सोमवार, 29 सितंबर 2014

अब तो केवल विश्व नेता बनने की तमन्ना ही मोदी जी के दिल में है।

    न्यूयार्क में  संयुक्त राष्ट्र महा सभा  को  सम्बोधित करते  हुए  भारतीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी से जो  हिमालयी चुकें हुई हैं -उनकी भरपाई उन्होंने 'मेडिसन इस्कवॉयर ' के अपने अगले - सम्बोधन में दुरुस्त करने की पुरजोर कोशिश  की है।लेकिन  मेडिसन स्क्वॉयर  के सम्बोधन में उनसे  जो गंभीर  भूल-चूक हुई  है उसे वे   कहाँ -कब दुरस्त करेंगे ? यदि अपनी -ओबामा मुलाकत में भी कुछ खास करते तो उनकी अमेरिका  यह यात्रा  किंचित  ऐतिहासिक रूप से सार्थक  होती।

         वैसे तो कोई भी वतन परस्त नहीं चाहेगा कि  उसके देश की या  प्रधानमंत्री की खिल्ली उड़े। कोई भी देश भक्त  नहीं चाहेगा कि  उसके देश को दुनिया में रुसवा  होना पड़े।  किन्तु  हतभाग्य !मोदी जी ने तो  अपने देश की कमजोरियाँ का - निर्धनता का-  गंदगी का ढिंढोरा - शुद्ध हिंदी में वहां जमकर परोसा। जब देश का प्रधान- मंत्री ही  सारे संसार के सामने बार-बार अपनी दयनीयता का डंका पीट रहा हो और उनके अंध समर्थक भी   तालियाँ  पीट रहे हों तो जग हँसाई  को  कौन रोक सकता है ? नितांत अनभव- हीनता या  अज्ञानतावश- मोदी जी ने  अमेरिका यात्रा के दौरान अति उत्साह में  अपने ही  देश की जमकर  बारह बजाई  है। मानो उन्होंने   आत्मघाती गोल ही  कर डाला हो ! उन पर कम-से -कम   निम्नांकित  पांच गंभीर आरोप  लगना  तो  स्वाभाविक है।

 आरोप -एक; - भारत को - उसकी गंगा को,उसकी अन्य  नदियों को  और उसके सम्पूर्ण विस्तार को - गंदगी  में आकंठ डूबा मक्कारों से  भरा   हुआ  देश  बताकर अच्छा नहीं किया  मोदी जी ने । जिसके निमित्त वे अमेरिकी प्रवासियों और निवेशकों का- भारत की सफाई  के लिए आह्वान करते हैं। उसके लिए यदि जापान,चीन या किसी भी अन्य मुल्क का राष्ट्राध्यक्ष होता तो कदापि यह नहीं करता । मोदी के दींन  बचन सुनकर- स्वामी विवेकानद  की आत्मा  भी न्यूयार्क में नहीं तो स्वर्ग में जरूर  सोचती  होगी कि  मैंने ऐसा तो नहीं कहा था ! स्वामीजी कहते होंगे कि बच्चा  -क्यों अपने वतन की 'जांघ उघार रहा है '? क्यों दुनिया  में ढिंढोरा पीट रहा है कि  हमसे [भारतीयों से ] तो कुछ  होता-जाता नहीं - अब आप ही आ जाइए और संभालिये मेरे उस  मुल्क को  जिसे पहले भी आप विलायतियों  के पूर्वजों ने सदियों तक  गुलाम बनाकर लूटा है !

आरोप -दो ;-  मेडिसन स्क्वायर में मोदी जी बार -बार दुहरा रहे थे कि  'गांधी जी ने हमे आजादी दिलाई हमने गांधी जी को क्या दिया ? उन्होंने  खुद ही पूंछा -कभी स्वर्ग में मुलाकात  होगी तो क्या जबाब  दोगे ? गांधी जी तो सफाई पसंद थे -खुद झाड़ू लगाते थे। हमने भारत को कितना गंदा कर दिया ?"  गांधी जी को हमने क्या दिया ? इसका जबाब तो मोदी जी के आराध्य प्रातःस्मरणीय नाथूराम गोडसे ही दे  सकते हैं !  वेशक भारत में गंदगी है ! गंगा -जमुना ,गोदावरी इत्यादि सभी नदियां दूषित हो चुकीं हैं।जल-जंगल -जमीन सब पर ताकतवर लोगों का कब्ज़ा है। इसलिए गंदगी के लिए जिम्मेदार भी वे ही हैं। उस से भी ज्यादा  गंदगी  सत्ता के गलियारों में भी  है ,ठेकेदारों के नजरानों में है  ,र्रिश्वत  के ठिकानों में है और बाजारीकरण के बियावानों में खदबदा रही है।  आप इसे ही तो बढ़ावा दे रहे हैं  न मोदी जी !  सर्वाधिक सड़ांध  तो  जब -तब सत्ता में रहे -कांग्रेस -भाजपा जैसे पूँजीवादी  राजनैतिक दलों में  ही  व्याप्त हो रही  है न!  इसमें अमेरिका या वहाँ के प्रवासी  भारतीय आपकी क्या मदद कर सकते हैं ?

