सोमवार, 31 अगस्त 2015

विश्व शांति दिवस की शुभकामनाएँ !



  वीसवीं सदीं के दो महायुद्ध और अनगिनत सीमित -परम्परागत युद्धों ने विज्ञान के अवदान  की कीमत पर  दुनिया  भर में मानवता का सत्यानाश किया है !हिरोशिमा -नागासाकी  जैसे  त्रासद -वीभत्स  नरसंहार विज्ञान  के माथे पर  कभी न मिटने वाला कलंक  छोड़  गए हैं ! हथियारों के उत्पादक राष्ट्र और उसकी तिजारत लाबी  ने दुनिया में भय -भूंख -भृष्टाचार के दल -दल निर्मित किये हैं ! विकसित राष्ट्रों व  पेट्रोलियम उत्पादक राष्ट्रों  के अहंकार ने दुनिया  भर में असमानता , साम्प्रदायिकता ,जेहाद और अटॉमिक युध्दों के  उन्मादी मरजीवड़े पैदा किये हैं ! सभ्यताओं के संघर्ष और बाजारीकरण की गलाकाट प्रतियोगिता ने मारक क्षमता के भस्मासुर पैदा कर लिए हैं !  जो इस इक्कीसवीं सदी को भी लीलते जा रहे  है !

 अतीत के  खंडहरों के मलवे पर आपस में  झगड़ने वाले  भारत-पाकिस्तान जैसे पड़ोसी राष्ट्र न केवल खुद के लिए ही शत्रु बने हुए हैं,वरन 'विश्व शांति' को भी खतरे में  डाल  रहे हैं ! दुनिया भर में आज एक ओर खूखार  आईएसआईएस   ,अलकायदा ,बोकोहराम और  तालिबान  से न केवल गैरइस्लामिक विश्व को खतरा है बल्कि  खुद दुनिया भर के शान्तिप्रिय मुसलमानों को भी खतरा है। जेहादियों ,अलगाववादियों  और जातीवादियों  तथा सम्प्रदायवादियों में कोई खास फर्क नहीं है। ये सभी न केवल  अमानवीय शोषण  के खिलाफ  चल रहे संघर्ष  में बाधक हैं अपितु  ये साम्प्रदायिक  तत्व पूँजीवाद -साम्राज्य्वाद को खाद पानी देते हैं। जो  मेहनतकशों की  लूट और श्रम -शोषण  के लिए कुख्यात हैं। इन  विपरीत हालत में  भी यह परिदृश्य  आशान्वित  करता  है कि  विश्व  शांति  ,विकास और न्याय आधारित  व्यवस्था  के लिए इस दौर में  भी दुनिया के  कुछ बेहतरीन मुठ्ठी भर लोग  संघर्ष किये जा  रहे हैं ! उनका मकसद है कि :-

हिंसा ,युद्ध जातीय -उन्माद  के जलजले ,,,,,,,,नहीं चलेंगे !

मानवता ,विश्वशांति ,समाजवाद ,,,,,,,स्थापित करके रहेंगे !!

सबको शिक्षा ,सबको स्वास्थ्य ,सबको रोटी -कपड़ा -मकान, सबका  एक समान विकास  जिसमें हो वो व्यवस्था स्थापित करके रहेंगे !

  विश्व  शांति अमर रहे ! विश्व शांति दिवस ---जिन्दावाद !


   इंकलाब -जिन्दावाद ,,,,,,,,,!

                                                                             श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 27 अगस्त 2015

उस 'अहिंसक' समाज के विभिन्न गुटों की जूतम पैजार दुनिया में वेमिशल है !

 श्वेताम्बरों का  संथारा - दिगंबरों का संलेखना और उपनिषद प्रणीत  वेदान्त देशन का  'अंतिम समाधि योग' ये  तीनों  सिर्फ नाम ,रूप और  'साधनों'  में ही भिन्न-भिन्न हैं !  सारवस्तु के रूप में  इन तीनों  का लक्ष्य एक ही है !  मैं व्यक्तिगत रूप से घोर  नास्तिक होने के वावजूद ,सभी -धर्मों -मजहबों का बराबर सम्मान करता हूँ ! मैंने  तो तय कर रखा है कि  यदि किसी दुर्घटना में नहीं मरा , किसी बीमारी से  भी नहीं मरा या किसी की हिंसा का शिकार नहीं बना ,तो  मैं  उचित समय आने पर 'संथारा -संलेखना 'ही करूँगा ! इसके लिए मुझे किसी  भी धर्म के ठेकेदारों से  अनुमति नहीं चहिये ! न्यायालय  में दरख्वास्त की या याचिका की भी जरूरत नहीं है। मुझे संथारा करने के लिए  सड़कों पर  जुलुस निकांले की  भी आवश्यकता नहीं है। इसके लिए मैं सड़कों पर जाम लगाकर किसी निर्दोष को अस्पताल तक पहुँचने में बाधक  नहीं बनुगा ! न्यायालय की अवमानना भी नहीं करूंगा ! अपना  सर  भी नहीं मुंड़वाउंगा !  धर्म के पाखंड की डींग भी  नहीं हाकूँगा ! मैं मरणोपरांत अपने शरीर को मेडिकल कालेज के सुपुर्द करने  का शपथ पत्र भी दे चुका  हूँ ! 
 
इस सबके वावजूद में जब तक जीवित हूँ , सभी धर्म-मजहब वालों के पाखंड और दिखावे का  डटकर विरोध करता  रहूँगा ।यह मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है !  हिन्दू,मुसलमान ,सिख,ईसाई  जैन-बौद्ध -  ऐंसा कोई धर्म  - मजहब नहीं  है जो  इंसानियत का पाठ न सिखाता  हो ! किन्तु यह भी सच है कि सभी धर्म-मजहब  पाखंडवाद और मूल्य्हीनता से ग्रस्त हो चुके हैं । अंधश्रध्दा और धन -लोलुपता का जाल  जड़ों तक जा पहुंचा  है। ये चीजें आलोचना से  परे  कैसे हो सकती हैं  ? जो  जैन मत अहिंसा ,अनेकांतवाद ,स्याद्वाद और वैज्ञानिक जीवन शैली के लिए विख्यात है. उस 'अहिंसक' समाज के विभिन्न गुटों  की जूतम पैजार दुनिया में वेमिशल है !जिस किसी को  जैनियों  का यह महा  संग्राम साक्षात देखना  हो  वे इन्तजार करें में उन्हें शीघ्र ही सूचित करूंगा  ! या वे   आगामी 'व्रतों' में इधर इंदौर आ जाये ! मेरी बात  यदि असत्य लगे तो  भरत  मोदी,  कासलीवाल , धनोतिया जी  या डीके जैन से तस्दीक कर लें ! 
            
विगत सप्ताह गुजरात के पटेलों  ने आरक्षण को लेकर और देश भर के जैनियों ने  संथारा -संलेखना को लेकर जो  जंगी -प्रदर्शनों का आयोजन किया था।उस पर मैंने एक संयुक्त आलेख लिखा था !  पटेल आंदोलन  के बारे  में  मैंने जो कुछ  लिखा वही सच निकला ! और वह सच सबने देख भी । लेकिन  मेरी आलोचना पर किसी एक भी पटेल या फेसबुक मित्र ने  आपत्ति नहीं जताई।

 इसी तरह संथारा -संलेखना को लेकर  भी मैंने  संतुलित व यथार्थ समालोचनात्मक  आलेख पोस्ट किया था , वैसे तो उस पर भी किसी ने  कोई आपत्ति   व्यक्त नहीं की ।  मेरे दर्जनों जैन मित्रों और सैकड़ों  'फेस बुक फ्रेंड्स' ने  भी कोई आपत्ति  व्यक्त नहीं  की ! किन्तु  एक-दो जैन युवाओं  को मेरी अभिव्यक्ति पसंद  नहीं आई ! उन्हीं की तसल्ली के लिए यह स्पष्टीकरण आलेख पोस्ट किया जा रहा है। मैं एतद द्वारा उन्हें सूचित  करटा हूँ  कि - जिस दिन राजस्थान हाईकोर्ट ने 'संथारा -संलेखना ' पर अनावश्यक फैसला दिया था उसी दिन मैंने -न्यायालय  की गरिमा का सम्मान करते हुए भी निम्नाकिंत दोहों में समर्थन किता था !जो लोग समझते हैं कि 'जैन सिद्धांत,जैन दर्शन  केवल उन्ही की बपोती है, वे यह जान लें कि सिर्फ सर नेम लिख देने से , किसी जैन के यहाँ जन्म लेने  मात्र से  या दो-चार आगम ग्रन्थ पढ़ लेने मात्र से वे जैनत्व झाड़ने  के अधिकारी नहीं हो जाते ! जैन धर्म और उसके विराट दर्शन पर मेरी सकारात्मक  संवेदनाएं  इस प्रकार हैं :-

                        संथारा सल्लेखना , श्रमण समाधि नाम..!


                     मानव मूल्यों के लिए  ,  देते हैं जो  प्राण  ।

                   बलिदानी  इतिहास में  , पाते हैं सम्मान ।।


                 शोषण -अत्याचार से , लड़ते मनुज अनेक ।

                 क्रांति दीप्ति अक्षुण रखे ,वो तारा कोई एक ।।


                निर्दोषों को मारते  ,  नरपिशाच   नादान।

               ऐसे आदमखोर से ,बेहतर कागा श्वान।।


              मेहनतकश को लग रहे ,श्रम शोषण  के बाण ।

              भृष्ट धनिक की चरणरज ,नेता का निर्वाण  ।।


             तज इच्छा ब्रत  कर्म सब ,तजे  देह अभिमान।

            जीवन मुक्त जिजीविषा , निर्विकल्प यह ज्ञान  ।।


              निरवृत्ति निर्मोहिता ,निर्लिप्ति निष्काम ।

             संथारा -सल्लेखना , श्रमण  समाधि नाम  ।।


                        श्रीराम तिवारी
 
 

जब गुजरात के  पटेल-पाटीदार लोग ही 'मोदी के मन की बात ' नहीं सुन रहे हैं , तो शेष भारत के  अधिसंख्य  जन-समुदाय को  मोदी जी के भाषणों  और 'मन की बातों ' में अभिरुचि क्यों  है ? मान लें कि एनडीए और  नरेंद्र मोदी को देश की  जनता ने १५ साल के लिए  'वाकओवर' दे दिया है  और मोदी जी के नेतत्व में  ही पूरा भारत गुजरात मॉडल से भी आगे निकल  चुका  होगा। तब  इस बात की क्या गारंटी है कि गुजरात  जैसी सम्पन्नता के वावजूद , देश के हर कोने से सैकड़ों -हजारों हार्दिक और उनके सजातीय बंधू-बांधव  जातीय आरक्षण हेतु  उग्र - हिंसक आंदोलन नहीं चलाएंगे ?  यदि गुजरात का मोदी प्रणीत  तथाकथित 'विकास माडल' इतना ही सफल है, तो  फिर गुजरात में ये 'हार्दिक' कोहराम क्यों मचा हुआ है ?

 श्रीराम तिवारी 

भारत में 'राष्ट्रवाद और अंधराष्ट्रवाद का फर्क पुनः परिभाषित किया जाना जरुरी है !


  किसी के लिए मैं  दुनिया  का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक  राष्ट्र हूँ  ! किसी के लिए मातृभूमि हूँ ! किसी के लिए मादरे-वतन हूँ ! किसी के लिए सारे 'जहाँ से अच्छा  हिंदोस्ता हमारा' हूँ !  किसी के लिए आरक्षण की वैतरणी हूँ ! किसी के लिए तिजारत का बहुत बड़ा बाजार हूँ !किसी के लिए धर्मनिरपेक्ष -समाजवादी गणतंत्र हूँ  ! किसी के लिए सिर्फ सत्ता प्रतिष्ठान हूँ ! किसी के लिए जेहाद का खुरासान हूँ ! किसी के लिए धर्मांतरण की पवित्र उर्वरा भूमि हूँ ! और किसी के लिए महज एक विस्तृत चरागाह हूँ ! मेरी आत्मकथा इजिप्ट,यूनान और 'माया सभ्यता' से भी  पुरानी है ! ये धरती ,ये चाँद ,ये सितारे व  सूरज -अनादिकाल से मेरे उथ्थान-पतन के साक्षी हैं ! मेरे सिर  पर धवल  मुकुट हिमालय और  चरणों में  सागर  का पानी है ! मेरे सीने पर कल-कल करतीं नदियां - गंगा  - यमुना ,नर्मदा ,गोदावरी  ब्रह्मपुत्र ,कृष्णा और कावेरी हैं ! मैं सदियों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ी रही ! मैं  शहीदों के बलिदान की जीवंत निशानी हूँ !  असंख्य  बलिदानों की कीमत पर  पंद्रह अगस्त १९४७  को मैं आजाद हुई ! कहने को तो  मैं एक स्वतंत्र सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की  पावन गंगोत्री  हूँ !  किन्तु यथार्थ में अब केवल अनुशासनहीनता ,दरिद्रता ,साम्प्रदायिकता ,अलगाववाद और सरमायेदारों की लूट की निशानी  हूँ !  मैं भारत राष्ट्र  हूँ और संक्षेप में यही मेरी कहानी है  !

                जिस तरह गंगोत्री से  रुद्रप्रयाग तक गंगा का  पानी -वास्तविक गंगाजल ही  हुआ करता है ,उसी तरह सभ्यताओं के उदयकाल में  मेरा जन-मानस -उच्चतर मूल्यों वाला, उदार ,सहिष्णु और उत्सर्गवादी  हुआ करता था। जिस तरह हरिद्वार से आगे देश के विभिन्न शहरों की गटरों और औद्योगिक कारखानों के प्रदूषित जहर   ने भागीरथी -गंगा को  दयनीय 'गटरगंगा' बना डाला है। ठीक उसी तरह दुनिया भर की यायावर ,कबीलाई ,बर्बर  आक्रमणकारी  दुर्दांत दस्युओं  ने  समय-समय पर भारत की  वास्तविक संस्कृति और सभ्यता  को  बुरी तरह  ध्वस्त  किया है !  नियति ने मुझे एक लम्बे अरसे तक मानों किसी  सनातन मानसिक गुलामी की  बेड़ियों में जकड़ रखा था ! मूल्यों के उत्थान-पतन  व  स्वार्थों के अपमिश्रण के लिए केवल विदेशी आक्रमण ही जिम्मेदार  नहीं हैं ,अपितु मेरे 'धरतीपुत्रों ' की भी  इस क्षरण में भागीदारी रही है  !  बाह्य हमलावरों  की रक्त पिपासा ने मेरे सनातन और आदिवासी -बहुसंख्यक जन -मानस  को उसके अतीत के इस  सुभाषित से विमुख  किया है :-  :-

                      ''अयं  निज ; परोवेति ,गणना लघुचेतसाम् ! उदार चरितानाम् तु  वसुधैव कुटुम्बकम !! "

 यही वजह है कि मेरा वर्तमान जन-मानस इस  उत्तरआधुनिक दौर में  अनुशासनहीन ,दिखावटी और अराजक हैं। इस दौर के तरुण तेवर न तो  राष्ट्रवादी है और न ही धर्मनिरपेक्ष - लोकतान्त्रिक  व समाजवादी हैं ! भारतीय संविधान में वर्णित नीति -निदेशक सिद्धांत अब केवल पाठ्य क्रम की विषय वस्तु बनकर रह गए हैं। जो मुठ्ठी  भर लोग फासिज्म,अधिनायकवाद और  'अंधराष्ट्रवाद'  के खतरों की चिंता  करते हैं , वे प्रगतिशील  विचारक यदि इस अत्यंत आधुनिक  ४ जी मोबाइलधारी कौम के आंतरिक विग्रह और खोखलेपन को गौर से  देखेंगे तो उनकी  आशंकाएं निर्मूल सावित होंगी ! जब वे अलगाववादियों के मंसूबों को जानेंगे व  उग्रवाम या  नक्सल-  वादियों के बर्बर अराष्ट्रवादी  चेहरे देखेंगे, तो उन्हें  भी  देश की अखंडता खतरे में दिखाई देगी ! व्यक्तियों - समाजों की स्वार्थपरक लोलुपताओं  और शक्तिशाली दवंग-   वर्गों द्वारा  भारतीय  संविधान की अवमानना का  विहंगावलोकन करने पर उन्हें पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र भी पसंद आने लगेगा  ! जो अन्तर्राष्ट्रीयतावादी हैं वे भी  'राष्ट्रवाद' की  छाछ पीने को मजबूर हो जायेंगे !  वैसे भारतीय अखंडता व  लोकतंत्र के लिए यह जरुरी भी है !

