानिक-विकासवादी सिलसिले का यथासंभव  ज्ञान है। इस विमर्श में हस्तक्षेप से पहले  हम संछिप्त विषय प्रवर्तन भी  किये देते हैं। 

दुनिया की किसी भी सभ्यता और संस्कृति का  नकारात्मक विकास  साधारण मनुष्यों द्वारा या आदिवासियों द्वारा नहीं हुआ। और यह सिलसिला धरती की सेहत के लिए भी  अच्छा ही था। क्योंकि आदिवासी बड़े 'प्रकृति-पारखी ' हुआ करते हैं। भले ही वे खुले आसमान के नीचे - झोपड़ों में  गुजर-बसर करते रहे ,किन्तु किसी  नदी  , तालाब  ,वन -उपवन ,पर्वत - झील  की शक्ल सूरत  उन्होंने कहीं -कभी नहीं बिगाड़ी । आदिवासी जानते और मानते रहे हैं कि "चींटियाँ घर बनाती हैं और साँप  उसमें रहने आ जाते हैं ! "  शायद इसीलिये प्राग ऐतिहासिक काल से ही आदिवासी सारी दुनिया में ऊँचे-ऊँचे महल ,बड़े-बड़े  पुल ,हजारों मील लम्बे राजमार्ग और बड़ी-बड़ी नहरें  तो बनाते रहे। किन्तु  भारतीय गिरमिटियों  की तरह  इन अफ़्रीकी अश्वेतों[आदिवासियों] ने भी पश्चिम के श्वेत प्रभु वर्ग को वह सब सृजन करके दिया जो  पौराणिक और परी  कथाओं में केवल जिन्न  ही कर सकते हैं। साइंस और टेक्नॉलॉजी के चरम विकास ने , विभिन्न क्रांतियों ने और राष्ट्रों के लोकतंत्रीकरण ने  शिद्द्त से  यह सुनिश्चित कर दिया है ,कि  आधुनिक दुनिया के  हर महाद्वीप के आदिवासी आइन्दा अपनी  खुद की ही  आदि -  पुरातन संस्कृति को टाटा-बाय-बाय कर  'सभ्रांत' वर्ग की नकल शुरू कर दें । भारत के  छग,झारखंड , झाबुआ  - निमाड़ में यही सब  हो रहा है।

कहा जा सकता है कि  किसी अति -उन्नत नगरीय सभ्यता का विकास आदिवासियों ने नहीं किया। मानव इतिहास में न केवल  आदिवासी बल्कि अन्य आमजन  की भी कहीं कोई उल्लेख  नहीं है,कि  इस वर्ग ने किसी नयी सभ्यता या संस्कृति का सृजन किया हो।   बल्कि  इस वर्ग के द्वारा  'सभ्रांत वर्ग'का  सिर्फ अनुपालित ही किया जाता  रहा है। अर्थात सभ्यताओं का उत्थान-पतन 'लोक' के द्वारा नहीं बल्कि ' राज्य सत्ताओं',सबलवर्ग ऐतिहासिक युद्धों -बड़ी  लड़ाईयों ,महाँन क्रांतियों  और कुर्बानियों की बदौलत ही  आधुनिक सभ्यताएं परवान चढ़ी हैं। वेशक यह  सभ्यता और संस्कृति परिष्करण  आदिवासियों  ,कारगर वर्ग एवं अन्य मेहनतकश सर्वहारा वर्ग के श्रम की  बदौलत  ही संभव हुआ है। उत्तर -दक्षिण अमेरिका , आस्ट्रेलिया ,न्यूजीलैंड , अफ़्रीकी महाद्वीप व समस्त 'गुलाम सन्सार' का कायाकल्प साधारण लोगों ने नहीं किया। बल्कि वे तो सत्ता के निर्जीव औजार मात्र रहे हैं। वेशक  सम्पूर्ण श्रम  तो आदिवासियों और  आम साधारण इंसान का ही रहा है  किन्तु नए सन्सार की खोज और साइंस  के आविष्कार  तो -कोलंबस ,वास्कोडिगामा,टॉमस -रो ,थॉमस अल्वा एडिसन ,न्यूटन  और  गैलीलियो जैसे  वैज्ञानिकों और यायावर  महा नाविकों  ने ही की है। नयी दुनिया  की खोज करने के लिए, पानी के बड़े जहाज और खाना -खर्चा तो ततकालीन राज्य सत्ताओं द्वारा ही मुहैया  किया जाता रहा है।

     भारत के आदिवासी यदि उच्च वर्ण या सभ्रांत लोक का अनुसरण करते हैं तो यह भारत के लिए और भारत के आदिवासियों के लिए कुछ हद तक मुफीद हो सकता है। किन्तु उन्हें सोचना चाहिए कि जब किसी मुल्क में एक अनार  और सौ बीमार हों ,जब एक  बस  में ५० सीटें हों और यात्री १०० हों ,जब एक ट्रेन  की यात्री क्षमता ३००  हो और उसमें १००० यात्री चढ़ जायँ , और जब चपरासी की नौकरी के लिए २०० पद  ही रिक्त हों और तीन लाख  युवा ग्रजुऐट  चपरासी की नौकरी के लिए आवेदन करने लगें , तो हिन्दुत्ववादियों ,गायत्री परिवार वालों और 'सनातन परम्परा 'वालों  को अपने इस 'दीक्षांत समारोह' पर पुनर्विचार करना होगा। और आदिवासियों के  आधुनिक सनातनी नेता -संत  'डोमिन भाई  को , अन्य मजहबी नेताओं को भी सोचना पडेगा कि केवल जनेऊ  - यगोपवीत धरण करने से ,कुशाशन पर बैठकर लोम-विलोम करने से  'सभ्रांत लोक'  की मुख्यधारा में शामिल नहीं हुआ जा सकता ।   वैसे भी यह सभ्रांत लोक तो मनुवादी कहकर दुत्कारा जा चुका  है। जब  बाबा साहेब श्री   भीमराव  अम्बेडकर जी ,श्री  कासीराम जी ,श्री जगजीवनराम जी और अन्नादुराई को यह सभ्रांत  लोक पसंद नहीं आया तो उनके आधुनिक सजातीय बंधू क्यों 'दंड-कमंडल'और जनेऊ  धारण के लिए हलकान हो रहे हैं ?

            वेशक हर दौर की सभ्यता और संस्कृति भी  उस दौर की भाषा और  वैज्ञानिक  तकनीकी के  अनुरूप लोकोपकारी रही  होगी।  किन्तु इस आधुनिक डिजिटलाइज युग में ,भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के युग में  आदिवासियों को साइंस और टेक्नॉलॉजी  से सुसज्जित करने और उन्हें आर्थिक  रूप से सबल बनाने की जरुरत है। केवल पुरातन सांस्कृतिक रूपांतरण से रोटी-कपड़ा और मकान तो क्या आदिवासी  को केवल  वामनों कीतरह  लंगोटी ही हाँथ आएंगी।   

                               श्रीराम तिवारी                          

शनिवार, 19 सितंबर 2015

अभी तो दिन 'नसीब वालों 'के हैं ,अभी राहुल या कांग्रेस का बक्त नहीं है !



 आज   पश्चिमी चम्पारण [बिहार] के ऐतिहासिक मैदान के मंच से  राहुल गांधी ने आम सभा को सम्बोधित करते हुए  जबरदस्त भाषण दिया। राहुल ने बड़ी चतुराई से  अपने  बिहारी 'महागठबंधन' के डोमिनेंट  लीडर्स - नीतीश और लालू  को इस मंच पर नहीं आने दिया। बदनाम लालू के साथ  राहुल मंच  साझा नहीं करते  यह तो स्वाभाविक था, किन्तु नीतीश का बायकाट राहुल ने किया या नीतीश ने राहुल का बायकॉट  किया यह कुछ समझ में नहीं आया।  क्या यह राहुल का और कांग्रेस का 'सभ्रांत 'व्यवहार है ,जो पिछड़ों के साथ एक मंच साझा  करने से छुइ-मुई हो जाएगा?  क्या  बिहार की जनता को  'महागठबंधन'  के इन  प्याजी  छिलकों में कोई रूचि हो सकती है ?क्या यह 'नौ कनवजिया  तेरह  चूल्हे' वाला दकियानूसीपन नहीं है ?

वेशक आम सभा में राहुल का भाषण काबिले तारीफ़ रहा। उनके भाषण में महात्मा गांधी का अपरिग्रह चमक रहा था। उनके भाषण में नरेंद्र मोदी की चाय से लेकर  दस लखिया शूट की भी धुलाई होती  रही। राहुल गांधी ने मोदी जी और गांधी जी की तुलना करके नरेंद्र मोदी को ' परिग्रही और प्रमादी'  भी सावित कर दिया । राहुल के भाषण  में स्वाधीनता संग्राम का ओज भी था। वे किसानों,मजदूरों और युवाओं का बार-बार उल्लेख  कर रहे थे।  लगा  कि यदि वे ईमानदारी से इसी लाइन को आगे बढ़ाते रहे तो न केवल उनका बल्कि कांग्रेस का भविष्य   भी उज्जवल है। चूँकि कांग्रेस के भविष्य से  भारत का भविष्य भी जुड़ा है ,इसलिए राहुल  की इस वैचारिक  क्रांति - उन्नति की भूरि-भूरि प्रशंशा जानी  चाहिए।
                               
      किन्तु सवाल फिर वही दुहराया जा रहा है कि राहुल का ये क्रांतिकारी  भाषण  असली है या महज चुनावी लफ्फाजी ?  क्योंकि राहुल को ये भी याद नहीं कि  मोदी जी नया कुछ नहीं कर रहे वे तो राहुल की मम्मी द्वारा देश पर थोपे गए एक  बुर्जुवा अफसरशाह -डॉ मनमोहनसिंह की बदनाम आर्थिक  नीतियों को ही झाड़-पोंछकर फिर से  भारत  की छाती पर मढ़  रहे हैं। इन नीतियों के खिलाफ तो  शायद राहुल आज भी नहीं हैं। और शक की गुंजाइश तब पैदा होती है जब यूपीए-वन [२००४ से २००९ तक]और यूपीए-टू [२००९ से २०१४] तक राहुल गांधी ने इस तरह के न तो कोई बयान  दिए। और न ही उन्होंने कभी मजदूर-किसान का कहीं जिक्र किया। अब राहुल जो कुछ भी कह रहे हैं वो सब सच है ,किन्तु जब कांग्रेस का बिहार में उठावना चल रहा हो ,तब मंगल गीत गाना कहाँ तक उचित है ?

क्या यह सच नहीं कि  भारत के ८० % युवा अब 'गांधी-गांधी' नहीं बल्कि 'मोदी-मोदी'  के नारे लगा रहे हैं। काश कि  राहुल ने यूपीए के १० सालाना दौर  में ये सब कहा होता जो वे अब संसद से लकेर चंपारण तक कहे जा रहे हैं। अब तो सिर्फ यही कहा जा सकता है की " का वर्षा जब कृषि सुखानी " या "अब पछताए  होत  क्या ,चिड़िया चुग गयी खेत " राहुल जी को उनके अच्छे भाषण के लिए बधाई ! किन्तु अभी तो दिन 'नसीब वालों 'के हैं ,अभी राहुल या कांग्रेस का बक्त नहीं है ! 'आप' या केजरीवाल रुपी काठ की हांडी दिल्ली में  बाइचांस  एक बार अवश्य   चढ़ गयी  किन्तु आइन्दा 'रहिमन हांडी काठ की ,चढ़े अं दूजी बार !राहुल गांधी जब तक अपनी वैकल्पिक नीतियों का खुलासा नहीं करते तब तक पूरे भारत में कांग्रेस   की दुर्दशा ही होनी है।  मोदी जी  की  व्यक्तिगत  आलोचना के बजाय उनकी आर्थिक नीतियों  और  देश में व्याप्त भृष्टाचार पर राहुल गांधी क्यों नहीं बोलते  ?  कहीं ऐंसा तो नहीं कि  राहुल को अपनी ही पार्टी के भृष्टाचार और 'कुनीतियों' का दर्पण  दिखने लग जाए ?

      श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 18 सितंबर 2015

अथ 'श्री मच्छर कथायाम'



  जिस किसी ने  संस्कृत नीति कथा 'पुनर्मूषको- भव:'  नहीं पढ़ी होगी ,उसे मेरी यह नव -उत्तरआधुनिक  'मच्छरकथा'    शायद ही रुचिकर लगेगी ! किन्तु लोक कल्याण के लिए 'स्वच्छ भारत' एवं स्वश्थ भारत के  निर्माण  के लिए यह सद्यरचित  स्वरचित मच्छरकथा -फेसबुक ,ट्विटर ,गूगल्र ,वॉट्सएप समर्पयामि :!