आरोप -तीन ;-मोदी जी ने अपने भाषण  के रौ में बहकर यह जता  दिया  है कि  वे क़ानून का राज कतई  पसंद नहीं करते ! उन्ही के शब्दों में "मेरे से पहले वाले नेता - सरकारें चुनाव के दरम्यान  केवल क़ानून बंनाने की दुहाई दिया करते थे  मैं तो  कानून खत्म करने में विश्वाश रखता हूँ। एक एक्पर्ट कमिटी बनाई है जो रोज  क़ानून खत्म करने की सिफारिश करती है। और  मैं- [मोदी जी] धड़ाधड़  क़ानून खत्म करने में  जुटा हूँ "  वाह क्या अदा है ? क्या यह  फासिज्म  के तेवर नहीं हैं ? वेशक इन अल्फाजों पर दो  राय हो सकती है। किन्तु एक बात तो स्पष्ट है कि  सारे क़ानून जो भी भारतीय संविधान में निहित हैं वे या तो संविधान सभा द्वारा आहूत हैं ,या डॉ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर द्वारा सम्पादित हैं ,या फिर भारतीय संसद  के  मार्फ़त अपने ६७ साल के कार्यकाल में पारित  किये  गए हैं. यह एक लोकतांत्रिक परम्परा और राजनैतिक विकाश का अनवरत सिलसिला है।   कुछ शानदार  क़ानून तो देश की जनता ने ,मजदूरों-किसानों ने  अपने हितों की रक्षा के लिए  - अनवरत संघर्ष  और बलिदान की कीमत पर -  पारित कराये हैं।यह बहुत कष्टदायक है कि  विदेशी धरती पर   भारतीय प्रधानमंत्री श्री  मोदी जी ने अनजाने में  सही भारतीय संसद का बार - बार अपमान किया है। संसद  के  द्वारा पारित कानूनों को पुराना या  बकवास  बताना क्या साबित करता है ? क्या यह भारतीय आवाम का अपमान नहीं है ? क्या यह एकचालुकानुवर्तित्त्व वाला आचरण नहीं है ?

आरोप-चार ;- मोदी जी का आह्वान है कि "दुनिया के  सेठ साहूकारों सुनों ! अप्रवासी भारतीयों सुनों -भारत में लेबर सस्ता ,जमीन सस्ती ,खदाने सस्तीं ,क़ानून सस्ता, खून सस्ता ! सब कुछ सस्ता है  ! आइये - एफडीआई  कीजिये  ! हमने लाल कालीन बिछा रखी  है। आप तशरीफ़  लाइए  ! विकाश  कीजिये ! [किसका  विकाश ?]आइये  -आपके पूर्वज भी  पहले आये थे।बहुत कुछ लूटकर ले गए ! आप भी कुछ तो लीजिये !

