शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

१० लाख का स्वर्णिम पीतांबर धारण करने वाले महानुभाव ही श्री हरि विष्णु के २५ वें अवतार हैं !




   कांग्रेस एक गई गुजरी राजनैतिक पार्टी हो चुकी है।  अधिकांस कांग्रेसी  नेता नाकारा हो चुके हैं ,बदनाम तो वे पहले ही बुरी तरह से  हो चुके हैं।चूँकि सत्ता चली गई तो डूबती नाव के मेंढकों  की मानिंद  उछल-कूंद  भी करने  लगे हैं ।  जब  यूपीए का नेतत्व करते हुए कांग्रेस सत्ता में हुआ करती थी तब मैंने  डॉ मनमोहनसिंह , सोनिया जी ,राहुल और कांग्रेस  की रीति-नीति  के विरोध में दर्जनों आलेख लिखे हैं।  ये जहरबुझे आलेख  अभी भी मेरे ब्लॉग www.janwadi .blogspot.com के अभिलेखागार में सुरक्षित हैं। इन आलेखों में  बाजमर्तबा मैंने राहुल को 'पप्पू' कहकर उपहास किया है। ततकालीन कांग्रेस  नेतत्व पर  भी अकर्मण्यता के आरोप लगाए हैं। किन्तु जयंती नटराजन  के खुलासे के बाद मैं 'अपराध बोध' से पीड़ित हूँ।
             जयंती  नटराजन जो खुलासे कर रहीं हैं और  उनके 'नए-नए यार' उन खुलासों  पर  गदगद  रहे हैं  , वास्तव में  वे तो राहुल के लिए प्रशंसा पत्र  हैं। यदि राहुल ने[जैसा कि  जयंती नटराजन  ने कहा ] ने बाकई   बहुराष्ट्रीय कम्पनी वेदांता या अडानी जैसे लुटेरों को पर्यावरण का सत्यानाश करने  से रोका है या उनके  प्राकृतिक दोहन के  अभियोजनों पर अड़ंगा लगाया  है , कदाचित यह  तो यह राहुल का देश भक्तिपूर्ण कार्य  है।
भारत के जागरूक वैज्ञानिकों ,समाजसेविओं  और देशभक्तों का यही तो संकल्प है कि  विकास हो तो सबका।  लेकिन देश के पर्यावरण या वैयक्तिक लूट की खुली छूट के आधार पर कागजी विकास नहीं चाहिए। काश जयंती नटराजन  के आरोप सही होते ! दरसल कांग्रेस ने ठीक से देश की सम्पदा का रखरखाव नहींकिया !जयंती नटराजन  के आरोप सही नहीं हैं।  वेदांता ,अम्बानी , अडानी की सम्पदा  तो यूपीए के कार्यकाल में ही
   चौगुनी बड़ी है।  काश  डॉ मनमोहनसिंह ने ,सोनिया गांधीं ने , राहुल ने पूँजीपतियों  की राह में रोड़े अटकए होते। तो उनके कार्यकाल में देश के ६७ पूँजीपतियों की सम्पदा  चौगुनी -पचगुनी नहीं हुई होती।   देश की गरीब जनता कंगाल नहीं हुई होती।  यूपीए और कांग्रेस की इतनी बुरी दुर्दशा नहीं होती कि  विपक्ष  का रुतवा भी  न मिले।  गनीमत है कि  कांग्रेस  के नेताओं  ने ,राहुल ने ,मनमोहन सिंह ने 'नौलखिया शूट ' कभी नहीं पहना। इसलिए  यदि साधारण कपड़ों  में राहुल 'पप्पू' लग रहे थे जयंती बेन को तो 'नौलखिया शूट ' में फेंकू ही  लगते न  ? राहुल की गलतियां पूँजीपतियों  की परेशानी का सबब  रहीं तो इसमें राहुल ने कौनसा  गुनाह कर दिया ?दरसल राहुल से शिकायत तो उनको है जो उन्हें देश का उदीयमान युवा नेतत्व मान बैठे थे। चूँकि राहुल ने नीतियों ,सिद्धांतों और आधुनिक युग के अनुरूप वैकल्पिक नीतियों का अनुसंधान ही नहीं किया इसलिए वे व्यक्तिशः आज भी पप्पू ही हैं।  चूँकि कांग्रेस ने  स्वाधीनता संग्राम का , गांधीं जी ,इंदिराजी ,राजीव जी के बलिदान का  अमर फल खा रखा है इसलिए उसे पुनः सत्ता में आने से कोई नहीं रोक सकता। किन्तु राहुल ने यदि मनमोहनी  आर्थिक नीतियों से किनारा नहीं किया  तो देश को  सही नेतत्व नहीं दे सकेंगे। कांग्रेस से जो तलछट उफन -उफ़न कर  भाजपा में जा रही  है -वही उसके पतन का कारण बनेगी। क्या यह घोर अंधेर नहीं है की मोदी जी को कांग्रेस तो  'पाप का घड़ा ' दिखती है। उन्हें और उनके  भगवा भौंदुओं को  हर कांग्रेसी  केवल देशद्रोही ही  दीखता है।  किन्तु यदि वह भाजपा में आ जाये तो धर्मात्मा हो  जाता है ! यह  पाखंडवाद  की राजनैतिक बाजीगरी  नहीं तो और क्या है ?
                   जिनके प्रसाद पर्यन्त जयंती नटराजन  बिना कोई चुनाव लड़े  [राज्य सभा  के मार्फ़त]  २० साल कांग्रेस की सांसद रही।  जिनके सौजन्य और नारीवादी दृष्टिकोण की बदौलत वे  १० साल  लगातार कैविनेट मंत्री  रही। उन जयंती नटराजन को  टूटी-फूटी  कांग्रेस ,सफेद साड़ी वाली  सोनिया जी  और साधारण   पायजामा कुर्ते  वाला  राहुल अब   'नीम करेला '  हो चुके हैं।  तमाम दलबदलुओं को -गणतंत्र दिवस पर १० लाख का स्वर्णिम पीतांबर  धारण करने वाले मोदी जी,ओबामा को चाय बनाकर 'सर्व' करने वाले मोदी जी ,कर कमलों में झाड़ू  ले- फोटो खिचवाने वाले मोदी जी अब  श्री हरि  विष्णु का २५ वां अवतार दिखने लगे हैं।
                                      इस घोर व्यक्तिवादी ,मौकापरस्त - अवसरवादी राजनीति  के उत्प्रेरकों को धिकार है!    जो इन विदूषकों  की चरण वंदना में व्यस्त हैं यदि उन्हें रंचमात्र  शर्म नहीं आती तो उनकी वेशर्मी को भी कोटिशः धिक्कार है !
                                                   श्रीराम तिवारी

                                   

गुरुवार, 29 जनवरी 2015

यह भारत की जनता का दुर्भाग्य है की संविधान की रक्षा का दायित्व उनको दे दिया जो उसे 'हलाक' करने की फ़िराक में हैं !


आज  विश्व शोक दिवस है !  आज ही के दिन मानवता के महान सपूत मोहनदास करम चंद  गांधी की निरशंस -जघन्य हत्या हुई थी।  नाथूराम गोडसे तो निमित्त मात्र था।  बापू के  असली कातिल तो  आज भी  जिन्दा हैं।वे बापू को मारने के बाद उनके विचारों की हत्या के षड्यंत्रों में जुटे हैं।  उनके मुख में राम है किन्तु बगल में छुरी है। वे भारतीय संविधान को  नहीं मानते।  उनका अपना विधान है।  उस विधान में लोकतंत्र ,समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को कोई स्थान नहीं।   लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि  उनके इस सामंतयुगीन अवैज्ञानिक   विधान के कारण ही भारत सदियों तक गुलाम रहा है।  वे अतीत के  आक्रमणकारी शासकों के  गुनाहों का बदला  मौजूदा पीढ़ी से लेने के लिए उतावले हो  रहे हैं।  धर्मनिरपेक्षता  पर हमला  करने वाले  शायद भूल रहे हैं कि भारत में  इसी धर्मनिरपेक्षता  की बदौलत  लोकतंत्र  ज़िंदा है। वे लोकतंत्र के जिस वृक्ष को काटने पर आमादा हैं उसी की बदौलत आज सत्ता में हैं। यह भारत की जनता का दुर्भाग्य है की  संविधान की रक्षा का दायित्व उनको दे दिया जो उसे  'हलाक' करने की फ़िराक में हैं !

 प्रायः संसार की सभी सभ्यताओं -धर्म -मजहबों और विचारधाराओं में यह सर्वमान्य स्थापना है कि  किसी  निर्दोष की हत्या  करना पाप है। किसी महापुरुष की हत्या तो और भी बड़ा  महापाप है।  महापुरुषों के पवित्र विचारों की हत्या उससे भी जघन्य  और कृतघ्नतापूर्ण अपराध है। भारतीय दर्शनों में - वैष्णव ,बौद्ध तथा जैन वाङ्ग्मय  में तो  जीव मात्र की हिंसा वर्जित है। जैन दर्शन  के एक  सूत्र  - " किसी भी मनुष्य को मानसिक कष्ट पहुँचाना भी हिंसा ही है ''  -  इस उच्चतम मानवीय संवेदना  के  आह्वान  को यदि  वाल्तेयर ने जाना होता तो शायद वो भी शरमा जाता।  किन्तु भारत में एक विशेष साम्प्रदायिक मानसिकता  के लोग यह सब जानते हुए भी 'कृत संकल्पित'  हैं कि  " हम नहीं सुधरेंगे''। वे उस महापुरुष के विचारों की हत्या पर उतारू हैं जिसे गोडसे ने  आज ३० जनवरी के ही दिन  गोलियों से भून दिया था।
                                              गांधी जी की हत्या हुई ,कोई नयी बात नहीं।  दुनिया में अनंतकाल से ये  हिंसक  अमानवीय  सिलसिला चला आ रहा है।  देशभक्तों की हत्या  दुश्मनों के हाथों तो आज भी जारी है। शहीद कर्नल  एमएन राय को तो गणतंत्र दिवस में सम्मानित होने के दूसरे  रोज ही सीमाओं पर दुश्मन के नापाक   हाथों  अपनी शहादत देनी पडी।  किन्तु यह तो युद्धजनित वीरगति का ही हिस्सा  है। अमर  शहीद ने देश के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया। उसे क्रांतिकारी सलाम ! यह  सौभाग्य भी विरलों को ही मिलता  है। इसमें दुःख के आंसू नहीं होते। बल्कि शौर्य और वीरता का राष्ट्रीय  गौरव परिलक्षित हुआ करता है।  शोक तो उस हिंसा का  मनाया जाना चाहिए  कि जो देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराये उसे अपने ही 'सपूतों' के हाथों  शहीद होना पड़े  ! अकेले एक गोडसे के हाथ गांधी के खून से रँगे  हों तो भी सब्र किया  जा सकता है। शायद  एक  ' ब्राह्मण' के हाथों 'सद्गति' मिली है गांधी को।  संघ के अनुसार तो  पतितपावन ब्राह्मण के हाथों  'गांधी बध ' हुआ है। उनके अनुसार -विप्र के हाथों 'हिंसा -हिंसा न भवति' !
                          किसी मुहम्मद ,किसी  'खान' ने गांधी को मारा होता तो "दईया  रे दईया ' अनंत काल तक उसे महा  रौरव नरक में सड़ना पड़ता ! गांधी को मारने के बाद अब गांधीं के उसूलों एवं सिद्धांतों  याने  धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद और लोकतंत्र की बारी है। वेशक  फासिस्ट तत्वों ने अभी तो अंगड़ाई ही ली  है। उनका मानना है कि  आगे और लड़ाई है। इन्ही मंसूबों के मद्देनजर भारत सरकार ने  इस दफे गणतंत्र दिवस - २६ जनवरी को कोई विज्ञापन जारी किया। जिसमें भारतीय संविधान की अधूरी प्रस्तावना प्रकाशित  की गई। समाजवाद और धर्मनिरपेक्ष शब्द जानबूझकर हटा दिए गए। देश के तमाम बुद्धिजीवी और राजनैतिक विपक्ष ने इसकी आलोचना की है।  शिव सेना ने समर्थन किया है।  केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद जी ने आग में घी डाल   दिया है ।  उन्होंने इस विषय पर 'बहस' की मांग की है।
                           बहस से वो घबराते हैं जो कच्चे - पाखंडी गुरुओं   के चेले होते हैं। बहस से वे धबराते हैं जो रूप सौंदर्य जवानी या  नकली मार्कशीट के बल पर मंत्री बन जाते हैं।  इन्ही के कुछ पूर्वज  अतीत में  भी  इन्ही सवालों पर  गांधी  जी से तर्क या बहस में  नहीं  जीत सके,  इसीलिये उन्होंने गांधी  जी को गोलियों से भून दिया।  बहस में कुतर्क दिया  जा सकता है कि  ४२ वां संविधान संशोधन -गांधी जी या अम्बेडकर जी ने थोड़े ही किया था !  कुतर्क दिया जा सकता है कि भारतीय संविधान का ९९ % तो विदेशो संविधानों से ही उधार लिया गया है। इन कुतर्कवादियों को  याद रखना होगा कि  उनके हाथ में मौजूद  मोबाईल ,कम्प्यूटर ,लेपटाप ,घड़ी ,पेन से लेकर चश्मा ,स्कूटर कार ,हवाई जहाज सब के सब विदेशी हैं। रेल -डाक-तार औरवह  एटॉमिकसंसाधन भी विदेशी ही होंगे जिनके लिए मोदी जी अमेरिका ,आस्ट्रेलिया जापान के  चक्कर लगा रहे हैं।
                      भारतीय धर्मग्रंथों में भले ही बड़ी -बड़ी बातें लिखी हों. ब्रह्मज्ञान लिखा हो ! मोक्ष या बैकुंठ प्राप्ति के साधन बातये गए हों किन्तु गैस का चूल्हा हो ,या चावल पकाने का कूकर  हो ,सबके सब विदेशी तकनीक  हैं।  वेशक  वेद ,गीता ,गाय ,गंगा ,तुलसी ,कुम्भ मेला जैसी स्वदेशी  चीजें जरूर हमारे पास  हमेशा रहीं हैं किन्तु  टॉयलेट  के लिए  ,शुद्ध पेय जल के लिए या बिजली -ऊर्जा के लिए मोदी सरकार  द्वारा भी विदेश का ही अनुगमन  किया जा रहा है।  क्यों ? क्यों भारत के प्रधान मंत्री जी दुनिया में घूमकर विदेशी पूँजी -विदेशी टेक्नालाजी  के लिए लालायित हैं। आप अपना प्राचीन ब्रह्मज्ञान इस्तेमाल कीजिये न !  यदि कोई संघी भाई  बाकई  पूर्ण स्वदेशी वस्तएं या पूर्ण स्वदेशी संविधान चाहता  है  तो उसे  'दिगंबर' हो ना पडेगा । इसके आलावा उसके समक्ष कोई दूसरा रास्ता  नहीं। क्योंकि एकमात्र यही अवस्था है जब मनुष्य स्वदेशी-विदेशी के चक्रव्यूह से बाहर हो जाता है।
                                   वास्तव में  भारत जैसे गतिशील , प्रवाहमान ,बहुसंस्कृतिकताधर्मी ,बहुदर्शनाभिलाषी  बहुभाषी एवं  जीवंत राष्ट्र के सत्तारूढ़  नेतत्व  से यह उम्मीद नहीं की जा सकती  कि वह  धर्मनिरपेक्षता या समाजवाद जैसे  सार्वभौम सत्य पर बहस के बहाने  शीर्षासन  करने लगे। क्या 'सत्यमेव जयते ' या  'जयहिंद' पर वहस  की  कोई गुंजाइस है ?  ठीक उसी तरह धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद भी भारतीय अस्मिता के प्राण तत्व हैं। जिन्हें इनसे तकलीफ है उनसे पूंछा जाना चाहिए कि  तुम्हारे शरीर में  'आत्मा' की क्या जरुरत है ? जिस प्रकार   गांधी , गंगा, हिमालय, भगतसिंह ,या भीमराव आंबेडकर के नाम मात्र से भारतीयता  के  गौरव का संचार  होता है।  उसी तरह भारतीय संविधान में  धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद  के ध्वनित होने मात्र से उसकी  वैचारिक समृद्धि और जीवंतता  का  बोध होता  है।इसी की बदौलत ही तो भारत अकेले ही  चीन और पाकिस्तान  को यूएनओ  में  ललकारने की क्षमता रखता है।
                                               जब किसी  विषय पर विमर्श या बहस की माँग  उठती है तो उसके दो प्रमुख निहतार्थ होते हैं।  एक तो उस विषयवस्तु के वैज्ञानिक विश्लेषण -अनुसंधान और तदनुरूप  मानवीयकरण के निमित्त प्रयोजन।  दूसरा -चूँकि  वह विषयवस्तु  पसंद नहीं इसलिए उस पर रायता ढोलने के निमित्त  वहस के बहाने ऑब्जेक्ट  का बंध्याकरण। किसी व्यक्ति , विचार ,सिद्धांत या दर्शन से असहमति होना  कोई बेजा बात नहीं।  किन्तु उसका सम्पूर्ण राष्ट्र पर थोपना या राष्ट्र के सामूहिक हितों पर कुछ लोगों के निहित स्वार्थों को बढ़त दिलाने की  कोशिश  को 'असहमति का विमर्श' या शुद्ध सात्विक वहस नहीं कहा जा सकता।
                      भूमंडलीकरण , वैश्वीकरण और बाजारीकरण के ८० % परिणाम यदि भारत के खिलाफ जाते  हैं तो २० % उसके लिए शायनिंग और फीलगुड वाले भी हैं।   पेट्रोलियम उत्पादक देशों की आपसी मारामारी से  प्राकृतिक कच्चे तेल के भाव  बहरहाल बहुत नीचे चले गए हैं।  चूँकि भारत  को पहले के मुताबिक अभी  तो  निर्यात खर्च में कुछ राहत है।  दुनिया भर में  भारत को  सस्ते श्रम  और अन्य संसाधनों  के निमित्त  उभरते विकाशशील बाजार का उत्प्रेरक माना जा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने चीन और भारत को भविष्य में विश्व  की तीसरी अर्थ व्यवस्था का पारस्परिक प्रतिद्व्दी माना है।  उनका आकलन है कि आगामी २० साल बाद भारत की अर्थ व्यवस्था चीन से आगे होगी।  चीन की तारीफ तो आज सारी  दुनिया ही  कर रही है ! सभी उसकी विराट शक्ति से आक्रान्त हैं !  अमेरिका सहित  समस्त  विश्व  पूंजीवाद को चीन की यह बढ़त पसंद नहीं है। इसलिए एक षड्यंत्र के तहत  भारत को  चीन के खिलाफ जान बूझकर प्रतिद्व्न्दी बनाकर खड़ा  किया जा रहा है।    बहरहाल जब विश्व बैंक के प्रवक्ता से पूंछा गया कि  भारत  में ऐंसी क्या खासियत है कि  वह  चीन  से आगे  बढ़ सकता है ?  तो उस प्रवक्ता का जबाब था कि  भारत में लोकतंत्र है ,भारत में धर्मनिरपेक्षता   है। अब मोदी जी ,रविशंकर प्रसाद को यदि यकीन  है  कि  वे लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता की हत्या करके चीन पर बढ़त  बना सकते हैं तो मेरी शुभकामनाएं ! तब ओबामा जी , साथ देंगे यह भी 'श्वेत  भवन' से अवश्य पूंछ लें।  बिना लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता के पंखहीन भारत हो जाएगा। ऐसे हालत में यह  चीन की बराबरी १०० साल तक भी नहीं कर पायेगा।यह धर्मनिरपेक्षता ही है ,यह लोकतंत्र ही है और यह समाजवाद की आकांक्षा ही है जो भारत की जनता को जोड़े हुए है।  इसी में उसका उज्जवल भविष्य सुरक्षित है।  आमीन !