   ++++  ===++++==अथ मच्छर कथा  प्रारम्भ ====+======+===++++


   यद्द्पि मैं कोई तीसमारखां नहीं हूँ !  फिर भी एक खास  तुच्छ प्राणी को छोड़कर और किसी भी ग्यार-अज्ञात ताकत से मैं नहीं डरता। यद्द्पि  मुझे अपनी इस मानव देह से बड़ा लगाव है ,किन्तु फिर भी मैं मृत्यु से नहीं डरता।  मैं  कोई आदमखोर जल्लाद , हिंसक भेड़िया ,बाघ,चीता या शेर नहीं हूँ ! मैं कोई देवीय  अवतार ,दुर्दांत दैत्य या दानव  भी नहीं हूँ।  फिर भी मैं यमराज से नहीं डरता। यद्द्पि  मैं  ज़रा-व्याधि ,नितांत  मरणधर्मा और मेहनतकश इंसान हूँ। मैं एक  महज सीधा-सरल सा  मानव मात्र  हूँ। फिर भी  मैं किसी भी भूत-प्रेत -पिशाच से नहीं डरता। क्योंकि उसके लिए बाजार में 'हनुमान ताबीज'और  'अल्लाह लाकेट ' उपलब्ध हैं। उसके लिए चर्च वालों के पास एक  खास किस्म का 'जल' और  क्रास उपलब्ध  है।मैं भूकम्प,सूखा ,बाढ़  और सुनामी से नहीं डरता। क्योंकि उससे बचने के लिए मेरे  भारत में तैतीस  करोड़ देवता ,चार धाम तीर्थ यात्रायें हैं।  लाखों  - मंदिर  - मस्जिद-गुरुद्वारे और चर्च  हैं,सैकड़ों धर्म-मजहब और पंथ  हैं।

मैं गरीबी ,बेरोजगारी और मुफलिसी से नहीं डरता क्योंकि उनसे निजात दिलाने के लिए 'गरीबी हटाओ' के नारे हैं ,'मन की बातें हैं ' मनरेगा है , साइंस हैं ,टेक्नॉलॉजी है ,जन संगठन हैं  , हड़तालें हैं ,  पक्ष-विपक्ष के बेहतरीन नेता हैं।  मैं चीन की विशाल सैन्य ताकत से नहीं  डरता  ,पाकिस्तान प्रेरित आतंकवाद और उसकी परमाणु बम्ब की धमकी से नहीं डरता , क्योकि उसके लिए हमारे पास अम्बानी हैं ,अडानी हैं , टाटा  हैं ,बिड़ला  हैं ,बांगर है और मोदी जी हैं। मैं आईएसआईएस ,अलकायदा, तालीवान,जमात-उड़-दावा  और जेहादियों  से नहीं डरता  क्योंकि मैं मुसलमान नहीं हूँ। जबकि आतंकी जेहादी   इराक , सीरिया ,पाकिस्तान ,अफगानिस्तान ,यमन और सूडान में चुनचुनकर केवल गैर सुन्नी मुसलमानों को ही मार  रहे हैं। भारत - पाकिस्तान  सीमा पर अधिकांस  मुसलमान ही मारे जा रहे हैं।  यद्द्पि हिन्दुओं को भी वे नहीं छोड़ते किन्तु यह केवल अपवाद ही है।

मैं दैहिक ,दैविक ,भौतिक तापों से नहीं डरता क्योंकि उसके लिए  मेरे पास बाबा हैं साध्वियां हैं ,कांवड़ यात्राएं हैं,  दुर्गोत्सव हैं ,गणेशोत्सव हैं , ईदोत्सव  हैं ,फागोत्सव हैं ,वसंतोत्सव हैं , होली  , दीवाली ,दशहरा,और प्रकाशोत्सव हैं। वृत-उपवास और कथा-कीर्तन हैं। मैं सरकारी संरक्षण में  पलने वाले भृष्टाचार से नहीं डरता क्योंकि उसके लिए डॉ आनन्दराय और गुप्ता जैसे व्हिस्लब्लोबर हैं।  मैं  ट्रांसफर माफिया से नहीं डरता क्योंकि मैं अब सेवा निवृत हो चुका  हूँ। मैं  दारू माफिया ,,रेत खनन  माफिया ,खाद्यन्न  - मिलावट माफिया ,ठेका माफिया,  जिंस -जमाखोर माफिया, व्यापम माफिया, भू माफिया, बिल्डर माफिया, ड्रग माफिया से भी मैं नहीं डरता ,क्योंकि इन सबसे निपटने के लिए लोकायुक्त हैं , न्याय  पालिका है ,मीडिया है , जनता  है ,विपक्ष के नेता हैं  और बार-बार होने  वाले चुनाव  हैं। और वैसे भी  ये सबके सब महापापी  खुद ही अपनी मौत  भी तो मरते  रहते हैं। इनसे  क्या डरना ? इनसे तो वही डरता है जो इनसे चंदा लेकर चुनाव लड़ता है और  विधायक ,सांसद ,मंत्री  बनता है।  मेरे जैसे एक आम आदमी को इनसे क्यों डरना चाहिए ?

 सफ़दर हाशमी ,नरेंद्र  दावोल्कर , गोविन्द पानसरे व  कलीबुरगी  को मारने वाले  हिंस्र - अंधविश्वासी  हत्यारों से भी मैं  नहीं डरता।  क्योंकि  इन अमर शहीदों के जैसा महान  क्रांतिकारी और समाजसुधारक  तो मैं कदापि  नहीं हूँ।   नास्तिक  दर्शन पर विश्वास  रखते हुए मैं सभी धर्मों की अच्छी बातों और स्थापित मानवीय मूल्यों की कद्र  करता हूँ। श्रीकृष्ण के इस सिद्धांत को मानता हूँ की

" न बुद्धिभेदम जनयेदज्ञानाम ,कर्मसङ्गिनाम ,जोषयेत् सर्व कर्माणि विद्वान युक्त समाचरन '' - अर्थात

 "विज्ञानवादी -प्रगतिशील भौतिकवादि विद्वानों को चाहिए  कि धर्म-मजहब का ज्यादा उपहास न करें ,लोगों को धर्मविरुद्ध  ज्यादा ज्ञान न बघारें। उनकी गलत मान्यताओं,कुरीतियों और अंधविश्वाशों पर चोट  तो करें किन्तु यह सब करने से  पहले खुद को आदर्श रूप में ढालें ,फिर  दूसरों  को  पथ प्रदर्शन करें "

                                        चूँकि मैं  सच्चे मन से धर्म -मजहब   को फॉलो करने वालों की इज्जत करता हूँ        साथ ही उनको आगाह भी करता हूँ कि  'फतवा वाद ,संकीर्णता ,पाखंडवाद  और  ढोंगी  मठाधीशों से बचकर रहें ।  इसीलिये सच्चे आस्तिक भी मेरे मित्र हैं।  मैं अतल -वितल -सुतल -तलातल -तल -पाताल  और  भूलोक इत्यादि सातों लोकों    के थलचर ,जलचर ,नभचर व नाना प्रकार के  ज्ञात-अज्ञात भयानक  आदमखोर जीव-जंतुओं से नहीं डरता।  मैं कोबरा  ,करैत  या विशालकाय ड्रेगन से नहीं डरता। मैं चील-बाज-गिद्ध या गरुड़ से नहीं डरता। मैं कोकोडायल, ,व्हेल या सार्क  से भी मैं नहीं डरता। किन्तु मैं एक अदने  से उस जीव से अवश्य डरता हूँ जो दुनिया  भर के किसी भी  हिंस्र  आतंकि से भी नहीं  डरता।  जो  प्राणी  साहित्यकारों -व्याकरणवेत्ताओं के  लिए  महज  एक तुच्छतर  'उपमान'  है। उस  तुच्छ जीव का काटा हुआ  व्यक्ति पानी नहीं मांगता।  इस  तुच्छ  कीट के काटने से  मात्र से किसी को डेंगू, किसी को  मलेरिया  किसी  को  चिकनगुनिया  और किसी को परलोक की प्राप्ति भी  हुआ  करती  है।  मैं इस अति  सूक्ष्म किन्तु भयावह जीव से भलीभांति   सताया जा चुका  हूँ। इस के दंश को याद कर सिहिर उठता हूँ।  अब तो डर  के मारे उसका उल्लेख भी नहीं करता।बल्कि सभी सज्जनों से  इस कथा को वांचने की याचना करता हूँ।  अथ  'श्री मच्छर कथायाम' समाप्त !

           प्रस्तुत कथा को जो नर-नारी  नहां -धोकर  ,साफ़ सुथरी जगह पर बैठकर  नित्य -नियम से सपरिवार  पढ़ेंगे ,सुनेंगे और गुनेंगे वे असमय ही 'परमपद' को प्राप्त नहीं होंगे। बल्कि इस धरा पर शतायु होंगे। एवमस्तु !

                                          श्रीराम तिवारी
                                                      

मध्यप्रदेश की जनता भाजपा को वोट देकर अपने किये-धरे का दंड भोग रही है।


  मध्यप्रदेश  में कांग्रेस के नेताओं  और जागरूक मीडिया  को शिकायत है कि मुख्यमंत्री  शिवराजसिंह चौहान  के रिश्तेदारों ने प्रदेश की ९०% रेती पर कब्जा कर रखा है। कुछ  बस आपरेटरों  को शिकायत है कि प्रदेश की सड़कों पर कोहराम मचा  रही - ८०% बसें भाजपाई नेताओं और उसके कार्यकर्ताओं की हैं। प्रदेश के कुछ सुधी  पत्रकारों और बुद्धिजीवियों का आकलन है कि  यह सरकार न केवल हर मोर्चे पर 'गुड गवर्नेस' देने में असफल रही है  बल्कि इस सरकार ने प्रदेश की धरती ,प्रदेश की नदियां ,प्रदेश के जंगल ,प्रदेश का जल और प्रदेश का आसमान  भी आवाम से छीन  लिया है।   इसके अलावा  प्रदेश  के एक  नामचीन्ह  व्हसिलब्लोवर्स का कहना है कि आजादी के बाद की यह  सबसे भृष्ट सरकार है। इस सरकार के संरक्षण में नदियाँ  लूट रहीं हैं। इस सरकार  की देखरेख में ' पेटलाबद ' नर संहार हो रहे हैं । इस सरकार  ने मध्यप्रदेश को आदिम युग के 'जंगलराज' की  ओर  धकेल दिया है। प्रदेश की  जागरूक जनता का  काम वोट देना है, अतएव मध्यप्रदेश की जनता भाजपा को  वोट देकर अपने किये-धरे का दंड भोग रही है। 

 

मंगलवार, 15 सितंबर 2015

नीतीश ,लालू , कांग्रेस और सभी गैर भाजपाई मोर्चे बिहार में केवल हारी हुई पारी खेलने की ओपचारिकता निभा रहे हैं।


खबर है कि दिल्ली स्थित पीएमओ हाउस के निकटवर्ती पोस्ट आफिस में बिहार से भेजे गए 'डीएनए सेम्पल' लाखों की तादाद में पहुँच  रहे हैं। न तो पोस्ट आफिस वालों को और न ही पीएमओ आफिस वालों को  कुछ सूझ पड़  रहा है कि आखिर  इस 'बबाल' का किया क्या जाए ? मोदी सरकार यदि इस नीतीश प्रेरित  जन  -भावना संदेस की अवहेलना करती है तो 'निरंकुशता' ओर अहंकार का आरोप लगना स्वाभाविक है। यदि इस अशुभ और  विकराल डाक को  दस्तावेजीकृत किया जाता है तो यह स्वयं प्रधान मंत्री मोदी  की रुसवाई  होगी। याने  अब  ''उगलत बने न लीलत केरी। भई  गत साँप  छछूंदर केरी ।।" वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। क्या  यह  नसीब - वालों की  बदनसीबी का मंजर नहीं है ? क्या  यह चुनावी हथकंडों  की एक  बिहारी स्टाइल  मात्र नहीं  है?