आरोप -पांच ;- मोदी जी ने अमेरिका में फरमाया कि  जितना खर्च अहमदाबाद में एक ऑटो सवारी वाला महज  एक  किलोमीटर  के लिए  खर्च करता है -याने [१० रूपये] लगभग ।  उतने  से कम खर्च  में याने ७ रूपये  प्रति  किलोमीटर से - भारत ने बहुत  ही कम खर्च में- 'मार्श आर्बिटर यान ' को  मंगल की कक्षा में स्थापित कर दिखाया है। मोदी जी के अनुसार हम भारतीय  कितने  मितव्ययी और अक्लमंद हैं ?सम्भव है कि  यही सच हो !सवाल यह है कि  इस  मितव्ययता  के वावजूद देश को घाटे का बजट क्यों बनाना पड़  रहा है ?   क्या यह  सफल 'मंगल अभियान ' मोदीजी की देंन  है ? क्या इसरो को जो विगत ४० सालों में सीमित बजट आवंटित  होता रहा है  -  इसमें  मोदी जी का भी कुछ  योगदान  है ?  मोदीजी  जिनको  रात दिन कोसते रहते हैं  उन नेहरूजी , इंदिराजी , राजीव जी  ,मनमोहनसिंह जी या उन्ही के परम आदर्श -अटलजी का कोई योगदान नहीं है क्या ? अपने पूर्ववर्तियों का अवदान या उनकी नीति को  अपनी जुबान पर  क्यों नहीं लाना चाहते  मोदी जी ? यदि इतनी उदारता और दिखा देते तो क्या घट जाता ? जिनकी नेतत्व क्षमता से भारत  ने- न केवल हरित क्रांति, न केवल श्वेत क्रांति बल्कि संचार क्रांति के  भी विश्व कीर्तिमान बना  डाले -उन महान नीति निर्माताओं -मंत्रियों ,नेताओं, वैज्ञानिकों और अमूल्य तकनीकी देने वाले देशी - विदेशी -मित्रों के नाम भी मोदी जी की जुबाँ  पर नहीं आये। क्या यह राष्ट्रीय कृतघ्नता नहीं है ? एलीट क्लाश के जो  लोग ,मेडिसन स्क्वायर पर 'मोदी-मोदी'कर रहे थे , क्या वे जानते हैं कि इसरो की स्थापना,संचार उपग्रह  या  मंगल मिशन की शुरुआत और सफलता के पीछे   किस -किस के सपनों का सफर है ?

जब सत्यजित रे की फिल्मे दुनिया को भारत की केवल दुर्दशा ही  दिखातीं हैं ,जब 'स्लिम डॉग मिलयेनर' जैसी फिल्मे दुनिया में भारत  की बदतर तस्वीर  दिखातीं  हैं ,जब अरुंधति राय , प्रभा खेतान  पी साईराम या कोई प्रगतिशील लेखक -भारतीय समाज को उधेड़ता  हैं ,जब वामपंथी आंदोलन देश में मेहनतकशों की -किसानों की - नारकीय जिंदगी पर संघर्ष का ऐलान करता है ,तो भारत का   सारा मध्य-दक्षिणपंथी मीडिया और राजनीतिक समूह आरोप लगाने लगता है कि  देश को नाहक  ही  बढ़ा -चढ़ाकर बदनाम किया जा  है।  इतनी बुरी हालत तो नहीं है देश की ? अब यही काम जब मोदी जी  बहुत शिद्द्त से कर रहे हैं तो सबकी बोलती क्यों बंद है ?
      मोदीजी की  जापान ,चीन,अमेरिका से हुई तमाम वार्ताओं और बक्तब्यों का  सार  यही है कि भारत के    अभी तक के सारे नेता और प्रधानमंत्री तो  निठल्ले थे।  मूर्ख और निकम्मे थे ! पूर्वर्ती प्रधानमंत्रियों ने भारत को  बर्बाद कर दिया । जिसे मोदी जी ठीक करना चाहते हैं ! क्या  मेंहगाई ,आतंकवाद ,पाकिस्तान से कश्मीर पर वैमनस्य  ,चीन से सीमा विवाद  इत्यादि के  लिए  उन्हें देशी-विदेशी पूँजीपतियों के सहयोग की दरकार है ? फिर तो उनका कथन  सही है जो कहते हैं  कि  मोदी एक-  चुनौतियाँ अनेक ! क्या यह अवतारवाद की मानसिकता नहीं है ? क्या फ्यूहरर  ऐंसे ही  निर्मित नहीं  होते ?

                        राजनीति  के अद्ध्येताओं के एक  खास वर्ग  को भी  भरम होने लगा है कि शायद  नरेंद्र  भाई मोदी  भी जाने-अनजाने   नेहरूवाद की ओर  ही अग्रसर हो रहे हैं। दूसरा वर्ग है  जो  मोदी जी के उत्साह और सक्रियता में पूर्ववर्ती सभी प्रधानमंत्रियों से बेहतरी की उम्मीद रखता है। हालाँकि हर जिम्मेदार भारतीय चाहता है कि  भारत में सुशासन आये,विकाश हो और विश्व के सभी राष्ट्रों से सौहाद्रपूर्ण संबंध हों ! यह काम कांग्रेस तो  निश्चय ही नहीं कर पाई अब यदि भाजपा की मोदी सरकार यह महानतम कार्य  करती है, तो खुशामदीद !इंदिरा जी ने यदि पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए या खालिस्तान आंदोलन को अपनी शाहदत देकर ठंडा किया तो यह मोदी जी  की नजर में  कोई  सम्मान  या गर्व की बात नहीं ! चुनाव में तो सुशासन,विकाश ,विदेशी धन का खूब बखान हुआ अब उसकी चर्चा से भी तोबा  क्यों ?अब तो केवल विश्व नेता बनने की तमन्ना ही मोदी जी के  दिल में है।