              भारतीय  आधुनिक  जन-मानस की अराजक प्रवृत्ति  में सनातन गुलामी की मानसिकता  के  दो विपरीत और नकारात्मक गुणसूत्र बहुत गहरे तक पैठे हुए हैं ! ये प्रतिगामी तत्व  हर कौम को स्वार्थी,लालची   व आक्रामक बनाते हैं।  भारतीय  डीएनए में मौजूद  गुलामी की मानसिकता के लिए इतिहास की क्रूर घटनाएँ  भी  जिम्मेदार हैं। पहले तो  देशी राजे-रजवाड़ों  -सामंतों -जागीरदारों ,चक्रवर्ती -सम्राटों ने  आवाम को  इतना सताया और झुकाया  कि उसकी रीढ़ की  हड्डी ही  दुहरी हो गयी।  रियाया याने आम जनता को केवल यह सिखाया जाता रहा  कि  ' भारतभूमि तो  केवल  वीर  भोग्या ही  है  '! राष्ट्र या देश तो केवल उनका है जिनका शासन -प्रशासन होता है।  'प्रजा' को धर्मशास्त्र के माध्यम से बार-बार  सिखाया  जाता रहा कि उसका  कर्तव्य  केवल  अपने राजा को ही ईश्वर मानकर उसकी पूजा करना है । उसे लगान देना है। उसकी बेगार करना है।

स्वाभाविक है कि वीरता के जौहर दिखाने वाले राजा -सेनापति और सम्राट तो वंशानुगत अपना रक्तरंजित  इतिहास लिखते रहे । किन्तु निरीह जनता -किसान ,मजदूर ,कारीगर और शोषित समाजों का कोई इतिहास नहीं लिखा जा सका !चारणों - भाटों ने जब  सामंतों -राजाओं -सम्राटों को धीरोदात्त चरित्र के रूप में पेश  किया तो  जनता ने उन राजाओं-नबाबों को ही अपना आदर्श मान लिया । कालांतर में यह 'विष्णु का अवतार ' राजा -महाराजा  अन्नदाता  ही कहा जाने लगा  ! कुछ  राजा-महाराजा  तो  भगवान विष्णु के २४   'अवतार' ही बन गए ! यही वजह है कि 'राष्ट्र' शब्द को भूलकर  प्रजा याने जनता  राजाओं-सम्राटों की भक्ति में लींन होती चली  गयी ! ब्रिटेन,अमेरिका,चीन और जापान जैसे देशों के अनुशासन  के अभाव में -आजादी के बाद भी  यह भारत भूमि अभी भी' राष्ट्रवाद' से महरूम   है !

  सामंतयुगीन प्रमादी  देशी राजे-रजवाड़ों  ने  जब अपनी कायरता छिपाने के लिए ,हथियार डालकर 'अहिंसा पर्मोधर्मः 'का नारा लगाना  शुरू किया तो वेस्वयंभू  'महात्मा' और तीर्थंकर बन बैठे।  उन्हें संस्कृत  वाङ्गमय  का ज्ञान  तो था नहीं ,अतः ब्राह्मणों की  नकल करते हुए  वे पाली और प्राकृत में अपना  'अबूझ' ज्ञान जनता  को बांटकर बुजदिल और कायर बनाते चले गए। अनेक राजा भी उनके 'संघम शरणम गच्छामि' होते चले गए। भारतीय उपमहद्वीप में 'राष्ट्रीय' चेतना का तत्व पूरी तरह गायब था। मैदान साफ़ था।  विदेशी खूंखार भारत पर चढ़ दौड़े और सदियों की गुलामी का इंतजाम  होता चला गया।  वैदिक धर्म' और वेदान्त दर्शन  में तो फिर भी  शुक्राचार्य,वृहस्पति,वशिष्ठ ,विश्वामित्र   चाणक्य जैसे 'राष्ट्रवादी हुआ करते थे किन्तु वैदिक सिद्धांतों  की  आलोचना करने वाले, वैदिक कर्मकांड के प्रति विद्रोह  करने वाले  -तत्कालीन  नए-नए पंथ और दर्शन के प्रणेता  केवल मँगते  ब्राह्मणों की तरह अधनंगे नहीं बल्कि पूरे नंग्न होकर ,हाथों में भिक्षा पात्र लेकर 'भवति भिक्षाम देहि' कहते हुए - घर-घर भीख मांगने  निकल पड़े  ! जब राजपुत्रों के ये हाल रहे हों तो  आम आदमी का क्या हाल रहा होगा ? सैन्य शक्ति के अभाव में  चारो ओर से  विदेशी आक्रमण कारी भारत पर टूट पड़े होंगे ?

असुरक्षित भारतीय उपमहाद्वीप तो विदेशी जाहिलों के लिए मानों  नख़लिस्तान ही था ! जब बाहरी  हमलावरों ने  ततकालीन बिखरे हुए भारत को बुरी तरह रौंद  डाला तो निहथ्ती  जनता ने  अपने आप को गुलामी  के बंधन में क्यों न  बंधवा  लिया होगा  ? हमेशा यही वजह रही कि जब -जब विदेशी बर्बर आक्रान्ताओं ने  'आर्यावर्त' या  भारत के उत्तर  पश्चिमी  भाग पर जब-जब  हमले किये  हैं, तो रीढ़-विहीन  और 'दासत्वबोध' से पीड़ित  जनता ने  अपने  हारते हुए राजाओं का साथ  नहीं दिया । बल्कि मालिक काफूर जैसे भारतीय हिन्दू तो ,खिल्जियों के खुद ही मुलाजिम  बनते चले गए ।  आम जनता ने 'जिधर दम  उधर हम ' का सिद्धांत कार्यान्वित किया।  जब तक देशी राजा -महाराजा सत्ता में रहे तो उनकी  भक्ति या वीरता के गुणगान  करते रहे । उनके दरवारी- चमचे ,लेखक -कवि व  साहित्यकार  बनते रहे। जब विदेशी शासक सत्ता में आये तो आधुनिक दल बदलुओं की तरह अपने राजाओं की वीरता के विरदगान में ही जुट गए । परिणामस्वरूप  देशी  स्वयंभू महाबली ,चक्रवर्ती-सम्राट ,और 'शब्दभेदी बाण 'वाले   तीरंदाज राजा अपनी आँखे विदेशी  आक्रान्ताओं से फ़ुड़वाते रहे ! देशी राजा  बुरी तरह  हारते रहे। हिन्दोस्तान की  शाश्वत गुलामी का  नियति चक्र योन ही चलता  रहा !

   वैसे  पहले  हमलावर -शक ,हूँण ,कुषाण ,जट्ट-हट्ट ,मरहट्ट  और यवन समूह के रूप में जो खैबर दर्रा पार  करके आये  वे तो  भारत के  पश्चिमी और मैदानी भागों में बसते गए । कुछ गंगा यमुना के दोआब तक  भी पसर गए। कुछ नर्मदा तट तक  जा पहुंचे ! चूँकि ये  किसी खास  धर्म या  मजहब  को नहीं मानते थे , इसलिए ततकालीन   भारत  का जो  भी  प्रचलित धर्म  उन्हें नजर आया या समझ में आया वे उसी के  मुरीद या अनुयायी होते चले  गये । इस्लामिक आक्रमण से पूर्व के सभी आक्रमणकारी  -पिण्डारी,वंजारे या तातार  यहाँ भारत में  किसी खास धर्म -मजहब के प्रचार-प्रसार के  लिए नहीं आये थे ! बल्कि  भारत की महिमा सुनकर और  यहाँ प्रचुर धन धान्य की चाहत  से प्रेरित होकर ही यहां आये थे  ! इन युद्धोन्मत्त बर्बर  कौम  के योद्धाओं  ने न  केवल  भारत के  विशाल भू भाग पर कब्जा किया ,अपितु उन्होंने पराजित बचे-खुचे 'देशी' राजे-रजवाड़ों को भी अपनी विजित सेनाओं में शामिल कर लिया।  परिवर्तीकल में यही राजपुत्र -दासीपुत्र   अवसर आने पर स्वतंत्र राज्य कायम करने में भी सफल हुए। किन्तु आम जनता को तो केवल सनातन गुलामी का ही कोपभाजन  ही बनना बदा था ! आम जनता  -मजदूर,कारीगर ,किसान  सबके सब  गुलाम बनते रहे । विदेशी आक्रमणकारी और उन के  बर्बर कबीले भारतीय समाज के नव शासक और  रहनुमा बनते चले गए । भारतीय समाज ज्यादा से ज्यादा गुलामी की जंजीरों में जकड़ता चला गया।

           कालांतर में अरब,यूनान और पारसीक साम्राज्यों ने भी भारत विजय  के लिए निरंतर आक्रमण किये। किन्तु इनके बाद  जो तुर्क,उजवेग ,पठान , मंगोल आक्रमण  कारी आये। उन्होंने  भारतीय समाज पर न केवल कई गुना  निर्मम अत्याचार किये ,अपितु विकास के सभी सनातन मार्ग अवरुद्ध करते हुए - भारत की प्रत्येक पुरातन कृति  या अनुसंधान को 'शैतान की करामात' या काफिरों का फ़ित्र' घोषित करते चले गए। समस्त वैज्ञानिक और सांस्कृतिक सिलसिले पर प्रतिगामी  परिश्थतियों  पहरे और अपनी अरबी-तुर्की सभ्यता के जाल बिछा दिये ।  परिणामस्वरूप न केवल भारतीय पारम्परिक विज्ञान नष्ट होता  चला गया अपितु  जन -मानस को सैकड़ों साल तक सनातन दासता की भट्टी  में  भी सुलगते रहना  पड़ा। हालाँकि कालांतर में  भारतीय और मध्य एशियाई यायावर  सभ्यताओं के मिश्रण  का श्रीगणश होने  लग गया था। किन्तु तब तक भारत की जनता  और ज्यादा गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी  जा चुकी थी ।

अंत में तिजारत के लिए अंग्रेज और यूरोपियन आये।  उन्होंने पहले तो मद्रास,कोलकाता इत्यादि में व्यापरिक कोठियां -कालोनिया बसाइँ। बाद में सम्पूर्ण  भारतभूमि  पर कब्जा कर लिया । शुरुआत में  एक कम्पनी के रूप में ही उन्होंने  भारत को लूटा ।  १८५७ की क्रांति के बाद  क्वीन विक्टोरिया युग का सूत्रपात हुआ। उनसे भारत को कुछ सौगाते भी मिली  ! इन यूरोपियन्स और अंग्रेजों ने  भारत के सभी वर्गों को अंग्रजी , पुर्तगीज,फ्रेंच आदि भाषाओं   का  ज्ञान उपलब्ध हुआ। ,यूरोपियन रेनेसां ,क्रांतियाँ और 'राष्ट्रवाद' से परिचय हुआ।  अंग्रजों और यूरोपियन्स ने साइंस,रेल डाक, तार,  टेलीफोन और आधुनिक  तकनीकी एवं मेडिकल साइंस से  भी  भारतीयों  को परिचय कराया। उन्होंने भारतीय जान-मानस को  डेमोक्रसी और सम्विधान से  भी परिचित कराया। यहाँ तक कि  भारतीय स्वाधीनता सेनानियों को  आजादी का मन्त्र भी  सबसे पहले इन्ही अंग्रेजों -मि. ह्यूम व एनी  विसेंट  जैसी  इंग्लिश -आयरिश हस्तियों ने ही सिखाया  था । लेकिन  भारतीय  राष्ट्रवाद पर  साम्प्रदायिकता के ग्रहण तब भी विसर्जित नहीं हुए।

 आजादी मिलने के फौरन  बाद देश  की जनता  को पता चला कि  कबायलियों ने कश्मीर पर कब्जा कर लिया है।  जब तक उससे उबरते कि  पता चला  की पाकिस्तान ने भी  जूनागढ़ और कश्मीर पर हमला कर दिया है।  फिर १९६५ में  जंग जीतकर  भारत  जब जश्न की तैयारी कर रहा था तभी  देश के ततकालीन  प्रधानमंत्री  लाल बहादुर  शाश्त्री का दुखद निधन हो गया ! और भारतीय फौज को  पाकिस्तान का जो इलाका जीता था वह  वापिस  पाकिस्तान को  दे देना पड़ा।  हालाँकि इसके  पहले चीन ने  भी मेक मोहन रेखा  को मानने से इंकार किया था। इस मुद्दे पर  भारत -चीन युद्ध भी हो चुका था । ततकालीन  भारतीय नेता 'अहिंसा' नीति पंचशील  सिद्धांत बघारते रहे। भारतीय सेनाएं  युद्ध में  चीन से हारती रहीं !  भारत की   छाती पर केवल राष्ट्रवाद की  मातमी धुन  बजती  रही।  "ये मेरे वतन के लोगो  ,,जरा आँख में भर लो पानी ,,,जैसे अश्रु पूरित गाने सुनाये जाते रहे ! चीन से हारने  के बाद  भारत की कुछ भूमि  भी  इस झगड़े में  विवादस्पद होती  चली गयी। नसीहत के रूप में  भारतीय  जन -मानस  ने कुछ अनुशासन और त्याग की बातें करना शुरू कर दीं ,राष्ट्रवादी साहित्य लिखा जाने लगा ।  'राष्ट्रवाद  और अंधराष्ट्रवाद का फर्क भी  पुनः परिभाषित किया जाने लगा।

१९७१ में  बँगला देश को लेकर हुए भारत -पाक युद्ध के दौरान  भारत को ,पूर्वी पाकिस्तान के  बँगला भाषी  दीन -दुःखीजनों  के लिए भी लड़ना पड़ा।  भारत पर  पाकिस्तान,अमेरिका और चीन के द्वारा थोपे गए इस युद्ध में  भारत की  महान विजय हुई । वेशक  भारत को यह जीत  ततकालीन सोवियत संघ के नेतत्व  के  सहयोग से मिली। किन्तु तब दुनिया ने  अमेरिका की  गोद में बैठे  पाकिस्तान को भी  बुरी तरह  हारते हुए  भी देखा।  सिर्फ यही एक मिशाल है  भारत के शानदार इतिहास की जब   भारत की जनता ने 'राष्ट्रवाद' का स्वाद  चखा है  ! उस महा विजय के बाद से भारतीय  राष्ट्रवाद की  खुमारी परवान  चढ़ने लगाई तो पड़ोसी मुस्लिम राष्ट्र और भारत के कुछ  गुमराह  अल्पसंख्यक  आतंकी होते चले गए।  ने केवल मुंबई,कश्मीर या यूपी वेस्ट या गोधरा में बल्कि   पूरे देश में 'दाऊद,हाफिज सईद और अबु सलेम जैसे लोग आग मूतने लगे।  ये लोग न केवल हिंसक वारदातें  करते रहे ,न केवल नकली मुद्रा और ड्रग -माफ़िया बनते रहे बल्कि  आम चुनाव में  टेक्टीकल  वोटिंग  करने लगे। उनकी नकारात्मक  भूमिका  से  आजिज आकर बहुसंख्यक  समाज  भी सशंकित होने लगा और  वह भी   हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक नेतत्व  के पीछे लामबद्ध होता चला गया। इसीलिये आज  तथाकथित हिन्दुत्ववादी   दल बहुमत  मैं हैं ,लेकिन इनके  सत्ता में  आ जाने  से 'अंधराष्ट्रवाद' की धमक  सुनायी देने लगी है ,असल  राष्ट्रवाद अभी भी खतरे में  ही है।

कुछ  कमजोर वर्गों को आरक्षण दिया जाना कुछ समय के लिए तो  उचित और जस्टीफाई था किन्तु अन्य  सबल समाजों का आरक्षण  मांगना -स्वार्थी उन्माद एवं बहुसंख्यक वर्ग का  दैन्य भाव सावित करता है। इस तरह का जातिवाद ,खापवाद ,और आरक्षणवाद  भारत के 'राष्ट्रवादी' आवेग को रोकने में सफल  हो रहा है।  यह खतरे की घंटी  हैं।  आलस्य ,स्वार्थ,भृष्टाचार,रिश्वत ,लूट,शोषण और अलगाववाद की  मानसिकता  ने  भी  'वतनपरस्तों' को  नाकारा बना  डाला है । राष्ट्रवाद की  गाड़ी फिर  पटरी  पर चढ़ने से पहले ही से उतरती जा रही है।  भारतीय संसदीय लोकतंत्र और उसके  राष्ट्रवादी तेवर  यथार्थ के धरातल पर विज्ञानसम्मत होने चाहिए। केवल  लूटते रहने  या गुलाम  होने को तो भारत अभिशप्त नहीं हो सकता ! किसी कवि का दोहा याद आ रहा है !
   
   
    अति सज्जनता वापरी ,डग -डग  ठोकर  खाय !

   मलयागिरि  की भीलनी ,चंदन  देत  जलाय !!

 भारतीय लोकतंत्र की खूबियां और  भारतीय सकल समाज की सहिष्णुता का  प्रतिबिम्ब  'राष्ट्रवाद ' के आईने में भी दिखना  चाहिए। समन्वयकारी मूल्य और धर्मनिरपेक्षता जैसे  बेहतरीन  गुणों का दुरूपयोग नहीं होना चाहिए।  वर्तमान दौर में  सत्ता पाने के लिए पूंजीपति वर्ग और सम्प्रदायिक तत्व 'अंधराष्ट्रवाद' का शंखनाद किये जा रहे हैं। यह  खतरनाक  सोच और  कुदृष्टि है। भारत को  अंधराष्ट्रवाद नहीं विशुद्ध लोकतान्त्रिक  - धर्मनिरपेक्ष  राष्ट्रवाद चाहिए।  यही उसके गौरव के अनुकूल है।  इसके लिए  भारतीय  आवाम को अपने स्वाधीनता संग्राम से  कुछ त्याग और अनुशासन और सीखना होगा। राष्ट्रवाद और संसदीय डेमोक्रसी  का आदर करने के लिए  'आपातकाल' जैसे किसी खास झटके की जरूरत  पड़े तो देश हित  में -जन हित  में उसका भी विकल्प खुला रखना चाहिए  ! वरना पाकिस्तान ,चीन और अन्य  पड़ोसी  मुल्क  भारत को  इसी तरह   लगातार परेशन करते रहेंगे।

  श्रीराम तिवारी
 
 

बुधवार, 26 अगस्त 2015

तब भारत के करोड़ों युवा भी हार्दिक का हार्दिक समर्थन करते !