 इन सवालों की पड़ताल करने वालों को  बिहार की विशिष्ट ऐतिहासिक ,भौगोलिक और सामाजिक  स्थिति की भी पड़ताल कर लेनी चाहिए। जिस  खाँटी बिहारीपन  का राज ठाकरे जैसे  'गैर बिहारी' टुच्चे नेता ,दुनिया भर के  गैर बिहारी छुद्र साहित्यकार एवं अधकचरे  पत्रकार भी  बड़े व्यंग्यात्मक लहजे में  चटखारे लेकर मजाक उड़ाया करते  हैं।  उस विमर्श के बरक्स वे यह भूल जाते हैं  कि बिहार की जन-मानसिकता और  राजनैतिक अवगुंठन केवल  बिहार का ही  चरित्र नहीं है।  बल्कि यह तो सम्पूर्ण  भारतीय राजनीती का खिलंडपन है।  जो बिहार का  डीएनए है वही दिल्ली का डीएनए है। वही पूरे उत्तर भारत का भी डीएनए है।  यह केवल मेरी कोरी वैयक्तिक अवधारणा नहीं है। बल्कि भारत रुपी कुएँ में  जो 'बिहारीपन' की ही भाँग  पड़ी हुई है उस को कोई भी सामान्य बुद्धि का नर-नारी समझबूझ सकता है।

अन्यथा  आसन्न विधान सभा  चुनावों में विहार का राजनैतिक परिदृश्य ही  इसे सावित  भी कर देगा। एक तरह से यह  चुनाव  न केवल बिहार  की बल्कि पूरे भारत  की दशा और दिशा दोनों तय करेगा। क्योंकि बिहार सिर्फ बिहार तक ही सीमित नहीं है। बल्कि पूरा समूचा भारत और खास तौर  से भारत का हिन्दी भाषी क्षेत्र  तो मानों  बिहार का ही विस्तार है।मध्यप्रदेश ,यूपी,छग,राजस्थान,हरियाणा और झारखंड -सभी जगह कम-ज्यादा वही  दुर्दशा है। जो बिहार की  बताई जाती है। यदि कहीं न्यूनाधिक आर्थिक पिछड़ापन है ,तो कहीं मानसिक पिछड़ापन  भी है। यदि बिहार में आर्थिक -सामाजिक पिछड़ापन ज्यादा  है तो हरियाणा- यूपीवेस्ट  में मानसिक  पिछड़ापन ज्यादा है। उद्धरणार्थ  बिहार में  स्त्री-पुरुष अनुपात यदि हरियाणा से बेहतर ही है। किन्तु पंजाब,हरियाणा और यूपी वेस्ट में कन्या भ्रूण हत्या या 'हॉनर  किलिंग 'कुछ ज्यादा ही है। मध्यप्रदेश राजथान और यूपी  के सीमावर्ती  जिलों  में भी यही  दुखद स्थिति है। यहाँ न केवल मानसिक बल्कि आर्थिक -दोनों ही तरह का पिछड़ापन खदबदा रहा है। यहाँ  तो  सत्तारूढ़ नेताओं को समझ ही नहीं पड़  रहा है कि आर्थिक पिछड़ापन ज्यादा है या कि  सामाजिक पिछड़ापन ज्यादा है। मीडिया और साहित्यिक विमर्श केवल बिहार की चुनावी जीत-हार तक  ही सीमित  है। दरअसल यह इकतरफा प्रस्तुति ही बिहार के स्वाभिमान की भक्षक है।

वेशक  यह  मेरी व्यक्तिगत सैद्धांतिक स्थापना हो सकती है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि बिहार का 'डी एन ए 'और  सम्पूर्ण  हिंदी भाषी भारत का डी एन ए एक ही है। इसीलिये  बिहारियों को मोदी जी की किसी ऐंसी  बात का बुरा नहीं मानना चाहिए जो किसी के वैयक्तिक कटाक्ष हेतु कही गयी हो। नीतीश लालू के बरगलाने पर उन्हें अपना डीएनए भी  दिल्ली  नहीं भेजना चाहिए ।वैसे नीतीश ,लालू और कांग्रेस चाहे जितना नौटंकी कर लें किन्तु  बिहार में अब 'मंडल' रुपी   काठ की हांडी दुबारा नहीं चढ़ने वाली। कमंडल रुपी  साम्प्रदायिकता  केअच्छे दिन  आने वाले हैं। मोदी के  अश्वमेध का घोड़ा बिहार में रोकने की  क्षमता न तो  नीतीश में है और न लालू या  कांग्रेस  में है। उनके  'महागठबंधन' में  भी कोई दम नहीं है। चूँकि  इन सबके अपने-अपने  कलंकित इतिहास और विखंडित  भूगोल हैं। वे अपने-अपने दौर  में बिहार के हीरो नहीं बल्कि कूट  -खलनायक  ही रहे हैं।  किसी ने सच ही कहा  है कि एक अंगुली ओरों की ओर  उठाओगे तो चार तुम्हारी जानिब उठ जायंगी। बिहार में भाजपा और नरेंद्र मोदी के खिलाफ  कहने के लिए किसी के पास कुछ नहीं है।

 वेशक  कुछ  एनडीए नेता झूंठ और पाखंड की शै पर देश भर में हो हल्ला मचाये रहते हैं। किन्तु एनडीए के  अधिकांस बिहारी  चेहरे -रविशंकर प्रसाद  , सुशील  मोदी ,राजीवप्रताप रूढ़ि ,शाहनवाज  हुसेन,रामविलास पासवान और जीतनराम माझी का  व्यक्तित्व लालू  यादव से  बेहतर  नही  तो बदतर भी नहीं है। यदि ये  एनडीए नेता  नीतीश से बेहतर नहीं हैं तो भी वे   नीतीश से कमतर भी नहीं हैं। लेकिन जनता का अभिमत विखंडित होने से विहार में 'सत्यमेव जयते' की बात  वामपंथ के अलावा और कोई नहीं करता। चूँकि जागतिक  परिवर्तनशीलता  का सिद्धांत सिर्फ सकारात्मक रूप में ही लागू नहीं होता बल्कि नकारात्मक रूप में भी उसकी उतनी ही बखत है।और  वक्त आने पर बिहार की जनता अपना सर्वश्रेष्ठ निर्णय जरुर देगी। किन्तु अभी तो हाल-बेहाल हैं।  क्योंकि बिहार की जनता अभी तो  जातिवाद बनाम पूँजीवादी खोखले विकासवाद के बीच ही 'कन्फुजिया'   रही है।

 मेरी आकांक्षा  है कि बिहार  विधान सभा  के  आगामी चुनावों में बिहार की जनता वामपंथ का समर्थन करे। और वामपंथ की ही विजय हो। वहाँ मजदूरों,गरीबों और किसानों का राज कायम हो ! किन्तु मेरे चाहने मात्र से इस दौर की हकीकत को झुठलाया नहीं जा सकता। सिर्फ मेरी आकांक्षा से बिहार का  इतिहास  तो  निश्चय ही बदलने वाला नहीं है। होना तो यह चाहिए कि अपने वोट की ताकत से  बिहार की जनता राज्य  में व्याप्त घोर  अराजकता ,जातीयतावाद और साम्प्रदायिकता  को परास्त करे  !वहाँ व्याप्त भृष्टाचार,बाहुबल और पूँजीवाद को परास्त करे।  विहार में  नीतीश,लालू और  कांग्रेस का अवसर  वादी महागठबंधन परास्त हो ! वहाँ  भाजपा  पासवान,माझी और कुशवाहा का मौका परस्त गठबंधन- एनडीए भी परास्त हो ! किन्तु  मेरे चाहने मात्र से क्या होगा ? मुलायमसिंह यादव ने  तीसरा मोर्चा खोल दिया है। चौथा  मोर्चा अपना  लाल झंडा लेकर  बिहार  की मेहनतकश आवाम को एकजुट करता हुआ नजर आ रहा है।  बिहार में भाजपा को छोड़कर बाकी अन्य सभी   मोर्चों के वोटर एक ही 'खाप' के हैं। इसलिए यह स्पष्ट है कि  बिहार में अबकी बार !  केवल मोदी सरकार ही बनेगी।

कहा  जा सकता है कि बिहार में तो वही होगा  जो मंजूरे   'बिहारी' होगा । वैसे बिहारी याने बांके बिहारी भी होता है ,और उसी को  मतलब   प्रकारांतर से खुदा भी होता है। अर्थात बिहार में तो वही होगा जो 'मंजूरे खुदा  होगा  '। आमीन !यह भी   कहा जाता  है कि 'खुदा  मेहरवान तो  गधा पहलवान ' खुदा का तथाकथित  'सबसे नेक बन्दा' असदउद्दीन ओवेसी भी  आजकल बिहार के सीमांचल में अपनी कूट  राजनैतिक जाजम  बिछाने में जुटा हुआ है।  इसलिए बहुत संभव है कि अब  बिहार के चुनाव भी कश्मीर  की  साम्प्रदायिक तर्ज पर ही  धुर्वीकृत   होते चले जाएँ । इस  इकतरफा  'साम्प्रदायिक' धुर्वीकरणके आधार पर और बहुत  समभावना है की बिहार के चुनाव  वहाँ के  परम्परागत  जातीय  रन कौशल से अवश्य प्रभावित होंगे ।  किन्तु जो लोग साम्प्रदायिक और जातीय  अलगाव की नयी चिंगारी को हवा देकर जीत हासिल करना चाहते हैं , वे भारतीय अस्मिता से खिलवाड़ कर रहे  हैं। मुस्लिम अल्पसंख्यक वर्ग के  टैक्टिकल वोट जब  थोक में ओवेसी की  एमआईएम अर्थात -आल इण्डिया मजलिस-ए -इत्तेहादुल मुसलमीन  के  खाते में जमा होंगे तो भले ही उनके उम्मीदवार ४-६ ही जीतें किन्तु तब  मंडल वालों का जातीय मिजाज गड़बड़ा  जाएगा।

 भले ही एमआईएम को आधा दर्जन सीट भी न मिलें किन्तु  तब  भी वे पूरे बिहार की राजनीति के बहुसंख्यक  वर्ग को हिन्दुत्ववादियों के हवाले  तो कर  ही चुके होंगे। तब   बहुसंख्यक वर्ग का  यह ध्रवीकरण  भाजपा और एनडीए को स्पष्ट बहुमत से जिताने का एक  प्रमुख   कारण क्यों नहीं बनेगा ?  यदि कोई कोर कसर रह भी जाएगी  तो मोदी जी के  'मन की बातों' और   उनकी सवा लाख करोड़ की  बिहार -विकास योजनाएं अपना असर अवश्य  दिखाएंगी।  उनके  लोकलुभावन नारे भी तो  गुंजायमान हो रहे हैं। मोदी जी की हर आम सभा   बता रही है कि एनडीए की जीत  पक्की है। इसके अलावा यह भी सम्भावना है कि बिहार में लालू-नीतीश के समर्थक एक दूसरे से 'भीतरघात' अवश्य करेंगे । वैसे भी  कांग्रेस ,नीतीश ,लालू के केम्प में मुलायम सिंह  यादव ने असंतोष का  स्यापा पढ़ना शुरू कर दिया है।ये सभी सिम्टम्स बता रहे हैं कि बिहार में  'महागठबंधन'की तबियत  ठीक नहीं है।

                                      चूँकि भाजपाई नेता हर चीज को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करते हैं। कुछ तो सफ़ेद झूंठ भी बोलते हैं।  चूँकि उनकी आर्थिक नीतियाँ  पूंजीवाद परस्त हैं। अतः यह बहुत संभव था कि  दिल्ली राज्य में जिस तरह 'आप' के केजरीवाल को सफलता मिली, वैसीसफलता  बिहार में  नीतीश -लालू को  मिलती और वे  सुर्खरू हो जाते। किन्तु  जीतनराम,और पासवान जैसे जातीवादी नेताओं ने ,लालू के महाबदनाम व्यक्तित्व को  और कांग्रेस की अत्यंत  खस्ताहालत को -उनके महागठबंधन की महा पराजय के लिए  सुनिश्चित  कर दिया है। अब यह तय हो चुका है  कि  बिहार में भाजपा का नेता ही मुख्यमंत्री बनेगा। भले ही भाजपा  के नेता अपने घोषित एजेंडे को ' जुमलों' में बदलने  से बदनाम  हो गये हों । भले ही वे 'सबका साथ सबका विकास ' केवल  राम लला ' के भरोसे छोड़ते रहें। किन्तु यह तय है कि  बिहार की विखडित मानसिकता पर नरेंद्र  मोदी  का जादू तो  चल चुका   है। और उनकी पकड़ मजबूत होती जा रही है। नीतीश ,लालू , कांग्रेस  और सभी गैर भाजपाई मोर्चे बिहार में केवल   हारी हुई पारी खेलने की ओपचारिकता निभा रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस ने ४० साल  ,लालू  के राजद ने १५ साल और नीतीश  के जदयू ने १० साल बिहार पर शासन  कर लिया है। अब केवल वामपंथ और भाजपा ही शेष बचे हैं। जिन्हे अभी तक मौका नहीं मिला है । चूँकि इस्लामिक  आतंकियों ने भारत के हिन्दुओं को गहरी चोट पहुंचाई है ,इसलिए अभी तो वे 'संघम शरणम गच्छामि' हो रहे हैं।

भारत में  ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में इन दिनों आम आदमी ,गरीब जनता के बुरे दिन चल रहे हैं।  शीत युध्द की समाप्ति के बाद दुनिया सिर्फ एक ध्रुवीय हो गयी है । पहले अमेरिका और सोविएत संघ  दो ध्रुव थे। दोनों महा शक्तियों के नेतत्व में दुनिया दो खमों में बटी हुयी थी । सोवियत  संघ  को परास्त करने के लिए अमरीका ने  जिन इस्लामिक आतंकियों को अफ़ग़निस्ताना , ईराक,पाकिस्तान,सऊदी अरब और  मध्यपूर्व में पाला  था  वे सभी  अब अमेरिका के लिए 'भस्मासुर' बन गए हैं। सोवियत पराभव के बाद पूँजीबाद  बनाम समाजवाद के स्थान पर इस्लामिक जेहाद बनाम अमेरिका हो गया।  सभ्यताओं के इस संघर्ष  का असर भारत पर भी पड़ा है।  भारत के हिन्दू-मुस्लिम -मजदूर -किसान एकजुट होकर क्रांति के सपने देखते रह गए और उन्हें पता ही नहीं चला कि  इस्लामिक जेहाद के बहाने बहुसंख्यक हिंदुत्वाद को भी राजनीति  में सफलता मिल गयी। अब  भारत में गऱीबों की लड़ाई या पूंजीवाद बनाम समाजवाद की लड़ाई  थम गयी है। अब ओवेसी,बनाम मोदी ,इस्लामिक अल्पसंख्यकवाद बनाम हिन्दू बहुसंख्यकवाद का राजनैतिक प्रहसन जारी है।  इन हालत में जबकि बहुसंख्यक हिन्दुतवाद के साथ उग्र पूँजीवाद  का भी गठजोड़ है तो स्पष्ट है कि  बिहार में ही नहीं  बल्कि अन्य राज्यों में भी आइन्दा एनडीए को ही सफलता मिलने वाली है।