                            श्रीराम तिवारी 

भारत में 'धर्मनिरपेक्षता ' अंतिम सत्य है !

 
 भारत में  'फूट  डालो -राज करो' के सिद्धांत का आरोप  अक्सर अंग्रेजों पर  शायद इसलिए  लगाया जाता रहा है। जबकि यह एक तोता रटंत  अर्धसत्य  ही है। भारत को गुलाम  बनाने के लिए ,भारत में जातीयतावाद बढ़ाने  के लिए ,  भारत में आधुनिक किस्म की हिंसक साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए न तो भारत का तत्कालीन हिन्दू  समाज जिम्मेदार है और न ही ब्रिटिश साम्राज्य  की 'फूट  डालो राज करो की नीति '। वास्तव में अंग्रेजों ने तो  भारतीय महिलाओं को  पर्दा प्रथा ,सती  प्रथा , जौहर  इत्यादि कुरीतियों से मुक्त करने मेंहर संभव मदद ही की थी। उन्होंने तो  राजा  राम मोहन राय, दयानंद सरस्वती, केशवचन्द सेन  जैसे  अन्य अनेक समाज सुधारकों को पूरा-पूरा सहयोग और सम्मान  ही दिया था। तब सवाल ये है  कि  भारत में कुप्रथाओं  के लिए ,जातीयतावाद के लिए, साम्प्रदायिक उन्माद के लिए  जिम्मेदार कौन था ?
              खबर है कि  बहुमत के घमंड और सत्ता  के मद चूर  वर्तमान भारतीय  सत्तासीन नेतत्व  की   भारतीय  संविधान पर 'बक्रदृष्टि ' पड़  चुकी है। वे बहरहाल तो अपने प्रथम चरण में  'समाजवाद' और 'धर्मनिरपेक्षता' पर हमला करने जा रहे हैं।  भारतीय जनता जनार्दन की कृपा रही  और यदि कांग्रेस तथा अन्य पार्टियां इसी तरह अपने आपको शुतुरमुर्ग बना कर काम करती रही  तो २०१९  से २०२४  के कार्यकाल में भारतीय संविधान से ' लोकतंत्र' भी दफा  कर दिया जाएगा।
                                          वेशक  जिस तरह सामाजिक क्रांति के बरक्स  लोहिया या जयप्रकाशनारायण  का विचार अंतिम सत्य नहीं है।   जिस तरह रामराज्य की अवधारणा के लिए 'गांधीवाद' अंतिम सत्य नहीं है ,जिस तरह दलित शोषित समाज के हितों की रक्षा के लिए कासीराम और मायावती का दृष्टिकोण अंतिम सत्य नहीं उसी तरह पंडित नेहरू ,सरदार पटेल , मौलाना आजाद ,डॉ राजेन्द्रप्रसाद और बाबा साहिब आम्बेडकर प्रणीत  भारतीय संविधान भी अंतिम सत्य नहीं हो सकता !  किन्तु भारत में लोकतंत्र रहे न रहे , भारत में  समाजवाद आये या न आये , परन्तु  भारत में  'धर्मनिरपेक्षता ' अंतिम सत्य है। इसे यदि वर्तमान  शासक  'टच' भी करते  हैं तो ये- न केवल बाबा साहिब का अपमान है ,जिन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया और भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता   की प्राण प्रतिष्ठा की। बल्कि शहीद भगतसिंह ,  शहीद उधमसिंग  अशफाकुल्लाह खान और देश के उन लाखों शहीदों का अपमान है जिन्होंने भारत में लोकतंत्र ,समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता के लिए अपने प्राणों का बलिदान किया।  भारत के सिख , बौद्ध ,जैन ,पारसी ,ईसाई या मुसलमान भी यदि कबूल कर लें कि  भारतीय संविधान से 'धर्मनिरपेक्षता'  पर काली स्याही फेर दो तब भी भारत के अधिकांस उदारपंथी  हिन्दू -करोड़ों मेहनतकश मजदूर , ट्रेडयूनियंस और करोड़ों प्रगतिशील -जनवादी युवा एकजुट होकर भारतीय संविधान की और उसमें निहित 'धर्मनिरपेक्षता ' की  प्राण पण से हिफाजत करेंगे।
                            दरशल जो  तत्व अभी इस  दौर में साम्प्रदायिक विभीषिका और  सामाजिक असमानता के लिए  जिम्मेदार  हैं, अतीत में भी इन्ही के पूर्वज  इस दुर्दशा के लिए जिम्मेदार  हैं । देश काल और परिस्थिति के  अनुरूप हर जाती- हर मजहब और हर समाज में  शोषणकारियों ,अनुशानहींन तत्वों और शक्तिशाली व्यक्तियों  की दवंगई  के प्रमाण मौजूद हैं।  केवल सवर्ण समाज को गरियाकर लालू यादव ,नीतीश ,शरद या मुलायम जयादा दिन राजनीती नहीं कर सकेंगे।   राजनैतिक स्वार्थ के लिए या अपने आर्थिक स्वार्थ के लिए   कोई समाज ,खाप ,जाति  या मजहब के लोग  संगठित रूप से वोट बैंक बनाकर यदि  चुनावों  के मार्फ़त  निहित स्वार्थ साधा जाता है तो उसके खिलाफ आवाज उठाना क्रांतिकारी कदम है।

       अभी हैं यह अभी भी शोध का विषय है कि   लिए न तो हिन्दुओं ने अंग्रेजों ने नहीं किया था।  और दिल्ली के कुख्यात नौचंदी मेले के मार्फ़त को  इस निकृष्ट सिद्धांत का प्रयोग हर उस हमलावर विदेशी आक्रांता ने किया है जो भारत को रंचमात्र भी गुलाम बनाने में सफल हुआ है। भारत में आर्यों, शक-हूणो-कुषाणों के यायावर -आक्रमण जब कभी हुए तब भारतीय समाज में  केंद्रीय सत्ता या राष्ट्र राज्य  का संगठित  प्रतिरोध नदारद था। इसलिए  ये विदेशी हमलावर भारतीय रीतियों,परम्पराओं और धर्म में दीक्षित होकर यहीं वश  गए। किन्तु इनके   हजारों साल बाद जो  फारसी ,तुर्क, कज्जाक ,गुलाम,ख़िलजी, उजवेग , मंगोल - मुग़ल , अफगान- पठान -बलोच इत्यादि जो-जो भी भारतीय उपमहाद्वीप  में आये,क्या उनके  'दाँतों में तिनका और हाथों में जैतून की टहनी ' हुआ करती थी?




  अयोध्या नरेश श्रीराम चन्द्र ,द्वारकाधीश श्रीकृष्णचन्द्र ,हिंदू ह्रदय सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ,बर्धमान याने भगवान महावीर ,सिद्धार्थ गौतम  याने महात्मा बुद्ध  ,राजा  राम मोहन राय ,स्वामी विवेकानद ,देवी अहिल्या बाई होल्कर, महारानी दुर्गावती , छत्रपति शिवाजी ,राणाप्रताप ,छत्रसाल बुंदेला , ख्वाजा शेख सलीम  चिस्ती ,अमीर खुसरो ,ख्वाजा मोइनुद्दीन चिस्ती , दाराशिकोह,  शेख फरीद,गुरु नानक ,रैदास ,रहीम,मौलाना आजाद , एम सी  छागला ,डॉ राही  मासूम रजा , भूतपूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम ,उस्ताद बिस्मिल्ला खान ,उस्ताद अमजद अली खान ,उस्ताद बड़े गुलाम अली खान,सीमान्त गांधी अब्दुल  गफ्फार खान , कैफ़ी आजमी, रानी झलकारीबाई,मीरा बाई   ,सूरदास ,कबीर,महात्मा गांधी,सुभाषचन्द्र बोस , बाबा साहिब भीमराव आंबेडकर शहीद -ऐ-आजम  भगतसिंग  इत्यादि  में से कोई भी  जन्मना ब्राह्मण नहीं थे।  किन्तु इन लोगों ने  जिन मूल्यों  के लिए बलिदान दिया ,जिन मानवीय गरिमाओं और मूल्यों को जमीन पर उकेरा -वे किसी भी  जन्मजात  कुलीन आदर्श ब्राह्मण के लिए अनुकरणीय हो सकते हैं। वेशक उपरोक्त महान द्विजेतर   विभूतियों  के  उत्सर्ग में जो कुछ दृष्टिगोचर हुआ है दरसल वही  'ब्राह्मणत्व'   है। भारतीय  परम्पराओं में, भारतीय दार्शनिक ग्रंथों में, संस्कृत  वांग्मय में,प्राकृतिक ,पाली ,अपभृंश और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में  'ब्राह्मण'  शब्द  की  अनेक   परिभाषायें प्रचलित हैं उनमें से कुछ  ही  इस आलेख में प्रस्तुत की  गईं  हैं। यथा ;-

          धृतिः  क्षमा दमोअस्तेयम ,शुचतेन्द्रिय  निग्रह। 

  [पूरा आलेख पढ़ने के लिए - http/www.janwadi.blogspot.in  लॉगऑन  करें. 

            विद्द्या  बुद्धि च अक्रोधम ,एषः ब्राह्मण लक्षणम्।।   [स्त्रोत -अज्ञात]

     या 

                   ब्रह्मों जानाति  स: ब्राह्मण :  [अज्ञात ]

या

                विद्या विनय सम्पन्ने,ब्राह्मणे  गविहस्तनि। 

               शुनिचेव  स्वपाके च ,पण्डितः  समदर्शिनः।।   [भगवद्गीता]


या

                 विप्रवंश  के अस प्रभुताई।  अभय होय जो तुमहिं   डराई।।    [रामचरितमानस]


या   
               
          विशुध्द हिंदी में



   ब्राह्मण पैठ पाताल  छलो,बलि ब्राह्मण साठ हजार को  जारे।

  ब्राह्मण   सोखि  समुद्र  लियो,ब्राह्मण छत्रन  के दल मारे।।

  ब्राह्मण लात  हनी   हरि  के तन,ब्राह्मण ही यदुवंश उजारे।

   ब्राह्मण से  जिन  बैर करो कोउ ,ब्राह्मण से परमेश्वर हारे।।


 भारतीय सभ्यता के प्रारम्भ में और खास तौर  से उत्तर वैदिक काल की समाज व्यवस्था  में कोई  शूद्र या उंच-नीच नहीं हुआ करता था।  कबीलाइ समाज में कार्य  विभाजन के आधार पर पुरोहित,रक्षक,वणिक और दास   जरूर हुआ करते थे। कभी-कभी दास वर्ण  समेत अन्य वर्णों का  आपस में अपवादस्वरूप अदल- बदल भी होता रहता था। सभ्यता ज्यों-ज्यों विकसित हुई  स्वार्थजन्य कारणों से इस वर्ण विस्थापन्न  पर   रोक लगा दी गई।  यही वजह है कि  ब्राह्मणों बनाम क्षत्रियों और आर्य बनाम दासों के बीच ततकालीन  समाज में निरंतर द्वन्द चलता रहा। जब  कभी दासों-किसानों -कारीगरों का जन आक्रोश  संगठित होता तो ब्राह्मण क्षत्रिय उस आंदोलन  का दमन करने के लिए एकजुट हो जाय करते थे। महापद्मनंद को खत्म करने में चन्द्रगुप्त और चाणक्य की जोड़ी केवल दो व्यक्तियों के साहचर्य का इतिहास नहीं है। बल्कि यह उच्च वर्ण  बनाम निम्न वर्ण के  बीच का द्वन्द ही है।  रत्नाकर डाकू को बाल्मीकि जैसा ब्राह्मणत्व प्रदान किया गया ,दासी पुत्र नारद  या दासी पुत्र विदुर को  उनके  आर्यतुल्य  पांडित्य  को देखते हुए ब्राह्मण वर्ण में शामिल किया गया। बुद्ध को भी उनके वोधत्व उपरान्त ब्राह्मण समाज ने अपने 'दशावतार' में भी शामिल कर लिया। अभिप्राय यह है कि  भारतीय पुरातन समाज की जाति  -वर्ण व्यवस्था की कटटरता उतनी बिकराल नहीं थी जितनी कि  कुछ इतिहासकारों और
उपरोक्त परिभाषाओं  के मानकीकरण में यदि कहीं कोई जन्मना गैर ब्राह्मण  भी फिट होता है तो उसे भी ब्राह्मण माना जाना चाहिए।जो जन्मना ब्राह्मण है और यदि वह उपरोक्त मूल्यों में से किसी में भी फिट नहीं है तो उसे ही शूद्र कहा गया।   कुछ  ऐंसे भी महापुरुष हुए हैं जो  जाति  से जन्मना ब्राह्मण थे  और उन्होंने मानवता के लिए  सहर्ष अपना बलिदान दिया।  हो सकता है  महर्षि दधीचि , वेद व्यास  ,  परशुराम  यमदग्नि  अंगिरा,शिवि,अत्रि,अगस्त,लोमश,नचिकेता,नारद या आरुणि जैसे पौराणिक ब्राह्मण पात्र केवल 'मिथक' ही हों !  किन्तु समर्थ रामदास , रामकृष्ण परमहन्स ,लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ,गोखले ,विद्द्यासागर,महर्षि अरविन्द  और रवीन्द्रनाथ  ठाकुर तो असल इतिहास ही हैं।  इन्होने ऐंसा क्या किया जो  सावित  करे कि  इन्होने अपने ब्राह्मणत्व का दुरूपयोग कर किसी विजातीय को कष्ट   पहुँचाया  हो? यदि इन महापुरषों को केवल  ब्राह्मण ही श्रद्धा सुमन अर्पित करें तो कोई कमाल नहीं किन्तु यदि कोई द्विजेतर -गैरब्राह्मण इन महापुरुषों का सम्मान करे तो अवश्य यह उसकी उच्चतर मानवीय गुणवत्ता है।  