  जो लोग सरदार पटेल को बड़ा  तुर्रम खां या तीस मारखां मानते रहे  हैं ,उन्हें यह जानकर शर्मिंदगी ही  उठानी पड़  सकती है कि  सरदार  पटेल के नाम पर  देश भर से लोहा लंगड़ इकठ्ठा कर उनका  बुत बनाकर  कोई शख्स पूरे देश का नेता बन जाता है । अब एक उत्साही युवा हार्दिक पटेल  भी उन्ही सरदार पटेल  की जाति -समाज के नाम पर  गुजरात में कोहराम मचाने को आतुर  है।

     पटेल -पाटीदार समाज के आरक्षण आंदोलन की अगुआई कर रहे हार्दिक पटेल  का नारा है -

"पटेलों-पाटीदारों को आरक्षण दो या आरक्षण को ही समाप्त करो ,वरना आइन्दा गुजरात में कमल नहीं खिलेगा "

 उसका यह उद्घोष बहुतों को जचा होगा ! मुझे हार्दिक के इस नारे पर आपत्ति है ! मेरा विवेक कहता है कि काश  हार्दिक पटेल ने कहा  होता कि;-

 " देश के तमाम भूमिहीन-खेतिहर मजदूरों ,शिक्षित/अशिक्षित - सभी जाति -मजहब के वेरोजगार युवाओं और वास्तविक कमजोर वर्ग के  साधनहीन  भारतीयों  को  आरक्षण दिया जाए !"

यदि हार्दिक या कोई और व्यक्ति ,संगठन अथवा राजनैतिक पार्टी इस तरह का आंदोलन करे तो  भारत  के करोड़ों  युवा  उसका समर्थन करेंगे ।  लेकिन तब वह केवल पटेलों का नेता नहीं  होगा !  तब वह तोगड़िया जी की तरह  केवल हिन्दुओं का नेता नहीं होगा ! तब वह ओवैसी  जी की तरह केवल मुस्लिमों का नेता नहीं होगा ! बल्कि  तब  वह लेनिन,फीदेल कास्त्रो ,हो-चीं -मिन्ह या गांधी जैसा -पूरे देश का नेता होगा । और तब वह न केवल गुजरात में बल्कि पूरे देश में 'कमल खिलने' से रोकने  में सक्षम होगा ! तब वह  भारत को पंजे  की पकड़ से भी मुक्त  करने में सफल होगा !

अभी गुजरात में पटेल-पाटीदार जो भी कुछ कर रहे हैं इससे भाजपा और मोदी सरकार पशोपेश में हैं। संघ वाले भी आपाधापी में चकरघिन्नी हो रहे हैं। किन्तु  कांग्रेस और विपक्ष को भी ज्यादा खुश होने की जरुरत नहीं है। क्योंकि  इस पटेल वाद से प्रेरित  आंदोलन  का ऊंट किस  करवट बैठेगा यह अभी इतिहास के गर्भ में छिपा हुआ है।  देश में कभी जाट,कभी गूजर ,कभी पटेल और कभी अलां -कभी फलाँ  के जातीय आरक्षणवादी आंदोलन से देश के  सर्वहारा  वर्ग के संघर्षों को भी  कोई मदद नहीं मिलेगी। इस तरह के  जातीय उन्माद और उनके नेताओं के भड़काऊ भाषणों  से  न केवल गुजरात बल्कि पूरे भारत में अराजकता व अशांति फैलेगी। इस तरह के विमर्श से  वैश्विक स्तर पर  भी भारत की  बड़ी  बदनामी  ही  होगी ! भारत के दुश्मन मजाक उड़ाकर कहेंगे  कि  जिस गुजरात के विकास को भारत के विकास का माडल बताया जा रहा है ,उस  भारत की असल तस्वीर यही  है !

याने भारत  के जो  युवा अमेरिका और कनाडा में सफलता के झंडे गाड़ रहे हैं  यदि उनके ही बंधू-बांधव भारत में और ख़ास तौर  से गुजरात में  अपने ही  मादरे-वतन  में आरक्षण के लिए  पथ्थरबाजी कर रहे हों ,बसों में आग लगा रहे हों ,दुकानों में आग लगा रहे हों  ! तब  यूएन में स्थाई सदस्य्ता की दावेदारी का  हश्र क्या होगा ? जो लोग  पटेलों ,गूजरों ,जाटों  और अन्य तथाकथित पिछड़ी जाति को आरक्षण के लिए  भड़का रहे हैं वे यह  याद  रखें  कि आरक्षण  की वैशाखी से  भले ही  किसी समाज  विशेष के कुछ युवा -कलक्टर,एसडीओ,एसपी या बाबू बन  जाएँ ,किन्तु  इससे उनके समाज के अधिकांस लोग वंचित ही रहेंगे। साथ ही आरक्षण की वैशाखी के सहारे चलने वाले  अच्छे -खासे हष्टपुष्ट लोग  भी स्थाई अपंगता के शिकार होंगे ! उनकी  भावी पीढ़ियाँ  भी  नितांत अकर्मण्य और निठल्ली होती जायेंगी ! आरक्षण नहीं होने पर  भी  निम्न आर्थिक  वर्गों के कुछ युवा आज जिस ठाठ से सीना तानकर  अपनी प्रतिभा -क्षमता का  लोहा मनवा रहे हैंवह गौरव अतुलनीय है ! सीमाओं पर अपनी वीरता और शौर्य  का जो  प्रदर्शन कर  रहे हैं  वे  ही राष्ट्र के असली हीरो हैं ! जातीयता के नाम पर आरक्षण की  मांग उठाने  वाले  जो भीड़ जुटा रहे हैं वह भेड़ों का रेवड मात्र है ! उनके जातीयतावादी नेता देश के हीरो नहीं  हो  सकते। बल्कि ये  आरक्षण की  वैशाखी मांगने वाले और आरक्षण की पीढ़ी -दर -पीढ़ी मलाई  खाने वाले  यह  याद रखें कि   यह स्थाई अपंगता , वंशानुगत कायरता  का लज्जाजनक आह्वान है !

 जो  जातिवादी नेता लोग आरक्षण - जातिवाद से वोट बटोरने का लोभ-लालच  पालते  हैं वे  देश भक्त कदापि नहीं हो सकते ! वेशक वर्तमान में और  अतीत में भी कुछ ऐंसे लोग जातीय आरक्षण का लाभ  उठा चुके हैं। ये लोग  वास्तविक गऱीबों से तो  ज्यादा मालदार  ही रहे होंगे ! मैं व्यक्तिगत तौर  पर  ऐंसे सैकड़ों  चालु लोगों को जानता हूँ जो जातीय आधार पर आरक्षण ले रहे हैं। जिन्हे आरक्षण मिला वे आरक्षण से पूर्व भी  मेरी व्यक्तिगत माली हैसियत से सैकड़ों गुना धन -सम्पन्न और ताकतवर रहे  हैं ! लेकिन हत भाग्य ! जातीयता और उसके वोट बैंक की  लोकतंत्र लीला ने सामान्य वर्ग के  निर्धन  जनों को उन की कुलीनता  के लिए निरतंर दण्डित किया है !  कोई मजदूर ,सर्वहारा यदि ब्राह्मण ,क्षत्रीय ,वैश्य कुल  में जन्मा है तो इसमें उसकी  क्या  गलती हो सकती है ? इसी तरह  कोई व्यक्ति यदि जातीय रूप से आरक्षित कुल में जन्म लेता है तो उसकी उसमें क्या महानता   हो सकती है ? जब दोनों ही इंसान हैं ,दोनों ही भारतीय हैं , दोनों ही  शारीरिक और मानसिक रूप से एक समान हैं,  जब दोनों के वोट की कीमत एक सी है तो यह आरक्षण जस्टीफाई कैसे किया जा सकता है ?

  एक को राजकीय संरक्षण याने आरक्षण और  दूसरे  के पैरों में गुलामी की बेड़ियां  ! कहीं ये किसी एक व्यक्ति की निजी खुन्नस का परिणाम तो नहीं ? इसके अलावा  पिछड़े वर्ग की सूची -मंडल कमीशन की रिपोर्ट ,इत्यादि के विमर्श  में क्या  गारंटी है कि  यथार्थ के धरातल  पर ही  फैसले लिए गए हों ? यदि अब उसी गलती को आधार बनाकर  शेष  सबल  समाज के लोग  भी  अपने आपको पिछड़ा बताकर आरक्षण  की मांग कर रहे हैं तो क्या  यह इतिहास की ही भयंकर भूल नहीं है ?  अधिकांस आरक्षण धारी वर्ग  के अफसर  मंत्री  और  निर्वाचित  नेता  -जन प्रतिनिधि  अब आर्थिक -राजनैतिक दुरूपयोग में मशहूर हो  रहे हैं।  इसी से  प्रेरित होकर कुछ मुठ्ठी भर लोग इस तरह के जातीय पिछड़ेपन को  ढाल बनाकर न केवल उनके ही समाज  बंधुओं   को  बल्कि पूरे  देश से ही  छल  कर रहे हैं। वे कितना ही आरक्षण का फायदा उठा लें ,किन्तु अंततोगत्वा उन्हें भी  पश्चाताप के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आने वाला !  यदि हार्दिक  पटेल और उसके समाज  में बाकई  'सरदार पटेल ' वाला कोइ  सार्थक संघर्ष का माद्दा है , तो वे भारत के 'केंद्रीय श्रम  संगठनों'  के साथ एकजुटता कायम कर अपनी ताकत का सही इस्तेमाल करें और नया इतिहास बनायें ! केवल अपने समाज  के लिए आरक्षण मांगना ,उसके उसके लिए आंदोलन चलाना देश हित  में कदापि नहीं है !

   श्रीराम तिवारी


  

सोमवार, 24 अगस्त 2015

ताकतवर समाजों के लोग मजहब-धर्म व आरक्षण जैसे फ़ालतू मुद्दे उठाकर जनता का ध्यान क्यों भटका रहे हैं ?





  "अहा ! भारत हमारा कैसा  सुंदर सुहा रहा है !''  जिस किसी ने भी ये पंक्ति लिखी हो ! परमात्मा उसे जन्नत  में  मुकाम दे ! टीवी चेनल्स पर आरक्षण की माँग करते हुए गुजरात की सड़कों पर लाखों ,खाते-पीते -चिकने  -चुपड़े - हंसमुख  और  गदगदायमान  चेहरे नजर आ  रहे हैं ! हष्ट-पुष्ट सुंदर-नर-नारी एक साथ देखकर  किसी विकसित राष्ट्र का भृम हो रहा है !  ऐंसा नहीं  नहीं लगता की ये  भारत का मंजर है ! यह भी नहीं लगता  कि  ये चेहरे आरक्षण की  वैशाखी  के लायक हैं ! बल्कि लगता है कि आरक्षण तो अब 'दवंगों' का  राजनैतिक शौक बन गया है ! उन्हें लगता है कि  ये सम्पन्न वर्ग के लोग  शायद आरक्षण के बिना  महान नहीं बन सकेंगे  ! इसके बरक्स  जो आरक्षण के असल  हकदार हैं ,वे भारत के  वास्तविक गरीब -,मजदूर और किसान अभी भी अपनी आवाज को समवेत स्वर नहीं दे पा रहे हैं! लेकिन यह अकाट्य सत्य है कि जब तक इन करोड़ों अकिंचन जनों के कष्टों का निवारण नहीं होता ! तब तक  सबल समाजों  की भी खैर नहीं ,भले ही वे भूस्वामी होकर भी आरक्षण की अलख जगाते रहें !

 इसी तरह जो सबल समाज के लोग  अपनी आर्थिक समपन्नता पर इतरा रहे हैं !और 'संथारा-संलेखना ' जैसे  अनावश्यक  मजहबी-धार्मिक और गैरबाजिब विमर्श  के लिए सड़कों पर शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं ! करोड़ों  - वेरोजगारों ,निर्धन -किसानों , मेहनतकशों -वेरोजगारों  की अनदेखी कर के जो लोग  अपने किसी  खास धर्म-दर्शन या मजहब  को छुइ-मुई मानकर शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं वे न्याय और इन्साफ से कोसों दूर हैं ! उन्हें  जब तक वास्तविक 'सत्य' का ज्ञान  नहीं होगा  ,तब तक  उनके भी संशय का निवारण नहीं हो सकता !

कल लाखों धवल वस्त्र धारी -अहिंसा के  पुजारी,जब एक साथ मौन धारण कर इंदौर एवं देश के अन्य नगरों की सड़कों पर निकले तो उनके 'खाते-पीते'  देदीप्यमान चेहरे निरख-निरख मेरा मन बरबस ही गाने लगा  'भारत हमारा कैसा सुंदर सुहा रहा है ! राजस्थान हाई कोर्ट ने 'संथारा-सल्लेखना 'पर जरा सी आपत्ति क्या जताई, भाई लोगों  को मिल गया शक्ति प्रदर्शन का बहाना !  'बंद'-फंद ' की लीला दिखाई !  मजहबी उसूलों में हस्तक्षेप के नाम पर अन्य अल्पसंख्यक  वर्ग के नेताओं ने भी बहती गंगा में डुबकी लगाई !इन में से  किसी को भी जनता के सरोकारों की याद नहीं आयी !  शासन-प्रशासन के लोग हत्या-बलात्कार -डकैती पर अंकुश तो नहीं लगा  पा रहे हैं  किन्तु जनता का ध्यान भटकाने के लिए 'कांवड़-यात्रा ' अमर्नाथ यात्रा ,हज यात्रा पर जरा ज्यादा हीशोर मचा रहे हैं ! रेलें टकरा रहीं हैं ,पल धस रहे हैं ,लोग मर रहे हैं ,नेता  और पूँजीपति अपना विकास कर रहे हैं !

कल इंदौर में केंद्रीय मंत्री नरेन्द्रसिंह तोमर ने 'अच्छे दिनों 'की बाट लगा दी !  नेताजी  ने फ़रमाया कि भाजपा ने कभी नहीं कहा कि  'अच्छे दिन आयंगे' ! ये तो मीडिया और सोशल साइट्स वालों की हरकत थी कि नारा जड़ दिया !भाजपा वालों ने नहीं कहा  था कि  'अच्छे  दिन आएंगे ,राहुल नानी के घर जाएंगे '! यदि इस तरह के नारों  की गफलत में जनता ने  हमें[भाजपा और मोदी सरकार को ] भारी बहुमत  से  जिता दिया तो इसमें हमारा क्या कसूर है ? सत्तारूढ़ नेताओं के इस तरह के बोल बचन पर भारतीय सबल समाज के पढ़े लिखे शिक्षित- सभ्रांत  लोग  मौन क्यों हैं ?

कुछ दिन पहले भाजपा अध्यक्ष ने भी  इसी तरह कुछ बयान किया  था ! ''हमने काले धन की वापिसी और उसमें से प्रत्येक  खाता धारक गरीब के खाते में १५ लाख रूपये जमा करने का वादा  कभी नहीं किया ! ये तो मोदी जी का चुनावी  जुमला था" !  ताकतवर समाजों  के लोग  मजहब-धर्म व  आरक्षण जैसे  फ़ालतू मुद्दे उठाकर जनता का ध्यान   क्यों भटका रहे हैं  ? कहीं  वे  सत्तारूढ़ नेताओं की अकर्मण्यता को छिपाने के किसी  गुप्त एजेंडे पर काम तो   कर रहे हैं ? क्योंकि  असफल  सत्ता पक्ष के नेता वादों से मुकरने के लिए इस तरह की  बहस और नाटक  - नौटंकी  से  देश के सर्वहारा वर्ग को पहले भी मूर्ख बनाते  रहे हैं। यदि  पटेल-पाटीदार समाज को  ६० रूपये किलो प्याज ,१५० रू प्रति किलो तुवर  दाल  बिकने पर कोई फर्क नहीं पड़ता  तो  वे आरक्षण की मांग  क्यों  कर  रहे हैं ?

 हो सकता है कि  जैन् समाज के अधिकांस लोगों को प्याज की मेंहगाई  से कोई लेना-देना न हो ! किन्तु जो  तुवर दाल मनमोहन सिंह के राज में  १५ माह पहले ५० रुपया किलो  मिल जाती  थी ,वह मोदी जी के राज में  अब १५० रु प्रति किलो  बिक रही है ! क्या जैन समाज को  इससे कोई एतराज नहीं है ? भवन निर्माण मेटेरियल सौ गुना महँगा हो चूका है , जो  बालू रेत  १५ माह पहले ७ हजार रूपये प्रति ट्रक बिकती थे ,वह  इंदौर में अब एक लाख रूपये प्रति ट्रक  बिक रही है ! क्या सबल जैन समाज के लोग  इस अंधेगर्दी पर चुप ही रहेंगे ? क्या इस  पर एक विज्ञप्ति  भी जारी नहीं कर  सकते ? हो सकता है कि गुजरात के पटेलों  को  और देश भर के जैनियों को इस मेंहगाई से कोई फर्क न पड़ता हो! किन्तु जिस जनता को फर्क पड़ता है वो २ सितमबर को 'केंद्रीय ट्रेड यूनियन्स' के साथ कंधे से कंधा मिलकर  अपने असंतोष का इजहार अवश्य  करे !

 यदि पटेल ,पाटीदार ,जैन समाज के लोग इस 'सर्वजन हिताय' राष्ट्र व्यापी संघर्ष में शामिल होंगे तो ही हम मानेंगे कि  उनके प्रदर्शन का उद्देश्य पवित्र और सात्विक है ! यदि वे जन -संघर्षों में साथ देते हैं तो उन्हें भी  अन्य हितों पर देश की जनता का साथ मिल सकेगा  ! अन्यथा  देश की मेहनतकश  जनता यह मानकर चलेगी कि  ये लोग भी 'शोषक-शासक' वर्ग के स्टेक-होल्डर्स' हैं !और उनके ये तमाम भीड़ भरे आयोजन केवल शक्ति प्रदर्शन मात्र हैं !