          लेकिन जिस रास्ते पर मोदी जी चल रहे हैं, वो केवल यश कामना से प्रेरित 'अधिनायकवाद की ओर  ही जा सकता है।  वैदेशिक मामलों में  भले ही वे  नेहरूवादी  जैसे  ही हो ,किन्तु आर्थिक मामलों वे रीगन वादी या थैचरवादी  जैसे होने को उतावले हो रहे हैं। वे भूल रहे हैं कि  अमरीका का उत्खनन एवं कृषि इतिहास केवल ५०० साल पुराना है जबकि भारत का यही इतिहास १० हजार साल  पुराना है। ब्रिटेन ने  भारत समेत सारी  दुनिया  पर  राज किया है जबकि भारत ने केवल हजारों साल की गुलामी ही भुगती है। इसलिए मोदी न तो रीगन हो सकते हैं न थेचर। इसी तरह भारत न तो अमेरिका हो सकता है और ने इंग्लैंड। शायद  इंदिराजी यह जान चुकी थीं। इसलिए उन्होंने अपनी एक  अमेरिकी यात्रा  के दौरान  कहा था कि "  हम न तो दक्षिण पंथी हैं और न वामपंथी  ,हम तो  सीधे खड़े  होना चाहते  हैं  अपने बलबूते पर "व्यवहार में उन्होंने जहां देश में निजी क्षेत्र को पनपने का पर्याप्त अवसर दिया वहीं देश के सार्वजनिक उपक्रमों को भी पर्याप्त तरर्जीह दी। उनके उत्तराधिकारियों -नरसिम्हाराव ,मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का अनुसरण कर देश में निवेश और  विकाश के नाम पर  असमानता  की खाईंयां उतपन्न  करने का जो इंतजाम किया था -मोदीजी उसी डरावनी नीतियों को तेजी से अमली जामा  पहना  रहे हैं। वे श्रम  कानूनों  को मालिकों का पक्षधर बना  रहे है मोदी सरकार  ने अपने चार   माह के प्रारंभिक कार्यकाल में एक भी ऐंसा काम  नहीं किया जो गरीबों,मजूरों या आत्महत्या की नौबत झेलने वाले निर्धनतम   किसानों  को  जीने की कोई आशा  नजर आई हो !
                   एक तरफ  देश के करोड़ों अभावग्रस्त वतनपरस्तों की बदहाली है , और दूसरी ओर  सम्पन्नता के हिमालयी टापू हैं।  इनके बीच जो खाई है उसे पाटने की कोई  नीति तो क्या उस संदर्भ में मोदी सरकार या 'नमो' के पास एक अल्फाज भी नहीं है। इस संदर्भ में वे  अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्री डॉ मनमोहनसिंग से भी गए गुजरे हैं। मनमोहनसिंह ने  वामपंथ के दवाव में ही सही मनरेगा ,खाद्य सुरक्षा और आरटीआई क़ानून  जैसे लोकहितकारी कुछ काम तो अवश्य ही किये हैं। उनकी 'आधार'  योजना चल ही रही थी की सत्ता का पाटिया उलाल हो गया और अब 'सब कुछ बदल डालूँगा 'की तर्ज पर योजना आयोग ,ज्ञान आयोग ,श्रम  कानून और नंदन  नीलेकणि का ' आधार' वगेरह सब कूड़े दान में समाते जा रहे हैं। लगता है केवल वैश्विक ख्याति की कामना से प्रेरित होकर ही मोदी जी हर कदम बढ़ा रहे हैं।आनन फानन -भूटान,नेपाल,जापान,की यात्राओं के बाद शी -जिन-पिंग  से पयार की पेगें  और अब अमेरिका  से यारी- यह सब केवल अपने आपको अंतर राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करवाने की जद्दोजहद है।  लेकिन उन्हें यह याद रखना होगा की  ये इश्क नहीं आसान इतना तो समझ लीजे  -मोदी जी !