    मध्यप्रदेश और छग के स्थानीय हिंदी अखवारों में  एक  बड़ी अजीब किस्म की सनसनीखेज खबर छपी है।   छत्तीसगढ़ के कृषि एवं धार्मिक मामलों के मंत्री श्री बृजमोहन अग्रवाल जी ने  एक आम सभा में खुले मंच से  कहा है कि  "भारतीय संस्कृति  को पतन से केवल ब्राह्मण ही बचा सकते हैं। " उन्होंने दुहराया कि "हर एक बुद्धिजीवी जिसे धर्म और संस्कृति की चिंता है ,वह जानता है कि  सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण समुदाय ही भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को आगे बढ़ाने में सक्षम है " उन्होंने जोर देकर  और  बड़े आत्मविश्वाश के साथ  सार्वजनिक तौर  पर कहा कि "हमारी रस्में ,परम्पराएँ ,और प्राचीन संस्कृति का ह्रास  हो रहा है ऐंसे बुरे बक्त में  केवल ब्राह्मण समाज ही हमारी आशाओं  का केंद्र है "  यदि सतयुग होता तो मैं कहता कि -समस्त ब्राह्मण जाति  [जन्मना] को बधाई !  श्री बृजमोहन अग्रवाल को आशीर्वाद स्वरूप एक दोहा  पेश है ,जो एक  ब्राह्मण[तुलसीदास]  ने  लगभग ५०० साल पहले लिखा था :-

                                 जरा मरण दुःख रहित तनु, समर  जिते  जनि कोय।

                                      एक छत्र रिपु हींन  मही , राज कल्प  शत  होय।।


 अर्थ :- हे  बृजमोहन अग्रवाल ! हे वैश्य कुल श्रेष्ठ !  मुख्यमंत्री[छग का ] भव, तुम्हें कभी कोई बीमारी न हो ! तुम सदा जवान रहो ! तुम्हें कोई भी [डॉ रमन भी नहीं ] पराजित न कर   सके ! तुम अजातशत्रु भव ! सौ साल तक राज करो !
                                                                       श्री बृजमोहन अग्रवाल जी   की इस  परम पवित्र लोकोत्तर-  आकाशवाणी को  उनका राजनैतिक  ब्रह्माश्त्र  कहा  जाए ? जातीय  गौरव के कुम्भीपाक में प्रतिगामी गोता  लगाना कहा  जाए ?  विशुद्ध  देवोपम - सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की आराधना के निमत्त उस दिवंगत जातिवादी  सामन्तकालीन  व्यवस्था का  नॉस्टेलजिया   कहा जाये ?  जाति -मजहब -धर्म के नाम पर पेट पालने वालों के विमर्श  का  जीर्णोद्धार  कहा जाए ?  वर्ग संघर्ष  की वैज्ञानिक  और क्षीण संभावनाओं  पर पुरोगामी अंधश्रद्धा  और अंध सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ओलावृष्टि  कहा जाए ?  मेरा अनुरोध है कि जो लोग  'संघ' के या श्री बृजमोहन  जी अग्रवाल के  मन्तब्य  को  स्वीकार् करने के लिए तैयार नहीं  हैं। उनका नजरिया भी सामने आना चाहिये । बृजमोहन जी  द्वारा  वर्णित    ब्राह्मणत्व महिमामंडन  के  वास्तविक निहतार्थ  तो वे ही जाने।  किन्तु उनके  स्वर्णिम शब्द मृगजाल   में मोहित  होने   वाले ब्राह्मण बंधुओं  और  खपा होने  वाले गैर ब्राह्मण बंधुओं  से निवेदन है कि  वे  भी इस विमर्श में   पूरी तार्किकता ,वैज्ञानिकता ,आधुनिकता और प्रसांगिकता से हस्तक्षेप  करें।  वेशक  कुछ लोगों को लगता होगा कि  मंत्री जी कि इस फ़ोकट की वयानबाजी से किसी का भी कुछ हित -अनहित  नहीं  होने वाला ।  किन्तु बृजमोहनजी  जिस भारतीय संस्कृति ,वैल्यूज  ,परम्परा   और रस्मो-रिवाज  के लिए इतने दुबले हो रहे हैं उसका  खुलासा तो अवश्य ही होना चाहिए । इस पर भी चर्चा होनी चाहिए कि  उस तथाकथित  ' मूल्यहीनता ' के लिए कौन जिम्मेदार है यह भी तय होना चाहिए। क्या सिर्फ जन्मना होने मात्र से कोई ब्राह्मण हो जाता है ? क्या किसी गैर  ब्राह्मण जाति  के स्त्री-पुरुष ने देश ,समाज और उसकी संस्कृति के लिए कुछ नहीं किया ? देवी अहिल्या बाई होल्कर पिछड़े वर्ग की थी। झलकारी बाई   लोधी थी। रानी दुर्गावती आदिवासी गोंड थी  अब्दुल रहीम और रसखान मुसलमान थे। इन्होने जो किया वो क्या किसी ब्राह्मण से कमतर था ?  वैश्विक  पूँजीवाद  ने द्विजेतर जातियों की प्रतिभाओं को पर्याप्त अवसर दिए किन्तु जिस तरह हिमालय को विंध्याचल नहीं  बनाया जा सकता ,जिस् तरह गटर को गंगा नहीं  बनाया जा सकता , जिस तरह किसी जन्मना  शाकाहारी जैन को  जबरन मांसाहारी   नहीं बनाया जा सकता उसे तरह मांसाहारियों  को रातओं रात शुद्ध शाकाहारी नहीं बनाया जा सकता। 

                 


बुधवार, 28 जनवरी 2015

जिन्हे लाल चश्में से चिढ है वे अपना भगवा चश्मा उतारकर देखें !

 आधुनिक  शिक्षा पद्धति का विरोध  करने वाले विद्वानों को पुरातनपंथी ,दक्षिणपंथी या 'संघनिष्ठ' करार देना कोई प्रगतिशीलता की निशानी नहीं है। वेशक ये 'प्राच्यविद्याविशारद 'कुछ मामलों में तो ठीक ही सोच रहे हैं। भले ही वे किसी 'अनुदार संगठन' से ही क्यों न जुड़े हों ! ये 'बौद्धिक ' किस्म के प्राणी  कम से कम उन किताबी कीड़ों और आधुनिक  युवाओं  से तो ठीक ही हैं जो  भले ही एमबीए एमसीए या  कुछ तकनीकी दक्षता हासिल   कर चुके हों. किन्तु उनका विवेक -उनकी मानसिकता और उनकी 'वर्गीय चेतना' नितात्न्त सुप्त ही  है। वे भले ही आजीविका के निमित्त  किसी टाटा-वाटा -रिलायंस की चाकरी करने में या किसी बहुराष्ट्रीय कम्पनी में  खटकर अपनी जवानी खर्च कर रहें हों, भले ही वे इसे 'जॉब' या  'पैकेज'  का सम्मान सूचक  नाम देंते  रहें , किन्तु उन्हें यह रंचमात्र  पता नहीं  कि उनके समक्ष मौजूद  यह बहुत ही दयनीय और शर्मनाक स्थति है !
                                         उन्हें  यह नहीं मालूम कि  वे सरकारी  क्षेत्र या सार्वजनिक उपक्रमों में उपलब्ध  सुविधाओं के हकदार क्यों नहीं हैं ? ये युवा नहीं जानते कि  निजी क्षेत्र को या कॉर्पोरट सेक्टर को श्रम  की लूट की खुली  छूट देने वाले नेता और उनकी  नीतियाँ  जब इतनी  भयानक  हैं तो फिर उन नेताओं का समर्थन क्यों  किया  जाए ?उनकी निजीकरण -उदारीकरण की नीतियों के खिलाफ आवाज क्यों न उठाई जाए ?इन सवालों पर जब कोई आवाज उठती है तो उस आवाज को दवाने के लिए ढपोरशंख  बजाया जाने लगता है। सत्ता प्राप्ति की लालसा  रखने वाले नेता और उनसे दलाली कराने वाले  'बिग कॉर्पोरट हाउस'जब आज के युवाओं  का सर्वस्व  नष्ट कर हैं ,उनके जीवन से   खिलवाड़ कर  रहे हैं तो  ये हाई  टेक युवा ,ये सोशल मीडिया पर फोटो पोस्ट करने वाले युवा ,ये चेटिंग और चीटिंग करने वाले युवा -महा मूर्खानंद  क्यों बन ? ये आधुनिक  युवा वर्तमान बड़बोले लफ़्फ़ाज़ नेताओं पर इतना मोहित क्यों हो रहे हैं ? कांग्रेस यदि भृष्टाचार में घुटनों-तक कीचड़ में धसी हुई है तो कमल दल वाले नेता 'आकंठ' दल-दल में डूबे हैं। इन नेताओं की  भृष्ट पूंजीपतियों के पक्ष में ,दलालों के पक्ष में क्या फितरत है वो केंद्र में  'लोकपाल ' के हश्र से और  मध्यप्रदेश में लोकायुक्त की  दुरगति से सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकार का पूरा जोर निजी करण के पक्ष में क्यों है ? सिर्फ इसीलिये की सरकरी क्षेत्र में अब आरटीआई ,लोकपाल ,लोकायुक्त और सैकड़ों  -हजारों  माध्यम हैं जहां से  जनता को 'सब कुछ दीखता 'है।  कुछ आधुनिक कुछ अधकचरे  युवा  जानकारियों को ही ज्ञान समझ   बैठे हैं। वे अपनी योग्यत और सूचना सम्पर्क क्रान्ति का उपयोग किसी ठोस 'जन क्रांति'  में करने के बजाय  'कुतर्क' और अनर्गल प्रलाप' में जाया करते रहते हैं।
                                         कुछ  कर्मठ निम्न मध्यम  वर्गीय  युवा वेशक गंभीर हैं किन्तु  न  केवल   अपनी   काबिलियत -बल्कि अपना श्रम  भी बहुत सस्ते में बेचना पड़  रहा है।  आधुनिक उच्च तकनीकी दक्षता के युवाओं  को यह एहसास ही नहीं कि उनके इल्म और यौवन को  कोडियों के मोल बेचा  रहा है।बिना किसी सामाजिक सुरक्षा ,बिना किसी चिकित्सा सुविधा और बिना किसी पेंशन गारंटी के बल्कि 'जॉब' गारंटी  के बिना ही समूची युवा पीढ़ी का  भविष्य बर्बाद किया जा रहा है।  वास्तविक सार्थक वैज्ञानिक शिक्षा के  बिना युवाओं को वर्ग चेतना से लेस किया जाना संभव नहीं है। यही वजह है कि  वे  साम्प्रदायिकता को मजहब  समझ बैठे हैं।  वे मजहब  और धर्म -पंथ को अध्यात्म  में गड्डमड्ड कर रहे हैं। भारतीय दर्शन परम्परा में ब्रह्मचर्य,गृहस्थ ,वानप्रस्थ और सन्यास का अनुक्रम माना गया है।  भर्तृहरि का शृंगार शतक, नीति शतक और
                      चूँकि   मैंने अपनी अध्यन यात्रा 'भर्तृहरि'  से विपरीत की है इसलिए
     १९७४ के आसपास  की बात है। मैं सीधी से स्थांतरित होकर जब गाडरवारा आया था।  कुछ  अरसे बाद एक दिन देखा  की  मेरे पड़ोस में हार्डवेयर वाले जैन साब की दूकान पर  भारी भीड़ लगी है। दरसल उनके यहाँ कोई आचार्य  जी की  के प्रवचन के केसेट आये थे। वह हार्डवेयर की दूकान भी उन्ही आचार्य जी के बाप की थी।  वे लोहा लंगड़ का सामन बेचते थे। तबगाडरवारा में मेन्युअल टेलीफोन  एक्चेंज हुआ करता था। जैन साब का याने आचार्य रजनीश जी  का टेलीफोन नंबर मात्र -६४ हुआ करता था। जैन साब[रजनीश के पिता श्री ]के अन्य सपरिजन  अभी भी गाडरवारा में ही रहते हैं । उनके लड़के का नाम ही 'आचार्य रजनीश ' फेमस हुआ। मेरे पास तब टेप रिकार्ड नहीं था। इसलिए सी डी  के केसेट किसी अन्य दोस्त के साथ वहीँ 'शककर' नदी के किनारे सुना करता था। बड़े ही विद्व्त्ता पूर्ण प्रवचन हुआ करते थे। दो साल तक लगातार में उन परम विद्वान के  श्री बचनों का रसास्वादन करता रहा।  १९७६ में  इंदौर स्थांनतरित होकर आया तो पता चला कि  वे यहाँ भी उतने ही विख्यात हैं।  चूँकि मुझे अध्यात्म की पुस्तकें पढ़ने का  बहुत शौक था और इंदौर की लाइब्रेरियां संसार की महान पुस्तकों से  भरी पडी हैं. कुंद -कुंद  विद्यापीठ में मुझे सतसंग के लिए ही नहीं बल्कि कविता पाठ के लिए बुलाया जाने लगा।
                                  इसी दौरान मैंने विश्व के अन्य दार्शनिकों को पढ़ा। आचार्य  रजनीश  के अलावा उनके व्यख्यानों में आये अन्य नामों के लेखकों को भी पढ़ डाला।  कार्ल मार्क्स का परिचय मुझे दो लोगों को पढ़ने से मिला एक  आचार्य रजनीश।दूसरे  आचार्य श्रीराम शर्मा।  दोनों ने  ही बड़े सम्मान से कार्ल मार्क्स के अवदान के प्रति कृतज्ञ भाव व्यक्त किया है।  दरसल इन दोनों ने जितना कार्ल मार्क्स को पढ़ा उतना किसी मार्क्सवादी ने भी नहीं पढ़ा।   कुछ टुच्चे और आधे -अधूरे लोग न तो आध्यत्मवाद को आत्मसात पर पाये और न ही 'ऐतिहासिक द्वन्दात्मक भौतिकवाद को ही आत्मसात कर पाये।  ये अभागे लोग  रतौंधी  हैं।  इन्हें किसी चश्में से कोई मदद नहीं मिल सकती। वे समझते हैं कि  कांग्रेस ,भाजपा जैसे भृष्ट पूंजीवादी संगठनों की तरह मार्क्सवादी भी पार्लियामेंट्री डेमोक्रेसी में वोट कवाड़ते  रहें।  उन्हें किसी किस्म की क्रांति के नाम से ही सिहरन होने  लगती है।  जन चेतना ,जन संघर्ष  और शोषण मुक्त समाज के लिए अलख जगाने वाले  साहित्य के क्रांतिकारी अवदान को समझने की कूबत उनमें नहीं हैं।
                                                                           जिन्हे लाल चश्में से चिढ है वे अपना भगवा चश्मा उतारकर देखें उन्हें भी अमेरिका के हाथ में कोड़ा दिखेगा।  उस कोड़े के निशान 'ओशो '  की पीठ पर नजर आएंगे। यह लाल चश्मा मुझे तभी लग गया था।  जब रजनीश जी ने अपने किसी सम्बोधन में  अमेरिकन साम्राज्य्वाद को अभिशाप दिया था बल्कि भारत के नौजवानों को स्वामी विवेकानंद  की तरह सन्देश दिया कि सामर्थवान  बनों  ! आचार्य रजनीश का तो आदेश था कि केवल वे लोग ही उनके पास आएं  जो धन धान्य से ,रूप सौंदर्य से  ,यशेषणा ,वित्तेषणा और कामेषणा  से सम्पृक्त हैं ! जो गरीब हैं ,सर्वहारा हैं  वे मेरे पास न आएं ! मेरा  सन्देश आत्माप्रकाश के लिए है।  यदि आपकी समस्या लौकिक है तो कार्ल मार्क्स के पास लेनिन के विचरों से सीखो। शोषण  के खिलाफ -अपने हितों के लिए  पारलौकिकता में नहीं इसी लौकिक संसार में संघर्ष  करें " याने लाल चश्मा लगाने  की प्रेरणा इन्ही से मिली।उन्ही महापुरुषों की प्रेरणा से  भगवान को छोड़ में मार्क्सवादियों  के साथ हो लिया। क्योंकि तब तक रजनीश जी आचार्य से भगवान श्री रजनीश हो चुके थे।
                                           बहुत साल बाद एक दिन पता चला की वे  'ओशो' हो चुके हैं।  कुछ समय बाद पता चला कि  अमेरिका जा वसे  हैं।  कुछ साल बाद पता चला कि  मोदी जी को प्रिय और स्वामी ध्यान विनय का परम वंदनीय  अमेरिका 'ओशो' को जहर देकर मारने का षड्यंत्र कर रहा है।  कुछ दिन बाद पता चला कि  अमेरिकी सरकार की गुंडागर्दी से प्राण बचाकर भागे ओशो दुनिया में जहां भी जाते हैं वहाँ  की सरकार उन्हें शरण देने से इंकार कर देती है।  वे मजबूर होकर भारत में ही शरण पाते हैं।  पूना में नया ठिकाना बनाते हैं।   भारत  के महान  दार्शनिक और सन्यासी की अमेरिका ने जो दुर्गति की उसे भूलकर यदि 'स्वामी ध्यान विनय ' को हरा-हरा दीखता है तो उन्हें मुबारक।  मेरा लाल चस्मा मुझे इस तरह किसी दोगले राष्ट्र की चापलूसी या  उसके पिछलग्गू भारतीय शासकों की ठकुर  सुहाती से हमेशा आगाह करता है।  मुझे गर्व है की मैं  सत्य के साथ हूँ  !
                                   श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

राष्ट्रवाद और हिन्दुत्ववाद के कंधो पर चढ़कर पूंजीवाद अठ्हास कर रहा है !