       श्रीराम तिवारी   

पानी बिना नहीं कहीं कोई जिंदगानी है।


पानी परमात्मा, पानी ही आत्मा , सृष्टि का कारण भी  एकमात्र पानी है।

 ये आकाश गंगा , ये नीहारिकाऐं, ये सूरज  ये  चंदा कुदरत की निशानी है।

है जितना  भी  जूना  ब्रह्माण्ड सारा, ये धरती  हमारी  उतनी पुरानी है।

 बनावट में इसकी  उन्तीस भाग भूतल ,इकहत्तर में केवल पानी ही पानी है।

 पहुंच तो गए हम  सितारों से आगे ,मिला नहीं अब तक  कहीं  हमें पानी  है।

  भले ही बसा लें चाँद -मंगल पर बस्ती, पानी बिना  फिर भी नहीं जिंदगानी है।

            श्रीराम तिवारी 

 

गुरुवार, 20 अगस्त 2015

अगड़े-पिछड़े के फेर में आरक्षण की अकथ कहानी !!

आजकल गुजरात के पाटीदार -पटेल समाज में "हार्दिक-हार्दिक'' की बड़ी धूम है। खबर है कि पांच-दस लाख लोग तो उसके एक  इशारे पर ही सड़कों पर निकल पड़ते हैं। उसकी लोकप्रियता से न केवल कांग्रेस के नेता  परेशान हैं  बल्कि भाजपा भी परेशान है। खबर तो यह भी है कि गुजरात की  मुख्यमंत्री आनंदी पटेल और खुद भारत के प्रधानमंत्री  श्री मोदी जी भी 'हार्दिक' शब्द सुनकर  असहज होने लगे हैं।  दरसल गुजरात के पटेल समाज में  आक्रोश तो पहले से ही सुलग रहा था।  किन्तु उसे कोई ढंग से 'स्वर'नहीं दे पा रहा था। केसु भाई पटेल तो  पहले ही मोदी जी के हाथों फ़ना हो चुके थे । इसलिए अब वाइस साल के हार्दिक पटेल को गुजरात के पाटीदारों-पटेलों ने अपना एकछत्र नेता बनाकर, पटेल समाज को आरक्षण देने की जंग छेड़ दी है ।

 मेरा ख्याल  है कि  न केवल पटेल-पाटीदार, बल्कि  प्रधान, पोद्दार ,मुखिया ,मौरूसी ,लम्बरदार,जमींदार, सेठ  ,साव ,साहू और चौधरी ये सब जाति ,वर्ण या गोत्र नहीं हैं। बल्कि ये सब तो सामंकालीन  सबल सक्षम समाज की पदवियाँ हैं। मध्युग में व्यवस्था संचालन के लिए राजे -रजवाड़े अपने हाकिम -कारकुन रखते थे। जाहिर है कि उन्हें राज्याश्रय भी प्राप्त था। प्रस्तुत पदवीधारी समाज खाते -पीते खास लोगों का ही  हुआ करता था। अब यदि ये सनातन से सम्पन्न  समाज  भी मौजूदा दौर में आरक्षण मांगने की दयनीय अवस्था में आ चूका है तो उनका क्या हाल होगा ? जिनके पूर्वज  पहले सिर्फ  आम आदमी  करते थे !यदि एनआरआई युवाओं की टोली आरक्षण मांगने के लिए 'हार्दिक-हार्दिक' कर रही है तो शेष बचे निर्धन भारतीयों को क्या अल्ला मियां के हवाले छोड़ा जा रहा है ?

 कभी भिक्षा पात्र लेकर 'भवति भिक्षाम देहि'का नारा लगाने वाले वामनों को बड़ा गुमान था कि वे धरती के 'भूदेव' हैं ! किन्तु जब बौद्धों ने दंड-कमंडल पकड़ा तोअधिकांस  वामन वेरोजगार हो गए ! अब साध्वी निरंजना ज्योति , साध्वी ऋतम्भरा जी, उमा  भारती जी ,राधे मा जी ,रामपाल जी एवं आसाराम जी [जेल वाले] ,स्वामी रामदेव जी -पतंजलि वाले और अन्य अधिकांस साधु  सन्यासी इत्यादि सबके सब 'पिछड़े'  वर्ग के होते हुए भी जब धर्मध्वज हो गए हैं , तो उनके  समाज को पिछड़ा कैसे कहा जा सकता है ?

इसी तरह अधिकांस नक्सलवादी भाई आदिवासी ही हैं। जब तक वे नक्सली हैं तब तक तो वे वामनों- ठाकरों और कायस्थों  पर ही नहीं बल्कि भारत सरकार पर भी भारी  हैं। किन्तु यदि वे हथियार डालकर मुख्य  धारा में शामिल हो जाएँ तो वहाँ  आरक्षण का  पैदायशी हक भी  उनका इन्तजार कर रहा है।  याने चिट भी मेरी -पट  भी मेरी -क्योंकि अंटा मेरे बाप का ! जाति प्रथा  महा ठगनी हम जानी ,आरक्षण की अकथ कहानी ,हम जानी या तुम जानी !

संविधान की  मंशानुसार भारत के निर्धन -दलित -आदिवासियों  को आरक्षण दिए जाने पर तो किसी को कोई एतराज नहीं है।यह तो नितांत जरूरी है कि शोषितों -पीड़ितों को आरक्षण मिले ! किन्तु जब देश के भूस्वामी  - जमींदार ,पूँजीपति ,अफसर, मंत्री और अपराधी जब  तथाकथित पिछड़ी जाति के आधार पर देश की सत्ता पर अनवरत काल तक अपना प्रभुत्व बनाये रखना चाहेंगे ,तो बड़ी मुश्किल होगी। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ की यदि  द्वारकाधीश -  भगवान श्रीकृष्ण के वंशज पिछड़े और दरिद्र हो सकते  हैं, तो निर्धन सर्वहारा - सुदामा के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए ? सम्राट बिन्दुसार ,चन्द्रगुप्त , अशोक, के वंशज यदि  दलित और पिछड़े हो सकते   हैं, तो  झोपड़ी में रहने वाले लँगोटीधारी चाणक्य के वंशज अगड़े कब और कैसे हो गए ? कहीं ऐंसा तो नहीं कि संसदीय लोकतंत्र में बहुमत की दादागिरी  के वास्ते , वोट की राजनीती वालों ने निरीह -निर्दोष -निधन जनता की  छाती पर  यह आरक्षण  की दुंदभी बजाई  हो !

                         ज्यों -ज्यों देश की जनसंख्या बढ़ती जा रही है ,त्यों-त्यों सभी जातियों -सम्प्रदायों के आधुनिक युवाओं को -आजीविका के लिए गलाकाट प्रतिस्पर्धा में जूझना पड़ रहा है। वेशक जो युवा प्रतिभाशाली हैं ,जिन्हे आधुनिक तकनीकी उच्च शिक्षा के अवसर उपलब्ध हैं, उनकी तो  वर्तमान दौर के उदारीकरण,बाजारीकरण और भूमंडलीकरण के  परिदृश्य में वेशक  बल्ले -बल्ले है। उनमें से कोई एक  सौभाग्यशाली तो गूगल का सीईओ भी  बन गया  है। कोई एमएनसी में प्रतिष्ठित हो  चूका  है। कोई यूएन सेक्रेट्रिएट में नौकरी पा गया  है। कोई  एक  भारतीय युवा व्हाइट हाउस में ही काम पर लग गया  है। कोई ऑस्ट्रलिया में ,कोई यूके में ,कोई सिंगापुर  में और कोई  कनाडा में भी अपनी योग्यता और हुनर का झंडा गाड़ रहा  है। किन्तु यह खुशनसीबी सब को उपलब्ध नहीं है ! अधिकांस युवा  जो  कुदरती तौर  पर वैश्विक स्तर के प्रतिभाशाली नहीं होते और जातीय तौर पर यदि  वे सामान्य वर्ग से होते  हैं, तो उन के लिए  एमएनसी या विदेशी कम्पनियों में चांस नहीं के बराबर हैं। मजबूरी में उन्हें अपने देश में  ही किसी  सेठ -साहूकार की या कार्पोरेट  कम्पनी के मालिक  की गुलामी करनी पड़ रही है  !

क्योंकि सरकारी नौकरी पर तो आरक्षित श्रेणी का बोर्ड  टंगा  हुआ है ! आधुनकि शिक्षा संसाधनों की बढ़त ने इधर सभी  वर्ग  के  युवाओं  को प्रतिश्पर्धा की आग में झोंक दिया  है।आरक्षण के अभाव में यदि सामान्य  श्रेणी के कुछ  युवा प्रतिश्पर्धा  में  है भी तो उनके सामने जातीय आरक्षण की लौह दीवार  मौत की तरह मुँह बाए  खड़ी  है।सूचना संचार  क्रांति ने भी इसमें नकरात्मक भूमिका ही अदा की है। व्यापम काण्ड ,डेमेट काण्ड और मुन्ना भाइयों के किस्से अब आम हो चले हैं !इनमें भी सत्ताधरी वर्ग के बगलगीर और निहितस्वार्थी लोग ही संलग्न पाये गए हैं। सभी वर्गों के कमजोर  युवाओं और खास तौर  से अनारक्षित वर्ग के युवाओं ने इस शार्ट - कट में फंसकर 'मरता क्या न करता 'कि  तर्ज पर अपना बहुत कुछ गंवाया है।

 जन्मना सामान्य जाति के जो युवा किसी किस्म के आरक्षण की  सीमा में नहीं आते .जो  गरीबी-अभाव के चलते उचित शिक्षा हासिल नहीं कर पाते हैं , ऐंसे  साधनहीन युवा मामूली सी पगार और कठोर सेवा शर्तों पर १२-१२ घंटे अपना श्रम बेचकर , हर किस्म के शोषण का शिकार हो रहे हैं ! इस व्यवस्था  से असंतुष्ट कुछ युवा  तो शहीद  भगतसिंह  और सफ़दर हाशमी के राह चल देते हैं।जिनका अंत केवल शहादत ही हो सकता है। और कुछ जो अक्ल के  दुश्मन  हैं वे  ज़िंदा रहने के लिए ,चोरी-चकारी -डकैती जैसे अनैतिक रास्ते अपनाकर बेमौत मरने  पर मजबूर हो जाते हैं । इसके अलावा कुछ ऐंसे भी हैं जो अपनी जातीय संख्या बल  की ताकत से अपने आर्थिक-सामाजिक  और राजनैतिक हितों को साधने के लिए आरक्षण की मांग उठाते हैं।  वे उग्रतम आंदोलन  करते हैं.रेल की पटरियाँ  उखाड़ते हैं ,न्यायालय की अवमानना करते हैं ,और फिर वे राजनीति में एक  'जातीय गैंग ' बनकर  चुनाव में अपनी  अपनी ताकत  दिखलाते हैं। इनका यह शौर्य केवल आरक्षण की खुरचन खाने के लायक ही होता है।

 सीमाओं पर शौर्य दिखाने में लिए या  नावेद जैसे आतंकी को जिन्दा पकड़ने के लिए तो कोई   बिना  आरक्षण वाले  - विक्रमजीत शर्मा और राकेश शर्मा ही काम आते हैं ! लालू,मुलायम पप्पू यादव या कोई हार्दिक  पटेल वहाँ सीमाओं पर पाकिस्तानी खुरेन्जिओं से सर कटाने क्यों जाएंगे ? वे तो स्वयंभू पिछड़े हैं सो  लड़ाई में पीछे रहेंगे ! किन्तु  आरक्षण का अधिकार मांगने में ही वे सबसे आगे रहँगे ! देश के लिए लड़ना -मरना  तो उनका काम है,जो जाति -धर्म से परे  होकर केवल अपनी मातृभूमि के लिए जन्में हैं !जिनकी किस्मत में सिर्फ शहादत ही लिखी है।

 यूपी -बिहार के मण्डलवादियों और राजस्थान के मीणाओं  की देखा-देखि पहले तो  राजस्थान के जाटों ने और अब गुजरात के पटेलों ने भी  आरक्षण की  दुंदभी बजाई है। मलाईदार परत ने भी अब आरक्षण  की गटरगंगा को ही तारणहार मान लिया है। गुजरात के पाटीदारों-पटेलों ने अब एक युवा पटेल 'हार्दिक' को हीरो बना लिया  है। हालाँकि यह पटेल समाज  पहले से ही ताकतवर  है। लेकिन अब वोट की राजनीति में भी  ताकतवर होता  जा रहा  है।  जान पड़ता है कि  मामला गरीबी -अमीरी का नहीं है ,बल्कि मोदी  जी  को टक्कर  देने का  है।  क्योंकि मोदी जी ने अतीत में पटेलों  को  भी रुस्वा किया। अपने  जातीय आरक्षण के आधार पर ही  उन्होंने न केवल  बाघेला ,न केवल मेहता न केवल पंड्या ,न केवल राणा  बल्कि  केशु   भाई पटेल को भी सत्ता से बेदखल  किया है। जिसकी बदौलत उन्हें  पहले गुजरात की सत्ता मिली। उन्होंने  गुजरात में  जब साम्प्रदायिक जलबे दिखाए तो  उसके प्रभाव से आडवाणी,सुषमा,मुरली मनोहर और अन्य सभी  वरिष्ठ भाजपा नेता सत्ता के सरताज से  महरूम होते चले गए। पिछड़ेपन  की जो ढाल मोदी जी के काम आयी ,वो यूपी  बिहार  के यादवों को लगभग  आधी शताब्दी से उपकृत किये जा रही है। अब न केवल नीतीश को बल्कि  देश के सभी  मण्डलवादियों को  मोदी जी से खतरा  है। क्योंकि मोदी जी भी 'पिछड़े' ही हैं। हालाँकि मोदी जी को भी अब 'हांर्दिक ' से खतरा है।

 चूँकि  गुजरात के ताकतवर पाटीदारों और उनके नेता केशु भाई पटेल को  मोदी जी की यह 'बढ़तलीला' कभी  रास नहीं आयी ?  पटेलों या पाटीदारों का  आधुनिक वाट्सएप वाला उभरता सितारा 'हार्दिक' अभी २२ साल का ही है। किन्तु  उसकी आम सभाएं ५ लाख  से कम श्रोताओं की नहीं होती ! स्वाभविक ही है कि वह राजस्थान के गूजर नेता कर्नल किरोड़ीसिंह वैस्ला  से भी ज्यादा  जातीयतावादी  ताकतवर  नेता बन चूका है।  जो  देश और समाज के काम  तो भले ही ना आये किन्तु  ठाकरे और  दत्ता सामंत की तरह  पूँजीवाद  की दलाली के काम तो जरूर आएगा ! दस बीस पाटीदारों   को कलक्टरी और दस-बीस पटेलों को मैनेजरी तो  मिल  ही जायेगी। बाबू, चपरासी तो  पटेल लोग क्या बनेगे ?  जो लोग आज अमेरिका ,कनाडा या  दुबई में 'मोदी-मोदी' की जयकार कर रहे हैं , वे कल को 'हार्दिक-हार्दिक'करने लगें तो कोई बेजा बात नहीं !

जिस तरह भारत की पवित्र नदियाँ - गंगा ,यमुना ,गोदावरी इत्यादि  कब की मैली हो चुकी हैं - पापियों के  पाप धोते -धोते  ! उसी तरह यह भारत की सुजलाम -सुफलाम भूमि  भी अब  सामाजिक विग्रह की समर भूमि  बन गयी है- जातीय  आरक्षण का भार ढोते-ढोते ! जातीय आरक्षण का आर्थिक और राजनैतिक लाभ उठाने वाले सभी जन यह याद रखें कि  उन्हें  'ऊपर ' उठाने में लगभग आधी शताब्दी तो अवश्य ही बीत  चुकी है!वे यह सोचें कि  इतना अरसा गुजर  जाने के बाद भी उनका उद्धार क्यों नहीं हुआ ?  अरबों-खरबों  की  राष्ट्रीय सम्पदा इस मद में स्वाहा हो जाने के बाद ,किसी एक   खास  पिछड़े नेता  का प्रधान-मंत्री बन जाने के बाद ,किसी एक ख़ास परिवार का पीढ़ियों तक  मुख्यमंत्री बने रहने के बाद ,किसी खास दलित  नेता का आधी शताब्दी तक केंद्रीय  मंत्री बने रहने के बाद ,पीढ़ी-दर पीढ़ी  आईएएस -आईपीएस बने रहने के बाद , किसी दलित महिला का लोक सभा  अध्यक्ष  बन जाने के बाद ,किसी भूतपूर्व मुख्यमंत्री का राज्यपाल बनकर  व्यापम काण्ड में संलग्न रहने के बाद ,किसी कूटनीतिक देवयानी का अमेरिका में अपनी  ही नौकरानी का शोषण  करने के बाद ,किसी का राजदूत हो जाने के बाद , किसी बदमाश  [गजभिये] का   सागर विश्वविद्द्यालय का वाइस चांसलर बनाये  जाने के बाद ,उसके द्वारा   हजार करोड़ के घोटाले किये जाने  के बाद,  यदि किसी का मानसिक  पिछड़ापन नहीं गया ,तो  इसमें देश की शोषित-पीड़ित जनता का क्या कसूर है ?