    भारतीय  दार्शनिक परम्परा में ईषना का सर्वत्र निषेध है।  मनुष्य को अपने लोकोत्तर निर्वाण पद की  प्राप्ति  में -वित्तैषणा ,कामेषणा और यशेषणा को  सबसे बड़ी बाधाएं माना  गया है। न केवल योगियों बल्कि राजर्षियों और बेहतरीन शासकों को भी इन  अपमूल्यों से बचने की सलाह दी गई है।  दुनिया में - व्यक्तिगत जीवन में लाखों -करोड़ों  श्रेष्ठतम मनुष्य होंगे जो "प्रभुता पाहि काहि  मद नाहीं "  के अपवाद होंगे ,लेकिन  दुर्भाग्य से  सार्वजनिक जीवन में जहां  इन मूल्यों की अत्यंत शख्त आवश्यक्यता है वहां यशेषणा सर चढ़कर बोलने लगती है। नेता का विराट व्यक्तित्व और अपने साथियों के आवाज को अनसुना करने की प्रवृत्ति केवल ऑटोक्रेसी  या तानाशाही में ही अभिव्यक्त नहीं होती। वह डेमोक्रेटिक अधिनायकवाद में भी परिलक्षित हुआ करती है। जिस तरह वैयक्तिक आत्म मुग्धता में पंडित  नेहरू  देश के गरीबों लिए कुछ  खास नहीं कर पाये और पाकिस्तान ,चीन या अमेरिका को नहीं साध पाये ,कश्मीर तथा मैकमोहन समेत अनेक सुलगते सवाल छोड़ गए उसी तरह श्री नरेंद्र भाई मोदी  भी यशेषणा  के वशीभूत होकर  देश के मेहनतकशों या गरीब वर्ग  की  तो कुछ खास  मदद नहीं कर पाएंगे।   उधर विदेश नीति पर भी वे नेहरू की राह  चलकर इतिहास की भूलों को भी  ठीक  नहीं कर पाएंगे।
                      पंडित जवाहरलाल  नेहरू  की उनके  आरम्भिक जीवन में कोई भी अपनी पृथक पहचान नहीं थी सिवाय इसके  कि  वे  कांग्रेस के हमदर्द  और एक विख्यात  कद्दावर वकील  पंडित मोतीलाल नेहरू के बेटे थे।  दक्षिण  अफ्रीका से  महिमा मंडित होकर  लौटे  मोहनदास करमचंद गांधी  को भारतीय  स्वाधीनता संग्राम के नेतत्व के लिए ऊर्जावान   युवाओं की शख्त जरुरत थी। ऐंसे जुझारू निष्ठावान युवा  उन्हें हजारों -लाखों की तादाद में मिले भी। नेहरू,सुभाष ,पटेल ,बिनोबा,सरोजनी ,मौलाना आजाद,लाल बहादुर शाश्त्री ,जयप्रकाश नारायण ,लोहिया ,नम्बूदिरीपाद ,राजगोपालचारि और अब्दुल गफ्फार खान जैसे सैकड़ों -हजारों युवाओं  ने गांधी को अपना हीरों माना और गांधी ने  सभी को  बखूबी  निखारा और उनसे स्वाधीनता संग्राम में काम लया। किन्तु  उन्होंने नेहरू  को  ही  आजादी  की घोषणा के दरम्यान अहम जिम्मेदारी  क्यों सौंपी यह कुछ लोगों को अभी तक  समझ नहीं आया है। शायद उनके पिता  मोतीलाल जी का वर्चस रहा हो !शायद जवाहरलाल चूँकि विलायत में पढ़े लिखे थे और भारतीय इतिहास ,दर्शन तथा  राजनीति  का उन्हें बहुत कुछ ज्ञान था इसलिए उन्हें शीर्ष नेतत्व मिला। हालाँकि  वे  बेहतरीन अंग्रेजी के अलावा उर्दू ,फ़ारसी और काम चलाऊ  हिंदी में भी  सिद्धहस्त थे। उनकी सबसे  बड़ी  खासियत यह भी थी की वे कांग्रेस के गरम दल  तथा नरम दल की विभाजन रेखा पर खड़े थे.गरम  और नरम को नियंत्रित करने के लिए  शायद  तत्कालीन भारतीय इतिहास के पास  नेहरू से बेहतर कोई विकल्प नहीं था इसलिए वे  आजाद  भारत के प्रधानमंत्री बनाये गए।  घरेलू मोर्चे पर उन्होंने पूँजीवादी  और समाजवादी दोनों ही नीतियों का समिश्रण तैयार किया और उन्हें लागू करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।  चूँकि उन्होंने भृष्टाचार से कोई संघर्ष नहीं किया और पूंजीपतियों  को लूट की खुली छूट दी इसलिए वे घरेलू  असफल रहे।