  ताजा खबर है कि   अमेरिकन प्रेजिडेंट मि, ओबामा के भारत से अमेरिका वापिस  लौटने के एक हफ्ते बाद  माननीय राजनाथसिंह जी  [गृह मंत्री भारत सरकार ] ने बिनम्रता पूर्वक अपनी भावना प्रकट की है। उन्हें यह अच्छा नहीं लगा कि  ओबामा ने भारत  के लोगों को एक सरपरस्त की तरह आगाह किया है। ओबामा ने जाते-जाते  परोक्षतः  सदाशयता व्यक्त की है कि   भारत  की एकता और अखंडता  को इस शर्त पर अक्षुणता प्राप्त हो सकती  है कि -'सभी  भारतवासी  मिलजुलकर  रहें'।  राजनाथसिंह जी को यदि  इल्हाम हुआ कि  ओबामा  ने  भारत को अनावश्यक  नसीहत दी है ,तो मैं उनकी  बौद्धिक जागरूकता और असली राष्ट्रवादिता को नमन करता हूँ।  देर आयद दुरुस्त आयद ! ओबामा के इस बयान पर ततकाल -२७ जनवरी  को ही  मैंने  निम्नांकित  आलेख  के मार्फ़त अपने विचार  व्यक्त किये हैं। जिस -किसी ने नहीं पढ़ा हो उनके विहंगावलोकनार्थ पुनः प्रस्तुत किया जाता है !:-



ओबामाजी  भारत पधारे !  गणतंत्र दिवस  समारोह देखा ,बड़ी कृपा की ! मोदी जी ने ओबामाजी की तारीफ की।  ओबामाजी ने मोदी जी की तारीफ की।  दोनों ने मिलकर -खुलकर -जमकर एक  दूसरे  को सराहा।  चूँकि  दोनों  ही आम से ख़ास  हुए हैं  इसलिए इक -दूजे के मन भाये  ! लेकिन उनके  निजी अनुभवजनित व्याख्यानों में बौद्धिक-दार्शनिकता  का नितात्न्त   अभाव  रहा  !  भाव-भंगिमा और वाग्मिता  में मध्यमवर्गीय  चुहलबाजी   और आत्ममुग्धता के अलावा कुछ नहीं था।  सरकारी तौर  पर जताया गया कि   द्विपक्षीय व्यापरिक संधि ,परमाणु करार का अगला स्टेप और  विनिवेश के  लिए अनुकूल वातावरण    बनाया जाएगा।  लेकिन ओबामा की भारत यात्रा से  मोदी जी के  तीन लक्ष्य सधते नजर आ रहे हैं।   दिल्ली राज्य चुनाव  में सफलता , चीन -पाकिस्तान   से  कूटनीतिक बढ़त और कार्पोरेट लाबी को  आर्थिक सुधारों में अहम भूमिका की लपक के निहतार्थ स्पष्ट देखे जा सकते हैं।  ये बिंदु ही मोदी जी को अपनी धाक बनाये रखने  के निमित्त टॉनिक सिद्ध होंगे।  किन्तु आर्थिक विकास ,सुशासन और संघ के एजेंडे  के अम्लीकरण में सफलता मिलेगी  इसमें अभी भी  संशय है।

    गणतंत्र दिवस पर मैंने 'सावधान भारत ! …… नाम से  - ओबामा की भारत यात्रा पर  भारत-अमेरिकी संबंधों के दूरगामी  निहतार्थ  विषयक  आलोचनात्मक आलेख पोस्ट किया था।  मेरे  कुछ स्थायी  निंदकों और  पैदायशी आलोचकों को उससे बड़ी तकलीफ हुई।  कुछ ने तो   कपडे ही फाड़ लिए।  अधिकांस को वह आलेख सटीक लगा   होगा !  जिन्होंने नहीं पढ़ा , वे एक बार www.janwadi.blogspot.com  का  विहंगावलोकन अवश्य करें।  सिरीफोर्ट सभागार में  प्रेजिडेंट ओबामा जब युवाओं को  सम्बोधित कर रहे थे तब  तक मुझे अपने उस पूर्ववर्ती  आलेख में उल्लेखित आकलन पर  कदाचित  संदेह था ! किन्तु मोदी -ओबामा की रेडिओ पर 'मन की बात' के उपरान्त  मुझे अपने विवेक और विचार पर   और अधिक भरोसा और गर्व होने लगा।
               अपने आखिरी ओवर में ओबामा  जी ने  वो छक्का मारा है  कि मुझे 'वाह' की जगह 'आह' कहना पड़ा ! मोदी जी को और कार्पोरेट सी ई ओ को  तो ओबामा   किंचित गदगद ही कर  गए । खाते-पीते  युवाओं को भी शायद कुछ दिन तक ओबामा दम्पत्ति ही सपने में दिखें।   किन्तु जिनका जमीर जिन्दा है ,जो अपनी अक्ल  गिरवी  रखने से अभी भी बचे हैं उन्हें तो ओबामा जी की नसीहत जरा भी नहीं  भाएगी । प्रेजिडेंट ओबामा ने  तीन दिनों तक तो भारत की जनता को  खूब मीठा-मीठा परोसा। भारत भूमि से  गणतंत्र दिवस पर भारत के स्थाई मित्र  रूस  की निंदा की।  भारत छोड़कर साउदी अरब जाते वक्त  वे  भारत को 'ब्रह्म ज्ञान' दे गए  कि  " भारत धार्मिक आधार पर न बटे  तो ही सफल होगा " कहाँ हो  महात्मा गांधी ? कहाँ हो सीमान्त गांधी अब्दुल गफ्फार खान ,कहाँ हो सरदार  पटेल और कहाँ हो  मोहनराव  भागवत  जी ! कहाँ हो स्वामी विवेकानंद ? आपने तो शिकागो में सौ साल पहले कहा था कि  'भारत को ज्ञान की जरुरत नहीं. .  भारत को तो रोटी -कपड़ा -मकान चाहिए ! यह मोदी जी की कृपा है कि उसी अमेरिकी भूमि के सर्वोच्च नेता   ओबामाजी अब भारत को ज्ञान बाँट रहे हैं !  क्या यह उचित है ?   क्या यह भारतीय गौरव का अपमान नहीं है ?
   क्या यह ज्ञान सुनने के लिए ही मोदी एंड कम्पनी ने अमेरिका और ओबामा को लाल कालीन बिछाई थी ?क्या    बाकई  हमें अब भी  कोई शक है कि जो  अमेरिका अभी तक  रंगभेद और श्रम  के शोषण  के लिए बदनाम है , वो हमें भी  ज्ञान देने का हकदार है ?  मोदी जी - उस सिद्धांत का क्या होगा जिसमें भारत को जगद्गुरु कहा गया है ?  क्या आर एस एस  को , रामदेव को ,अशोक सिंघल को और शिवसैनिकों को ओबामा का यह फतवा  यह मंजूर है  ?  कहीं यह आरोप सच तो नहीं कि  राष्ट्रवाद और हिन्दुत्ववाद के कंधो पर चढ़कर पूंजीवाद मजे ले रहा है ? अट्ठहास कर  रहा है !
                             मोदी -ओबामा के  'मन की बात '  या चाय पर मिलन' से  पहले वाली  स्थति  में मुझे  लगा  कि   शायद मैंने  ओबामा की तुलना केनेडी से करके   उचित नहीं किया ! किन्तु अब मुझे कुछ -कुछ आशा बंधी है कि  शायद ओबामा ने भारत को समझने की तहेदिल से कोशिश  नहीं की  !   उन्होंने जितना भी आउट पुट  दिया उसका अधिकांस श्रेय   भारतीय प्रधान मंत्री  श्री नरेंद्र मोदी को  ही जाता है। लेकिन एक कसक  भी रही  कि काश  मोदी जी के एजेंडे में  भारत के एक अरब गरीबों -किसानों -मजदूरों  के 'मन की बात' भी होती  ?  वेशक  इस अवसर पर एलीट क्लाश युवा वर्ग ही वोट बैंक के रूप में उनके एजेंडे  की वरीयता में था और उन्होंने    जानबूझकर निर्धन भारत ,दरिद्र भारत को    विमर्श   से परे रखा गया। क्योंकि  सर्वहारा  वर्ग  उनके लिए मुफीद नहीं है।
 'मन की बात ' कार्यक्रम में जिन श्रोताओं ने सवाल किये वे सभी मोदी जी के पूर्व परिचित लग रहे थे।  यदि यह आरोप गलत है तो इसका क्या उत्तर है कि  प्रश्न करता को  क्यों यह मालूम है कि  बरसों पहले मोदी जी जब अमेरिका गए थे तो उन्हें वाइट हाउस में घसने नहीं दिया गया।  प्रश्नकर्ता को यह भी मालूम है कि  मोदी जी ने तब छिप-छिपकर वाइट हॉउस  के बाहर अपने  दो अन्य साथियों के साथ फोटो भी खिचवाई थी।   उस फोटो को ततकाल मीडिया पर उपलब्ध कराया जाना।  साबित करता है कि  सभी प्रश्नकर्ता प्रयोजित थे ,सभी 'संघी' थे और सभी ने 'भगवा भांग' पी रखी  थी ' .
                           एक  श्रोता ने  जब मोदी-ओबामा की जोड़ी से तकनीकी दक्षता के भूमंडलीकरण विषयक प्रश्न किया तब मुझे तब घोर आश्चर्य और हैरानी हुई।  हैरानी उस पश्नकर्ता के  सवाल पर  कदापि नहीं ! हैरानी इस बात पर  भी नहीं हुई  की  मोदी जी ने  क्या जबाब  दिया  !  हैरानी इस बात पर हुई कि  घोर कम्युनिस्ट विरोधी और पूंजीवाद  परस्त अमेरिका के राष्ट्रपति मिस्टर ओबामा के सामने ही  मोदी ने वह  कहने  की हिमाकत की  जो दुनिया के किसी भी अन्य राष्ट्र नेता ने , कभी भी किसी अमेरिकी राष्ट्रपति के सामने ,अब तक नहीं कहा ! बहुत सम्भव है कि  शायद गफलत में या असावधानी वश  यह वाक्यांश मोदी श्रीमुख से निकल गया हो !  जो भी मोदी ने कहा - अनायास ही सही - वह कम्युनिस्ट  विचाधारा से प्रेरणा लेने का संकेत मात्र है ! बहरहाल वह  वाक्यांश जिन्होंने नहीं  सुना  वे दूर दर्शन से २७ जनवरी -२०१५ को आयोजित  'मन की बात '  कार्यक्रम  अंतर्गत  'मोदी-ओबामा कृत  ई-बुक' मांगकर अक्षरशः देख सुन सकते हैं !  [नोट -ई बुक तैयार की जा रही है ]

                                   उस कथित जबाब में भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र भाई मोदी जी ने -  भारत के श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए यह कहा " जिस तरह कम्युनिस्ट लोग नारा लगाते हैं कि-दुनिया के  मेहनतकशों  एक हो  जाओ !  उसी तरह हम [मोदी -ओबामा] भी क्यों न नारा लगाएँ  कि  दुनिया के तमाम प्रतिभा सम्पन्न हाई टेक सुशिक्षित युवाओ एक हो जाओ ?  मुझे 'मन की बात ' कार्यक्रम के बारे में कोई पूर्व जानकारी नहीं थी। अचानक ही कोई चैनल खोला की मोदी ओबामा की 'अंतरंगता' के दर्शन सहित उनके श्रीमुख से उक्त ' अमृत बचन ' सुनने का सौभग्य प्राप्त हो गया ! चूँकि मुझे कार्यक्रम  की महत्ता और उसके दूरगामी निहतार्थ का बोध नहीं था. इसलिए सब कुछ बहुत हल्के से लिया। अन्यथा में भी सवाल  करता कि 'मान्यवरों' कम्युनिस्टों से सीखकर  यह आह्वान  तो ठीक है। लेकिन कम्युनिटों के आह्वान ' दुनिया के मेहनतकशों एक हो जाओ ' कहने से क्या आपके 'व्हाइट कॉलर्स ' युवाओं को शर्म आती है या दुनिया के लुटेरे धन-कुबेरों को पशीना  छूट रहा  है ?
                                   ये जो लाखों  उच्च शिक्षित -हाई टेक युवा पढ़े -लिखे नौजवान बिना किसी पेंशन  गारंटी के ,बिना किसी  सामाजिक सुरक्षा योजना के , बिना किसी सुरक्षित भविष्य के , बिना किसी मेडिकल फ़ेसलिटी  के ,बिना किसी फेमली पेंशन के -  प्राइवेट सेक्टर में ,आई टी सेक्टर में,असंगठित क्षेत्रों में ,गैर सरकारी क्षेत्रों में  अपना  ज्ञान अपनी ऊर्जा और अपना श्रम  बेच रहे हैं क्या वे 'मेहनतकश ' नहीं हैं ?  क्या आप उन्हें परजीवी और  मक्कार   समझते हैं ? मोदी जी आप श्रम  को सम्मानित किये बिना कुछ भी हासिल नहीं का सकते ! क्या    केवल पूँजी और  व्यापार  से  ही गुजरात बाइब्रेंट हुआ है ? क्या केवल पूँजी और व्यापार ही अमेरिका के विकाश का उत्प्रेरक है ? मोदी जी को मालूम हो  और ओबामा जी को भी मालूम हो कि  जिस नारे को वे कम्युनिस्टों का बता रहे हैं वो वास्तव में सबसे पहले  अमेरिका  के  ही मजदूरों ने   यह नारा लगाया था।  मोदी जी जिस नारे पर फ़िदा हैं वो " दुनिया के मेहनतकशों एक हो जाओ "  अमेरिका के अमर शहीद मेहनतकशों ने ही दिया है।  १-मई १८८७  को  शिकागो के  'हे स्कॉयर मार्केट' पर पहली बार  हजारों अमेरिकी मजदूरों ने  यह नारा लगाया था।   शान्ति पूर्ण ढंग से आंदोलन कर रहे मजदूरों पर जब पूंजीपतियों के गुंडों और उनकी सरकारी पुलिस ने  गोलियां बरसाईं तो शहीदों  की रक्त  रंजित  शर्ट  ही 'लाल झंडा ' बन  गईं।  मोदी जी ,ओबामाजी  और उनके जिन चापलूसों को ये ज्ञान न हो वे यह जानकारी 'इंनसाक्लोपीडिया' या अमेरिकी  इतिहासकारों  से भी हासिल कर सकते हैं !