बंगारू ,जोगी ,जूदेव ,कोंडा ,लालू यादव ,पप्पू यादव ,रामनरेश यादव जैसे लोगों को  भृष्टाचार में पकडे जाने के बाद भी आरक्षण का पात्र क्यों होना चाहिए ? दो तरफ़ा लूट के वावजूद भी  इनके कटुम्ब खानदान का पिछड़ापन यथावत बरक़रार क्यों है ? आधी शताब्दी तक जो परिवार  सत्ता के पावर  और नौकरशाही के इर्द-गिर्द रहा हो उसका  मानसिक और सामाजिक रूप से  पिछड़े रहने का वास्तविक कारण क्या है ?  यह सावित हो चूका है कि  भूतपूर्व मुख्यमंत्री  मधु  कौंडा या बाइस चांसलर गजभिये ने  हजारों करोड़ की हेराफेरी की है ,लेकिन  वो अभी भी आदिवासी या  दलित ही  बने बैठे  हैं ! यदि ये लोग आज भी केवल आरक्षण  की  वैशाखी के ही तलबगार हैं ,तो उन युवाओं  की क्या हालत होगी ? जिनके पास न नौकरी है ,न जिनके पास  बिजनेस  है,न जिन के  पास आरक्षण का  कोई भी अवसर है ? जिनके पास अपना श्रम बेचने के सिवा और कुछ नहीं ऐंसे 'बदनसीब'  सर्वहारा यदि दुर्भाग्य से जन्मना ब्राह्मण,ठाकुर ,बनिया या कायस्थ हैं , तो इसके लिए क्या वे सनातन दंड  के पात्र  बने  रहेंगे ? क्या वे अपनी तथाकथित  उच्च कुलीन जाति  या सामाजिकता का  आचार डालें ?

 कुछ लोग कह सकते  हैं कि खाते-पीते समाज के लोगों के लिए आरक्षण की प्रासंगिकता क्या है ?  चूँकि बिहार में शीघ्र ही चुनाव होने जा रहे हैं ,सभी जानते हैं कि वहाँ 'वोट' के  लिए  न केवल '  आर्थिक खैरातों 'का बल्कि जातीयता का नग्न नृत्य किया जाने वाला है  !जहाँ केवल जातीयता  ही खाई जाती  हो ,जहाँ जातीयता ही ओढ़ी जाती  हो , जहाँ जातीयता ही  पहनी जाती हो ,जहाँ जाति पहले  और राष्ट्र बाद में संज्ञेय हो - वहाँ यदि पासवान  जैसे दलित नेता -विवेकशील नेता यदि इस जातीय आरक्षण की व्यवस्था पर अब  सवालिया निशाँन लगाएं तो इस आरक्षण व्यवस्था  पर पुनर्विचार क्यों नहीं किया  जाना चाहिए ?

 आसन्न चुनाव की बेला में बिहार के  जाति  बनाम विकास के इस  विमर्श में हस्तक्षेप करते हुए जब श्री राम विलास पासवान  , श्री उपेन्द्र कुशवाहा और श्री जीतनराम  माझी ही सवाल उठायें  कि   लालू-नीतीश और अन्य मण्डलवादियों ने आरक्षण की वैशाखी से बिहार को कमजोर किया है। तो देश के प्रगतिशील बुद्धिजीवियों  और अन्य आरक्षण समर्थकों को उनके सवालों का कुछ तो जबाब देना  चाहिए !  जब पासवान -उपेन्द्र  कह  रहे हैं कि लालू ,नीतीश ने विगत ३५ सालों के शाशनकाल में बिहार के  दलित -पिछड़े गरीबों  का कोई  विकास  नहीं किया। तो देश की आवाम को  इस पर गौर क्यों नहीं करना चाहिए  ? जब आरक्षित समाज के नेता अपने ही समाजों का भला नहीं कर सके तो वे 'तथाकथित अगड़ी जाति के गरीबों  या सवर्णों  मजदूरों का क्या खाक भला करेंगे ?  भले ही पासवान ,उपेन्द्र जीतनराम आज दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादियों के हाथों में खेल रहे हों ,उनके प्रवक्ता  बने हों किन्तु  उनके  ये तर्कसंगत आरोप  खंडित नहीं किये जा सकते।  न केवल बिहार बल्कि पूरे भारतीय परिदृश्य पर भी   इस बात की चर्चा होनी ही चाहिए कि  आरक्षण से यदि  किसी शोषित-पीड़ित -पिछड़े-दलित  समाज  का  उद्धार नहीं हुआ है ,तो उसे जारी रखने का ओचित्य क्या है ?

 "वो अफ़साना  जिसे अंजाम तक ले जाना न हो मुमकिन ,उसे एक खूबसूरत मोड़  देकर ,छोड़ना ही बेहतर है "  हो सकता है कि  कोई छुद्र  संकीर्ण मानसिकता का खुदगर्ज व्यक्ति मेरी इस तरह की नव स्थापना से मुझे घोर  प्रतिक्रिवादियों से नथ्थी कर दे।  किन्तु  मुझे रंचमात्र परवाह नहीं  ! क्योंकि "सत्य हमेशा परेशान हुआ करता है किन्तु पराजित नहीं "!मध्य युग में जब लोकतंत्र नहीं हुआ करता था तब  सर्वत्र निरंकुश -बर्बर राजशाही ही हुआ करती थी। राजाओं का अधिकांस समय युद्ध व षड्यंत्रों में ही गुजर जाता था। जब कभी किसी  राजा  -रानी  ,सेनापति  ,युवराज  , सिकंदर  ,नेपोलियन, अकबर ,विक्टोरिया ,जार्ज ,सुलतान या बेगम को कोई फतह हासिल होती या  पुत्ररत्न  [पुत्री नहीं ] की प्राप्ति होती  या जनता के बगावत करने की कोई आशंका होती ,तो वह राजा या रानी अपने दरबारियों को ख़िरातें  बाँटकर -स्थाई रूप से सत्ता का बफादार' बनाने का उपक्रम किया करते थे । इसके अलावा कभी -कभी हाथी पर स्वर्णिम होदे में  सवार होकर वह 'राजपथ' पर  भी कुछ सिक्के उछालते हुए निकल पड़ते ।  अपनी 'प्रजा' के समक्ष  ख़ुशी का इजहार करते ।  और उन चंद सिक्कों के लिए जनता को राजपथ पर सिरफुटौव्वल करते देख 'शासक' को  जो अवर्णीय आनंद की अनुभूति होती वही अनुभूति अब स्वतंत्र भारत के जातीय नेताओं को आरक्षण की महामारी  से हो रही  है।

सामंती युग में  शोषित -पीड़ित  जनता  भी अपने आततायी शासकों की जय-जैकार करती हुई पागल हो जाया  करती थी  । अब पूंजीवादी लोकतंत्र में  भी नेताओं की जय-जय कर करते हुए उसी जनता की रीढ़ दोहरी हुई जा रही है। तब भी ये  शोषण के  शिकार हुआ करते थे  और अब भी ये शोषण के शिंकार हो रहे हैं। इनकी मानसिक गुलामी ही आरक्षण की भांग पीते रहने को आमादा है। सामंतयुग और  पूंजीवादी लूट तंत्र में फर्क सिर्फ  इतना है कि आधुनिक  लोकतंत्र  में  राजाओं का स्थान निर्वाचित जन -प्रतिनिधियों ने ले रखा है। पूँजीवाद,जातिवाद - साम्प्रदायिकता  के प्रभाव में जनता के वोट ही महत्वपूर्ण हैं। पूंजीपतियों के नोट और बाहूबलिओं  की ओट जिसे प्राप्त है वही बहुमत से  चुनाव जीत सकता  है । चुनाव के बक्त थोक में जनता के वोट पाने के लिए, पूँजीवादी -जातिवादी साम्प्रदायिक पार्टियाँ - अपने निहित स्वार्थ के लिए,आरक्षण रुपी रेवडियाँ  उछालकर  मेहनतकश  जनता को आपस में लड़ाती रहतीं हैं। उनकी इस कुचाल से न केवल देश की तरक्की रूकती है ,बल्कि समाज में  गैरबराबरी  भी बढ़ती जाती है।

दरसल पतनशील अधोगामी वर्तमान व्यवस्था  चौतरफा भृष्टाचार अमानवीयता व  अराजकता से तार-तार हो चुकी है। जन विद्रोह को दवाने के लिए जिस आरक्षण की बैशाखी का सहारा लिया जाता है  वो अब  इस 'बनाना लोकतंत्र' के गले की हड्डी बनता जा रहा है। जब ताकतबर लोग आरक्षित होंगे और कमजोर लोग हासिये पर होंगे तो यह लोकतंत्र के लिए और सम्पूर्ण राष्ट्र की सेहत के लिए ठीक कैसे हो सकता है ? वैसे तो जनवादी और प्रगतिशील परम्परा में जातीय  विमर्श को कोई खास तवज्जो नहीं दी जाती। लेकिन इस दौर की बदचलन  और   प्रचलित  राजनीतिक में 'जातीय  आरक्षण ' के झंडे बुलंदियों पर हैं।  राजस्थान में जाटों के और गुजरात में पटेलों-पाटीदारों के जातिवादी -आरक्षण आंदोलन ने समाज के उन  वर्गों  / जातियों को  भी सोचने पर मजबूर कर दिया है ,जो जन्मना तो  सवर्ण -अगड़े या कुलीन  कहे जाते हैं. किन्तु जिनका जीवन अत्यन्त दयनीय है।  मेहनतकश -शोषित -पीड़ित वर्ग के लिए लड़ने वालों पर भी अब बेजा दबाव है. कि  वे  मौजूदा  प्रचलित सामंती - जातीयता के फोबिया से बाहर निकलें !  जाति -धर्म से  परे सब लोग सभी के हितों  वाली विचारधारा का एकल संधान करें। बहुजन हिताय -बहुजन सुखाय की अवधारण को केवल साम्यवादी विचारधारा में ही संभावनाएं निहित हैं। जाति विहीन ,वर्गविहीन और सम्प्रदाय से परे सोचने वाले ही देश और दुनिया को न्याय दिल सकते हैं।अगड़ा -पिछड़ा करने वाले कभी भी सभी वर्गों के साथ न्याय नहीं कर सकेंगे।

 जो  लोग जन्मना 'उच्चवर्ण' के हैं उनमें से वेशक कुछ अम्बानी,अडानी,टाटा,बिड़ला,बांगर, मोदी  और मित्तल होंगे।  किन्तु बाकी अधिकांस 'सवर्ण गाँवों में भूमिहीन हैं।आम तौर पर  खेती की जमीने उनके पास हैं जो पिछड़े कहे जाते हैं। सरकारी क्षेत्र की नौकरीयाँ  भी आरक्षण के चलते उन्ही के पास हैं।  सर्व विदित  है कि यूपी में तो अधिकांस थानेदार से लेकर डीजीपी तक यादव ही हैं। देश का प्रधानमंत्री  भी पिछड़े वर्ग से  ही आता है। बिहार में तो हालत ये है कि  कोई भी  जीते  किन्तु मुख्यमंत्री पिछड़ा ही होगा। इसमें कोई शक किसी को नहीं होना चाहिए ! कांग्रेस के जातीयतावादी नेताओं ने, मुलायम -अखिलेश ने ,मायावती -कासीराम ने ,लालू -नीतीश ने , जीतनराम - पासवान ने ,पप्पू-शरद  यादव ने , देवगौड़ा ने ,शिंदे ने ,झारखंड के  महाभृष्ट गुरु घंटालों और  तमाम नेताओं ने  आरक्षण के बलबूते केवल अपना ही उल्लू सीधा किया है।  जिन लोगों ने अपने ही समाज के लोगों का विगत ६७ साल में उद्धार नहीं किया। वे आइन्दा देश का और क्या उद्धार  करेंगे ?

सवर्ण गरीब मजदूर तो प्रायवेट सेक्टर में  ,कार्पोरेट सेक्टर में ,अस्पतालों में,कारखानों में चौकीदारी के लिए  सौ रुपया रोज की मजूरी  के लिए  भटक रहे हैं । वे  केवल  कहने  भर को अगड़े हैं। सभी सवर्ण जाति के बच्चे चांदी की चम्मच  अपने मुँह  में लेकर पैदा नहीं होते । भारत के सकल शोषित समाज में से अधिकांस  तथाकथित 'कुलीनों' के बच्चे  भी दर -दर  की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। किन्तु जब वे आर्थिक आधार पर  आरक्षण की  बात करते हैं ,तो  देश को लूटने वाले मक्कार , कायर  और आकंठ रिश्वतखोरी में डूबे तथाकथित  'पिछड़े' वर्ग के अधिकारी ,नेता और कारोबारी सब के सब शोर मचाने लगते हैं।  जिनके गले  में वही सदियों पुराना'कमंडल और कमर में लँगोटी ही  शेष है उन्हें 'सवर्ण' या मनुवादी कहना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है।   सबल समाज और दुर्बल समाज  को  जातीयतावादी नेताओं के चश्मे से देखना और उसके अन्दर  मौजूद  वास्तविक दमित-शोषित समाज  की उपेक्षा करना नितांत निंदनीय और अधोगामी दुष्कर्म है।

 बार-बार बखान किया गया कि मोदी जी  के नेतत्व में गुजरात शेष भारत से आगे निकल गया है। बधाई ! किन्तु जिस प्रदेश को गांधी मिले ,सरदार मिले ,लौह पुरुष मिले ,मोदी मिले ,विकास पुरुष मिले। जिस  गुजरात के सर्वाधिक एनआरआई दुनिआ में न केवल  गुजरात  का बल्कि  भारत का भी डंका पीट रहे हैं। उसी गुजरात के करोड़पति पटेल-पाटीदार जब लाखों  की तादाद में सड़कों पर आरक्षण की मांग  करेंगे तो  देश के अन्य गरीब - वामन,ठाकुर, और गरीब  वैश्य  क्या केवल इन जातीवादी नेताओां को वोट देनें के लिए लाइन में ही  लगे रहेंगे?

    श्रीराम तिवारी 

बुधवार, 19 अगस्त 2015

पाकिस्तानी फौज और मजहबी कठमुल्ले ही इस भारत-पाक वैमनस्य की जड़ है।

भगवती चरण वर्मा की कहानी  'दो बाँके ' जिस किसी ने भी पढ़ी होगी ,उसे भारत-पाकिस्तान के द्विपक्षीय संबंधों के स्थायी अंतर्विरोध व  अविश्वास पर कोई हैरानी नहीं हुई होगी।वेशक पहले भी अनेकों बार भारत ने स्वेच्छा से  और पाकिस्तान की सरकारों  ने अंतर्राष्ट्रीय दबाव के चलते  द्विपक्षीय वार्ताओं में शिरकत की है। किन्तु हर बार पाकिस्तान की सेना  बीच में आ जाती है। उसके दबाव में वहाँ  की चुनी हुई सरकारें  भी कोई न कोई बहाना  बनाकर द्विपक्षीय वार्ताओं को असफल करने  को लालायित  रही हैं।  अतीत में  कभी ताशकंद समझौता ,कभी शिमला समझौता,कभी आगरा समिट और कभी  लाहौर संधि की असफलता के पीछे हमेशा  अमेरिका पालित पाकिस्तानी जनरलों का ही हाथ रहा  है।

भारत -पाकिस्तान की जनता अमन -शांति और सौहाद्र चाहती है। किन्तु अमेरिका और पाकिस्तानी सैन्य लाबी नहीं चाहती कि  पाकिस्तान की  भारत से दोस्ती हो जाए। या पाकिस्तान की कोई भी जन-निर्वाचित सरकार इस नेक काम में  भारत से कोई सार्थक संधि की  सफलता हासिल करे। पाकिस्तानी जनरल केवल भारत जैसे शान्तिप्रय -अहिंसावादी पड़ोसी पर ही भौंक सकते  हैं । वर्ना  चीनी और अमेरिकी नेताओं और जनरलों के सामने उनकी बोलती बंद  ही रहती है। उनके सामने तो वे महज घुटना टेकु ही सावित हुए  हैं।वैसे तो  कश्मीरी अलगाववादियों व  पाकिस्तान परस्त उग्रवादियों को शिखंडी बनाकर -भारत से निरंतर छाया युद्ध करने वाले ,पाकिस्तानी जनरल बड़े शूरमा बनते हैं। किन्तु जब उनकी नाक के सामने  ही अमेरिकी कमांडो ओसामा-बिन -लादेन को ख़लाक़ करते हैं। उसके टुकड़े -टुकड़े करते हैं । तब पाकिस्तानी जनरलों को  चुल्लू भर पानी भी नसीब नहीं होता कि शर्म से डूबकर मर जाएँ ! 