   विदेश  नीति  तो उनकी संतुलित थी किन्तु चीन अमेरिका इंग्लैंड फ़्रांस और जर्मनी के साम्राज्य्वादी और प्रतिश्पर्धी चक्रव्यूह में फंसकर  पूँजी निवेश की ललक में देश  को भूस्वामियों -सामंतों -जमींदारों और देशी पूँजीपतियों  के रहमो करम  पर छोड़ दिया। नेहरू जी की पंच  वर्षीय योजनाएं तो फिर भी ठीक थीं ,सार्वजनिक क्षेत्र ,बैंक ,बीमा और  टेलीकॉम का तना -बाना  भी उन्होंने  ठीक ही बुना।  किन्तु मुनाफाखोरों पर कोई लगाम उन्होंने नहीं लगाईं ,भृष्ट अफसरों और बेईमान नेताओं पर उनका कोई जोर नहीं था। इसलिए वे हले वे कांग्रेस के नेता  हुआ करते थे  देश आजाद हुआ तो वे देश के नेता बन गए.  वे जल्दी ही इंग्लैंड ,सोवियत संघ ,चीन,जापान  और अमेरिका के नेताओं की बराबरी करने लगे।  जब शीतयुद्ध चरम पर था और दुनिया साम्यवादी या पूँजीवादी  दो खेमों में बट चुकी थी,तब डोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्रपति -सुकर्णो ,चेकोस्लोवाकिया  के मार्शल टीटो, मिश्र के  … क्यूबा के फीदेल  कास्टों और भारत के प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने  ' गुट निरपेक्ष राष्ट्रों का संघ' बनाया था। नेहरू इस सूची में अव्वल थे। उन्होंने चीन के साथ पंचशील और अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी के साथ ततकालीन महत्वपूर्ण राजनयिक और व्यापारिक सन्धियां कीं थीं। इस रास्ते पर  निशन्देह नेहरू जी को असफलता ही हाथ लगी। १९६४ की चीन से झड़प के बाद तो वे इतने मायूस हुए की संभल भी न सके।
                             नरेंद्र भाई मोदी को भी 'संघ' ने उनके अनेक सीनियर समकालिकों  से अधिक वरीयता देकर  पहले गुजरात का नेता बनाया ,फिर भाजपा का राष्ट्रीय नेता बनाया ,फिर देश का परधान मंत्री बनाया। अब वे सयम वैश्विक  फिराक में हैं। चूँकि उनकी घरेलु नीतियां वही हैं जो मनमोहनसिंह की हैं अर्थात कांग्रेस की हैं।  याने नेहरू की हैं इसलिए नमो का इस राह पर असफल होना तय है। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर चाहे पाकिस्तान हो ,नेपाल हो या चीन कोई भी  'नमो' की विनम्र प्रार्थना सुनने को तैयार नहीं है।चाहे कश्मीर समस्या हो ,चाहे चीन -भारत सीमा समस्या हो , चाहे बांग्ला देश -नेपाल या श्री लंका से सीमा विवाद हो और चाहे अमेरिका के साथ  व्यापार  घाटा हो - हर जगह मोदी को मात दी जा रही है। चीन ,जापान , इंग्लैंड ,अमेरिक ,यूरोप तथा दक्षेश  के लिए तो भारत एक चरागाह   ही है  खुद मोदी जी के शब्दों में एक बिग बाजार ही है. तब नमो'  की  इस नीति से  भारत को कोई उम्मीद  क्यों रखनी चाहिए ?