                                                श्रीराम    तिवारी                                                      २७-०१-२०१४

                    १४-डी ,एस -४  अरण्यनगर ,इंदौर
     

सोमवार, 26 जनवरी 2015

सावधान भारत ! पंडित नेहरू और केनेडी ने भी -नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा की तरह खूब गलबहियां डालीं थीं।



         दुनिया जानती है कि भारत का अटॉमिक इनर्जी कार्यक्रम और यूरेनियम संवर्धन रिएक्टर १९६० में महान वैज्ञानिक होमी  जहांगीर भाभा के निर्देशन और पंडित नेहरू के नेतत्व में  शुरू किया जा चूका था।  नेहरू जी ने भी नरेंद्र मोदी की तरह  ही तत्तकालीन अमेरिकन प्रेजिडेंट  केनेडी  को भारत बुलाकर खूब आवभगत की। मिस्टर ओबामा तो  टीवी और अखवारों में ही  हैं जबकि कैनेडी तो भारत  की बड़ी नामचीन लाइब्रेरियों  से लेकर नाई की 'हेयर कटिंग सेलून ' तक  पहुंच बना चुके थे।
          पंडित जवाहरलाल  नेहरू  और केनेडी ने भी -नरेंद्र मोदी और बराक ओबामा की तरह खूब गलबहियां  डालीं थीं।  किन्तु हुआ क्या ?  जब अमेरिका को लगा की भारत के  वैज्ञानिक तो परमाणु बम्ब भी बना सकते हैं तो उसने तारापुर परमाणु केंद्र को यूरेनियम सप्लाई रुकवा दी थी। अंतरिक्ष में एसएलवी  क्रांति के ,धरती पर   अद्व्तीय   हरित  क्रांति के ,श्वेत क्रांति और परमाणुविक क्रान्ति के जो  झंडे भारत ने गधे हैं क्या उनमें  मौजूदा भारत सरकार का कोई हाथ है ? गणतंत्र दिवस  समारोह में बराक ओबामा ने भारत की जो सामरिक शक्ति  देखी  क्या वह ७ माह  के मोदीकाल में ही प्रकट हुई है ? क्या यह सच नहीं कि  यह देश के मेहनतकशों ,वैज्ञानिकों  और भूतपूर्व नेतत्त्व की साझी मेहनत का परिणाम है ?  वर्तमान सरकार जो कर रही है उसका परिणाम तो अभी आना शेष है ! अभी तक  तो भारत ने जो कुछ भी अर्जित किया या ओबामा ने 'राजपथ' पर देखा उसमें अमेरिका का रत्ती भर योगदान नहीं है।  मुझे ताजुब होता है कि  राजपथ पर जब  सोवियत टेंक और उसके द्वारा दी  गईं  तकनीकि  के महाकाय अश्त्र-शस्त्र संचालित हो रहे थे तब उन्हें  बराक  ओबामा कैसे देख पाये ? ये सारे दृश्य जो गणतंत्र दिवस पर देश और दुनिया ने देखे वे ,नरेंद्र मोदी के 'मेक इन इंडिया' के बिना ही  कीर्तिमान रचे जा चुके हैं। वेशक सोवियत संघ -भारत की दोस्ती ,इंदिराजी की प्रकल्पना और भारतीय वैज्ञानिकों का अथक परिश्रम  इन झांकियों में अवश्य ही झलक रहा था। जिन्हे देखर ओबामा  हॅंस  रहे थे और मोदी जी छप्पन इंच का सीना ताने हुए थे। सम्भव है कि  बराक -मोदी की जोड़ी उस दुरभि संधि पर एक हों जो पाकिस्तान की  बदमाशी और चीन की दादागिरी से  उतपन्न हुई है। लेकिन भारत को इसमें भी खुश होने की कोई बात नहीं।क्योंकि ज्यों-ज्यों भारत अमेरिका  के आगे झुकता जाएगा त्यों-त्यों चीन -पाकिस्तान और ज्यादा एकजुट तथा घातक होते जाएंगे। सामरिक स्पर्धा में चीन को चिढ़ाने से  भारत को पहले भी बहुत कुछ खोना पड़ा है।  पाकिस्तान को मालूम है कि  अमेरिका  उसका 'सगा' बाप है।  अमेरिका के आगे भारत के नेता अपना दिल निकालकर भी रख दें तब भी वक्त आने पर वह पाकिस्तान के पक्ष में ही खड़ा दिखेगा। तब शायद ओबामा जी अमेरिका के राष्ट्रपति नहीं होंगे।  भारत में तो चाहे मोदी हो ,चाहे राजीव गांधी हों या इंदिराजी सभी को अमेरिका से धोखा ही मिलना है। यहाँ अमेरिका से मेरा तातपर्य उस आवारा पूँजी से है जो अब वैश्विक हो चुकी है और जिस पर न तो ओबामा का  वश  है और न 'संघ ' परिवार का।  मोदी जी तो अम्बानी-अडानी से ही अभिभूत हैं बाकि अन्जामे गुलिस्तां क्या होगा ?

पी वी नरसिम्हाराव ,मनमोहनसिंह  द्वारा अभिनीत इस आंशिक पूँजीवादी  विकाश  की पटकथा  राजीव गांधी  ने लिखी थी। उस पठकथा पर  देश के मजदूरों-किसानों और युवाओं ने  तब भी आशंका व्यक्त की थी।  वह आशंका निर्मूल नहीं थी। कौन है जो नहीं जानता की इन्ही नीतियों के कारण अमीर और अमीर हुआ है ,गरीब और गरीब हुआ है। अटॉमिक एनर्जी करार में अमेरिका को भारत की 'ट्रेकिंग' करने से यदि देश के गरीब किसानों की आत्महत्या रूकती है , यदि साम्प्रदायिकता खत्म होती है, यदि आर्थिक असमानता खत्म होती है ,यदि आतंकवाद खत्म होता है  और यदि भारत -अमेरिका की नयी शिखर वार्ता से देश की संप्रभुता सुरक्षित होती है तो मैं भी मोदी जी का मुरीद हूँ।
                            वेशक  इस  गणतंत्र दिवस पर अमेरिकन प्रेजिडेंट  मिस्टर ओबामा का मुख्य आतिथ्य  और इस दरम्यान दोनों राष्ट्रों के कूटनीटिक   द्विपक्षीय  व्यापारिक वार्ताओं से शायद कुछ विदेशी पूँजी भारत में  आ जाए.किन्तु विदेशी पूँजी को या कार्पोरेट कम्पनियों को यूनियन कार्बाइड जैसा ही खुला अनियंत्रित छोड़ना कोई देशभक्तिपूर्ण कार्य नहीं है।  पूंजीवादी संसार के विकाश मॉडल और उनके अपने-अपने राष्ट्रीय  निहतार्थ हो सकते हैं। किन्तु भारत को अभी तक तो अमेरिका ने मुसीबत में  धोखा ही दिया है।  व्यक्तिगत रूप से कदाचित ओबामा  या मोदी की नियत ठीक भी हो शायद  उनकी दोस्ती व्यवहारिक धरातल पर सकारात्मक भी को तो भी  भारत को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए की जब -जब भारत पर मुसीबत आयी तो यूएनओ में हमारा साथ की-किस ने दिया ? हमारा विश्वशनीय मित्र कौन है ? हमारे लिए कौनसी नीतियाँ  अनुकूल और अनुकरणीय हैं ? हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि  क्रायोजनिक इंजन के लिए जरुरी ईंधन की आपूर्ति में  बाधा किसने डाली ? हमें यह भी याद रखना चाहिए कि  हमारी सेनाओं की  ट्रेनिग किस पैटर्न पर और किस सामरिक क्षमता पर आधारित है ?
                                     इन सवालों के जबाब जानने वाला  शख्स ओबामा जी के 'नमस्ते इण्डिया ' नमस्कार भारत ' कहने मात्र से पिघलने वाला नहीं  है। मोदी जी कितना ही  बराक-बराक जपें या विदेशी पूँजी के लिए कितना ही लाल कालीन बिछाएं , अमेरिका से न्याय और  समानता की उम्मीद बहुत कम ही  है। यदि अ मेरिका कुछ देगा  तो उसके सामरिक और आर्थिक  हित  उसकी वरीयता में होंगे !  क्या भारत के वर्तमान  नेतत्व को ओबामा से यह भी नहीं सीखना चाहिए ?
 नई  आर्थिक नीति  और सुपर कम्प्यूटर के हिमायती राजीव गांधी ने जब  सबसे पहले  भारत में बाजारीकरण -भूमंडलीकरण को बढ़ावा दिया तो देश के जागरूक लोगों ने उन्हें भी आगाह किया था। आज जो भारत-अमेरिका के सी ई ओ की बैठक दिल्ली के ताज होटल में चल रही है , जिस बैठक में अमेरिकन प्रेजिडेंट श्री बराक हुसेन ओबामा जी और भारतीय प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी शिरकत कर रहे हैं ,उसकी आधारशिला  राजीव गांधी ,नरसिम्हाराव और मनमोहनसिंह ने ही रखी  थी। पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों के  प्रयासों का ही  परिणाम हैं की  भारत में आर्थिक उदारीकरण,निजीकरण  और ठेकाकरण लागू हुआ। जिन विनाशकारी  नीतियों को केंद्रित कर भारत का वर्तमान  नेतत्व अमेरिका के सामने साष्टांग दंडवत किये जा रहा है उनको लेकर भारत की जनता  में आज भी वही  शंकाएं हैं। वेशक ' इण्डिया'आज गदगदायमान  है,किन्तु यह गणतंत्र अभी ' भारत' से  कोसों दूर हैं। हम यह कैसे भूल सकते हैं कि  अमेरिका ने वीटो का जब भी उपयोग किया-पाकिस्तान का समर्थन और भारत के खिलाफ किया।
       इन्ही  विनाशकारी   नीतियों के परिणामस्वरूप , विगत  कुछ वर्षों में जिस तरह अम्बानियों -अडानियों  और अन्य लक्ष्मीपतियों का  विकाश हुआ  है ,ठीक उसी तरह  मुंबई ,दिल्ली ,चेन्नई,हैदरावाद, पुणे,सूरत ,त्रिवेन्द्रम ,  अहमदावाद ,बेंगलुरु ,नागपुर ,भोपाल  और इंदौर पर भी इस नव्य उदारवाद की असीम अनुकम्पा रही है। नयी आर्थिक उदारीकरण की नीति से कुछ पढ़े -लिखे हाई  टेक युवाओं को  सरकारी नौकरी तो नसीब नहीं हुई.  वेशक प्रतिस्पर्धी दौर  में वे पूँजीपतियों  की गुलामी में अपनी जवानी खपाने को मजबूर अवश्य हो गए हैं।  रिश्वतखोर ,जमाखोर ,दलाल ,कालबाजारीये ,सत्ता रूढ़  भृष्ट नेता ,टीनू-अरविंद  जैसे भृष्ट बेईमान अफसर और आसाराम, रामपाल ,गुरमीत राम रहीम जैसे बाबाओं की सम्पदा में अकूत बृद्धि हुई है।
                                मोदी जी जिन नीतियों के अम्लीकरण पर आमादा हैं वे देश के किसानों ,मजदूरों और युवाओं के हित  में कदापि नहीं  हैं ! अमेरिका के आगे अपना स्वाभिमान गिरवी रखना तो नितांत निंदनीय और  दुखद है।
                   श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 23 जनवरी 2015

"कूलन में ,केलि में, कछारन में, कुंजन में,क्यारिन में........!


   भारतीय महादीप को  वसंत ऋतू के आगमन  की सूचना देने वाले  'ऋतुराज वसंत' जहाँ-कहीं भी हो उनसे निवेदन है कि नव-धनाढ्य  वर्ग की  चालु किस्म की  मॉडल्स , हालीबुड -बॉलीवुड  स्थित ऐश्वर्य शालिनी  फ़िल्मी  नायिकाओं के हरम ,  अमीरों के विशाल बाग़ बगीचों और  सभ्रांत  लोक की पतनशील वादियों से फुर्सत मिले तो  आज कुछ क्षणों के लिए -छुधा पीड़ित ,ठण्ड से कम्पायमान  -देश  और दुनिया के  निर्धन सर्वहारा पर भी नजरे इनायत फरमाएँ !  आपको देखे हुए सदियाँ गुजर गईं।  तभी तो रीतिकाल में भी कवि की काल्पनिक नायिका को कहना पड़ा -

       नहिं  पावस इहिं  देसरा , नहिं  हेमन्त  वसंत ।

       न कोयल न पपीहरा ,जेहिं  सुनि  आवहिं  कंत।।


                                 रीतिकालीन में  वियोग श्रंगार  के कवि ने  उक्त दोहे में चिर विरहन  किन्तु  परिणीता -  नायिका के मनोभावों को बहुत ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। कवि के अनुसार प्रत्यक्षतः तो नायिका के इर्द-गिर्द प्रकृति प्रदत्त  ऋतु -सौंदर्य  बिखरा पड़ा है। किन्तु अपने प्रियतम [कंत-पति ]  के घर  आगमन में हो  रहे विलम्ब जनित  वियोग में वह इतनी  वेसुध  है कि इस ऋतु  सौंदर्य  का  उसे  कदापि भान नहीं है। आज के इस उन्नत तकनीकि  दौर में  जिस तरह   महास्वार्थी नेताओं और मुनाफाखोर पूँजीपतियों  को धरती के विनाश  की कतई  परवाह नहीं है ,जिस तरह  मजहबी उन्माद में आकंण्ठ डूबे आतंकियों को -बोको हराम वालों को ,  ,तालीवानियों  को , आइएसआइ वालों को और नक्सलवादियों को इंसानियत की फ़िक्र नहीं है उसी तरह  लगता  है कि  ऋतुराज वसंत को भी अब कवियों के लालित्यपूर्ण काव्यबोध की परवाह नहीं है। तभी तो 'वसंत' अब -
                 "कूलन में ,केलि में, कछारन में, कुंजन में,क्यारिन में  कलित कलीन  किलकंत " भी नहीं  हो रहा है।

                   विदेशी आक्रमणों के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में  न केवल 'वसंत' अपितु कुछ   और भी  चीजें निश्चय ही अनुपम हुआ करती थीं। चूँकि तब इस  महाद्वीप  में प्राकृतिक संरचना अक्षुण थी , प्रचुर वन सम्पदा  ,खनिज सम्पदा भरपूर थी।  सदानीरा स्वच्छ  कल -कल  करतीं  सरिताओं   का रमणीय मनोरम रूप और आकार  हुआ करता था। पर्यावरण प्रदूषण नहीं था।  ऋतुएँ समय पर आया करतीं थीं।तब  ग्रीष्म ,पावस ,शरद,  शिशिर ,हेमंत और वसंत  को तरसना नहीं पड़ता था। वसंत  उत्सव तो अपने पूरे सबाब में  ही मनाया जाते थे। विदेशी आक्रान्ताओं ने न केवल यहाँ की अर्थ  व्यवस्था  को चोपट किया , न केवल वैज्ञानिक परम्परा को नष्ट किया ,न केवल  अपसंस्कृति का निर्माण किया बल्कि पर्यावरण प्रदूषण और धरती के दोहन का महा  वीभत्स  चलन भी भारतीय उपमहाद्वीप में इन इन्ही विदेशी आक्रमणों की देंन है। 
                               महाकवि  कालिदास ,भवभूति, से लेकर जायसी और बिहारी तक  को इसकी जरुरत ही नहीं रही  होगी कि  भुखमरी ,बेरोजगारी ,रिश्वतखोरी , साम्प्रदायिकता और भृष्टाचार पर कुछ लिखा जाए !  निसंदेह  इन चीजों का उस समय  इतना बोलबाला नहीं रहा होगा। तभी तो इन विषयों पर  किसी कवि ने एक श्लोक. एक छंद ,एक स्वस्तिवाचन मात्र भी नहीं लिखा। वेशक  यूरोप और  अन्य पुरातन सभ्यताओं  की तरह  भारतीय परम्परा में भी कवियों  ने किसानों ,मजदूरों या उत्पादक शक्तियों के बारे में कुछ नहीं लिखा। वे   केवल राजाओं,श्रीमंतों और रूपसी नारियों पर ही लिखते रहे । कुछ राजाओं , भगोड़ों ,कायरों , ऐयाश किस्म के  विदूषकों को 'अवतार'  बनाकर  ततकालीन दरबारी  कवियों ने   ईश्वर के तुल्य  महिमा मंडित किया गया। इन कवियों ने धर्म-दर्शन ,मिथ ,नायक-नायिका -नख-शिख वर्णन को  ईश्वरत्त  प्रदान किया है।
                              जिन  कवियों ने   अपने आपको सरस्वती पुत्र  माना, वे  नारी देहयष्टि रूप लावण्य,छलना और कामोत्तजक सृजन में  वसंत के प्रतीक ,प्रतिमान ,बिम्ब और  रूपक  से  काव्य बिधा का  कलरव गान किया करते थे। उनकी  काव्यगत सार्थकता इसी में तिरोहित हो जाया करती  थी कि  वे धीरोदात्त चरित्र के व्यक्तित्त्व में अपना इहलौकिक और पारलौकिक तारणहार भी खोज  लिया करते थे। कुछ तो युध्दों में भी अपने पालनहार के साथ उसकी वीरता का बखान किया करते थे।
                              विदेशी आकमणकारियों ने भारतीय उपमहाद्वीप  के विशुद्ध साँस्कृतिक  सौंदर्य को ही नहीं , इसकी उद्दाम परिनिष्ठित श्रंगारयुक्त  काव्य  कला को ही नहीं ,इसकी वैज्ञानिक अन्वेषण की स्वतंत्र  भारतीय परम्परा को ही नहीं ,  अपितु इन आक्रान्ताओं ने  इस उपमहाद्वीप के  नैसर्गिक सौंदर्य और प्राकृतिक   वनावट का  भी सत्यानाश किया है। चूँकि इस महाद्वीप  का भौगोलिक कारणों से बहुसंस्कृतिक  ,बहुभाषाई  और बहुसभ्यताओं  बाला  स्वरूप रहा है। इसलिए  किसी बाहरी आक्रमण  का संगठित प्रतिरोध  भले ही सम्भव नहीं  रहा हो किन्तु  सांस्कृतिक वैविद्ध्य और बहुभाषाई विभन्नता के उपरान्त ,भौगोलिक दूरियों और नदियों -घाटियों की गहनता के उपरान्त भी भारत में अधिकांस त्यौहार ऋतु  परिवर्तन के  संक्रान्तिकाल में ही मनाये जाते रहे हैं। प्रायः सभी त्यौहारों पर ऋतुराज वसंत के आगमन का   त्यौहार  भारी  पड़ता रहा है।यह अति सुंदर  कमनीय   'वसंतोत्सव या मदनोत्सव ही एक ऐंसा पर्व है  जिसे मनाये जाने के प्रगैतिहासिक  प्रमाण हैं।  चूँकि इस पर्व का उद्दीपन  प्राकृतिक  का चरम सौंदर्य है। इसलिए यह धरती का सबसे सहज -सुंदर -प्राकृतिक - वैज्ञानिक और उत्कृष्ट पर्व है। पौराणिक काल में इसे विद्द्या की देवी सरस्वती के उद्भव या  रति-कामदेव  के मदनोत्सव  दिया गया। आरम्भ में तो यह पतझड़ के आगमन और आम्र बौर झूमने के कारण ही प्रचलन में आया होगा।  
                     वेशक  शिव पार्वती विवाह ,कामदेव का क्षरण या 'अनंग' अवतार इसके पौराणिक मिथक रहे हैं। किन्तु वैज्ञानिकता में यह पर्व न केवल पर्यावरण संरक्षण , न केवल जल-जंगल-जमीन के संरक्षण बल्कि   नारी मात्र के संरक्षण पर भी अवलम्बित  है।  भारतीय महाद्वीप  के सांस्कृतिक पराभव ,वैज्ञानिक  पराभव ,सौंदर्य पराभव और पर्यावरण पराभव की छति पूर्ती तो अब संभव नहीं, किन्तु यदि अब भी नहीं चेते  तो  सर्वनाश सुनिश्चित है।   दीवाली -ईद -किसमस या अन्य त्यौहार तो शायद बारूदी पटाखों या धन-सम्पन्नता  के भौंडे प्रदर्शन पर निर्भर हैं।  किन्तु वसंतोत्सव तो प्रकृति पुरुष के सौंदर्य की आरधना  का महापर्व है। इस पर्व को मनाने में 'बेलनिटाइन डे ' जितना पाखंड और दिखावा भी जरुरी नहीं है।  वसंतोत्सव पर्व तो  दैहिक प्यार-प्रेम से भी ऊंची  मानवीय आकांक्षाओं  का प्रेरक है।  आज के वसंतोत्सव को  धरती के संरक्षण  ,नदियों के संरक्षण  ,कन्या -पुत्री संरक्षण  के विमर्श से  केंद्रित  क्या जाए तो इस पर्व की सार्थकता का  असीम आनंद सभी को मिल सकता  है। अंत में सभी बंधू -बांधवों ,मित्रों -आलोचकों और संबंधीजनों को -