वैसे पाकिस्तानी फौज ,पाकिस्तानी कटटरपंथी ,पाकिस्तानी जेहादी और कुछ  भटके हुए भारतीय-कश्मीरी युवा भी  भारत-पाकिस्तान दोनों के ही साझा शत्रु हैं। पाकिस्तान से  सौहाद्रपूर्ण संबंधों की कामना लेकर  भारत की ओर  से हर पार्टी और हर दौर की सरकारों ने पूरी कोशिश की है कि दोनों देशों के रिश्ते मित्रतापूर्ण हों ! यथार्थ के धरातल पर दोनों पड़ोसी मुल्कों के सर्वांगीण विकास की यह पहली शर्त भी है ! इस सिद्धांत को लेकर ही समय-समय पर  पंडित नेहरू ,इंदिराजी ,नरसिंहराव्,अटलजी इत्यादि सभी भारतीय प्रधानमंत्रियों ने तहेदिल से अपने पड़ोसी पाकिस्तान की  ओर  दोस्ती का हाथ बढ़ाया। किन्तु इन सभी ने कभी भी मरहूम  जुल्फीकार अली भुट्टो की तरह, या जिया-उल-हक की तरह ,या परवेज मोहम्मद की तरह यह बड़बोलापन नहीं दिखाया कि 'हम हजार साल तक  जंग खोरी करते रहेंगे ' किन्तु  खेद है कि भारत के वर्तमान सत्तारूढ़  नेताओं ने  भी विगत  चुनाव के दौरान  बड़बोलापन बघारा कि -''हम आसमान के तार तोड़ लाएंगे ,हम घुसकर मारेंगे , मनमोहनसिंह तो कायर हैं ,बुजदिल हैं ,हम यदि सत्ता में आये तो  पाकिस्तान  की ईंट से ईंट बजा देंगे !" किन्तु ये ५६ इंच के सीने वाले अब  इस पाकिस्तान रुपी  समस्या को एक इंच भी इधर से उधर नहीं खिसका पा रहे हैं।

 माना कि  पाकिस्तान के फौजी जनरल और मजहबी कठमुल्ले  ही हर समस्या की जड़ है ,तो फिर यह वास्तविक बहाना याने  इम्मुनिटी तो भारत के हर भूतपूर्व  प्रधानमंत्री और विदेशमंत्री को भी मिलनी चाहिए ! क्योंकि भारत-पाक रिश्तों की कडुवाहट के लिए पाकिस्तान के जनरलों और कठमुल्लों को तो सभी ने  दोषी माना है । यह   नग्न सत्य भी  है। तो फिर  वोट बटोरने के लिए पाकिस्तान  पर ढपोरशंख बजाने की क्या जरूरत थी। यदि सब कुछ  लुटाकर होश में आने की बात है तो बड़बोलेपन के लिए देश की जनता से क्षमा क्यों नहीं मांगनी चाहिए ? उन्हें  क्यों नहीं कहना  चाहिए कि हमारे पूर्व नेता  तो जबरदस्त प्रयास करते रहे ।  किन्तु  यदि कुत्ते की  दुम  सीधी नहीं हो पा रही है तो इसमें -कुदरत ,भूगोल,इतिहास और वैश्विक साम्राज्य्वादियों की भी यही मर्जी है।  यदि पाकिस्तानी  फौज  रुपी मन्थरा और कठमुल्ले  ही इस भारत-पाक वैमनस्य की जड़ है ।  तो भारत को पाकिस्तान की जनता से सीधा संवाद क्यों नहीं किया जाना  चाहिए ? पाकिस्तान की जनता को  भी चाहिए कि वह भी  अपने  फौजी जनरलों से मुक्त होने बाबत संघर्ष तेज करे। भारत-पाक मैत्री के लिए   दोनों  ही  देशों की जनता को प्रतिबद्ध होना पडेगा । इसके अलावा  और कोई विकल्प है ही नहीं। क्योंकि हम अपने पड़ोसी  कभी नहीं बदल सकते !     

  वैसे  यूएनओ मंच से पाकिस्तानी हुक्मरानों की भारत के प्रति विद्वेषपूर्ण पैंतरेबाजी कोई नयी बात नहीं है !
पाकिस्तानी जंगखोरों ,कश्मीरी अलगाववादियों  ,हुरियत ,मिल्लत -ए -दुख्तराने और जेकेएलएफ इत्यादि की भारत विरोधी हरकतें कोई नयी बात नहीं है !भारत ने जब-जब द्वीय पक्षीय समझौतों  के निमत्त  स्थाई अमन के कदम आगे बढाए हैं  ,तब-तब  हर -बार पाकिस्तान और उसकी सरपरस्ती में  फलीं -फूली  धुर भारत विरोधी  नापाक ताकतों की अड़ंगेबाजी ने सब कुछ  गुड़ -गोबर किया है ,यह भी कोई नयी बात नहीं है !इस बार भी यदि  पाकिस्तानी सिरफिरों ने वही दुहराया है जो वे १९७१ की पिटाई के बाद से करते आ रहे हैं ! तो  इसमें  भी नयी बात क्या है ?

                        इसमें  नयी बात यह है कि  १५ अगस्त -१९४७ से लेकर १६ मई-२०१४ तक भारत के  किसी भी प्रधानमंत्री ने   [ इंदिराजी और अटलजी  ने  भी ]   इतना शोर नहीं मचाया  था कि 'मैं  ही एक अनोखा हूँ जो सब  कुछ ठीक कर दूंगा '!  यदि भाजपा के पास प्रचंड बहुमत है ,यदि देश में 'संघ परिवार' की तूती  बोल रही है ,यदि प्रधान मंत्री  श्री नरेंद्र  मोदी जी 'वैश्विक' नेता बन चुके हैं ,तो वे अपने पूर्ववर्तियों की तरह द्वीय पक्षीय वार्ता अवरुद्ध  करने को मजबूर क्यों हैं ?  ये  सनातन मजबूरी अब क्यों ? विगत  चुनावी शंखनाद का गप्पाड़ी उद्घोष  अब कहाँ गया ?  क्या बाकई  मोदी जी के पास , पाकिस्तान की कुचालों का  कोई माकूल और बाजिब जबाब  है ? यदि हाँ तो उसको एप्लाई क्यों नहीं किया जा रहा है ? यदि उनके पास  पाकिस्तान  की कुटिलता का कोई जबाब है ही नहीं तो वे अपने पूर्व वर्ती प्रधान मंत्रियों और अन्य वरिष्ठ भारतीय राजनयिकों  को किस  दम -गुर्दे पर नाकारा  और असफल बताते रहे हैं ? यक्ष  प्रश्न यह है कि  पाकिस्तान की नापाक हरकतों के संदर्भ में मोदी जी  नया क्या कर रहे हैं ?

   यदि पाकिस्तानी कठमुल्लों और फौज के इशारे पर  द्वीय पक्षीय वार्ता अवरुद्ध  हुई है ,यदि वर्तमान  भारत  सरकार   की भी वही 'सनातन' मजबूरी है  जो पहले वालों की रही है ,तो इसमें नया क्या है ? यदि पाकिस्तान और  भारत विरोधी अलगाव वादी  ही हर रोग की जड़ हैं , यदि इतिहास की भूलें ही हर दुर्घटना के लिये  दोषी हैं तो 'संघ परिवार' वाले -असली राष्ट्रवादी और खुद मोदी जी यह सिद्धांत  क्यों  बघारते रहते  हैं कि ये लफ़ड़े तो गांधी -नेहरू की देन   हैं ? उनका यक कहना कि -"चूँकि  पं नेहरू ने कुछ नहीं किया ! इंदिराजी-राजीव  ने कुछ नहीं किया ! चूँकि नेहरू ने  पटेल की नहीं चलने दी ! इसीलिये ये बीमारियाँ  भारत में व्याप्त हैं ! संघी भाई कहते नहीं थकते कि  "हम होते तो ईंट से ईंट बजा देते "!  चलो मान भी लेते हैं कि  कांग्रेसियों ने बाकई  कुछ नहीं किया ! इसीलिये तो जनता ने उन्हें सत्ता से बेदखल कर दिया गया है ! अब जो स्वयंभू सूरमा  हैं ,वे  खुद प्रचंड बहुमत से सत्ता में  विराजमान हैं। अब देश की जनता को उग्रवाद पर और  पाकिस्तान के नापाक मंसूबों पर लगाम  लगाना चाहिए !चूँकि सर्वशक्तिमान व्यक्तित्व  को देश की जनता ने सत्ता सौंप दी है। इसलिए  अब  गाल बजाने  के बजाय खुद कुछ  कमाल  कर के दिखाइये ! आपको रोका  किसने  है ? पाकिस्तान की दुम  को सीधा करके दिखाए ! ढपोरशंख  बजाना बंद कीजिये !  सत्तासीन लोग यदि  अपने   चुनावी वादों को पूरा  नहीं कर पाने के लिए विपक्ष को, या अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक परिदृश्य को , या पाकिस्तानी कठमुल्लों को ,या  पाकिस्तानी जनरलों  को ही कोसते रहेंगे तो दक्षिण एशिया में बारूद की दुर्गन्ध कैसे दफा होगी ?

                       श्रीराम तिवारी

 

मंगलवार, 18 अगस्त 2015


  भरी बरसात में गाँव-गाँव, दल -दल की मार  भारी।

  चुनावी संग्राम  में  आजकल,  कार्पोरेट  दल  भारी।।


  गरीब  की  थाली से गायब ,हुई महंगी दाल भारी ।

   बाकई अच्छे दिन आये हैं , फेंकुओं की  बलिहारी ।।


                     श्रीराम तिवारी 

इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले का सम्मान करो !



  '' उत्तरप्रदेश सरकार यह सुनिश्चित करे कि  आगामी शैक्षणिक सत्र  १५-१६ से प्रदेश के समस्त सरकारी और सार्वजानिक उपक्रमों के   कर्मचारियों /अधिकारीयों /स्टेकहोल्ड्र्स /सरकारी अनुदानप्राप्त संस्थान में कार्यरत  अधिकारीयों/कर्मचारियों के पुत्र/पुत्रियों को अनिवार्य रूप से सरकारी स्कूलों में ही पढ़ाये जाने  की अनिवार्यता लागू करे "

 प्रस्तुत आदेश कल १८ अगस्त -२०१५ को  इलाहाबाद उच्च न्यायालय  द्वारा  पारित  किया गया है।माननीय  न्यायालय के  इस क्रांतिकारी फैसले  का सम्मान न केवल उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा सुनिश्चित किया  जाना चाहिए ,अपितु देश की सभी राज्य सरकारों द्वारा और केंद्र सरकार द्वारा भी स्वतः संज्ञान लेकर  अनिवार्य रूप से लागू  किया जाना  चाहिए। यदि आवश्यक हो तो संसद  द्वारा  भी संविधान में  उचित संशोधन किया जाना चाहिए।

कोर्ट  का यह वर्डिक वेशक नीतिगत है। किन्तु जब नियत साफ़ हो तो उसे यथासम्भव कानूनी जामा  पहनाये जाने में भी कोई अड़चन नहीं आनी चाहिए !इस निर्णय को  लागू किये जाने से शिक्षा क्षेत्र में  क्रांतिकारी और  दूरगामी सुधार अपरिलक्षित होंगे !निजी क्षेत्र की अंधाधुंध लूट , मध्यप्रदेश के व्यापम-डीमेट  जैसे फर्जीवाड़े  , समाज में गरीब-अमीर का अलगाव और सामाजिक - आर्थिक-विषमता का भयानक रौद्र रूप, इन सबसे देश को कुछ तो राहत अवश्य ही मिलेगी।  इस दौर  की यह बेहद राजनैतिक -सामाजिक बिडंबना है कि  जो लोग कभी  सरकारी स्कूलों में पढ़े हैं ,बे सुर्खरू होकर देश के राष्ट्रपति/प्रधानमंत्री भी हो चुके हैं। किन्तु सरकारी स्कूल में ही पढ़कर  सरकारी सेवाओं में सरकार से बेहतर वेतन ,भत्ते और सुविधायें पाने वाले शिक्षक भी अब अपने बच्चों को प्रायवेट स्कूल /कालेज में पढने भेज रहे हैं । सरकारी शिक्षण संस्थान की दुर्गति करने वाले देशद्रोही तत्वों ने न केवल शिक्षा का सत्यानाश किया है बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं जैसी बुनियादी आवश्यकताओं को भी निजी क्षेत्र -  कार्पोरेट लाबी के हाथों में सौंपकर  देश की वर्तमान साधनहीन युवा पीढ़ी का भविष्य अंधकारमय बना दिया है।  इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला देश की शिक्षानीति को मांजने का सबब बने !

  नागपंचमी की  शुभकामनाएं !

                                                                         श्रीराम तिवारी  

" यद्द्पि शुद्धम् लोक बिरुद्धम् ,न कथनीयम् न कथनीयम् !"



हमारे   प्रधान मंत्री मोदी जी जब -विकास ,सुशासन ,मेकिंग इंडिया ,डिजिटल इंडिया ,भृष्टाचार मुक्त भारत और सर्व सम्पन्न   भारत की बात करते हैं, तो मोदी के मतवालों का ह्रदय  हुम् -हुम्  करने लगता है। मेरा मन भी कदाचित कहता  है कि  'काश मोदी जी जो -जो वादे या घोषणाएं करते हैं -वो पूरी हो जावें ! ताकि ये रोज-रोज की बनावटी - ढ़पोरशंखी भाषणबाजी से मुक्ति मिले !

यूएई से वापिसी पर आनन -फानन मोदी जी ने  आरा [बिहार]  की विशाल आम सभा में एक लाख पेंसठ हजार करोड़ की चुनावी रेवड़ी  बांटने की महती  घोषणा कर दी  है ।  बिहार की राजनीति पर हावी मंडलवादी नेताओं  के चेहरों पर हवाइयाँ  उड़ रही हैं। अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं  कि बिहार वालों  की तो  बल्ले-बल्ले  होने वाली है। गोकि  बिहार अब आर्थिक रूप से 'पिछड़ा'  नहीं रहेगा।  लेकिन  यह हैरानी की बात अवश्य है कि बिहार में  'पिछड़ों' की राजनीती  को खत्म करने के लिए मोदी जी ने जो सवा लाख  करोड़ का विशेष पैकेज आरा की आम सभा में  किसी शहंशाह की तरह खैरात में दिया  है ,वो  क्या अपनी जेब से दिया है ? क्या उनके कार्पोरेट    मित्रों -अम्बानी -अडानी का  है ! नहीं ,बल्कि  देश का है। और स्वाभाविक रूप से बिहार का भी है। समझदार लोग जानते हैं कि मोदी जी का यह बिहार विकास प्रेम नहीं है।  बल्कि यह तो 'भारत बिजय' के रास्ते  में आ रही बिहारी रुकावट को दूर करने का गेम  है। यह विशुद्ध चुनावी राजनीतिक का निहित  स्वार्थपूर्ण  -अवसरवादी  - वर्चश्ववादी  खेल है। क्या यह  मँहगी और लोक लुभावन घोषणा अन्य  पिछड़े राज्यों की जनता को भी मंजूर है? 
                          जिन राज्यों में भाजपा  की  सरकार  तो वर्षों से है  किन्तु आर्थिक हालात बिहार से भी बदतर हैं ? यदि जो  राज्य  आज भाजपा के कब्जे में नहीं हैं , लेकिन जहाँ चुनाव   होने वाले  हैं  ,वहाँ के  लिए विशेष आर्थिक पैकेज दिया जाना  शक्य  है ,तो यह सुविधा वहाँ  क्यों नहीं  जहां भगवा झंडा वर्षों से लहरा रहा है ?  मोदी जी की यह 'आरा' घोषणा - न केवल 'संघ' समर्थकों के लिए  भी  यह सोचने की बात है। बल्कि  यह  'स्वयंभू राष्ट्रवादियों  के लिए और  शिवराज जी जैसे  मोदी पीड़ित मुख्य मंत्री के लिए तो और भी सोचनीय है  !

ऐंसा समझा जा सकता  है कि मध्यप्रदेश के लोग यदि १५ साल से भाजपा को ही जिताये जा  रहे हैं तो वे  बड़ी भयंकर  भूल किये जा रहे हैं ! क्योंकि यदि यहाँ भी बिहार की तरह ही  गैर भाजपा की सरकार होती तो उसे हराने के लिए भी  मोदी जी शायद   बिहार की तरह  ही मध्यप्रदेश को भी कब  की मुँह  मांगी मुराद  भी दे चुके  होते ! यह सर्वविदित है कि  मोदी जी विगत १५ महीने से मध्यप्रदेश  के मुद्दों को अटकाए हुए हैं।  केवल आश्वाशन ही दिए जा  रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज  सिंह चौहान को हर बारे दिल्ली से  घोर निराशा और रुसवाई  ही हाथ लगी है। पहले तो केंद्र में कांग्रेस की सरकार का बहाना हुआ करता था । लेकिन अब तो मोदी जी के नेतत्व में दिल्ली में एनडीए की सरकार  है। सैयां भये कोतवाल फिर भी   नतीजा  ठनठन गोपाल ! मध्यप्रदेश में  कोई भी फौरी या दूरगामी  विकाश योजना अब तक  फलीभूत नहीं हो  पाई है। निवेश का नाटक खूब खेल गया किन्तु धेला  हाथ नहीं आया। केवल आंकड़ों की बाजीगरी में या डीमेट -  व्यापम कांडों में ही एमपी  आगे है। वर्ना विकास की  असलियत यह है कि मध्यप्रदेश में  बेहद  महंगी बिजली भी अब बड़े शहरों तक ही सिमट  कर रह गयी है। गाँवों तो बिजली पानी सड़क हर चीज के मामले में पहले से भी ज्यादा बर्बादी की कगार पर हैं। बड़े शहरों में ही जब  सड़क बिजली ,शिक्षा  और स्वाश्थ बदहाल  है। तो गाँव और कस्वों की  हालत  का क्या कहना ? मध्यप्रदेश की इतनी बुरी हालत तो कांग्रेस के ज़माने में भी नहीं थी।क्या मोदी जी 'आरा' की तरह यहाँ तभी कुछ  नजर - ऐ  -इनायत फरमाएंगे ?  क्या यहाँ भी तभी कुछ  हो सकेगा जब भाजपा को  मध्यप्रदेश की  सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा  ?  क्या तभी कोई सवा लाखिया पैकेज नमूदार होगा ?   

दुबई में तो मोदी जी ने बार-बार  यों  दुहराया कि -'बताएं -'बिजली चाहिए कि  नहीं ? मुझे ताज्जुब हुआ ही कि  यह सवाल मध्यप्रदेश ,राजस्थान ,छग और झारखंड में क्यों नहीं पूंछते ? वहाँ  बुर्ज खलीफा के सामने जगमग - जगमग यूएई में ,सर्व सम्पन्न एनआरआई मानव  समूह के समक्ष ,भारत के  प्रधानमंत्री द्वारा अपने ही वतन के अँधेरे का बखान  शौर्यगाथा  की तरह क्यों किये जा रहे थे ? क्या यह एक जिम्मेदार नेता का दायित्व नहीं है कि राष्ट्रीय आंतरिक दुर्व्यवस्था का कुत्सित बखान  कम से कम ओरों के घर जाकर तो न करे ? क्या यह महज आगामी चुनाव की लोक लुभावन लीला नहीं है ? मोदी जी ने यूएई में भी अनायाश ही नहीं बल्कि जानबूझकर  ही  पूर्वी भारत को पष्चिम से पिछड़ा बताया है !  वेशक वे सही हों !लेकिन  उनका  यह बड़बोलापन अपनी जांघ उघारने जैसा ही कृत्य  है ! उन्हें शायद ही  इस सुभाषित -लोकोक्ति का ज्ञान होगा  कि :-

" यद्द्पि शुद्धम्  लोक बिरुद्धम् ,न कथनीयम्  न कथनीयम् !"