                       श्रीराम तिवारी 

रविवार, 28 सितंबर 2014

'सामना ' ने लिखा है की भाजपा तो श्राद्ध का कौवा है।



    महाराष्ट्र में  भाजपा -शिवसेना का गठबंधन टूट गया।

   खबर है कि  कांग्रेस राकांपा का भी गठबंधन टूट गया।।

   हरियाणा में भी मच रही है  दल-दल में  सत्ता की  तकरार।

   यह  विचारों का संघर्ष  नहीं केवल चुनावी  खुन्नस बरकरार।। 

   'सामना ' ने लिखा है की  भाजपा तो  केवल  श्राद्ध  का कौवा है।

   चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि  किसका - कितना  पौवा है।।

    चौतरफा मुश्किलों के दौर में जनता भी  तो दिग्भर्मित ही  है।

     इसीलिये अभी तो वही जीतेगा  जो सबसे बड़ा कौआ है।।

                        श्रीराम  तिवारी   

बुधवार, 24 सितंबर 2014

क्या मंगल अभियान की सफलता का श्रेय इन्हे है जो आज अपनी पीठ ठोक रहे हैं ?



   भारतीय वैज्ञानिकों  के अथक परिश्रम से -इसरो की अद्व्तीय सक्रियता से ,गरीबों  का पेट काटकर खर्च किये गए ४५० करोड़ रुपयों  की बदौलत  और  भारत के पूर्व प्रधान मंत्रियों  - इंदिरा गांधी  एवं राजीव गांधी  की भारत को महाशक्ति बनाने की चाहत के दूरदर्शी -महत योजनाओं  के  साकर होने पर निसंदेह भारत को गर्व है। बड़े दुःख की बात है कि इस  मंगल अभियान की सफलता  में  जिनका रत्ती  भर योगदान  नहीं  रहा ,  जिन्होंने अपने विगत ४ माह के कार्यकाल में इसरो की  ओर  नजर उठाने की जहमत  भी नहीं उठाई -वे  महान नेता जी -न केवल इसरो में जाकर  फोटो खिचवा रहे हैं ।  न केवल अपनी पीठ  ठोक रहे हैं  बल्कि वे एक और काम कर रहे हैं  कि अपनी अज्ञानता और प्रमादवश उन लोगों का नाम भी जुवां  पर नहीं ला रहे हैं जिन्होंने  देश को  इस मुकाम पर पहुँचने के लिए बहुत कुछ किया है।  प्रचार के बेहद भूंखे और खुद को हमेशा फोकश  में रखने के जिद्दी  नेता  जी  जैसा शायद ही दुनिया में और  कहीं  कोई मिलेगा ।  मीडिया के भोंपुओं उसके घोंचू विश्लेषकों और ऐंचकताने सम्पदकों  को  तो  मानों पीलिया रोग हो  चुका  है। कोई चैनल या समाचार  पत्र ,मंत्री या नेता यह नहीं बता रहा कि अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र-इसरो  ,भाभा रिसर्च एटोमिक सेंटर या अटॉमिक पावर प्लांट्स के लिए कौन  भारतीय नेता या वैज्ञानिक -सारे संसार में वेइज्जत होता रहा।इस महान   इसरो की  स्थापना किसने  की थी ?  क्या भाजपा ने ?  क्या मोदी जी ने ? क्या  मंगल अभियान की सफलता का श्रेय  इन्हे है जो  आज अपनी पीठ  ठोक रहे हैं ? क्या   इसरो के  'मार्श आर्बिटर ' अभियान  की कल्पना उनके  दिमाग की उपज  थी जोअपने पूर्ववर्तियों की निंदा , गरवा ,गोधरा,लव जेहाद  या वोटों के जातीय  व् साम्प्रदायिक  ध्रवीकरण से आगे नहीं सोच सकते  ?
             कौन प्रधानमंत्री था  जिसने   स्पेश प्रोजेक्ट को कामयाब बनाने के लिए न केवल सुपर कम्प्यूटर हासिल किये ,बल्कि  क्रायोजनिक इंजन के शुष्क ईधन के लिए  भी वह कभी अमेरिका तो कभी रूस  भटकता  रहा? इसरो की वर्तमान   वैज्ञानिक  टीम  को सिलेक्ट करने वाले कौन थे ?फंड आवंटन किस मंत्री या प्रधानमंत्री ने किया ?भारत की नयी पीढ़ी को यह सच जरूर जानना चाहिए। इसरो को भी चाहिए कि सब नहीं तो कुछ नीति संबंधी जानकारी तो देश के नौजवानों को अवश्य ही उपलब्ध कराये।
                      शुक्र  है  की मार्श आर्बिटर' या इसरो के किसी भी प्लान के लिए विगत १६ मई से २२ सितम्बर तक राजनीति या नेताओं का तो कोई भी योगदान नहीं रहा। माना कि  ये विभाग डायरेक्ट पीएम के अण्डर  में है किन्तु सवाल यह है कि  इस 'मंगल अभियान की अद्व्तीय सफलता' में  उनका योगदान क्या है?मीडिया का एक हिस्सा और सत्तारूढ़  पार्टी के  नेताओं का इस संदर्भ में स्वयंभू यशोगान बेहद भौंडा और हास्यापद  है। उनके वयानों से तो यही लगता है कि  ये नेता सत्ता में आये और मंगल रवाना कर दिया होगा। चार महीनों में वह मंगल की कक्षा  में पहुंचकर  वहाँ  से कह रहा है की सारे जहाँ  से अच्छा  हिन्दोस्ताँ  हमारा ! हालाँकि  मैं तो  यही कहूँगा कि  हिन्दोस्ताँ  तो बहुत संकट में है।  हाँ वेशक ! सारे जहाँ  से  अच्छा इसरो  है हमारा !
  