                                 वसंत के शुभ आगमन की शुभकामनाएँ !

   जिस किसी सौभाग्यशाली या शौभाग्यशालिनी को ऋतुराज वसंत कहीं  दिखें तो सूचित अवश्य करें।

                       
                                                       श्रीराम तिवारी

                       



     

बुधवार, 21 जनवरी 2015

सनातन हिन्दू समाज में व्यक्तिपूजा का चलन ही भारतीय गुलामी का प्रमुख तत्व रहा है।

 भारत सदियों तक गुलाम क्यों रहा ? क्या उपाय किया जाए की आइन्दा ये नौबत ही न आये ? इन दो सवालों के  उत्तर खोजने वालों को ही देशभक्त कहलाने  का हक है।  मुझे तो  इन  सवालों के जो उत्तर सूझ पड़े वे इस प्रकार  हैं।  पहले का जबाब  है कि  समष्टि चेतना ने  रूप- आकार  या व्यक्ति की पूजा  को  ही  अपनी मुक्ति या  मोक्ष प्राप्ति का साधन बना लिया  है। जहाँ  सभी को केवल अपना  निजी 'शुभ लाभ'  या निजी कल्याण की  फ़िक्र होगी तो राष्ट्र की फ़िक्र कौन करेगा ?  गुलामी का क्या  भरोसा ? दरवाजा खुला है तो वो कभी भी कहीं से भी आ जाएगी।   दूसरे सवाल का जवाव ये है कि  पहले से सबक सीखा जाए ! न केवल सबक सीखा जाए बल्कि शासक वर्ग पर , जनता की 'पकड़' हमेशा रहे यह इंतजाम भी किया जाए !
                                                              यह सर्वमान्य तथ्य है कि यूनान -अरब-फारस या  मध्य एशिया के यायावर  विदेशी आक्रमणों से पूर्व 'अखण्ड  भारत'  नाम का कोई 'राष्ट्र' धरती पर नहीं था। सिकंदर  और उसके बाद के मजहबी  आक्रमणकारियों के पूर्व तक भी इस भारतीय महाद्वीप  या तथाकथित 'जम्बूदीप' का कोई एक सत्ता केंद्र नहीं था।  इतिहासकार मानते हैं कि उत्तर में - उत्तरापथ या आर्यावर्त था। पश्चिम में पंचनद प्रदेश ,सिंधु, सौवीर,यवन प्रदेश,काबुल कंधार,प्रागज्योतिषपुर ,गुर्जर और राष्ट्रकूट थे।  पूर्व में अंग-बंग -कलिंग ,मगध,और तथाकथित   सोलह  'स्वतंत्र जनपद' थे। दक्षिण में चोल,चेर,पाण्डय , सातवाहन और आंध्र थे। इसके अलावा भी  हजारों नामी-गिरामी -भोग  विलासी राजे-रजवाड़े  हुआ करते थे। अधिकांस राजा -रजवाड़े  अपने आप को सूर्यवंशी ,चंद्रवंशी ,हैहयवंशी ,यदुवंशी,रघुवंशी ,गुप्तवंशी ,मौर्यवंशी  और न जाने कौन -कौन से वंश का बताते थे।  दस - बीस  गाँव का मालगुजार या जमींदार  भी अपने आपको  स्वयंभू चक्रवर्ती  सम्राट ही समझता था ।  अधिकांस  सामंत और जागीरदार  घोर निरंकुशता  , ऐयाशी  और 'राजमद' से पीड़ित  हुआ करते थे।  उनका आप्त वचन [नारा] था :-
                                     "जा घर तिरिया सुंदर देखि ,ता घर धाय  धरी  तलवार "
                                       [ जगनिक कृत -परिमाल रासो से उद्धृत]
 अर्थ :-  कोई भी राजा यदि  किसी घर में ,खेत में ,खलिहान में  व्याहता या कुवारी कोई  सुंदर युवती  देखे  -तो तलवार लेकर उसका हरण  करना ,उसको अपने रनिवास [अन्तःपुर] में घसीट लाना,उसे अपनी  भोग्या बनाना राजा का   परम  कर्तव्य माना गया   है।  यही उसके शौर्य और प्रतिष्ठा की निशानी है। क्या यही हिन्दुत्ववादी दर्शन है ?
                                 क्या इसी निकृष्ट आचरण के कारण  ततकालीन 'अखंड भारत' के तमाम चक्रवर्ती सम्राट धूलधूसरित नहीं हुए ?  क्या यह सच नहीं है कि जब  मुहम्मद गौरी युद्ध पर युद्ध किये जा रहा था ,  हारकर भी चुप नहीं बैठा था ,तब पृथ्वीराज चौहान अपनी मौसेरी बहिन  संयोगिता के अपहरण का शौर्य दिखा रहा था? क्या यह सच नहीं है कि जब  मेहमूद गजनबी सोमनाथ का ध्वंश कर देवगिरि की ओर  बढ़ रहा था  तब पश्चिम के गुर्जर,राष्टकूट और राजपूत राजा या तो रंगरेलियों में मस्त थे या ' अहिंसा परमोधर्म :' का तोता रटंत जाप करने वाले 'नंग-धड़ंग' मुनियो -साधुओं के आदर-सत्कार में व्यस्त थे? क्या यह सच नहीं है कि जब तुर्कों, खिलजियों ,अबासियों  , उम्मेदियों ,उजवेगों ,मुगलों या पठानों ने   इन भारतीय -हिन्दू राजाओं पर हमले किये तो वे अपनी बहु -बेटियां -लड़कियाँ  आक्रान्ताओं को समर्पित कर  अपना राज्य और  जान बचाने की जुगत भिड़ाते रहे? जब अंग्रेज  आये तो सबसे पहले इन्ही  राजे- रजवाड़ों ने  अंग्रेजों के  चरणों में भी अ पना सर रख दिया।  सेठों साहूकारों ने -किसान मजदूरों ने या  कारीगरों ने गुलामी सहज ही स्वीकार नहीं की होगी। 'यथा -राजा तथा प्रजा' का सूक्त वाक्य  ऐंसे हो तो प्रचलन में नहीं आया होगा ?
                    वेशक अतीत के सामंती क्रूर दौर में या उससे पूर्व पौराणिक काल में भी कुछ अपवाद तो अवश्य ही रहे होंगे। मानवीय मूल्यों  के क्षरण का श्रेय केवल आधुनिक वैज्ञानिक या पूँजीवादी  दौर को  ही नहीं दिया जाना चाहिए। यह याद रखा जाना चाहिए कि मुठ्ठी भर बलिदानियों ने   ही  हर दौर में विदेशी आक्रान्ताओं का वास्तव में डटकर मुकाबला किया   है। बाकी तो सब बक्त आने पर 'रिपट  पड़े तो  हर-हर गंगे' होते गए। कुछ  ने तो हर दौर में छींका टूटने का ही इन्तजार किया।  इतिहास के प्रत्येक दौर में क़ुरबानी का सिलसिला जारी रहता है।   भारतीय मानसिकता की समष्टिगत कमजोरी है कि  लोग बलिदान जनित  उदात्त  मूल्यों   और आदर्शों को  भूलकर   'व्यक्तिपूजा'   में जुट जाते हैं ! जैसे कि  आज का कुंठाग्रस्त हिन्दू समाज और बिजनेस  क्लास 'मोदी '  भजन में लींन  हो रहा है। यही लोग कल तक मनमोहन ,सोनिया और  राहुल को भज रहे थे। कुछ लोग आजीवन जयप्रकाश नारायण को भजते रहे ,कुछ लोहिया को ,कुछ गांधी ,नेहरू ,पटेल और शाश्त्री को भजते रहे।  को भज  रहे थे।
              वेशक हरिश्चंद्र ,श्रीराम ,लक्ष्मण ,जनक जैसे पौराणिक  आर्य राजाओं  के द्वारा स्थापित सर्वकालिक  मानवीय मूल्य और आदर्श मानव मात्र के लिए अनुकरणीय हैं।   चूँकि वे धीर-उदात्त चरित्र के  प्रतीक थे  इसीलिये शायद भारत के सभी  पंथों -समाजों और सभ्यताओं  ने उन्हें ईश्वर तुल्य माना है। इन अपवादों  की आरती -स्तुति में समय जाया न  करते हुए हमें इनके आदर्शों को समझने और  उनके अनुशीलन करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।  किन्तु जो लोग उनके नाम की राजनीति  कर रहे हैं ,उनके मंदिर बनाने का संकल्प लेकर सत्ता में आये हैं वे ही अब राम या हरिश्चंद्र की नहीं बल्कि  रावण  की ,शकुनि की और दुर्योधन की भाषा बोल रहे हैं। अशोक सिंघल को ,साक्षी महाराज को ,तोगड़ियाजी को या'संघ ' के बहुसन्तति आकांक्षी नेताओं को यदि भगवान श्रीराम का ,राजा हरिश्चंद्र का या राजा जनक का अनुगमन करना चाहिए। 'हम दो -हमारे दो ' तो फिर भी ठीक है,किन्तु ये हिन्दुत्ववादी तो रावण ,धृतराष्ट्र  कौरवों का अनुकरण करने का आह्वान किये जा रहे हैं। पाण्डुपुत्र अर्जुन ने भी कृष्ण से सहायता में उनकी २३ अक्षौहणी  सेना नहीं बल्कि सिर्फ अकेले श्रीकृष्ण का सहयोग ही चाहा था। नतीजा क्या हुआ ? पांचपाण्डव  जीत गए। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र याने कौरव हार गए। राम-लक्ष्मण जीत गए !  रावण  के  'एक लख  पूत सवा लख नाती  हार गए। 'गीदड़ों की संख्या बढ़ाने की बजाय आप हर हिन्दू को भगतसिंह  बनाने की बात क्यों नहीं करते। न केवल हिन्दू , न केवल मुसलमान बल्कि हर पंथ मजहब और कौम जाति  का इंसान भगतसिंह जैसा सोचने लगे ,लेनिन जैसा सोचने लगे ,हो-चीं मिन्ह जैसा सोचने लगे चे  -गुएवेरा जैसा सोचने लगे तो किसी धर्म -मजहब को किसी अन्य धर्म मजहब से कोई खतरा ही नहीं रहेगा। अंधाधुंध जनसंख्या  बढ़ाने   की  पैरवी  इस दौर में बेहद  डरावनी है।
           जो  कनक-कामनी-कंचन-  की उपासना  से  फुर्सत मिलने पर कभी-कभार आपस  में  दो-दो हाथ तलवारों के भी कर लिया करते थे।  जो जनता का शोषण करने और अपने आपको विष्णु से कम नहीं समझते थे वे तो जबरिया ही जनता के आराध्य बना दिए गए।   स्कंदगुप्त विक्रमादित्य , भोज परमार , राजेन्द्र चोल , जैजाक्भुक्ति   के चन्देल और इनके जैसे अनेक राजा जिन्होंने सरस्वती  की उपासना की और साहित्य -कला - संगीत को उत्कृश्टता प्रदान की वे  भले  ही कितने ही  प्रजावत्सल  रहे हों किन्तु  इनके मानवीय योगदान को आज का युवा कितना जानता है ?  इन दस-बीस राजाओं के अलावा जनता जनार्दन ने अतीत में जो कुछ त्याग और कुरवानियाँ  दीं होंगी उनका  भी इतिहास   कहाँ  लिखा गया ?
                      आज  जो लोग केवल मोदी- मोदी कर रहे हैं या केवल 'संघम शरणम गच्छामि ' हो रहे हैं वे भी वही ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं। अतीत की तरह आज भी  बड़े-बड़े -दानवीर ,दयालु,धर्मात्मा और  मानवमात्र के 'विश्वामित्र' मौजूद हैं।   कैलाश सत्यार्थी ,सफ़दर हाश्मी  के नाम तो तब ही जनता को मालूम पड़ते हैं जब उन्हें कोई अंतर्राष्ट्रीय सम्मान  मिलता  है या सफ़दर हाशमी की तरह नापाक तत्वों द्वारा मार दिए जाते हैं। आज भी -राष्ट्रीय ,मानवीय और सामाजिक  क्षेत्रों में अनेक 'अनाम'  शख्सियतें  हैं जो  इंसानियत  के लिए समर्पित हैं। किन्तु उनके आदर्शों और मूल्यों की मीडिया में कोई चर्चा नहीं होती।  आज  फिर लबारियों   गप्पाड़ियों -ढपोरशंखियों -चारणों -भाटों  दौर है।  आज फिर  आश्था  के धूलधूसरित किये जाने का दौर है।                   नकली गांधीवादियों  द्वारा  लिखित 'दरवारी साहित्य' में  'भारत राष्ट्र '  का ,शहीद भगतसिंह जैसे क्रांतिकारियों का कोई खास इतिहास नहीं लिखा गया। उसी तरह सर्वहारा के  संघर्षों का और देशभक्त   साम्यवादियों की  क़ुरबानी  की हर दौर में अवहेलना की  जाती  रही है ।
                                   सतयुग,त्रेता,द्वापर की ही तरह  हर युग में न केवल  काल्पनिक -मिथकीय  अवतारों  की पूजा अर्चना की गई  बल्कि उनको ही प्रथम पूज्य  माना गया जो किसी 'गाड़ फादर' के खास थे।  जो स्वामी कार्तिकेय की तरह निश्छल और असल शूरवीर थे वे कुटम्ब से ,समाज से और 'आराधना' के  पवित्र 'वलय ' से बर्खास्त किये जाते रहे हैं। भारतीय और सनातन हिन्दू समाज में  व्यक्तिपूजा का चलन  ही भारतीय गुलामी का प्रमुख तत्व रहा  है। कुछ दासता पीड़ित तो  उनकी भी पूजा में लीन  रहे जो देश , समाज और मानवता को बर्बाद करने में अव्वल रहे।  मर्यादा पुरषोत्तम श्रीराम जैसे  धीरोदात्त वीरों  को भगवान मानकर पूजना अच्छा है किन्तु उनके  द्वारा स्थापित  मूल्यों  को आत्मसात करना या उनकी आराधना करना सर्वोत्तम पूजा है।
इसीलिये  पंडित श्रीराम तिवारी का कहना है कि  हे भारत वासियो ! हे दलबदलुओं ! हे सत्ता -पिपासुओं !  मेरी आवाज सुनों !   मोदी जी की  या किसी अन्य खास  व्यक्ति की चाटुकारी  या चरणभक्ति से बेहतर है उच्चतर  मानवीय  मूल्यों की ,मानवता के सार्वभौमिक सिद्धांतों- लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्षता ,समाजवाद की  तहेदिल  से   आराधना करो।
                       