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ने  विगत स्वाधीनता दिवस याने -पंद्रह अगस्त को लालकिले की प्राचीर से जो कुछ  भी वयान किया है उससे तो यही लगता है कि  वे चुनाव -प्रचार के मोड़ पर ही  अटके हुए हैं। यूएई में तो उन्होंने गजब ही कर दिया। वहाँ  जाकर श्रीलंका के मछुवारों की ,नेपाल के भूकम्प पीड़ितों की , बांग्ला देश के साथ  हुई  ताजातरीन भौगोलिक युक्तियुक्तकरण संधि की तारीफ़ अपने ही  मुखारविंद से  करते हुए मोदी जी बहुत छुद्र और  बड़बोले नेता लग रहे थे। आत्ममुग्ध्दता से पीड़ित  मोदी जी ने भारत की जनता के सनातन सवालों  पर तो मानों  चुप्पी ही  साध रखी है ।जबकि हलकट ठिलवई  से  अपने पिछलग्गू श्रोताओं  का मनोरंजन वे कुशलतापूर्वक किये जा रहे हैं।

'असली'  लाल किले की प्राचीर से - पंद्रह अगस्त को उन्होंने हजारों बच्चों- बुजुर्गों  को गर्मी-उमस में घंटों तक  भूँखा -प्यासा बिठाये रखा। और खुद पानी पी- पी कर मोदी जी  अपना उबाऊ भाषण पेलते रहे  । लेकिन  ये तो फिर भी घर की बात है।  दुबई -अबुधाबी में  पचास हजार उपस्थ्ति भारत समर्थकों  व देश -दुनिया के करोड़ों दीगर  शत्रु-मित्र राष्ट्रों के जनगणों  को सुनाते हुए मोदी जी ने जो कुछ भी  बयान किया वो  गौरवपूर्ण नहीं कहा  जा सकता। भारत में करोड़ों गरीबों के  ज़ीरो बैलन्स  वाले खाते  खुलवाने में गर्व  की बात क्या है ?  इसमें दुबई या अबुधाबी के लोगों  की क्या दिलचस्पी हो सकती है ? भारत के गाँव-गाँव में टॉयलेट नहीं हैं  ,रक्षाबंधन पर भाइयों द्वारा  बहिनों को गिफ्ट में बीमा पॉलिसी देने  का सुझाव  इत्यादि मुद्दों का चटखारे लेकर  बखान करने कि  ताकत क्या काबिले तारीफ़ है ?  दुबई में उनका यह कहना कि 'मेरे सत्ता में आने से पहले भारत में चारो ओर  अँधेरा  ही अँधेरा था'।  क्या इस तरह  के शान बघारु - झूंठे  जुमलों से  भारत की जग हंसाई नहीं  हो रही ?

 मोदी जी के उबाऊ भाषणों  को   पूरा सुनने  की  जिसमें  भी क्षमता  होगी वो निश्चय ही बड़े 'कलेजे' वाला  ही हो सकता है। यह पहली बार नहीं हुआ कि  मोदी जी ने  किसी दूसरे  देश में जाकर बार-बार यह जताने की कोशिश  की है कि  भारत अभी तक निहायत ही गंदा ,भुखमरा और निर्धनतम देश है।  मोदी जी से पहले वाली किसी भी सरकार ने  या  किसी नेता  ने कुछ नहीं किया है। अब मोदी जी सत्ता में आये  हैं  सो सब कुछ ठीक करने में जुटे  हुए हैं । उनके इस अनर्गल प्रलाप में रूचि किसे थी ?वेशक प्रवासी भारतीयों के अंतर्मन में गहरे तक पैठी हुई  - मर्म   में छुपी हुयी भारतीय राष्ट्रनिष्ठा  ही है जो 'मोदी -मोदी ' का तुमुलनाद किये जा रही थी।  इस अवसर पर  वहाँ  दुबई में बिहार ,बंगाल ,उड़ीसा और उत्तरप्रदेश को पिछड़ा बताकर ,भारत को अविकसित - अंधकारमय बताकर मोदी जी  अब खुद ही पिछड़ने लगे हैं ।


                                                                           श्रीराम तिवारी


 

सोमवार, 17 अगस्त 2015

संथारा सल्लेखना , श्रमण समाधि नाम..!



    मानव मूल्यों के लिए  ,  देते हैं जो  प्राण  ।

    बलिदानी  इतिहास में  , पाते हैं सम्मान ।।


   शोषण -अत्याचार से , लड़ते मनुज अनेक ।

    क्रांति दीप्ति अक्षुण रखे ,वो तारा कोई एक ।।


   निर्दोषों को मारते  ,  नरपिशाच   नादान।

   ऐसे आदमखोर से ,बेहतर कागा श्वान।।


   मेहनतकश को लग रहे ,श्रम शोषण  के बाण ।

    भृष्ट धनिक की चरणरज ,नेता का निर्वाण  ।।


   तज इच्छा ब्रत  कर्म सब ,तजे  देह अभिमान।

   जीवन मुक्त जिजीविषा , निर्विकल्प यह ज्ञान  ।।


    निरवृत्ति निर्मोहिता ,निर्लिप्ति निष्काम ।

   संथारा सल्लेखना , श्रमण  समाधि नाम  ।।


                        श्रीराम तिवारी


 


  वैसे तो भारतीय सनातन परम्परा में 'ईर्ष्या ' का सर्वत्र  निषेध है। किन्तु सकारात्मक सोच के धनी  पाश्चत्य विचारक -पाउलो कोएल्हो- को इस ईर्ष्या नामक मानसिक व्याधि में भी उपादेयता नजर आ रही है। पेश है :-

"हमें ईर्ष्या करने वाले व्यक्तियों से नफरत नहीं करनी  चाहिए !वे हमसे ईर्ष्या इसलिए करते हैं ,क्योंकि वे हमें उनसे बेहतर और खुद को हमसे कमतर समझते हैं "


                                                                                                          श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 11 अगस्त 2015

जो लोग लोकतंत्र को बाहुबल और धनबल से अपनी कांख में दबाये हुए हैं वे देशभक्त कैसे हो सकते हैं ?


प्रशंग एक :-

अभी हाल ही में सीआरपीएफ के जवान से जुड़ा एक सनसनी खेज मामला उजागर हुआ है। विगत साढ़े तीन साल से जिसके परिजन - जिस जवान को मृत मानकर बैठे थे ,वह हिमाचल प्रदेश के किसी लक्झरी होटल में अपनी 'गर्लफ्रेंड' बनाम प्रेमिका बनाम रखैल के साथ रंगरेलियाँ मनाते हुए रँगे  हाथों पकड़ा गया।यह स्मरणीय है कि उस जवान की 'मृत्यु' उपरान्त भारत सरकार उस परिवार को सत्रह लाख रूपये मुआवजा राशि दे चुकी है। इसके अलावा उसकी पत्नी को बारह हजार रूपये प्रति माह पेंशन भी दी जा रही है। पुलिस महा निरीक्षक जयपुर श्री डीसी जैन के मुताबिक 'दशरथ जाट ' नामक वह सिपाही झुनझुनू के दोरादास का रहने वाला है। वह १९९८ में सीआरपीएफ में सिपाही के पद पर भर्ती हुआ था। इसकी भी पूरी सम्भावना है कि  इस तरह के चलते-पुर्जे गद्दार ने आरक्षण या रिश्वत की गटरगंगा में डुबकी जरूर लगाई होगी। यह शख्स २०१२ में जब बिहार की यूनिट में तैनात था तब उसने एक माह का 'सवैतनिक' अवकाश लिए था। अवकाश की अवधि पूरी होने के बाद वह अपनी यूनिट में वापसी का कहकर घर से गया था। किन्तु वह न तो ड्यूटी पर पहुंचा और न ही घर वापिस लौटा। क्या  भारतीय सुरक्षा तंत्र  और  प्रशासनिक मशीनरी  का यही असली डीएनए है ? क्या ऐंसे ही दोगले लोगों के भरोसे और उनके द्वारा संचालित 'वर्णशंकर' व्यवस्था के बलबूते हम चीन-पाकिस्तान को उनकी निर्मम आक्रामकता का माकूल जबाब दें सकेंगे  ?

प्रसंग  दो :-

 विगत कुछ दिनों पहले उधमपुर में पकडे गए एकमात्र जीवित पाकिस्तानी  आतंकी'नावेद' को ज़िंदा पकड़ने वाले -'जीजा -साले' न तो फौजी हैं ,न ही  आरक्षण प्राप्त कोई वेतन भोगी  सरकारी कर्मचारी-अधिकारी हैं ,न ही कोई मठ्टर रिश्वतखोर अधिकारी हैं ,न ही कोई  धंधेबाज नेता हैं। वे तो  मामूली मेहनतकश नागरिक  हैं  जो आये दिन पाकिस्तान प्रेरित आतंक के साये में जीते-मरते हैं। वास्तव में वतन के असली रखवाले  और सच्चे  वतन परस्त ये ही हैं। विक्रमजीत और राकेश शर्मा यदि उस आतंकी नावेद को जीवित  नहीं पकड़ते तो  इस आतंकी  घटना की तस्वीर कुछ और  होतीं। एक तो यह कि जिन वेगुनाहों को उस दुष्ट  आतंकी ने एके -४७ की नोक पर बंधक बनाया था ,वे सब मारे जाते। दूसरा परिणाम यह होता कि  बाद में एक दर्जन भारतीय सीमा सुरक्षा बल  के जवानों की शहादत  के बाद भारतीय सुरक्षा बलों  के हाथ जो लाशें आतीं  उनमें एक लाश आतंकी नावेद की भी होती। तीसरा परिणाम यह होता कि  भारत के पास पाकिस्तान के खिलाफ कोई  ज़िंदा सबूत नहीं होता ! इससे सिद्ध होता है कि आतंकी नावेद के जिन्दा पकडे जाने  में  जिन  'देशभक्तों' की भूमिका शानदार रही  है। वे 'राष्ट्रीय गौरव ' के असली हकदार हैं।   खबर है कि  राज्य सरकार ने इन जाँबाज 'जीजा -साले' को आरक्षक बलों  में भर्ती की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी है। उन्हें वीरोचित  राष्ट्रीय समान से भी नवाजा जाएगा। देश की युवा पीढ़ी कोअपने कॅरियर की फ़िक्र के साथ-साथ  इन्ही प्रेरणास्पद आदर्शों से सीखना चाहिए !

           उपरोक प्रसंग भारत के वर्तमान दौर की व्यवस्था व जन-मानसिकता का सांकेतिक प्रतिनिधित्व करते हैं।  मेहनत ,ईमानदारी से आजीविका चलाने वालों को सद्गति मिलती है ,ये तो प्रमाणित करना पडेगा ,किन्तु यह पक्की बात है कि  ऐंसे व्यक्ति ही समाज के लिए ,देश के लिए अनुकरणीय होते हैं। जो बिना किसी आरक्षण रुपी  वैशाखी या रिश्वत  के  देश के गद्दारों से लोहा ले सकते हैं ,वे विक्रमजीत और राकेश शर्मा ही  देश और कौम के असल नायक  कहे जा सकते हैं। इस साहस और वतनपरस्ती की भारत को बहुत सख्त जरुरत  है। भारत  के मेहनतकश जन  तो देशभक्त हैं किन्तु राजनीति में अपनी ताकत बढ़ाने और वोट बटोरने के लिए कोई जाति वाद का ,कोई मजहब का ,कोई आरक्षण का  और कोई अल्पसंख्यकवाद  का चूल्हा सुलगाये हुए है।  इससे देश के मेहनतकशों-किसानों और बेरोजगार युवाओं की एकता तार- तार हो आरही है।  इसी कमजोरी का फायदा आतंकवादी और अलगाववादी उठा  रहे हैं।  सर्वहारा वर्ग और ईमानदार पेटी -बुर्जुवा वर्ग की आपसी खींच तान का फायदा  कार्पोरेट लाबी और पूँजीवादी  -साम्प्रदायिक पार्टियों को मिल रहा है।  जो लोग लोकतंत्र को बाहुबल और धनबल से अपनी कांख में दबाये हुए हैं वे देशभक्त कैसे हो सकते हैं ?

किसी एक  आतंकी  के जीवित पकडे जाने पर भाजपा नेता-प्रवक्ता फिर वही  म्यांमार वाली  शर्मनाक घटना की पुनरावृत्ति कर रहे हैं। ये लोग हर दुर्घटना या आतंकी हमले के बाद स्वयं की पीठ ठोकने लग जाते हैं। उन्हें यह याद रखना  चाहिए कि  पाकिस्तान प्रशिक्षित  आतंकी  जान बूझकर ऐंसी जानकारियाँ  देते हैं ताकि ,बाद में भारत  और उलझ जाये एवं  सरकार की दुनिया भर में हँसी  उड़े। यही तो पाकिस्तान  की  षड्यंत्रकारी कूटनीति है कि  उसे आतंकी के बारे में सचाई मालूम है ,किन्तु उसकी संबध्दता से इंकार कर रहा है। जबकि  नावेद के वयान को आधार  बनाकर भारत सरकार अपना कूटनीतिक स्टेण्ड ले रही है। जब भारत ने कहा कि नावेद और दूसरे मारे गए   आतंकी पाकिस्तान के हैं , तो पाकिस्तान ने फौरन इंकार कर दिया। चूँकि पाकिस्तान की कभी भी वाशिंगटन -व्हाइट हाउस में पेशी भी हो सकती है.तो वह सबूतों की बात करेगा।  भले ही आतंकी पाकिस्तान का ही है  किन्तु उस ने जो कहा उसे ही सच मानकर भारतीय एजेंसियां भयानक भूल कर रहीं हैं। भारतीय  संप्रभुता पर हमला करने वाला -आतंकी बेखौफ मुस्कराते हुए फटाफट जो बयान दे रहा है वह सफेद झूंठ भी हो सकता है।  सच क्या है यह या तो पाकिस्तान ही  जानता है।  भारत के नेता  लोग अपने  दो सभ्रांत  जाबांज़  नागरिकों की पुण्याई पर भरत नाट्यम न करें ।  किसी तरह की गर्वोकिति करने से  पहले भारतीय जवानों की शहादत  भी स्मरण रखनी चाहिए।


           श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 10 अगस्त 2015

ये दुनिया बिना किसी खूनी क्रान्ति के भी 'सुंदर' बनायी जा सकती है !

  भाववादी दुनिया का कोई भी मजहब -धर्म -पंथ यह दावा नहीं कर सकता कि  उसके अनुयाई वेवकूफ नहीं हैं !  वेशक दुनिया  के प्रत्येक  धर्म-मजहब में तमाम नेकनामियों  मौजूद हैं। इन धर्म-मजहबों में मानवीय मूल्यों के सुंदर सृजनशील उपदेश भी  भरे पड़े हैं। किन्तु अधिकांस मजहबी लोगों की समस्या है कि  इन मजहबों-धर्मों के दिशा निर्देशों का अनुकरण करने के बजाय उनके संस्थापकों के रूप और आकार पर ही फ़िदा होते रहते हैं। और  इसीलिये जब मानवता ,इंसानियत ,स्वतंत्रता ,समानता  की  कोई क्रांतिकारी आवाज उठती है ,जब सामूहिक  हकों की बात की जाती है , जब एक  शोषण मुक्त समाज की माँग उठती है ,तो ये सभी धर्म-मजहबों पर काबिज  ठेकेदार अपना असली रंग दिखाने लगते हैं।प्रत्येक भाववादी सोच में मौजूद अंधश्रद्धा जब वैज्ञानिक तर्कों के सामने विवेकहीन हो जाती है तो वह  हिंसक रूप धारण कर लेती है।

   वेशक लूट- ठगी-अन्याय व उत्पीड़न के तरीके -देशकाल परिस्थतियों के कारण बिभिन्न देशों और कौमों में  भिन्न-भिन्न हो सकते हैं । लेकिन  निहित स्वार्थ साधने के  लक्ष्य सभी के एक समान और  आडम्बरपूर्ण  होते  हैं। ईसाई ,यहूदी और हिन्दू वर्चस्ववादी यदि बनियागिरी से , धार्मिक पाखंडवाद से कमजोरों -मेहनतकशों  और किसानों  का खून चूसते हैं। इसी तरह अंधश्रद्धावान उग्र  मुसलमान  और नास्तिक उग्र वामपंथी भी  हिंसा का रास्ता ही  चुनते हैं। उग्र वामपंथ तो  कभी भी अपनी  ही मौत  मर सकता है।  बशर्ते समाज के उपेक्षित-शोषित  पीड़ित वर्ग को उनके हक और उत्पादन के औजार लौटा  दिए जाएँ ! इसी तरह 'जेहाद' के नाम पर निर्दोषों का खून बहाने वालों को यदि इस्लाम सहित दुनिया के तमाम मजहबों का वास्तविक  उद्देश्य-दर्शन -ज्ञान हो जाए तो वे भी मान सकते हैं कि - ये दुनिया  बिना किसी खूनी क्रान्ति के भी 'सुंदर' बनायी जा सकती है  !