  जिन आतंकियों ने दुनिया भर में जेहाद छेड़  रखा है ,जो  पेट्रोल के लिए अरब देशों पर अपनी दादागिरी दिखा रहे हैं ,वे इस्लाम के किसी जेहाद का काम नहीं कर रहे बल्कि वे जाने -अनजाने सम्राज्य्वाद  और पूँजीवाद का ही भला कर रहे  हैं।  दुनिया भर में सूचना संचर क्रांति के विस्तार और पाकिस्तान की बदनीयत ने भारत के हिन्दुओं को कटटरवाद की ओर  धकेल दिया है। इसलिए कुछ मुठ्ठी  भर संगठित क्षेत्र के लोग ही अब संघर्ष के मैदान में   शेष बचे हैं। इसलिए  न  केवल बिहार में  ,न  केवल  भारत में बल्कि पूरी दुनिया में ही अभी वामपंथ के दिन अच्छे नहीं हैं । पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकारों की असफलताओं ,वामपंथ की वैकल्पिक नीतियों का जनता तक नहीं पहुँच पाना तथा  इस्लामिक आतंकवाद की  अंतर्राष्टीय घटनाओं ने भी  भारत  के अधिकांस हिन्दुओं को  जबरन 'संघम शरणम गच्छामि' बना दिया है। अधिकांस एनआरआई को तो मोदीजी  का मुरीद बना दिया है। इसलिए  बिहार में अबकी बार -मोदी सरकार  ही बनेगी । बहुत संभव है कि सुशील मोदी  ही बिहार के  मुख्य मंत्री बन जाएँ। वैसे कुछ लोग शाहनवाज हुसेन  को भी पसंद करते हैं।  इसके अलावा पासवान ,माझी और अन्य भी कतार में हैं। ये सभी  नीतीश , लालू से कुछ कमतर नहीं  हैं।  चूँकि कोई भी दूध का धुला नहीं है ,इसलिए मुख्यमंत्री कोई भी बने  लेकिन यह तय है कि बनेगा वही जो 'मंजूरे -मोदी' होगा।

हालाँकि  मैं तो  भाजपा और संघ का विरोधी हूँ। और चाहता हूँ कि  वामपंथ  ही देश में और बिहार में शासन करे। किन्तु अभी बिहार और सम्पूर्ण भारत को वामपंथ या सर्वहारा वर्ग के  लिए बहुत संघर्ष करना होगा। अभी देश का  कार्पोरेट सेक्टर ,बुर्जुवा वर्ग ,भारतीय एनआरआई एकजुट होकर 'नमो-नमो' में मस्त है। अभी तो मोदी जी के अच्छे दिन चल रहे हैं।  अभी तो भारत का मध्यमवर्ग ,पूंजीपतिवर्ग और असंगठित सर्वहारा वर्ग भी  'आर एस एस' के गीत गए  रहे हैं। सभी मोदी जी के तरफदार  हो रहे हैं।  अभी जमाना मेहनतकशों का नहीं है। अभी तो बारी उनकी है जिनको राजनीति के प्रारब्ध ने -धर्म और बाजार के लिए  पाला पोषा है।

                              श्रीराम  तिवारी

 

रविवार, 13 सितंबर 2015

कुछ लोग अपनी आजीविका के लिए ही हिंदी की चिंदी करते रहते हैं ।


 विगत १० से १२ सितमबर को भोपाल में सम्पन्न  'विश्व हिंदी सम्मेलन ' में हिंदी भाषा विमर्श पर भाषायी   प्राथमिकताओं के बरक्स तो  कोई चर्चा नहीं हुई।किन्तु  सत्तापक्ष के नेताओं और 'असोसिएट्स' के वीर रस से ओत -प्रोत हिंदी उदगार जरूर मुखरित हुए।  कुछ ने हिंदी  भाषा को तकनीकी ज्ञान से जोड़ने और कुछ ने हिंदी  माध्यम को 'राष्ट्रीय स्वाभिमान ,एकता अखंडता के लिए संजीवनी  मान लेने का पुराना  अरण्य रोदन  फिर दुहराया। जब जड़मति -हिंदी  विद्वानों ने सम्मेलन  का जिम्मा नेताओं को सौंप  दिया  तो साहित्य और भाषा दोनों की भी वही दुर्गति सुनिश्चित है, जो इन नेताओं ने भारतीय राजनीति की कर डाली है।

                     हिंदी में पढ़ने -लिखने वाले , हिंदी को राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक  मानने वाले,हिंदी के वक्ता-श्रोता  - ज्ञाननिधि और  हिंदी के शुभ -चिंतक,  सरकारी और गैर सरकारी तौर पर हर साल हिंदी पखवाड़ा या हिंदी दिवस मनाते वक्त बार-बार यही रोना  रोते रहते हैं।  सभी हिंदी के शुभचिंतक कहा करते हैं कि हिंदी को देश और दुनिया में उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आम  तौर पर  उनको  यह  शिकायत  भी हुआ करती है कि हिंदी में सृजित ,प्रकशित या छपा हुआ साहित्य खरीदकर पढ़ने वालों  की तादाद  में तेजी से कम हो  रही है। वे आसमान की ओर देखकर  पता नहीं किस से सवाल किया  करते  हैं कि- हिंदी -जो कि सारे विश्व में दूसरे नम्बर पर  बोली जाने वाली  विराट और वैश्विक भाषा है - इसके वावजूद हम उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में  अभी तक शामिल  नहीं करा पाये!
                                   विगत शताब्दी के अंतिम दशक में  सोवियत  क्रांति पराभव उपरान्त दुनिया के एक ध्रवीय[अमेरिकन ] हो जाने  से  भारत सहित सभी पूर्ववर्ती  गुलाम राष्ट्रों  को  मजबूरी में न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं ,न केवल नव्य -उदारवादी वैश्वीकरण की -खुलेपन की  नीतियां अपनानी पड़ीं बल्कि देश में प्रगतिशील आंदोलन और तदनुसार सामाजिक -सांस्कृतिक और साहित्यिक चिन्तन पर भी नव्य -उदारवाद की जबरदस्त छाप  पडी। नए जमाने के उन्नत आधुनिक तकनीकी संसाधनों  को आयात करते समय  भाषाएँ विमर्श के केंद्र में नहीं थीं। किन्तु भूमंडलीकरण ,आधुनिकीकरण ,बाजारीकरण  के लिए जिन-जिन  चीजों   की महत्वपूर्ण  भूमिका थी ,उनमें भाषा का रोल अहम था। भारतीय बहुभाषावाद ने अंग्रेजी को इस डिजिटलाइजेशन का ,सूचना -संचार माध्यमों का अग्रगामी बना दिया।  इस विमर्श में हिंदी  भाषा और उसके साहित्य  का बहुत कम  प्रभाव  परिलक्षित हुआ ।

जीवन संसाधनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों ने, न केवल भारत ,न केवल हिंदी जगत बल्कि विश्व की अधिकांस नामचीन्ह भाषाओँ-उनके साहित्य -उनके पाठकों को घेर-घार कर कंप्यूटर रुपी  उन्नत तकनीकी  रुपी  जादुई डिब्बे   के सम्मुख  सम्मोहित  सा  कर दिया है । प्रिंट ही नहीं श्रव्य साधन भी अब कालातीत होने लगे हैं। अब तो केवल स्पर्श और आँखों के इशारों से  भी सब कुछ वैश्विक स्तर पर - मनो-मष्तिष्क तक पहुंचाने वाले  - सूचना संचार  सिस्टमईजाद हो चुके हैं। इतने सुगम और तात्कालिक संसाधनों  के  होते हुए अब  किस को फुरसत है कि कोई बृहद ग्रन्थ या  पुस्तक पढ़ने का दुस्साहस करे ? फिर चाहे वो गीता ,रामायण  कुरआन या बाइबिल  ही क्यों न हों ? चाहे वो हिंदी,इंग्लिश  की हो या संस्कृत की ही क्यों न हो ?चाहे वो सरलतम सर्वसुगम हिंदी में हो या किसी अन्य भाषा में आज किसको फुर्सत  है  कि  अधुनातन संचार साधन छोड़कर किताब  पढ़ने बैठे ? फिर भी सूचना सम्पर्क के लिए भाषायी  विमर्श  हमेशा प्रासंगिक रहा।

रोजमर्रा  की भागम-भाग और तेज रफ़्तार वाली  वर्तमान   तनावग्रस्त  दूषित जीवन शैली  में बहुत कम सौभागयशाली हैं- जो बंकिमचंद की 'आनंदमठ ' शरतचंद की 'साहब बीबी और गुलाम ' , रांगेय राघव की 'राई  और पर्वत', श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' , मेक्सिम  गोर्की  की  'माँ  ', प्रेमचंद की 'गोदान', निकोलाई आश्त्रोवस्की   की 'अग्नि दीक्षा' , रवींद्र नाथ टेगोर की 'गोरा' , महात्मा गांधी की 'मेरे सत्य के प्रति प्रयोग ', पंडित जवाहरलाल नेहरू की 'भारत एक खोज'  तथा  डॉ बाबा साहिब आंबेडकर की 'बुद्ध और उनका धम्म' पढ़ने सके  !  जबकि ये सभी कालातीत पुस्तकें आज भी भारत की  हर लाइब्रेरी में  उपलब्ध हैं।  इन सभी महापुरुषों की कालजयी रचनाएँ -खास  तौर से   हिंदी में  भी   बहुतायत  से  उपलब्ध हैं। अधिकांस आधुनिक युवाओं को तो इन पुस्तकों के नाम भी याद नहीं , कदाचित  वे   विजयदान  देथा  , सलमान रश्दी ,खुशवंतसिंघ ,राजेन्द्र यादव या अरुंधति रे को भले ही  जानते होंगे। किन्तु उन्होंने चेतन भगत या प्रवीण तिवारी को शायद ही  पढ़ा सूना होगा।  यदि जानते भी होंगे तो इसलिए नहीं कि इन लेखकों  का साहित्य   बहुत उच्चकोटि का है ,बल्कि इसलिए जानते  होंगे  कि ये लेखक कभी -न कभी गूगल सर्च,फेसबुक या ट्विटर पर भी अपनी पकड़ बनाये हुए हैं।
  यह सर्वमान्य सत्य है कि  गूगल या अन्य माध्यम से आप अधकचरी  सूचनाएँ तो  पा  सकते हैं, किन्तु ज्ञान तो अच्छी पुस्तकों से ही पाया जा  सकता है।आज के आधुनिक युवाओं  को पाठ्यक्रम से बाहर की  पुस्तकें पढ़ पाना  इस दौर में किसी तेरहवें  अजूबे से कम नहीं है।  उन्हें लगता है कि साहित्य  ,विचारधाराएं ,दर्शन  या  कविता -कहानी का  दौर अब नहीं रहा। उनके लिए तो समूचा प्रिंट माध्यम  ही अब  गुजरे  जमाने की चीज हो गया है। यह कटु  सत्य है कि चंद रिटायर्ड -टायर्ड और पेंसनशुदा - फुरसतियों के दम पर  ही अब सारा छपित साहित्य  टिका हुआ है।  ऐंसा प्रतीत होता है कि अब  हिंदी  का पाठक भी इन्ही में कहीं समाया हुआ है। भाषा  - साहित्य के इस युगीन धत्ताविधान  में यह पीढ़ीयों  के बीच मूल्यों का भी  क्षेपक है।  जो कमोवेश राजनैतिक इच्छाशक्ति से भी  इरादतन स्थापित है। इस संदर्भ में यह  वैश्विक  स्थिति है। भारत में और खास तौर  से हिंदी जगत में यह बेहद चिंतनीय अवश्था में है।

दुनिया में शायद ही कोई मुल्क होगा जो अपनी राष्ट्र भाषा को उचित सम्मान दिलाने या उसे राष्ट्र भाषा के रूप में व्यवहृत करने के लिए इतना मजबूर या  अभिशप्त होगा  ,जितना कि  हिंदी  के लिए भारत  असहाय है ! भारत के अलावा  शायद ही   कोई  और राष्ट्र होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा के उत्थान के लिए इतना पैसा पानी की तरह  बहाता  होगा।  भारत में लाखों राजभाषा अधिकारी हैं ,जो राज्य सरकारों के ,केंद्र सरकार  के  विभागों  में  सार्वजनिक उपक्रमों में  अंगद के पाँव की तरह जमे हुए हैं। इनसे राजभाषा को या देश को एक धेले  का सहयोग नहीं है। ये केवल दफ्तर में  बैठे -बैठे  भारी -भरकम वेतन-भत्ते पाते हैं ,कभी-कभार एक -आध अंग्रेजी सर्कुलर   का घटिया हिंदी अनुवाद करके खुद ही धन्य हो जाते  हैं। साल भर में एक बार सितंबर  माह में 'हिंदी पखवाड़ा 'या 'हिंदी सप्ताह' मनाते हैं। अपने बॉस को पुष्प गुच्छ भेंट करते हैं ,कुछ ऊपरी  खर्चा -पानी भी हासिल कर लेते हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंसन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है ही।  स्कूल ,कालेज ,विश्विद्द्यालयों के हिंदी शिक्षक  - प्रोफेसर और  कुछ  नामजद एनजीओ भी राष्ट्र भाषा -प्रचार -प्रसार के बहाने  कुछ लोग  अपनी आजीविका  के  लिए ही हिंदी की चिंदी करते रहते  हैं ।  हिंदी को देश में उचित सम्मान दिलाने या उसे संयुक राष्ट्र में सूची बद्ध कराने के किसी आंदोलन में उनकी कोई सार्थक भूमिका  नहीं होती । अपनी खुद की पुस्तकों के प्रकाशन में -  सरकारी पैसा याने जनता के पसीने की कमाई उड़ाने में  ही इनकी ज्यादा रूचि हुआ करती है ।