                व्यक्ति पूजा  निकृष्ट्म , निहित स्वार्थी होय ।
                मूल्य आराधना जो करे ,पंडित ज्ञानी सोय।।
                                                                                              श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 20 जनवरी 2015

वास्तव में उनके अच्छे दिन आये हैं जो केरेक्टर की परवाह नहीं करते




                     मेरे देश  में इन दिनों  बहुतेरों को एक अदद  'अवतार ' की  शिद्द्त से दरकार है।  पीलिया रोग से पीड़ित कुछ  नर-मादाओं को तो  नरेंद्र मोदी  साक्षात विष्णु के अवतार  ही नजर आ रहे हैं। महज कार्पोरेट लाबी या हिन्दुत्ववादियों को ही नहीं अब तो खांटी  धर्मनिर्पेक्षतावादियों ,कांग्रेसियों  और लोहियावादियों को भी मोदी जी 'कितने अच्छे लगने  लगे ' हैं।   जब शांति भूषण जी को 'नमो' भक्ति में लीन  देखता हूँ तो लगता  है कि   बाकई  मोदी जी  का उन पर भी कुछ तो असर  है। सिर्फ किरण वेदी ,शाजिया इल्मी ,जया प्रदा या कृष्णा  तीरथ जैसी  नादान इच्छाधारणियां  ही नहीं , बल्कि जीतनराम माँझी , दिनेश त्रिवेदी ,जनार्दन द्धिवेदी जैसे राजनीतिक ड्रगन  भी 'मोदी जाप' के लिए कुनमुना रहे हैं। मोदी जी की के अंधभक्तों  ने तो सहीदों  को भी भगवा दुपट्टा पहना दिया है।   सरदार भगतसिंह , सरदार पटेल ,सुभासचन्द्र  बोस  और  लाला लाजपत राय  भी इनसे नहीं बच पाये। अमर शहीदों  की प्रतिमाओं  के कान में भी फुसफुसा कर  कहा जा रहा हो " गांधी को भूल जाओ, लोकतंत्र को  भूल जाओ ,इंकलाब  को भूल जाओ।   इसलिए हे भारत वासियो ! सब मिलकर एक साथ  जोर से बोलो - 'गोडसे  महाराज की जय '  !  मोदी महाराज  की जय ! जय-जय सियाराम !
                       यूएस  प्रेसिडेंट  श्री ओबामा  जी  के गणतंत्र दिवस पर  भारत आगमन  पर  भारत -अमेरिका की कार्पोरेट लाबी बहुत  खुश है। अब तो हवाएँ भी पछुआ हो चली हैं।  इन फिजाओं में  भी मोदी जी का  कुछ तो असर है। 'भगवा आंधी'   योँ  ही नहीं  चल रही है।  दिनेश त्रिवेदी [टीएमसी वाले] से लेकर जनार्दन द्धिवेदी [ कांग्रेस वाले] तक सबके सब  'हर- हर मोदी'  ही  किये जा रहे हैं।  कल तक  जिन्हे  ममता ,सोनिया या राहुल  देश  के तारणहार दीखते थे  वे अब 'मेरो तो मोदी दूसरो न कोई ' का भजन गा  रहे हैं।  उन्हें तो गाना पडेगा  जो  चाटुकारिता और दासत्व के सिंड्रोम से पीड़ित हैं।  इसीलिये सारे चमचो ,दलबदलुओं  एक साथ बोलो - मोदी महाराज की जय !जय-जय सियाराम !
            कुछ लोगों ने एक वाहियात  सी अवधारणा  बना रखी  है  कि देश और  दुनिया का उद्धार करने के लिए हर युग में एक अदद 'अवतार' की जरूरत होती है। चूँकि इस आधुनिक दौर में भारत को आर्थिक-सामाजिक -साम्प्रदायिक और सांस्कृतिक महामारियों ने घेर रखा है इसलिए 'अवतार' की  शिद्दत से जरुरत है।  दरसल  कांग्रेस के कुकर्मों , मीडिया के 'अपकर्मों', धर्मनिर्पेक्षतावादियों - अल्पसंख्यकवादियों के   'भेड़िया धसान कर्मों '  तथा   'संघ परिवार '  के नाटकीय  'धत्कर्मों'  के परिणाम स्वरूप अवसरवादियों और दल  बदलुओं के 'पापकर्म' धुल  चुके हैं।   वास्तव में उनके  अच्छे दिन आये हैं जो केरेक्टर की परवाह नहीं करते।  उधर  आर्थिक 'नीति' और 'नीति आयोग 'में विश्व बैंक, एनआरआई ,अम्बानी,अडानी जैसे  बड़े -बड़े  कारोबारियों और 'दलालों' के अच्छे दिन आने लगे हैं। अभी-अभी ताजा-ताजा , केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड में 'राग दरवारियों ,चाटुकारों  और चन्दवरदाइयों ' के अच्छे दिन आये हैं।  राष्ट्र रुपी घूरे के दिन  कब फिरेंगे  ? ये तो इस वैज्ञानिक -उत्तर आधुनिक युग में कोई भी दावे से नहीं कह सकता !  किन्तु  जिनके पहले से ही अच्छे दिन चल रहे थे। उन  धूर्त  चालक  और काइयाँ लोगों  के  स्वर्णिम दिन बरक़रार हैं। जो सत्ता से महरूम हैं वे मोदी  भक्ति को बेकरार हैं।
                         मजदूरों के तो बहुत बुरे दिन आये हैं। न सिर्फ 'कांग्रेस मुक्त भारत' बल्कि अब तो शुद्ध -  निखालिस 'श्रम नीति'  मुक्त  भारत होने जा रहा है। न केवल  सांस्कृतिक पुरुत्थान वादियों  के सपनों का 'एंड-वेण्ड इंडिया'बल्कि   'मेक इन इंडिया 'याने 'अतुल्य ' भारत  भी  होने जा रहा  है। न केवल 'लोकतंत्र ,समाजवाद  और धर्मनिेपेक्षता '  से मुक्त भारत बल्कि संसदीय लोकतंत्र मुक्त भारत की  सम्भावनाएँ  भी ७ माह में ९  अध्यादेश लागू कर दिखा दींगईं  हैं। मानवीय संवेदनाओं  से  मुक्ति  की कामना पूर्ण होने के आसार  भी नजर आ रहे  हैं।  इस घोर नकारात्मक परिदृश्य के  वावजूद कुछ लोग  ढ़पोरशंखी वयान बाजी और पूँजीवादी आर्थिक  राजनैतिक चकाचौंध में मानो  'रतौंधिया' गए हैं ।  ये   हर -हर 'मोदी-मोदी' के नारे लगाने वाले  कभी न कभी  कांग्रेस के और गांधी नेहरू परिवार के भी गुणगान किया करते थे ,यकीन ने हो तो अमिताभ  बच्चन जी से या अमरसिंह जी से ही  पूंछ लो !
                                                     श्रीराम तिवारी

                                               श्री नरेंद्र मोदी के नेतत्व में एनडीए बनाम भाजपा बनाम संघ परिवार बनाम भगवा मण्डली की अनवरत बढ़त के लिए कोई एक फेक्टर या कारक जिम्मेदार  नहीं है। बेशक कांग्रेस का कुशासन और उसकी जन -विरोधी नीतियाँ  एक सबसे बड़ा दृश्यमान कारण है। हो सकता है कि  मनमोहनसिंह  का 'मजबूर' नेतत्व भी कुछ हद तक जिम्मेदार  हो ! सम्भव है की विगत दो दशकों से चली आ रही नकारात्मक  गठबन्धनीय राजनैतिक परिस्थिति भी इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेदार  हो  !  यह भी संभव है कि वैश्विक    आतंकवाद  और पाकिस्तान की हरकतों से भारत  के बहुसंख्यक हिन्दू समाज का अभिमत 'संघ परिवार' की ओर झुक गया हो ! यह भी एक बहुत बड़ा  कारक हो सकता है कि  क्षेत्रीय दलों या  तीसरे मोर्चे के नेता एवं  दल  केवल आरक्षण , धर्मनिरपेक्षता  और हिंदुत्तव विरोध  के एजेंडे पर  एकजुट होते रहे हों। शायद वे  वेहतर वैकल्पिक  आर्थिकनीति  ,विदेशनीति  और  स्थायी सरकार प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे हों ! यह भी सम्भव है कि  देश के संगठित   मजदूर -किसान आंदोलन और वामपंथ के संघर्ष अपने आक्रोश को 'जनमत' में न बदल पाये हों।   यह भी सम्भव है कि कार्पोरेट लॉबियों  को  मोदी जी की तरह  सत्ता में अपेक्षित हिस्सेदारी का वादा  करने में  असफल  रहे हों!
                                                         विगत लोक सभा चुनाव से पूर्व भारत में जो मनघडंत राजनैतिक -सामाजिक और आर्थिक  अवधारणाएँ  प्रचलित थीं  उनमे से अधिकांस ध्वस्त हो चुकीं हैं।  जो कुछ बचीं हैं वे भी अपना बक्त आने पर ध्वस्त हो जायंगी। एक अवधारणा थी कि  बिना गठबंधन के कोई सरकार केंद्र में बन ही नहीं सकती।  अब  एक दलीय सरकार खुद के बलबूते पर भाजपा की  बन ही  गई  है तो गठबंधन सिद्धांत का  मर्सिया पढ़ने से  बेहतर है कि इस  'एक पार्टी शासन'  का  विकल्प शिद्द्त से  खड़ा किया जाए। ताकि वक्त आने पर आगामी लोक सभा चुनाव में आकर्षक ,टिकाऊ और  जन-कल्याणकारी  विकल्प जनता के सामने हो !
                                              प्रश्न किया जा सकता है कि  देश की जनता को एक गैर कांग्रेस और गैर भाजपाई  विकल्प की आवश्यकता क्यों है? जबाब प्रस्तुत है।  चूँकि  सोनिया -राहुल के नेतत्व में कांग्रेस रुपी काठ की हांड़ी की   केंद्रीय सत्ता के चूल्हे पर  चढ़ने की आइन्दा १० साल  तक कोई संभावना नहीं है।  वैसे भी देश की जनता बड़ी निर्मम है कि  कांग्रेस को ' विपक्ष ' की भूमिका के काबिल भी नहीं छोड़ा है। इधर   भाजपा  ने  भी  न केवल आर्थिक और विदेश संबंधी नीतियां ही कांग्रेस से चुराईं  हैं  बल्कि  उसने अपना हिन्दुत्ववादी एजेंडा भी केवल 'वोट वटोरने' तक ही सीमित रखा है।  इसीलिये तो मंदिर मुद्दा छोड़कर , धारा -३७० छोड़कर ,एक समान राष्ट्रीय क़ानून छोड़कर केवल 'ज्यादा बच्चे पैदा करने का एजेंडा ही अब  बाबाओं और स्वामियों के हाथ रह गया है।घर वापसी ,धर्मांतरण ,सम्पदायिक टुच्चई  ,लव -जिहाद इत्यादि में जो -जो  शामिल  हैं उन सभी के अच्छे दिन आने वाले हैं।  जनता के सवालों पर बात  करने वालों को 'शार्ली  हेब्दों' बना दिया जायेगा।
                            सत्ता लोलुपता के घटिया  महामोहान्धकार में  संघ परिवार और भाजपा का शीर्ष नेतत्व  बड़ी वेशर्मी से  कांग्रेस के [कृष्णा  तीरथ जैसे  ] भृष्ट दलबदलुओं  को ,'आप' के[इल्मी-बिन्नी जैसे] गद्दारों को ,अण्णा  आंदोलन के विश्वाशघातियों [किरण बेदी जैसे ]  को  भाजपा  में पलक  पांवड़े बिछाकर  स्वागत कर रहा है ।  जो लोकतंत्र ,धर्मनिरपेक्ष्यता समाजवाद के शत्रु है उन्हें महिमा मंडित किया जा रहा है। न केवल अम्बानियों -अडानियों को बल्कि फ़िल्मी धंधेबाजों को भी उपकृत किया जा रहा है।-कहाँ तक नाम गिनवायें ? जिन्हें अब न केवल मोदी जी बल्कि भाजपा भी अच्छी लगने लगी है।   जिनको कल तक सोनिया जी देवी और राहुल जी 'प्रिंस आफ वेल्स' दीखते थे उनको वे नीम और करेले से भी कड़वे हो गए हैं।   इन सनातन चाटुकारों और  सत्ता लोलुपों को  अचानक भाजपा और मोदी 'कितने अच्छे लगने लगे ' हैं ? ये बात  जुदा  है कि  भाजपा १९८० से है। मोदी  जी  को भी इस धरती पर आये हुए ६४ साल हो चुके हैं।  जब मोदी जी चाय बेचा करते थे तब ये इल्मी-फ़िल्मी सितारे  मोदी को  तो  नहीं पहिचानते होंगे !  भाजपा  का और उससे पूर्व जनसंघ का तो नाम लेना भी गुनाह हुआ करता था ! अब  ये दल  बदलू और आश्था  बदलू लोग आज  जितना प्यार -दुलार अभी भाजपा पर  उड़ेल रहे हैं।यदि   अतीत में [२००४ में] १० साल पहले  ही यह प्यार और  आस्था -भाजपा पर उड़ेल देते  तो बेचारे आडवाणी जी आज 'पी एम वेटिंग' होकर ही  योँ  रुस्वा नहीं हुए  होते। जो    - जो  ! नामचिन्ह  दल बदलू नेहरू गांधी परिवार की जूँठन खाकर गौरवान्वित हुआ करते थे।  वे यदि सभी के सभी भाजपा में आ जाएँ तो कांग्रेस फिर से जिन्दा हो जाएगी।  लेकिन   तब कांग्रेस का नाम 'भाजपा' ही होगा  ! सांपनाथ वनाम नागनाथ  का सिद्धांत पेश करने वाले की मेधा शक्ति का लोहा मानना पडेगा।
                अंततोगत्वा ! एतद द्वारा  घोषित किया जाता है  कि  यदि आपने रेप किया है ,आपने नौ  सौ चूहे खाए हैं ! आपने  मोदी जी को उनके गुजरात वाले घटनाक्रम पर पानी पी पी कर  कोसा है ! यदि आपने भाजपा -कांग्रेस दोनों को 'चोर-चोर मौसेरे भाई कहा है !   यदि आपका कालाधन स्विस बैंकों में जमा है ! यदि जमाखोरी -कालाबजारी  में आकंठ डूबे हुए हैं ! यदि आप पर देश द्रोह का भी आरोप है ! यदि आप भारत छोड़ अमेरिका इंग्लैंड में इसलिए भागे थे कि  आप पर गंभीर किस्म के आपराधिक मुक़ददमें दर्ज थे ! यदि आपको दलाली ,रिश्वतखोरी , मुनाफाखोरी  और साम्प्रदायिकता से लगाव है यदि आप अपने संगी साथियों के  रुतवे  से ईर्ष्या  रखते हैं तो आप को एक अदद फार्म भरकर भाजपा कार्यालय को देना है । यदि आप इतना भी नहीं कर सकते तो उनको एक 'मिस काल' कर दीजिये -आपके सारे गुनाह फौरन माफ़ कर दिए जायंगे। न केवल आप भाजपा के सदस्य बना लिए जाएंगे बल्कि  आपको मीडिया में इतना कवरेज  मिलेगा कि ''टाट में विराजमान राम लला'' भी शरमा  जाएंगे। आपके  लोक और परलोक दोनों  सुधर जावेंगे।  आपको १०  बच्चे पैदा करने का अवसर भी दिया जावेगा।आप कानून से परे  हो जाएंगे।
                           वेशक आज का दिन  बड़ा महान है। आज जो भी  भाजपा ज्वाइन कर लेगा उसको  'सद्गति' प्राप्त होने में  कोई संदेह नहीं । उसके अच्छे दिनों की गारंटी  भी मुफ्त ही मिल जाएगी  ! यदि आप अछूत हैं , अल्पसंख्यक हैं तो  हिन्दुत्तवादी भी  आप से  रोटी-बेटी का व्यवहार करने लगेंगे ।  मैं तो कहता हूँ कि सुरेश कलमाड़ी ,पवन वंसल ,ए   राजा ,दयानिधि मारन या  जगदीश टाइटलर चाहैं  तो भाजपा के दरवाजे खुले हैं। रावर्ट वाड्रा ,राहुल गांधी ,प्रियंका वाड्रा को भी भाजपा में अच्छी  हैसियत मिलने की संभावनाएं हैं।  लखवी ,हाफिज सईद ,दाऊद भी यदि भाजपा ज्वाइन कर  लें तो यों पाकिस्तान में  छिप-छिपकर जिंदगी नहीं गुजारनी पड़ेगी।  सत्ता की लालसा  में भाजपा का यह सिद्धांत और   दॄष्टिकोण  बहुत  ही  रोचक है कि उसकी नजर में   'कांग्रेस  ,आप या कोई भी भृष्ट पार्टी हो  उससे तो देश को मुक्त करना है किन्तु दल  बदलू  कृष्णा   तीरथ हो ,या 'आप '  के इल्मी-बिन्नी हों   भाजपा की गटर  गॅंग  में  सबके सब परम पवित्र और  ईमानदार हैं '!  तभी तो  जगदम्बिका पाल से लेकर कृष्णा  तीरथ तक सभी उसे 'पाक-साफ़' लगते हैं।  इस तरह से कांग्रेस मुक्त भारत का स्वप्न  पूरा होने में संदेह है। भले ही कांग्रेस सत्ता में  न हो किन्तु परोक्षतः  दल  बदलू  कांग्रेसी लोग  जब  भाजपा में आकर देश पर शासन  करेंगे तो  भाजपा अपने आपको 'पार्टी विथ डिफ़रेंस' किस मुँह  से कह  सकती है ?'भाजपा का चाल -चेहरा और चरित्र ' कांग्रेस   जैसा क्यों नहीं होगा ?
                                                    श्रीराम तिवारी