  प्रायः देखा गया है कि धर्मांध हिन्दुओं को अपने शास्त्रीय धर्म सूत्रों में कोई दिलचस्पी नहीं है। ये तमाम किस्म के आस्तिक  और अंधश्रद्धालु लोग  सत्य ,अहिंसा ,अस्तेय ,ब्रह्मचर्य ,अपरिग्रह ,शौच ,संतोष ,स्वाध्याय ,योग,  ईश्वर प्रणिधान  इत्यादि के विमर्श  की बातें तो बहुत करते  हैं। किन्तु अन्याय -अत्याचार करने वाले 'असुरों' - बाहुबलियों और शोषण करने वाले शासक वर्ग सामने किसी भी  किस्म  का जायज  संघर्ष करने के बजाय खुद भी  उनके शिकार हो जाया करते हैं। अथवा व्यवस्थाजन्य मानवकृत आपदाओं का ठीकरा अपने 'आराध्य' ईश्वर ,अल्लाह या परमात्मा  के सिर  पर फोड़  देते हैं। आम तौर पर  अमीर-गरीब ,शरीफ - बदमाश सभी किस्म के धर्मांध  हिन्दुओं को अपने पाखंडी  धर्मोपदेशक 'बाबाओं' और साध्वियों  पर बड़ी  अटूट अंध श्रद्धा  हुआ करती  है। इसीलिये साम्प्रदायिक और जातीय आधार पर वोट जुगाड़ने वाले दलों  को ये अंधश्रद्धा के नशे में डूबी  नस्ल केवल 'चुनाव जिताऊ मशीन'  मात्र ही है  ! पूँजीवादी -साम्प्रदायिक  नेतागण  बाबाओं के पाखंड और व्यभिचार पर चुप्पी साधे  रहते हैं।  कुछ इसी तरह की  साम्प्रदायिकता -अल्पसंख्यक वर्ग की राजनीति   करने वाले नेताओं में भी पाई जाती है।

 शीत युद्ध समाप्ति के बाद की दुनिया में  प्रायः देखा गया है कि वैश्विक ताकतों द्वारा  व्यवस्थाओं के  संघर्ष को 'सभ्यताओं के संघर्ष' में तब्दील किया जाता रहा है। इस्लामिक राष्ट्रों के  पेट्रोलियम पर कब्जा करने की साम्राज्य्वादी जद्दोजहद ने धीरे-धीरे मजहबी जेहाद का यह  वर्तमान हिंसक  रूप धारण कर लिया ।  इक्कीसवीं शताब्दी की  कोई  भी आतंकी हिंसात्मक  घटना  ऐंसी नहीं  है  जो जिहाद प्रेरित न हो !  भारत में विगत वीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अवश्य खालिस्तानी  उग्रवाद ने सर उठाया था ,जिसे दुरुस्त करने में  भारत ने अनेक   कुर्बानियाँ दीं हैं।लेकिन वैश्विक कुख्याति में अब  एक विशेष समुदाय या कौम के ही  गुमराह  मरजीवड़ों का ही  बोलवाला  है। सीरिया,इराक,ईरान,अफगानिस्तान,यमन,सूडान,मिश्र ,पाकिस्तान   में केवल एक ही सम्प्रदाय के आतंकियों  की तूती  बोल रही है। वहाँ  इस आतंकवाद को शुद्ध रूप में केवल और केवल इस्लामिक या कथित 'जेहादी' आतंकवाद के रूप में ही देखा -सुना जाता है। यूरोप ,अमेरिका ,इंग्लैंड ,फ़्रांस और  भारत  की अधिकांस  शांति प्रिय जनता अब इसे वैश्विक आतंकवाद के रूप में देखती  है ।

 दुनिया के जो लोग  इस जेहाद से पीड़ित हैं ,वे ईसाई  ,कुर्दीश ,यहूदी , यज़ीदि और शिया भी  एक सम्प्रदाय या कौम के रूप में इस  बर्बर चुनौती को उसकी प्रत्याक्रमण कारी शैली में  जबाब देने में असफल रहे। चूँकि  यूएस और उसके पिछलगुओं ने पूर्व सोवियत संघ को नष्ट करने के लिए कभी इस अपवित्र हिंसक  जाहिल नस्ल को खाद -पानी दिया था। इसलिए वे  केवल दिखावे के लिए इन हिंसक तत्वों का मौखिक विरोध करते रहे। बाद में जब  अमेरिका पर आतंकी हमला हुआ तो उसके  प्रतिउत्तर में पाकिस्तान में छिपे ओसामा और अल-कायदा वालों से अमेरिका वालों ने खुन्नस निकाली।वैसे भी यूरोप ,अमेरिका और सुदूर वर्ती राष्ट्रों को आईएसआईएस से उतना खतरा नहीं है। किन्तु  भारत में इस जेहादी  आतंकवाद के  फलने-फूलने के लिए पर्याप्त उर्वरा भूमि उपलब्ध   है।

      दक्षिण एशिया  में आईएस से भी पहले से ,बल्कि सदियों से ही  हिन्दू विरोधी जेहाद जैसा  हथकंडा निरंतर जारी है। हिन्दुस्तान का बटवारा होने के बाद पाकिस्तान ने इसे और भड़काया। चूँकि भारत की धर्मनिरपेक्षता -वादी  नीति  में  इन  'जेहादी' चरमपंथियों  के  हिंसक हमलों के प्रतिवाद या निस्तारण के लिए कोई मान्य ठोस सिद्धांत नहीं है। इजरायल अमेरिका ही नहीं बल्कि तमाम गैर इस्लामिक मुल्कों में  इस जेहाद से लड़ने के लिए जनता नहीं बल्कि सरकारें काम करती  रही हैं।इंडोनेशिया के बाद दुनिया की सर्वाधिक मुस्लिम आबादी भारत  में निवास करती है । भारत के लिए यह फक्र की बात होती यदि आईएस ,अलकायदा और पाकिस्तान परस्त आतंकी भारत को बुरी नजर से नहीं देखते। भारत  की कोई भी सरकार हो -चाहे वो कांग्रेस की हो ,तीसरे मोर्चे की हो या 'संघ परिवार' के वर्चस्व की - हिंदुत्व वादी सरकार  ही क्यों न हो  उसे मालूम है कि  वह इजरायल या यूएस -की तरह का उन्मूलन सिद्धांत लागू नहीं कर सकती ।क्योंकि भारत का धर्मनिरपेक्ष संविधान इसकी इजाजत नहीं देता !

                  भारत के अधिकांस हिन्दू  मुस्लिम ,सिख ,ईसाई ,बौध्द  इत्यादि  अधिकांस जनगण  स्वभावतः   धर्मनिरपेक्षतावादी ही  हैं। अधिकांस गंगा-जमुनी तहजीव के पक्षधर हैं। किन्तु जब  कश्मीर में आईएस या पाकिस्तान के झंडे फहराये जाएँ या कोई  पाकिस्तान प्रेरित आतंकी ज़िंदा पकड़ा जाता है ! औरजब  वह 'नावेद' की तरह   केवल चुन-चुनकर हिन्दुओं को निशाना बनाने  की बात करता है। जब वह कहता है कि  'हिन्दुओं को मारने में मुझे मजा आता है ' इतिहास साक्षी है कि तब बाजी  धर्मनिर्पेक्षतावादियों के हाथों से फिसलकर स्वतः ही साम्पर्दयिकतावादियों के हाथों में पहुँच जाती है। तब  वामपंथी बुद्धिजीवियों  और धर्मनिर्पेक्षतावादियों की या लोकतंत्रवादियों की बात का  बहुसंख्यक आवाम  पर कोई असर नहीं होता। तब बहुसंख्यक वर्ग के आक्रोश को भुनाते हुए फासिज्म परवान चढ़ने लगता है। तब  अल्पसंख्यक आतंकियों को नेस्तनाबूद करने के बजाय राज्य सत्ता पर काबिज नेता  और सरकार निर्दोषों पर अत्याचार का 'अधिकार पत्र' प्राप्त कर लेती है।

   यद्द्यपि  भारत में किसी भी हिंसक साम्प्रदायिक कौम को किसी अन्य अहिंसक साम्प्रदायिक  कौम से कोई  चुनौती नहीं है। यहाँ पाकिस्तान  या आईएसआईएस  प्रेरित हिंसक  साम्प्रदायिकता  के पक्ष में सब कुछ मौजूद है। न  केवल  तमाम धर्मनिरपेक्ष-प्रगतिशील लोग ही 'अल्पसंख्यकवाद' के धोखे में  ही आतंकियों के समर्थक बने हुए हैं। बल्कि 'अहिंसक' बहुसंख्यक वर्ग और उसके बीच के साम्प्रदायिक तत्व भी हमेशा कुछ ऐंसा उल्टा सीधा करते रहते हैं कि उनके द्वारा पाली-पोषित यह पूंजीवादी व्यवस्था व  उसकी तमाम मशीनरी भी इन हिंसावादी साम्प्रदायिक तत्वों के चरण चाँपने लगती है। भारत के मुठ्ठी भर अधकचरे अनाड़ी और  साम्प्रदायिक संगठनों ने सत्ता के चूल्हे पर हिंदुत्व रुपी काठ की हांडी दो-दो बार चढ़ा ली ,किन्तु अयोध्या में दस बाई दस वर्ग फुट का एक 'रामलला मंदिर' भी  वे नहीं बनवा सके। क्या यही हैसियत है भारत में बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता की ? क्या  इसी के लिए वे भारत में विगत सौ साल के इतिहास में केवल  बदनाम ही किये जाते रहे  है ? कभी किसी  गोडसे ने गांधी को मारा , कभी किसी गुंडे  ने मक्का मस्जिद के आसपास दो-चार फटाके फोड़ दिए ,कभी किसी संघी ने अपने ही प्रचारक  संजय जोशी को  मार दिया ,कभी  किसी जडमति  ने समझौता एक्प्रेस पर कुछ  फुस्सी बम फोड़ दिए। इसके अलावा हिन्दुत्वादी कतारों में अपनी  कमजोरी  छिपाने के लिए  बार-बार के आम चुनावों में अल्पसंख्यकों के खिलाफ जहर उगलने और ढपोरशंख  बजाने से आईएस और पाकिस्तान परस्तों को उनका आतंकी जेहाद जस्टीफाइ लगने  लगता है। वैसे भी जबसे 'मोदी सरकार' सत्ता में आई है तबसे न  केवल  पाकिस्तान से  न केवल चीन से  बल्कि  दुनिया  के कोने -कोने से  भारत विरोधी  मंसूबे सुनाई दे रहे हैं।

कुछ स्वयंभू राष्ट्रवादियों और प्रगतिशील बुद्धिजीविओं ने दो बातों पर बहुत बड़ा भरम पाल रखा है। पहला -यह कि  भारत एक उभरता हुआ आर्थिक तरक्की वाला परमाण्विक शक्तिशाली  राष्ट्र है। जो अपनी सुरक्षा करने में सक्षम है।  इन लोगों को बहुत बड़ी गलतफहमी है कि उनकी सैन्य  क्षमता और युद्धक सामग्री  दुश्मनों से बेहतर है। वे यह भूल जाते हैं कि  पाकिस्तान  के शासकों को खुद कुछ भी नहीं करना है।  उन्हें केवल जेहादी इस्लामिक आतंकवाद को ज़िंदा रखना है। बाकी सब काम ये आतंकवादी ही करंगे।  ये आतंकवादी भारत में आकर केवल पाकिस्तान  का झंडा ही नहीं फहराएंगे बल्कि नकली मुद्रा भी लायंगे। ये हवाला के काम भी आएंगे। वे गांजा चरस  और हशीश भी लाएंगे। वे  ऐ ,के  -४७  और आरडीएक्स भी लायँगे। पाकिस्तान और आईएस को कुछ नहीं  करना है। जो कुछ करना है इस्लाम के नाम पर  पाकिस्तान और भारत के  गुमराह युवाओं  को ही करना है।

भारतीय प्रबुद्ध समाज ने दूसरा भरम  ये पाल रखा  है कि  भारत की  विराट आबादी ,उसकी सहिष्णुता ,अहिंसा और  उसकी  धर्मनिरपेक्षतावादी नीति  में बड़ी ताकत है ।  उन्हें  अपने मानवीय मूल्यों पर बड़ा नाज है। किन्तु  अपना ही यह पौराणिक सिद्धांत याद नहीं कि किसी  'विशाल  घासाहारी हाथी को वश  में करने के लिए छोटा सा 'अंकुश' ही काफी है। 'दुनिया के ५६ इस्लामिक देशों की सेनाएं , अलकायदा ,आईएस और पाकिस्तान  में  छिपे  बैठे दाऊद ,हाफिज सईद  इजरायल  से क्यों नहीं लड़ लेते ? क्यों इजरायल  का नाम सुनते ही सऊदी अरब और जॉर्डन  का शाह भी  अमेरिका की गोद में  अपना मुँह  छिपाने को बाध्य हो जाते  हैं। इस आतंकवाद से लड़ने के लिए  भारत  को वास्तविक धर्मनिरपेक्षतावाद की दरकार है। सभी किस्म के साम्प्रदायिक तत्वों का राजनीति में प्रवेश वर्जित किया जाना  चाहिए। इस्लामिक जेहाद का जबाब हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिकता कदापि नहीं हो सकती। बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक सरकार और उसकी सेनाएं ही उसका बेहतर जबाब हो सकते हैं।

  वर्तमान में सत्तारूढ़ नेता साम्प्रदायिकता में रचे -बसे  हैं। उधर  भारतीय सुरक्षा तंत्र बेहद कमजोर है। यदि हम ताकतवर होते  तो अक्सर ही ऐंसा क्यों होता है कि  एक -दो आतंकवादी को पकड़ने के लिए या मारने के लिए दर्जनों भारतीय जवानों को शहादत नहीं  देनी पड़ती  है  ! अभी -अभी उधमपुर में पकडे गए एकमात्र जीवित आतंकवादी नावेद के प्रकरण से  ही सिद्ध होता है कि हमारी यह धारणा  गलत है कि भारतीय  सुरक्षा तंत्र मजबूत है।  वैसे भी जीवित आतंकी को  भारतीय फौजों या बीएसएफ ने नहीं पकड़ा ! इसके बरक्स आतंकियों ने तो बीएसएफ के जवानों को ही मार डाला है । कई भारतीय जवान घायल भी हुए। किन्तु वे जीवित किसी भी आतंकी को नहीं पकड़ पाये। वेशक भारतीय जवांन दुनिया में सबसे बेहतरीन हैं किन्तु साँप  यदि आस्तीन में ही छुपे हों  तो  पुनः गंभीरता से  सोचना पडेगा। हालाँकि  भारतीय सेनाओं को बँगला देश के समय जो गौरव प्राप्त हुआ था उसकी पुण्याई अब समाप्ति पर है। शायद इसीलिये कभी केंद्रीय रक्षा मंत्री मनोहर परिकर को शिकायत रहती  है कि  'हम बहुत दिनों से लड़े ही नहीं' ,कभी  केद्रीय मंत्री गिरिराज किशोर  को ये शिकायत हुआ करती है कि  'हिन्दू सहिष्णु होने से बुजदिल और कायर होते हैं '। यह देखने के बाद कि  जिन दो भारतीय  नागरिकों  ने जीवित आतंकी  नावेद को पकड़ा  है -वे असली हिन्दू  हैं।  वे विक्रमजीत शर्मा और राकेश शर्मा  जो की आपस में  जीजा -साले भी हैं। सहिष्णु होने के बाद जब वे आतंक से लड़ सकते हैं तो  सम्पूर्ण भारतीय युवा इस आतंकवाद से क्यों नहीं लड़ सकते ?  हालाँकि इस घटना का श्रेय सरकार और नेता लेते दिख रहे हैं जो कि एक किस्म  का  कदाचार और राजनीतिक व्यभिचार ही है ।

 जम्मू कश्मीर में 'पुहुन  कश्मीर ' ने वर्षों अपने-आप को बचाने का  उपक्रम किया।  उन्ही की बदौलत नेहरू  -पटेल ने कश्मीर को 'भारत संघ' में   मिलाया। उन्ही की बदौलत कभी बाप बेटे ने , कभी बाप-बेटी ने कश्मीर  पर राज किया।  उन्ही की बदौलत 'नमो' को भी कालर ऊँची करने का मौका मिला। किन्तु  कश्मीरी  पंडित  या हिन्दू अपने  ही देश में अपने ही घर  में वापिस लौटने में अभी भी  डर  रहा  है। जबकि दुनिया की कोई भी कौम या राष्ट्र यह दावा नहीं कर सकता कि  उसे  कश्मीरी पंडितों या हिन्दुओं  से कोई खतरा है। इस दुखद स्थति के लिए केवल जेहादी ही नहीं बल्कि भारत में गंदी राजनीति  करने वाले भी जिम्मेदार हैं। सत्ता के लिए कुछ लोगों ने रथ यात्रा निकाली। मंडल-कमंडल के नारे लगाए। मंदिर-मस्जिद विवाद खड़ा किया। गोधरा की हिंसा का हिंसक  जबाब पूरे गुजरात के निर्दोष मुसलमानों पर कहर ढाकर  दिया। समस्त हिन्दू कौम को दुनिया भर में  'हिंसक'  व साम्प्रदायिक निरुपित  किया । भले ही इन दुर्घटनाओं से 'संघ परिवार' को और भाजपा को राजनैतिक लाभ हुआ है। किन्तु भारत और दुनिया के हिन्दुओं का इस 'गुजरात स्वाभिमान'  वाले अहंकार से  बहुत नुक्सान हुआ है।

   श्रीराम तिवारी