         वेशक   सोशल मीडिया -डिजिटल -साइबर -संचार क्रांति -फेस बुक और गूगल सर्च इंजन ने यह  दुनिया   बहुत छोटी  बना दी है। किन्तु इस  सूचना -संचार क्रांति ने  प्रिंट संसाधनों को -साहित्यिक विमर्श को  हासिये पर धकेल दिया है। छपी हुई  पुस्तक पढ़ना  तो अब भी गुजरे जमाने का ' सामंती' शगल  हो चुका  है। अब यदि  एसएमएस है तो टेलीग्राम  भेजने की जिद  तो केवल पुरातन यादगारों का व्यामोह मात्र  ही  है   ! एसएमएस भी अब पुराना चलन हो चूका है ,वॉट्सऐप ,ट्विटर और एफबी पर तत्काल सूचना भेजो और फिर एक नयी  जी - ६ तकनीकी का स्वागत  करो।  इस उत्तरआधुनिक  दुनिया  में जो भी है ,जिसका भी है,जहाँ भी है ,सब कुछ अब सभी को सहज ही उपलब्ध है।  शर्त केवल यह  है कि एक अदद  सर्विस प्रोवाइडर ,एक  सेलफोन कनेक्शन  , एक लेपटाप या एंड्रायड या ३-जी मोबाइल अवश्य  होना चाहिए। दूसरी ओर  किताब छपने ,उसके लिखने के   लिए   महीनों  की मशक्कत ,सर खपाने की फितरत और प्रकाशन की मशक्क़त  जरुरी है ! यदि कोई  नया   साहित्य्कार -लेखक  प्रकाशक नहीं मिलने की सूरत में  अपनी जेब ढीली करने के बाद पुस्तक को आकार  दे भी दे तो भी वह जनता से कैसे जुड़ पायेगा ? यदि  उसे  खरीददार नहीं मिल रहे हैं तो  मुफ्त में या गिफ्ट में देने की मशक्क़त और इस  दयनीय दुर्दशा के लिए क्या  लेखक  जिम्मेदार  है ?  यह पाठकों या क्रेताओं  का अक्षम्य अपराध भी नहीं   है।

यह  तो  हिंदी भाषा का  संकट है। न कि  साहित्यिक संकट है !  ये तो  आधुनिक युग की  नए ज़माने की  ऐतिहासिक आवश्यकता और कारुणिक सच्चाई है।  चूँकि समस्त वैज्ञानिक आविष्कारों और  सूचना एवं संचार क्रांति का उद्भव गैर हिंदी भाषी  देशों में हुआ है तथा   हिंदी  में अभी इन उपदानों के संसधानों  का सही  - निर्णायक मॉडल उपलब्ध नहीं है, इसलिएअभी तो फिर भी  किताबें  प्रासंगिक  बनी  हुई हैं। लेकिन हिंदी का प्रचार  - प्रसार ,हिंदी साहित्य  में विचारधारात्मक लेखन ,हिंदी सम्मेलनों की धूम-धाम  ,पत्र  - पत्रिकाओं के प्रकाशनों का दौर जारी  है। हिंदी इस देश के आम आदमी की भाषा है। हिंदी 'स्लैम डॉग  मिलयेनर्स ' जैसी फिल्मों के मार्फ़त पैसा कमाने की भाषा है। हिंदी गरीबों -मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनों की भाषा है।  हिंदी  हिन्दुस्तान के सर्वहारा वर्ग की भाषा  है। लेकिन  हिंदी में अब इन वंचित वर्गों और सर्वहाराओं  की उनकी मांग के अनुकूल नहीं   लिखा जा रहा है।  बल्कि बाजार की ताकतों के अनुकूल,मलाईदार क्रीमी लेयर के अनुकूल महज तकनीकी,उबाऊ  और कामकाजी साहित्य का  ज्यादा सृजन- प्रकाशन  हो रहा है । इसीलिये हिंदी जगत में वांछित पाठकों की संख्या न  केवल तेजी से गिरी है अपितु  शौकिया किस्म के फ़ालतू लोगों  तक  ही सीमित रह गई है।
        आजादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ततसम  शब्दावली के चलन पर जोर देने ,अन्य भारतीय  भाषाओँ के  आवश्यक और वांछित शब्दों से परहेज करने , अनुवाद  की काम चलाऊ  मशीनी आदत से चिपके रहने , रेल को तीव्रगति लौह पथगामिनी और सिगरेट को धूम्रवलय श्वेत दण्डिका जैसे अनुवाद ने अधुनातन सूचना एवं संचार क्रांति के साधनों के प्रयोग पर हिंदी  भाषी जनता  के साथ अन्याय किया है। दूसरी ओर अंग्रेजी भाषा के     वैज्ञानिक संशाधन सर्व सुलभ होने से वह वैश्विक महारानी बनी  हुई है। हिंदी भाषा के फॉन्ट ,अप्लिकेशन  तथा वर्णों  का तकनीकी  अनुप्रयोग   सहज ही उपलब्ध न होने या कठिन होने  से  न केवल छप्य पाठकों की संख्या  घटी है  बल्कि हिंदी में लिखने वालों का सम्मान और  स्तर  भी घटा है । न केवल तकनीकी कठनाइयों  हिंदी में मुँह  बाए खड़ी हैं  बल्कि  आधुनिक युवाओं को आजीविका के संसाधन और अवसर  भी  हिंदी में उतने  सहज   नहीं रहे।  जितने आंग्ल भाषा में उपलब्ध हैं। इसीलिये  भारत  में ही नहीं विश्व में भी हिंदी के पाठक कम होते जा रहे हैं। हालाँकि  हिंदी बोलने वाले और समझने वाले बढ़ रहे हैं।  देश में हिंदी को सरल बोधगम्य आजीविका-  परक  और जन-भाषा  के रूप में प्रतिष्ठित किये जाने की  राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव  में और हिंदी की  वैश्विक  मार्केटिंग नहीं हो पाने से राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर , मेगा -साय-साय या बुकर पुरस्कार भी उन्हें  ही  मिला करते हैं  जो हिंदी को हेय  दृष्टि  से देखते  रहे हैं। अंततोगत्वा फिर भी हिंदी ही देश  की राजरानी  और पहचान भाषा  बनी रहेगी । चाहे वालीवुड हो ,चाहे  खुदरा व्यापार हो ,चाहे बाबाओं-स्वामियों का भक्ति वाद हो  ,चाहे कुम्भ मेला हो , चाहे कोई साधना  का  केंद्र हो  ,चाहे रामदेव हों ,नरेंद्र मोदी हों ,राहुल गांधी -मुलायम  हों ,केजरीवाल -अण्णा  हजारे हों ,लालू,नीतीश या वामपंथी हों ,चाहे मुख्य धारा का मीडिया हो  ,इनमें से वही सफल  हुआ है ,जो हिंदी ठीक से बोल सकता है। अधिकांस  पूँजीपतियों ने  भी हिंदी के  माध्यम से ही बाजार में   सफलताएं  अर्जित कीं हैं। इन सभी के प्राण पखेरू हिंदी में  ही  वसते  हैं।  इसलिए यह कोई  खास  विषय नहीं की हिंदी साहित्य  के  पाठकों की संख्या घट  रही है या बढ़ रही है।
                                  वास्तव में हिंदी जगत में कहानी,कविता ,भक्ति काव्य  ,रीतिकाव्य  ,सौन्दर्यकाव्य   , रस सिंगार ,अश्लीलता  के नए -नए अवतार फ़िल्मी साहित्य और कला  का  तो  बोलबाला   है।  कहीं -कहीं जनवादी - राष्ट्रवादी -प्रगतिशील और जनोन्मुखी साहित्यिक सृजन  की  अनुगूंज भी सुनाई   देती है। किन्तु  समष्टिगत रूप में तात्कालिक दौर  की   समस्याओं  और जीवन मूल्यों  के  वौद्धिक विमर्श पर हिंदी समाज  में  सुई पटक  सन्नाटा ही है।  इस साहित्यिक  सूखे में  जिज्ञासु या ज्ञान-पिपासु  पाठकों  की कमी होना स्वाभाविक है। मांग और पूर्ती का सिद्धांत केवल अर्थशाश्त्र का विषय नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी  यह सिद्धांत सर्वकालिक  , सार्वभौमिक और समीचीन है।
                       लेखकों और जनता के बीच संवादहीनता का दौर है ,अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर देश और समाज की वास्तविक आकांक्षाओं के  अनुरूप  क्रांतिकारी  साहित्य अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त रेडिकल - सृजन  शायद आवाम की या सुधी पाठकों की माँग  भले ही न   हो। किन्तु देश और कौम के  लिए यह साहित्यिक कड़वी दवा नितांत आवश्यक है।   हिंदी के पाठकों की संख्या  बढे ,हिंदी में प्रतियोगी परीक्षाएं हों, हिंदी में कानूनी कामकाज हो ,हिंदी में साइंस और टेक्नॉलॉजी  सुगम-सरल साहित्य हो ,इस बाबत थोड़ी सी   जिम्मेदारी  यदि  साहित्य्कारों की है तो कुछ थोड़ी सी हिंदी के जानकारों याने -सुधी पाठकों की भी है।
                                            
       
            राष्ट्रभाषा -हिंदी  दिवस पर अनन्य शुभकामनाओं के साथ ,

  
               क्रांतिकारी   अभिवादन सहित ,

                    श्रीराम तिवारी  

खंडहरों में अभी भी चहचहा रहे हैं वो ! [ कविता ]-श्रीराम तिवारी





   शोक सभाओं में खुशी के गीत गाये जा रहे हैं वो।

  ताज्जुब है फिर भी  महफ़िल में  छाये जा रहे हैं वो।।

  तकाजे  क्या हैं दुनिया के ,मुरादें क्या हैं लोगों की  ?

  सबसे  बेखबर  अपनी ही धुन  बजाये जा रहे हैं वो।।

 
  न जाने किस सफर पर चल पड़ा है कारवां उनका  ,

  जिधर भी जाते  हैं  महज शख्सियत दिखला रहे हैं वो।

  बड़े मासूम हैं  उनके मुरीद हैं  बेखबर हैं दुनिया से ,

  जिन्हें  भरम  है कि हमारी  गुथ्थियाँ सुलझा  रहे हैं वो।।


 जरा सी ही  तमन्ना है कि तवारीख  में जिक्र हो मेरा  ,

 हर महफ़िल में निंदा रस  दरिया बहाये  जा रहे हैं वो।

 हवाओं  का रुख  देख पंछी भी बदल लेते हैं ठिकाना ,

 मानव इतिहास के  खंडहरों में ही  चहचहा रहे हैं वो।।


   श्रीराम तिवारी  
 

गुरुवार, 10 सितंबर 2015

क्या बाकई हिंदी सिर्फ झगड़ा करने के काम की ही है ?

आदरनीय नरेंद्र भाई मोदी जी नमस्कार !

 आप ने चाय बेचते-बेचते हिंदी सीखी ! प्रधान मंत्री बनकर  हिन्दी की ताकत का लोहा माना ! आप देश-विदेश में हिंदी में ही भाषण देकर उसका मान बढ़ाते रहते हैं ,इसके लिए  धन्यवाद !  कल आप ने 'दसवें  विश्व  हिन्दी सम्मेलन ' के उद्घाटन सत्र  में 'हिंदी जगत' से सवाल किया है  कि  ' मुझे  यदि हिंदी नहीं आती तो मेरा क्या होता ?  इसका उत्तर आपको अब तक शायद ही किसी ने दिया हो ! क्योंकि किसी अन्तर्राष्टीय सम्मेलन के प्रमुख अतिथि द्वारा उसी मंच से उनके सवाल के जबाब का प्रावधान नहीं रखा जाता। लेकिन देश का  आम आदमी -खास तौर  से हिंदी का ककहरा जानने वाला जरूर आपके सवाल का जबाब देना चाहेगा। उसका जबाब यह हो सकता है कि- यदि आपको हिंदी नहीं आती तो आप अभी भी  नकली लाल किले से ही भाषण दे रहे होते !