शुक्रवार, 16 जनवरी 2015


             

               नए-नए नेता  दिखा रहे ,अवसरवाद विशुद्ध।

              अण्णा  नौटंकी करी , भृष्टाचार  विरुद्ध।।

              भृष्टाचार विरुद्ध , लोकपाल  पारित  हुआ।

              किरण -केजरीवाल , अंतर्द्व्न्द जाहिर  हुआ।।

              दिल्ली राज्य चुनाव,   करता काला पन्ना।
 
              नौटंकी से क्रांतियाँ ,  होतीं नहीं  हैं अण्णा।।

                                    श्रीराम तिवारी

     

     

       

     
       

          

गुरुवार, 15 जनवरी 2015

जनरल साब ! ये प्राक्सी वार नहीं खुल्ल्म खुल्ला जंग का ऐलान है !

वर्तमान  भारतीय सेना प्रमुख  जनरल दलवीरसिंह  सुहाग का कहना कि ' भारत ने  भारी कीमत  चुकाई है तब कहीं जाकर कश्मीर में आंशिक शांति आई है ' उनका यह भी कहना है कि  'पाकिस्तान अभी भी कश्मीर में छद्म युद्ध[प्राक्सी वार] लड़ रहा है ' जनरल सुहाग ने जो कुछ कहा वह  अर्ध सत्य है। जबकि भारत के दुश्मनों को पूर्ण सत्य मालूम है।  हो सकता है कि  भारत सरकार ,भारतीय सेना ,भारतीय मीडिया और भारतीय राजनैतिक दलों को पूर्ण सत्य  की जानकारी हो। किन्तु यह भी एक कटु सत्य है कि भारत की कमजोरियाँ  ,भारत के  दुश्मनों को ज़रा ज्यादा  ही मालूम हैं। उन्हें तो यह भी मालूम था  कि मुंबई पर २६/११ हमले  में शामिल 'कसाव जैसे कसाइयों' को मय हथियारों के कराची से ताज होटल तक या  शिवाजी टर्मिनल तक पहुँचने  में  कोई बाधा नहीं आएगी। क्योंकि  भारत में हर जगह का रेट  फिक्स है। हमलावर आतंकियों ने मात्र  सौ -दो सौ रूपये  रिश्वत देकर   भारत की धरती लहू लुहान कर डाली।  सीमाओं पर रात के अँधेरे में शीश  काट कर ले गए। हमारे जांवाज फौजी  सीमाओं पर  शहीद हो रहे हैं ,आतंक से लड़ने में पुलिस के जवान   शहीद हो रहे हैं ,उसमें रिश्वतखोरों और गद्दारों का  कितना हाथ है  ?  क्या यह यदि देश की जनता को मालूम है  ? यदि हाँ तो विप्लव क्यों नहीं होता। इतना सन्नाटा क्यों है ?  केवल ढपोरशंख ही क्यों बज रहे हैं ?  कोई  जनरल कहता है कि  मुझे ये मालूम है , कोई मंत्री कहता है कि मुझे वो मालूम है। यदि सबको सब  मालूम है तो कुछ करते क्यों नहीं ?  कौन किसी को कुछ करने से रोक रहा है ?  
                            वेशक भारत की  अधिसंख्य अपढ़ -अशिक्षित जनता  को  ही नहीं बल्कि  मजहबी उन्माद -धार्मिक  अंधश्रद्धा ,  साम्प्रदायिकता और जातीयता के 'डोबरों ' में  गोते  लगाने वालों को भारत सुरक्षा  विषयक विमर्श से कोई लेना देना नहीं है।किसी को चार  बच्चे पैदा करने की फ़िक्र है ,किसी को मस्जिद की फ़िक्र है ,किसी को मंदिर की फ़िक्र है ,किसी को सत्ता में बने रहने की फ़िक्र है ,किसी को सत्ता  पाने की फ़िक्र है तो   किसी को अपना आर्थिक  साम्राज्य सुरक्षित करने की फ़िक्र है।  किसी को एफडीआई की फ़िक्र है।  किसी को शारदा चिट फंड की फ़िक्र है ,किसी को अपना जनता परिवार बढ़ाने की फ़िक्र है।  किसी को अमेरिका को साधने की फ़िक्र है , किसी को लव-जेहाद की फ़िक्र है।  किसी को जल-जंगल -जमीन  हड़पने की फ़िक्र है।  वेशक कुछ मुठ्ठी भर  ही होंगे जिन्हे मेहनतकश आवाम के हितों की ,किसानों की और देश  के स्रवहारा वर्ग  को शोषण मुक्त कराने की फ़िक्र के  साथ-साथ अपने देश की  हिफाजत की भी फ़िक्र होगी।  इनमें कुछ ऐंसे भी  होंगे जिन्हे विश्व सर्वहारा याने दुनिया के गरीबों की भी फ़िक्र होगी। इन मुठ्ठी भर चेतनशील लोगों की राजनीति  की एरिना में फिलहाल तो स्थिति अनुकूल नहीं है। किन्तु जो  अतीत के नास्ट्रेलजिया में अभिभूत हैं ,जिन्होंने  सांस्कृतिक  राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय स्वाभिमान के नाम पर सत्ता हथयाई  है वे 'शुक 'मौनक्यों हैं ?  

    गोस्वामी तुलसीदास जी का कथन है -
                                                               इमि  कुपंथ पग देत  खगेशा ।  रहे न तेज तनु  बुधि  बल लेशा।।

इसका भावार्थ यह है कि  जब कोई व्यक्ति ,समाज या राष्ट्र गलत राह पर चलता है तो उसकी साँसे उखड़ने लगतीं हैं।  बदहवासी में वह हिंसक और अमानवीय हो जाता है। 'विनाशकाले विपरीत बुद्धि ' के भी  यही लक्षण हैं।  मेरा अनुभव है कि  इस उत्तरआधुनिकता के  दौर में  भी गोस्वामी जी की यह  सूक्ति काम  कर रही है। 'हाथ कंगन को आरसी क्या '  आप भी मुलाहिजा फरमाएँ।
                       चूँकि  भारत  जैसे  बहुलतावादी धर्मनिरपेक्ष लोकतान्त्रिक  राष्ट्र  में मानव उत्थान की  अनेकों संभावनाएं छिपी हुईं हैं।यहां अनेक मानवीय मूल्य सुरक्षित हैं। इसलिए भारत का  शुद्ध साम्प्रदायिक पड़ोसी  , मानसिक  रूप से बीमार और झगड़ालू पड़ोसी  पाकिस्तान सदैव इस तुकतान  में लगा रहता है  कि  भारत को बर्बाद कैसे किया जाए ? भारत को प्राक्सी युद्ध की चपेट में कैसे व्यस्त रखा जाए ? पाकिस्तान में छुपे भारतीय भगोड़े अपराधी -  दाऊद, पाकिस्तान की आस्तीन में पल रहे -हाफिज सईद और लखवी जैसे  २६/११ के प्रमाणित अपराधी 'अल्लाह के वन्दे'  कैसे हो सकते हैं ? क्या वास्तव में ये इस्लाम की सेवा  करते हैं ।  दरसल ये मानवता के दुश्मन हैं।  ये  इस्लाम  के नाम पर कलंक हैं। ये  तो इस्लाम का ककहरा भी नहीं जानते।ये नाशुक्रे अहमक पाकिस्तानी आतंकी तो जेहाद के नाम  का डंका पीटने वाले - अलकायदा  ,आईएसआई या बोको हराम से भी गए बीते हैं।
               ये  जेहादी नहीं  बल्कि विशुद्ध  अपराधी हैं। ये  अफ़ीमचियों, ड्रग स्मगलरों ,हथियारों के सौदागरों  की दलाली  किया करते हैं। ये  तो किसी दकियानूसी   समाज की तलछट से भी गए गुजरे  हैं। ये भारत की नकली मुद्रा पाकिस्तान में   छापकर बांग्ला देश ,म्यांमार नेपाल या हांगकांग के रास्ते  भारत में खपाते हैं। इनके भारतीय एजेंट भी  अधिकांस बिहार ,असम और बंगाल में ही पकडे जा रहे हैं।  चूँकि भारत में शोषण उत्पीड़न और असमानता का बोलबाला है। चूँकि भारत में  गरीबी -बेकारी -भुखमरी  बरक़रार है इसलिये विभीषण ,जयचंद,मीरजाफर बनने को सैकड़ों तैयार हैं।
                                         जनरल दलवीरसिंह सुहाग को यह भी  मालूम होना चाहिए की महज कश्मीर ही हमारा सिरदर्द नहीं है।  उन्हें और उनके जैसे जनरलों को यह भी जानना चाहिए कि हमें यह क्यों  सुनना  पड़  रहा  है कि हम २०३० तक या २०५० तक चीन के बराबर होंगे या आगे होंगे ? हमें कितना मालूम है कि  चीन की पॉलिसी और प्रोग्राम क्या हैं? चीन जैसा वैचारिक राष्ट्रवाद भले ही  न सही  लेकिन  ईरान या इजरायल  जैसा या क्यूबा -वियतनाम जैसी न्यूनतम  राष्ट्रीय  चेतना तो भारत के नागरिकों में अवश्य ही होनी चाहिए।
    केवल हाथ में झाड़ू लेकर फोटो खिचाने से यह महानतम मकसद पूरा नहीं हो सकता। शासक यदि झूंठे और ढ़पोरशंखी हैं तो आवाम से क्या उम्मीद की जा सकती है ?साम्प्रदायिक और जातीयता के दुराग्रह यदि सत्ता की सीढ़ी  बन जाएंगे तो लोकतान्त्रिक -धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद कहाँ से आएगा ? इन हालात में प्राक्सी वार या छद्मयुद्ध तो क्या  आमने-सामने का युद्ध भी हम ठीक से लड़ पाएंगे।
                                                             जब तक हम वर्तमान नीतियां नहीं पलटते तब तक  भारत का अपने अनचाहे  शत्रुओं  के हमलों  से निपटना मुश्किल है।  हमें जानना होगा कि छोटा  सा अकेला   क्यूबा  ५०  साल से लगातार  अपनी  सुरक्षा कैसे कर रहा है ?  हमें जानना चाहिए कि अमेरिका और नाटो  देशों ने क्या -क्या नहीं किया क्यूबा के साथ ?  ह्में यह भी जानना होगा कि  कैसे एक जीवंत क्यूबा  आज  भी सीना  तानकर अमेरिका की नाक के सामने  खड़ा है। जिन्हे मालूम है कि अतीत में  वियतनाम को अमेरिका ने  तो लगभग  ध्वस्त ही कर  डाला था।  वे यह भी जानते होंगे कि  वियतनाम  की जनता ने  कैसे जंग जीती  और अमेरिका  को छठी  का दूध भी नसीब नहीं हुआ। शर्मनाक अवस्था में  हारकर भाग खड़ा  होना पड़ा। पाकिस्तान का छद्मयुद्ध सिर्फ  कश्मीर तक ही सीमित नहीं है। वह भारत से लेकर बग़दाद तक और बीजिंग से लकेर वाशिंगटन तक  छद्म रूप से व्याप्त है। भारत कब इतना  सामर्थ्यवान  होगा कि उसका  कोई दुश्मन ही न रहे. कोई  बुरी नजर से  ही न देखे ?
                       पाकिस्तान की आईएसआई के निर्देश पर ये आतंकी गिरोह  भारतीय  अर्थ व्यवस्था को बर्बाद करने के मंसूबे साध रहे हैं।  ये बदमाश न केवल  हवाला  कारोवारियों  बल्कि बालीबुड में छिपे  देशद्रोहियों  के मार्फ़त कालेधन को सफ़ेद करने में जुटे हुए  हैं।  क्या वजह  कि  खान्स  की ही  'पीके' जैसी फ़िल्में पाकिस्तान में बॉक्स आफिस पर सुपर हिट  हो रहीं हैं ? क्या वजह है  कि पाकिस्तान  के सैन्य प्रतिष्ठानों को भारतीय गुप्त सूचनाएँ  सहज ही उपलब्ध हैं ? कटट्रपंथियों को हथियार सप्लाई करने और  कश्मीर में  पाक प्रशिक्षित बर्बर  आतंकियों की घुसपैठ कराने  वालों  की  साजिशों के बारे में भारतीय ख़ुफ़िया तंत्र कितना जानता है ?  खबर हैं कि  विगत दिनों अरब सागर में जो  पाकिस्तानी आतंकी फिदायीन  नौकाओं का   भारत की सीमा में अवैध  प्रवेश हुआ उसकी  जानकारी भी  हमें अमेरिकी एजेंसियों ने ही दी  है।  तो हमारे 'रॉ ' हमारे गुप्तचर व्यूरो  क्या घास छील रहे हैं। हमारे कर्णधार  केवल हाथों में झाड़ू लेकर फोटो खिचाने में मशगूल हैं , उधर 'नापाक'  तत्वों के मंसूबे परवान चढ़ रहे हैं। भारत में  निरंतर नर संहार के निमित्त , सैकड़ों फिदायीन  लगातार भेजे जा रहे हैं। जनरल साब ! हुजूर ये  प्राक्सी वार नहीं खुल्ल्म खुल्ला जंग का ऐलान है।
                       देशभक्ति ,जनसेवा  ,सचरित्रता  कर्तब्य और अनुशासन का पाठ केवल चुनावी  नारों  या संगोष्ठियों तक ही सीमित क्यों है ?  केवल गणतंत्र दिवस या स्वाधीनता दिवस पर ही हमें अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान की याद क्यों आ जाती है ? यदि पाकिस्तान को गैर इस्लामिक देश चीन मीठा लगता है तो भारत में क्या कमी है ? कहीं ऐंसा तो नहीं कि  हमें भी चीन जैसी महान क्रांति की दरकार हो ?  जब दुनिया के सर्वाधिक   मुस्लिम भारत में  रहते हैं तो  क्या  वजह    है  कि  भारत को  पाकिस्तान के मजहबी संकीर्णतावाद  के नापाक  हथियार  से जूझना पड़  रहा है ? चीन ,अमेरिका और पाकिस्तान क्यों   हमें वेवजह लगातार युद्ध की आग में उलझाये रखना  चाहते हैं ?
                                                       
                                                          श्रीराम तिवारी