 चूँकि आपने चाय बेचते-बेचते हिंदी सीख ली है ,इसलिए आप  असली लाल किले से  डेढ़  घण्टे तक  नीरस -उबाऊ और निरर्थक  भाषण पेलने के पात्र हो गए हैं।  बयोबृद्धों और  छोटे-छोटे बच्चों को कभी  रायसीना हिल  , कभी लालकिले की प्राचीर के समक्ष -घंटों  भूंखे -प्यासे रहकर आपके  ये अगम्भीर भाषण झेलना पड़ रहे हैं । दुनिया भर के राष्ट्र अध्यक्षों को और भारत की जनता को भी  गाहे -बगाहे ,बार-बार  कानफोड़ू 'भाइयो-बहिनो'   का तकिया  कलाम  मय  'लोकलुभावन जुमलों' के सुनना  नहीं पड़ता है । शिवराज भैया -जो कभी खुद प्रधान मंत्री के दावेदार हुआ करते थे ,वे अब आप के साथ-साथ  अन्य संघियों को भी  बार - बार  तिलक लगाये जा रहे हैं।  आपके  हिंदी ज्ञान की ही महिमा है कि अब आपके स्वागत -सत्कार के लिए इतना तामझाम जुटाना पड़  रहा  है।

   इतना ही नहीं आपके हिंदी ज्ञान से  'बाजार की ताकतों' का खूब  भला हो रहा है ! प्याज वाले ,तुवर दाल वाले ही नहीं बल्कि  हवाला ,घोटाला,व्यापम,डीमेट और जमाखोर भी आप के हिंदी ज्ञान के समक्ष कृतकृत्य हैं। यदि आपका हिंदी प्रेम और भाषा ज्ञान देश के  सूखा पीड़ित किसानों , वेरोजगार युवाओं तथा  'सर्वहारा' वर्ग के किसी  काम का  नहीं तो इसमें आपका क्या कसूर ? यह तो हिंदी भाषी बहुसंख्यक जनता की गलती है कि  कभी  महा भृष्ट कांग्रेस  और कभी  आप जैसे महा  हिंदी प्रेमी भाजपाइयों को सत्ता सौंप दिया करती है !

                                              मोदी जी  आपको -आपकी  मातृभाषा  गुजराती का ज्ञान भी कम नहीं है! किन्तु  वह ज्ञान आनंदी पटेल को भी है ! वह ज्ञान  पटेल-पाटीदारों को भी है।  और वह ज्ञान हार्दिक पटेल जैसे लौंढो को भी है!  ये सभी लोग  अलग-अलग  और एक साथ मिलकर आपके 'हिंदी ज्ञान' को चुनौती  दे रहे हैं ! उधर यूपी बिहार में भी गाय-भेंस चराने वाले -लालू-माझी  पासवान  मुलायम  जो भोजपुरी  या अवधि के अलावा आप के  जैसी  'उजबक' हिन्दी  जानते है वे सब भी आपके हिंदी ज्ञान को चुनौती दे रहे हैं। आपकी बड़ी-बड़ी  चुनावी आम सभाओं  को सुनकर और उधर लालू-नीतीश और माझी जैसों की हिंदी सुनकर ही तो  पूरा बिहार 'कन्फ्युजया'  गया है। आपके तोगड़िया जी , गिरिराजसिंह , आदित्यनाथ ,राजनैतिक साध्वियां और आपके सभी  बजरंगी  भाई  'गजब' की हिंदी बोल  रहे हैं।  मोदी जी !  आपने सही फ़रमाया कि ' कोई दो गुजराती भाषी  व्यक्ति  आपस में झगड़ा नहीं कर सकते ' [अर्थात गुजराती इतनी  सभ्य और सुसंस्कृत भाषा है -बधाई ! ] किन्तु उन्हें जब आपस में झगड़ना होता है तो वे हिंदी में झगड़ लेते हैं ! अर्थात हिंदी भाषा की यह सर्वश्रेष्ठ विशेषता है कि  वह झगड़ा करने वालों को ' शब्द ,अर्थ ,बाणी  और जोश प्रदान करती  है।  वाह ! मोदी जी  वाह ! अब यह हिंदी के विद्वानों की जिम्मेदारी है ,भोपाल में सम्पन्न हो रहे 'विश्व हिंदी सम्मेलन ' की जिम्मेदारी है, कि  मोदी जी के इस भाषाई  मेटाफर को समझें ! मैं तो ताल ठोककर कहूँगा कि यह महज मोदी जी द्वारा उद्घोषित  सटायर  या  व्यंग्योक्ति नहीं अपितु  हिंदी भाषा ,हिंदी साहित्य और हिंदी जाति  को  ठोस नसीहत दी  गयी  है ! जब हम कहते हैं कि 'हिंदी तो सिर्फ  बाजार  के काम की भाषा है ,वह  तो इल्म-फिल्म वालों के धंधे की भाषा है ,हिंदी तो राजनीति में चुनाव जीतने की  भाषा   है ,वह तो  प्रधानमंत्री बनवाने की  भाषा है  ! तो मोदी जी आप ने क्या गलत कहा ? क्या बाकई  आज सम्पूर्ण 'हिंदी जाति ' केवल कुकरहाव और  सिर्फ झगड़ा करने के काम की नहीं  रह गयी  ?
                                          श्रीराम तिवारी 

हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय गौरव मिले यह कौन हिन्दीभाषी नहीं चाहता ?

भारत के ह्रदय प्रदेश -मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में आयोजित दशवें विश्व हिंदी सम्मेलन' के शुभ अवसर पर 'भाइयो-बहिनों' की खूब चहल-पहल और धूम-धाम रही।  इसके उद्धघाटन  सत्र  में ही सुधी जनों  को पता चल गया कि  आयोजकों की मंशा क्या है ? इस सम्मेलन में मोदी जी हैं ,शिवराज जी हैं और उनके अनेक गैर साहित्यिक भक्तगण  भी हैं।  यहाँ  भाषा विमर्श और हिंदी साहित्य  का तो अत-पता नहीं  किन्तु इतना पक्का है कि  साहित्यिक सरोकार पूरी तरह नदारद है। सभागार के बाहर जब किसी पत्रकार ने एक परिचित  छुटभइये नेता से  पूँछा  कि  इस साहित्यिक सम्मेलन में आप क्या कर रहे हैं ? तो उस 'पठ्ठे 'ने बहुत बढ़िया जबाब दिया - 'हम सम्मेलन में  भाषा ही  सीखने तो आये हैं'। इस जबाब से पत्रकार भले ही  भौंचक्का  रह गया हो किन्तु उस भाजपाई कार्यकर्ता ने बात बड़े पते की कही है। चूँकि सत्ता में आने के बाद कुछ भाजपाई नेताओं, सांसदों और साध्वियों की 'भाषा' वास्तव में देश के हित नहीं है। शायद इसीलिये इस सम्मेलन में  छाँट -छाँटकर 'अपने वालों'  को ही बुलाया गया  है। बेहतर होता कि गिरिराज किशोरजी ,आदित्यनाथ जी ,तोगड़िया जी  और साध्वी जी को भी बुलाया जाता तो उनकी भाषा का भी कुछ तो परिष्करण हो जाता !

दस  सितंबर  के रोज जिस वक्त देश और दुनिया के हिंदी  जानमकार भोपाल  सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में  प्रधान मंत्री  श्री मोदी जी के ज्ञानामृत से हिंदी भाषा का रसास्वादन कर रहे थे। ठीक उसी वक्त महू मिलटरी के 'वीर' जवान इंदौर के एक पुलिस थाने  को ध्वस्त कर रहे थे। खैर ये तो एक अलग विमर्श का विषय है कि सेना याने  मिलटरी  वाले पुलिस वालों की धुनाई क्यों कर रहे थे? जिन्हे देश के दुश्मनों से लड़ने के लिए जनता के पसीने की कमाई से वेतन-भत्ते मिलते हैं , वे  सीमाओं पर दुश्मन राष्ट्र को धूल  चटाने के बजाय अपने ही घर में शेर क्यों  हो रहे हैं !किन्तु इस घटना से  यह ध्यानाकर्षण जरुरी है कि जो देश की सत्ता में हों उन नेताओं को   देश चलाना  भी आना चाहिए। केवल मीठी -मीठी बातों से ,जुमलेबाजी से या बहुमत से चुनाव जीत लेने से कोई बेहतरीन शासक नहीं हो जाता।  यदि इंदौर ,भोपाल,दिल्ली सब जगह एक  ही पार्टी का राज है तो यह घोर अराजकता और हा -हाकार क्यों मचा हुआ है ? जब नगर,प्रदेश और देश पर संघ परिवार वालों का ही राज है ।   तो उन्हें इस  दसवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतेंदु हरिश्चंद की कोई वेदना याद है  ? यदि वे हिंदी के विद्वान  - साहित्यकार हैं तो ,तो क्या वे जानते हैं कि  भारतेंदु जी ने जो क्या कहा था ? यदि नहीं जानते तो नोट करें -  "हा ! हा ! भारत दुर्दशा देखीं न जाए !"

 वेशक यह सम्मेलन पूरी तरह से छुद्र  राजनैतिक  स्वार्थ -पूर्ति की भेंट ही चढ़ गया है । इस सम्मेलन का नेतत्व किसी स्वनामधन्य मूर्धन्य साहित्यकार ने नहीं  बल्कि   मध्यप्रदेश के 'महा हिंदी प्रेमी' मुख्य मंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने किया है । भारत के प्रधानमंत्री माननीय श्री नरेंद्र मोदी जी ने हिंदी में भाषण देकर सम्मेलन का  उद्घाटन  किया। देश के अन्य हिंदी भाषी प्रदेशों और खास तौर से मध्य  प्रदेश के भाजपा कार्यकर्ताओं ने  हिंदी के बहाने अपने नेताओं और सरकारों  पर लग रहे भृष्टाचार के आरोपों  और सरकार  की घोर  असफलताओं को छिपाने के लिए इस वैश्विक सम्मेलन  का भरपूर इस्तेमाल  किया है। हिंदी को अंतर्राष्ट्रीय गौरव मिले यह कौन हिन्दीभाषी नहीं  चाहता ? किन्तु  जिस तरह से इस सम्मेलन  में एक खास रंग और विचार को ही महत्व  दिया  गया, वह संदेहास्पद है। साधनों  की अ -शुचिता और 'साध्य' के रूप आकार पर राजनीति  का आवरण चढ़ाना - कोई भाषा या साहित्य का विमर्श नहीं हो सकता।

                                          "हिंदी जगत : विस्तार एवं सम्भावनाएं " नामक इस  'दशवें विश्व हिंदी सम्मेलन'  को इतनी बुरी तरह से व्यक्तिनिष्ठ  और राजनैतिक कर दिया  गया है  कि   हिंदी  भाषा और उसका साहित्य तो   इसमें सिरे से  ही नदारद है। जनवादी -लोक साहित्य या आधुनिक साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के विमर्श पर बातें तो सब करते हैं ,किन्तु उसकी उपलब्धता की  दूर -दूर तक का कहीं कोई  चर्चा  भी नहीं कर रहा ! न्यू कार्पोरेट इण्डिया , डिजिटल- इण्डिया ,'मेक इन इण्डिया ' मेड इन इण्डिया ' और ग्लोबल इण्डिया की खूब चर्चा है, किन्तु हिन्दी भाषी कमजोर वर्ग के युवाओं का मार्ग दर्शन करने वाला ,उन्हें रोजगार दिलाने वाला जनोन्मुखी भाषा - साहित्यि का  विमर्श ही  इस  सम्मेलन में नदारद  है।  हिंदी साहित्य के तमाम  बहुश्रुत  , बहुपठित  मूर्धन्य साहित्यकारों को  आमंत्रित किया गया ,यह कोई बेजा बात नहीं ! यह तो सत्ता का स्वभाव है। किन्तु  इसमें शिक्षाविदों,व्याकरणवेत्ताओं और भाषा विज्ञानियों  को  नहीं बुलाया जाना आश्चर्यजनक है।

 केवल भाजपा और संघ के ही "खड़ाऊँ -उठाउओं ''और कागजी  ढपोरशंखियों  को  ही भोपाल के 'लाल परेड मैदान' में 'भेला 'किया गया। देश - विदेश से जो वास्तविक  हिन्दी प्रेमी इस सम्मेलन में शामिल हुए  उनकी मंशा  भले ही  'हिंदी-उत्थान' के  ही अनुरूप रही हो । किन्तु इस सम्मेलन की सफलता इस अर्थ में तो अवश्य ही   बेजोड़ है कि शिवराज जी पर मंडरा रहां व्यापम संकट ,डीमेंट संकट  और मध्यप्रदेश  में व्यपाप्त जन आक्रोश  का संकट कुछ देर के लिए तो अवश्य टल  गया लगता है। महँगी दालें ,महँगी प्याज तो साहित्य के एरिना में वैसे भी त्याज्य है। क्योंकि 'कला -कला के लिए ' और साहित्य -साहित्य के लिए ' मानने वाले जब जाजम पर मौजूद होंगे तो वे गरीबी -बेकारी को भाषा और साहित्य के  विमर्श में जोड़ने के तरफदार कैसे हो सकते  हैं ?  शायद इसीलिये  प्रदेश  के किसानों मजदूरों वनवासियों की  भाषायी बर्बादी पर इस दसवें विश्व   हिन्दी सम्मेंलन में 'सुई पटक सन्नाटा छाया रहा ।

"जिस भजन में राम का नाम न हो उस भजन को गाना न चहिये "

यह किसी प्रगतिशील या क्रांतिकारी कवि  के बोल-बचन नहीं हैं। बल्कि किसी भक्त कवि ने ही यह  साहित्यिक काव्यात्मक निषेध व्यक्त किया है।  यदि कोई  भाषा और उसका  साहित्य जनता के दुःख दर्द पर  मौन है  यदि  शोषण  उत्पीड़न के खिलाफ कोई शब्द ही  इन सम्मेलन आयोजकों के पास  पास नहीं है  तो काहे का सम्मेलन और काहे  की भाषा और काहे का साहित्य  ?  साहित्य समाज का दर्पण हो या न हो किन्तु अभिव्यक्ति की आजादी के लिए ,भाषा  के विकास  के लिए - शासकों का  लोकतांत्रिक आचरण जरुरी है ! भाषा विमर्श में सहमति और सहिष्णुता जरुरी है ।  इस तरह के प्रस्ताव  यदि  प्रस्तुत विश्व हिंदी सम्मेलन में  पारित किए जाते तो कोई और बात होती। 

  हिंदी -हिन्दू - हिन्दुस्तान ,ये शब्द भले ही आज 'भारत' राष्ट्र की पहचान बन चुके हैं ,किन्तु  भारतीयता और राष्ट्रवाद का ढपोरशंख बजाकर देश के बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं का दोहन कर,सत्ता हस्तगत करने वाले  वर्तमान तथाकथित  'हिन्दी प्रेमी शासकों'  को  स्मरण रखना चाहिए  कि 'हिंदी -हिन्दू-हिन्दुस्तान ' जैसे शब्द  तो यवन- अरबी-फारसी विद्वानों द्वारा  ही गढ़े गए  हैं। इन मुगलकालीन शब्दों  का उदभव अन्य भारतीय भाषाओँ की तरह  संस्कृत , पाली -प्राकृत इत्यादि  भाषाओँ से नहीं हुआ है। ये संज्ञाएँ न तो  संस्कृत भाषा के  तत्सम् शब्द हैं ,न ही इनका जन्म  द्रविड़  परिवार की भाषाओँ के धातुइ -विचक्षण से हुआ है। दरसल इन शब्दों  के  सृजन ,प्रचलन और लोकमान्यकरण की प्रक्रिया में उर्दू -फारसी लेखकों  की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सिंध  इण्ड , इण्डस ,हिन्द , हिन्दोस्ताँ ,हिंदवी से आगे  वर्तमान 'हिन्दी ' तक की महायात्रा  में सिर्फ विदेशी यायावरों  की महती भूमिका रही है। इसलिए  यह महा कृतघ्नता ही होगी कि जब  इन शब्दों के विमर्श की बात हो तब उर्दू -फारसी के अवदान को और उस सचाई को  भी नकार दिया जाए ,जिसे गंगा -जमुनी तहजीव कहते हैं।

      वेशक संस्कृत वांग्मय ,पाली,प्राकृत ,द्रविण  भाषा परिवार और अन्य  भारतीय भाषाओँ की अपनी विशिष्ठ  साहित्यिक  -सांस्कृतिक समृद्धि दुनिया में वेमिशाल है। इन सभी  का विस्तृत इतिहास और भूगोल है। आज जिस 'हिन्दी' भाषा ने भारत की तीन-चौथाई धरती पर अपना सिक्का जमा रखा है , वह आजादी के ६८  साल बाद भी  देशी काले शासकों की क्रीत दासी मात्र है। गांधी जी ,टंडन जी , पंत जी और मदनमोहन मालवीय जैसे  अनेक महामनाओं की बदौलत ,जिसे  भारतीय संविधान में राजभाषा का दरजा तो प्राप्त है  किन्तु आज भी वह देश के राज्यों में तीसरे-चौथे नंबर पर हेय दॄष्टि से देखी जाती है। राजभाषा के या हिंदी साहित्य के   किसी भी नवीन -विमर्श में  ,नूतन सरकारी  आयोजन में ,अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के नाम पर सरकारी खजाना लूटा जाता  है।  जबकि हिन्दी की चिंदी ज्यों की त्यों बरक़रार रहती है। सरकारी दफ्तरों में,सार्वजनिक उपक्रमों में और विभिन्न सरकारी -अर्धसरकारी प्रतिष्ठानों में  राजभाषा अधिकारी के नामपर  जिन लोगों को  नौकरी  मिलती है  ,जिनकी रोजी -रोटी चलती   है वे हिंदी की चिंदी करने में सबसे आगे हैं।  हिन्दी का प्रचार -प्रसार तो वे करने से रहे किन्तु खुद की दो-चार 'सस्ता-साहित्य' किस्म की दो चार किताबें छपवाकर ,दो -चार अपने बड़े साहब की   बीबी की घटिया कवितायें छापकर , साल में एक बार हिन्दी सप्ताह ,या हिन्दी पखवाड़ा या हिन्दी की काव्य गोष्ठी आयोजित करवाकर वे हिंदी की सेवा करते हैं।  खर्चों का बिल सरकारी खजाने के हवाले। रामजी की चिड़िया ,रामजी का खेत ,खाओ प्यारी चिड़िया भर-भर पेट। किसी भी हिंदी अधिकारी को एक लाख रुपया महीना से कम वेतन -भत्ते नहीं मिलते ।  कुछ तो विभाग में केवल पुस्तक पढ़ने या गप्प  मारने के बाद भी बड़े  नामचिन्ह हो जाते हैं। कुछ सेवा निवृत्ति उपरान्त हिंदी की दूकान खोलकर   भी बैठ जाते हैं। उनसे  यदि पूँछो  कि उदभिज ,स्वेदज ,अण्डज  और जरायुज  इन चार हिंदी शब्दों  का आपस में रिस्ता बताइये तो वे आएं-बाएं करने लगेंगे ! जबकि ये चारों शब्द भारतीय वांग्मय के मेरुदण्ड हैं। सम्मेलन में तो खास तौर  से ' हिंदी-हिन्दू-हिंदुस्तान' वाली सोच -समझ के ही ग्यानी पहुंचे होंगे !  यदि वे कार्ल मार्क्स ,एंगेल्स ,हीगेल ,गैरी बाल्डी , रूसो ,  वाल्ट्येर या वड्सवर्थ को नहीं  जानते हों तो कोई बात नहीं  किन्तु  उन्होंने महापंडित राहुल सांकृत्यायन या  डॉ  सर्व पल्ली  राधाकृष्णन को या 'भारतीय दर्शन' को तो अवश्य ही पढ़ा होगा ! यदि वह भी नहीं पढ़ा तो आसाराम जैसे 'संत' को तो अवश्य ही सुना होगा। बस उसी अंदाज के हिंदी शब्दों को  ही समझ बूझ लें तो बड़ी गनीमत और सम्मेलन  सफल मान जाएगा।

यह सर्वज्ञात है कि किसी भी उत्तरआधुनिक विमर्श को,किसी भी प्रगतिशील विमर्श को , स्वाधीनता संग्राम के किसी भी विमर्श को पढ़िए उसमें जो भाषा -साहित्य है वही 'हिंदवी' ही भारत की असली राष्ट्रभाषा हो सकते है। और यह भाषा  उर्दू-फ़ारसी शब्दों ,देशज शब्दों , जन संवेदी  क्रांतिकारी आचरण  से लवरेज है यदि इस पर कोई चर्चा नहीं की गयी तो फिर कहाँ पडेगा की -

 उस भजन को गाना  न चहिये  ,जिस भजन में राम का नाम न हो ! अर्थात उस विमर्श  में जाना न चईये  जहाँ 'जनता की आवाज न सुनी जाती हो !

                                                                 श्रीराम तिवारी       

 

मंगलवार, 8 सितंबर 2015



    खुदरा महँगाई  पर सरकार की  नहीं कोई-लगाम !

  निफ्टी लुढ़का -सेंसेक्स टूटा,बाजार रूठा,रुपया धड़ाम !

   एफडीआई घटा ,भूमि अधिग्रहण बिल वापिस -धड़ाम !

   पटेल-पाटीदारों की हुंकार -गुजराती अहंकार -धड़ाम !

   विदशों  में जमा कालाधन वापिसी का मुद्दा -धड़ाम !

   शेयर  बाजार और मानसून  दोनों दगाबाज  धड़ाम !

   सत्ताधारी नेता ,मंत्री प्रवक्ता बोल-बचन बेलगाम !

   संघम शरणम्  गच्छामि  होकर करते  दंडवत प्रणाम !

                                  श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 4 सितंबर 2015

भारत में समाजवाद के असली अवरोधक तो समाजवादी ही हैं !

 वेशक यूपीए और कांग्रेस बहुत बदनाम हो चुके थे ,इसलिए देश की जनता ने उन्हें सत्ता से उतारना  ही बेहतर समझा। वेशक एनडीए और मोदी सरकार भी हर मोर्चे पर असफल होते जा रहे हैं ! वेशक झूंठ -कपट छल और पाखंड  का प्रचलन  पूँजीवादी  और साम्प्रदायिक  सत्ता में सर्वत्र व्याप्त हो चुका  है।  किन्तु  जो लोग अन्ना  हजारे - रामदेव आंदोलन से पैदा हुए ,वे भी  इस व्यवस्था के हम्माम में नंगे होते जा रहे हैं। 'आप'का संभावित स्खलन भी स्पष्ट दिख रहा है। जनता परिवार वाले - लोहिया -जयप्रकाशनारायण  और आपातकाल की पुण्याई लूटने वाले निर्लज्ज  जातीयतावादी कितनी ही कोशिश कर लें -कितने ही महागठबंधन बना लें वे  इस वर्तमान पूँजीवादी -सम्प्रदायिक गठजोड़ की व्यवस्था का विकल्प बिहार में भी नहीं बन सकते !  इनसे सम्पूर्ण भारत राष्ट्र को एक बेहतरीन राजनैतिक विकल्प प्रदान करने लायक क्षमता की उम्मीद  करना मूर्खता ही होगी !

 तीसरे मोर्चे और क्षेत्रीय दलों का पराभव  बहुत स्पष्ट दिख रहा है। किन्तु जो  क्रांतिपथ के अलम्बरदार  हैं ,वे इस भरम में न रहें  कि  जनता उन्हें शीघ्र ही राज्य सत्ता सौंपने को लालायित है। वेशक वामपंथ ने देश की जनता के सवालों पर बहुत संघर्ष किये हैं। जनता के सरोकारों को लेकर तथा शासक वर्ग की प्रतिगामी नीतियों के खिलाफ शानदार हड़तालें भी कीं हैं ,किन्तु जनता को  वामपंथ की यह अनवरत संघर्षों की -हड़तालों की  -  क्रांतिकारी भाषा ही  पल्ले नहीं पड़ रही  है ! यदि  इस  संघर्ष का  मकसद केवल निष्काम भाव से  निरंतर संघर्ष  ही करते रहना है  तो  इस पर  कोई निषेध नहीं हो सकता ! किन्तु यदि लोगों  अभिलाषाओं के मद्दे नजर कुछ  असर होता तो  सभी प्रकार के चुनावों में -केरल बंगाल में अपनी पुरानी  ताकत  तो  वाम को अवश्य वापिस मिलती।  किन्तु लगता है कि बंगाल की जनता  को क्षेत्रीय 'ममता ' अधिक प्रिय है। वामपंथ जिनके लिए  कुर्बानी दे रहा है उन्ही को  'अधिनायकवाद' बहुत जल्दी लुभा रहा  है।   वेशक इसके लिए भी जनता नहीं, बल्कि प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग की सोच और वामपंथ के जूने -पुराने  सिद्धांत  ही जिम्मेदार हैं ! उनका  वैयक्तिक आचरण   भले ही  देवतुल्य हो [माणिक सरकार  जैसा ] किन्तु  उनके  सनातन संघर्ष  की फसल  कभी कांग्रेस  और कभी भाजपा चरती  रहे , तो इस के लिए  वामपंथी नेतत्व की रणनीतिक असफलता ही कसूरवार  हैं।

 वे यह  मानने के लिए तैयार ही नहीं कि जिस पतनशील  समाज - व्यवस्था  में वे पैदा हुए हैं , पले -बढे हैं ,उस समाज के अवगुणों से वे  भी अछूते नहीं रह सकते।  स्पष्ट शब्दों में कहा जाये तो परिकल्पना  यह भी बनती   है कि 'प्रगतिशील -जनवादी और वामपंथी लोग ओरों से बेहतर इंसान तो अवश्य होते हैं ,किन्तु वे भी सापेक्ष  रूप से  प्रगतिशील होने के वावजूद हर दौर में  हर मोर्चे पर पिछड़ रहे  हैं ! वैसे तो सिद्धांत; आत्मालोचना का स्वागत है, किन्तु  व्यवहार में अपने आपको आलोचना से  परे  मानते रहने की  आत्ममुग्धता से  भी वामपंथी नेतत्व आक्रांत है। जबकि  बौद्धिक  नॉस्टेलजिया से ग्रस्त व्यक्ति प्रगतिशील हो ही नहीं सकता ! इस दौर में बहुत कुछ ऐंसा  ही घटित हो रहा है। कई  संदर्भो  पर  प्रगतिशील -जनवादियों की  कुछ स्थापनाएं  आलोच्य हैं। इस दौर  में कुछ  स्थापनाएं - मार्क्सवाद - लेनिनवाद - सर्वहारा अंतर्राष्ट्रीयता  के  अनुकूल नहीं  हैं  ! यदि वे  वर्तमान आर्थिक नीतियों की आलोचना कर  सत्ता में आ भी गए तो बंगाल ,केरल की तरह किसी तरह का न तो कोई   विकास  कर पाएंगे और आरएसएस -कार्पोरेट नियंत्रित मीडिया के दुष्प्रचार का मुकाबला भी नहीं कर पाएंगे। तब यही  कहावत चरितार्थ होगी कि 'अंधे -पीसें कुत्ते खाएं ' !

 तब जन-आकांक्षा को पूरा करने में सफल नहीं हो पाने के कारण  सत्ता  से बाहर होना ही पड़ेगा। कहने का तातपर्य यह है कि वामपंथ को अपने 'वैकल्पिक 'प्रारूप को तेजी से अपडेट करते रहना चाहिए !  पचास साल पुराने नारों से अब कोई काम नहीं सधने वाला। बाजारबाद,भूमंडलीकरण ,निजीकरण ,जातीयता ,संचार-क्रांति   और सम्प्रदायिकता  की अनदेखी कर जो भी नीतियाँ  और कार्यक्रम बनाये गए हैं ,वे कारगर कैसे हो सकते हैं ?वेशक पूंजीवाद का विकल्प 'समाजवाद' ही हो सकता है ,किन्तु जब  मुलायम ,लालू ,पप्पू यादव के गिरोह  समाजवाद  का ठप्पा लगाकर उसे बदनाम आकर चुके हों ,जब वे इसे पारिवारिक ,और सजातीय  घान में सेंक चुकें हों तो फिर 'वामपंथ' को क्यों नहीं बिहार में सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करने चाहिए ? भले ही सब हर जाएँ ! वेशक  आगामी विधान सभा चुनाव में ,बिहार में नागनाथ या सांपनाथ में से  ही कोई  जीतेगा ! अभी असली लोकतंत्र तो यूपी बिहार से कोसों दूर है।  भारत में  समाजवाद के असली अवरोधक कौन हैं ? कांग्रेस और भाजपा  कदापि नहीं है !  बल्कि तीसरे मोर्चे और जनता परिवार वाले ही  समाजवाद और साम्यवाद के असली दुश्मन हैं। यही जनता के भी असली दुश्मन  है !  कांग्रेस ,भाजपा और वामपंथ के अलावा किसी को भी भारतीय अस्मिता -अखंडता और नवनिर्माण की फ़िक्र नहीं है। ममता ,सपा ,वसपा राजद ,जदयू लोजद ,बीजद अकाली इत्यादि  को देश की नहीं अपनी -अपनी  ,जाति ,खाप ,समाज और गिरोहबंदी की फ़िक्र है। वामपंथ को कांग्रेस या भाजपा से इतर अन्य  सभी -अराजक दलों को कोई तरजीह नहीं देना चाहिए ! तीसरे विकल्प के रूप में देश के हर चुनाव में हर सीट पर वामपंथ का प्रत्याशी खड़ा  क्यों नहीं किया जाना चाहिए ?  यदि नहीं जीत पाये तो वास्तविक वोट प्रतिशत तो बढ़ेगा ! जनता के बीच कार्यक्रम और नीतियां तो पहुंचेंगी ! हो सकता है तब मीडिया और सूचना संचार तंत्र से लेस युवा शक्ति  भी वामपंथ का साथ  देने लगे !

   विभिन्न  चुनावों के मार्फ़त  देश की जनता को यह भी बताया जाए कि बाकई सोवियत संघ  की महान क्रांति को पूँजीवाद  ने खत्म किया है ? यह भी स्वीकारना होगा कि ग्रीस  का आर्थिक  संकट यूरोप -अमेरिका की देन नहीं  है  बल्कि समग्र भूमंडलीकरण का प्रतिषाद है।  यूनान की  की  वर्तमान वामपंथी सरकार जब उन्ही पूँजीवादी  राष्ट्रों से 'उधार' ले रही हो तो उसके आर्थिक संकट से निजात  कैसे मिल पाएगी  ?यदि ब्राजील  , बेनेजुएला लड़खड़ा रहे हैं ,तो क्या उसकी पूरी जिम्मेदारी अमेरिका की ही है ? केवल ओरों की आलोचना  करने  से साम्यवादी आंदोलन शसक्त नहीं होगा बल्कि  पूँजीवाद का विकल्प  बनने के लिए उसे व्यवाहरिक वैज्ञानिकता अपनानी होगी।

चूँकि  भारतीय वामपंथ के लिए यूनिफॉर्म लेविल प्लेयिंग फील्ड  मौजूद नहीं है। इसलिए  कुछ  प्रगतिशील  लेखक ,कवि और विचारक -भाई लोग बड़े ही ज्ञानवान  अर्थात मेधाशक्ति से ओत -प्रोत हैं। उनकी विध्वंशक क्रान्तिकारी  सोच ये है कि उन्हें  जो कुछ भी अतीत में रटा  दिया गया है वे उससे आगे कुछ भी कहना -सुनना कुफ्र समझते हैं ! स्वर्गीय  राजेन्द्र यादव की तरह  महावज्र सांस्कृतिक  राष्ट्रवाद का सनातन  विरोध  किस प्रगतिशीलता का द्वेतक है ? बल्कि इस तरह की घोर 'अराष्ट्रवादी' चेतना ने भारतीय जन-मानस को वामपंथ से दूर कर दिया है।  यही वजह है कि  केरल में चर्च ,मंदिर और मस्जिद से वामपंथ को हारना पड़  रहा है। यही वजह है कि  बंगाल में ज्योति वसु   और कॉम प्रमोददास जैसे कर्मठ ईमानदार नेताओं की पुण्यायी को ममता बेनर्जी जैसी 'उजबक ' महिला हजम कर गयी है। यही वजह है  भारत में पहले तो केवल भूस्वामियों-पूँजीपतियों का ही वर्चस्व था ,किन्तु अब तो  भारत में साम्प्रदायिकता और क्रोनी पूँजीवाद  दोनों की  जुगलबंदी मजबूत हो चुकी है। जो लोग यूपी -बिहार में समाजवाद का मुखौटा लगाकर जातीयता की राजनीति  कर रहे हैं वे  भी इस  भृष्ट सिस्टम के ही  बगलगीर हो चुके हैं।

 शीतयुद्ध के दौर में जब सोवियत संघ ने यह स्थापना दी कि  यहूदी  शब्द ही प्रतिक्रांतिकारी है तो सारे संसार के प्रगति शीलों  - जनवादियों और वामपंथी साहित्यकारों ने भी मान लिया था  कि  'यहूदी' उनके लिए अछूत हैं ! अब जबकि सोवियत संघ  ही नहीं रहा ,और बचे-खुचे   'रूसी फेडरेशन ' ने  न केवल  इजरायल से  बल्कि यूरोप  और अमेरिका  से  भी बेहतरीन द्विपक्षीय संबंध   कायम कर लिए हैं। साहित्यिक विमर्श में , उनके लेखन कर्म में ,उनके राजधर्म में  यहूदियों -इजऱायलियों का प्रतिकार कब का  समाप्त हो चुका  है । किन्तु भारत के महान  प्रगतिशील' साथी  अभी भी इजरायल को 'पाप का घड़ा' ही मानते हैं। इस्लामिक संसार में दुधमुहे बच्चों ,बूढ़ों और औरतों पर जो कहर  ढाया जा रहा है,क्या बाकई  आरएसएस भी वह सब कर रहा है ? यदि नहीं तो यह नाजायज तुलना क्यों ?

                        इसी तरह जब कोई आतंकी मुंबई , उधमपुर या कश्मीर में हिंसक कार्यवाही करता है, तो हमारे अत्यंत  प्रगतिशील साथी  अपना मुँह  बंद रखते हैं। इतना ही नहीं जब किसी  अफजल गुरु या याकूब  - आतंकी को फांसी की सजा होती है तो वे  उसके पक्ष में  भी आवाज उठाने लगते  हैं। किन्तु जब इलाहाबाद हाईकोर्ट  के माननीय न्यायाधीश मदरसों में  राष्ट्रीय झंडा फहराने का निर्णय देते हैं,और मदरसे वाले उसे ठुकरा देते हैं तब और जब उपराष्ट्रपति महोदय   तिरंगे झंडे को सलामी देने से इंकार करते हैंतब और जब  कोई 'खास  अल्पसंख्यक वर्ग  राष्ट्रगीत गायन से इंकार करता है तब ये 'असली'  क्रांतिकारी  साथी बजाय उसे नसीहत देने के आरएसएस पर टूट पड़ते हैं।  कुछ लोग तो आरएसएस और आईएसएस की तुलना ही  करने लगते हैं। ये  तो  सभी  जानते हैं कि आरएसएस ने प्रचंड राष्ट्रवाद की हमेशा पैरवी की है  और उसके लिए  कोई विशेष काम कम  'बड़बोलापन' और ढ़पोरशंखी दुष्प्रचार जयादा  किया है। उन्होंने  वोट के लिए हिन्दुत्ववादी प्रचार-प्रसार अवश्य किया है ,किन्तु हिन्दू समाज के हित  में कोई काम नहीं किया ! आरएसएस की खूबी है कि  वह हमेशा सत्ता के साथ रहा है। चाहे अंग्रेज हों ,चाहे कांग्रेस हो या अभी भाजपा हो -सभी के सामने 'संघ' ने सदाशयता का प्रदर्शन किया है। वे तोप  तमंचा लेकर  कभी भी किसी से नहीं लड़े। वे लड़ना भी नहीं चाहते। वे केवल लाठी चलाना  पथसंचलन करना और चुनाव में वोटों की जुगाड़ करने वाले अघोषित राजनैतिक कार्यकर्ता हैं।  क्या बाकई  आरएसएस और आईएसएस की तुलना जायज है ? यदि आरएसएस का कोई बन्दा कसाब ,नावेद या याकूब की तरह ,सीरिया ,इराक ,लेबनान या पाकिस्तान में कभी किसी नरसंहार  में शामिल हुआ पाया जाएगा तो  गजब हो जाएगा।

मैं सबसे पहले उनकी निंदा करूंगा। किन्तु केवल एक नाथूराम गोडसे के कारण जिसने किसी कम्युनिस्ट को नहीं   मारा। कम्युनिस्टों को तो लालुओं,पप्पुओं, तृणमूलियों और कांग्रेसियों ने ही मारा  है।  गोडसे  ने तो  'बिड़लाओं ,बजाजों और बनियों के  बापू अर्थात  'महात्माजी' को ही  ढेर किया था। उससे प्रगतिशीलों को  क्या परेशानी है ? यदि आरएसएस  किसी किस्म की घातक चेष्टा का जिम्मेदार होगा तो देश  की जनता ही तय करेगी कि आरएसएस ने आईएसएस की बराबरी  की  है  या नहीं ! यदि वे नाजी हो जाते हैं ,यदि वे फासिस्ट हो जाते हैं तो क्या भारत की जनता उन्हें सिर  पर बिठाएगी ?

हो सकता है कि  कुछ  प्रगतिशीलों को ये निर्णय प्रतिगामी और साम्प्रदायिकता से संबध्द लगे । किन्तु वे जिस प्रगतिशीलता का परिचय देते हैं उसे  तो तब लकवा मार जाता है जब  आजीवन संघर्ष में  जुटे खुद उनके बच्चे भी क्रांति और समाजवाद से घृणा करने लगते हैं। जमाने की तरक्की देखकर उनका भी मन करता है कि  उन्हें कमसेकम एक बक्त का खाना तो नसीब हो। कामरेडों के  बच्चे जब देखते हैं कि जातीय  आरक्षण की ताकत पर , भृष्टाचार के पैसे की ताकत से  लाखों भारतीय युवा - विदेशों में मजे कर  रहे हैं ।   जबकि अधिकांस  वामपंथी क्रांतिकारी  अभिभावकों के बच्चे केवल नारे-लगाने में अपना बचपन स्वाहा करते रहते हैं। उनके अभिभावक  को   विधायक या पार्षद के चुनाव में हारते हुए देखकर  वेचारे 'कामरेड पुत्र ' या पुत्रियाँ  घोर निराशा के शिकार हो जाते हैं।  आजीविका के लिए निजी क्षेत्र के मालिकान  के यहाँ चाकरी करने के लिए विवश हो रहे हैं।  समाज की ओर  से सवाल उठने लगते हैं कि  जब  क्रांतिकारी लोग खुद का घर ठीक नहीं रख सकते ,खुद की आजीविका निर्धारित नहीं कर सकते  ,जो अपने परिवार का पालन -पोषण भी ठीक से नहीं कर सकते वे एक बहुत बड़े अभियान  में सफल कैसे हो सकते हैं ?  जो पारिवारिक दायित्व से मुक्त हों उनपर तो जनता को और भी भरोसा नहीं रहता क्योंकि ऐंसे लोग  तो समाज का मतलब भी ठीक से नहीं जानते तो 'समाजवाद' को ख़ाक समझेंगे ?

                                                     श्रीराम तिवारी