                      श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 16 सितंबर 2014

    
     प्रचार के विभिन्न  माद्ध्यमों  में कभी बड़ा हो-हल्ला  हुआ करता था ,कि 'संघ परिवार' वाले  तो  बड़े ही परोपकारी हैं  -कर्तव्यपरायण हैं ,राष्ट्रीय आपदाओं के वक्त जनता की मदद के लिए तैयार रहते हैं ।  इत्यादि-इत्यादि। सम्भवतः इसमें आंशिक सचाई भी हो , लेकिन  फिल्बक्त तो उनका यह परम   परहितकारी  - जन - कल्याणकारी रूप सिरे से ही  गायब है। चाहे मध्यप्रदेश में पहले ओला-पाला  और अब  सूखा पीड़ितों का सवाल हो ,चाहे देश भर में बढ़ रही महँगाई ,बेरोजगारी,हत्या-बलात्कार  और रिश्वतखोरी का सवाल हो,चाहे विदेशी बनाम स्वदेशी का सवाल हो ,चाहे राष्ट्रीयकरण बनाम निजीकरण का सवाल हो ! इन सवालों  पर तो संघ परिवार ने पहले से ही 'मुशीका' लगा रखा है, किन्तु जम्मू कश्मीर में हुए महाजलप्लावन के  दौरान 'संघ परिवार'  का औदार्य नदारद  क्यों रहा ?  यह समझ से पर है  ! जब मैंने  उत्सुकतावश एक  बुजुर्ग संघी  कार्यकर्ता'भाई जी ' से इस बाबत पूँछा  तो पहले तो वे  इस प्रश्न को टालते रहे। वे बार-बार मोदी सरकार द्वारा  जम्मू-कश्मीर के ततसंबंधी कार्यान्वन का गुणगान करने लगे , भूटान-नेपाल और जापान की यात्राओं का बखान करने लगे. किन्तु जब  बाढ़ पीड़ित जम्मू-कश्मीर में  संघ की  निष्क्रियता संबंधी यही प्रश्न बार-बार दूसरों ने भी दुहराया तो वे आक्रोशित होकर अपने असली रूप में आ गए।  उनका जबाब था कि  इन दिनों हम  दूसरे  अति महत्वपूर्ण कार्यों में व्यस्त हैं। हम  'लव-जेहाद'  के खिलाफ लड़ रहे हैं। हम उज्जैन के विक्रम विश्वविद्द्यालय में  सेकुलर प्रोफेसरों  की ठुकाई कर रहे हैं।  मध्यप्रदेश या देश के किसी भी हिस्से में मौजूद कश्मीरी छात्रों को खोज-खोजकर आतंकी  सिद्ध करने में जुटे हैं।  हम देवी अहिल्या विश्व विद्द्यालय में ए बी वी पी बनाम भा ज यु मो के द्वन्द का हिंसक   ट्रायल करने में जुटे हैं। हम 'हिंदुत्व की गरवा संस्कृति' से मुसलमानों को दूर रखने के राष्ट्र व्यापी अभियान में  जुटे  हैं। उनके इस प्रशश्ति गान  का कारवाँ और  आगे   बढ़ता, इससे पहले ही एक दूसरे  बुजुर्ग श्रोता ने चुटकी ली और कहा-शायद यही वजह है कि विधान सभा के  मौजूदा  उपचुनावों में 'मोदी लहर' विश्रांति की ओर  अग्रसर है।इन चुनावों में  अधिकांस जगहों पर मृतप्राय विपक्ष 'फीनिक्स' पक्षी की मानिंद फिर से उठ खड़ो हो गया है ।   कांग्रेस ,सपा,टीआरएस ,और अन्य  'सेकुलर'  पार्टियां बिना कुछ किये धरे  ही या बदनाम होते हुए भी पुनः  उठ  खड़ी  हो रही हैं। उधर कश्मीर में भी जनता को  बचाने के लिए  संघ नहीं सेना नजर आ रही है.इस धत्ताविधान  से  रुष्ट होकर  ' भाई  जी 'इस अनौपचारिक चलित गोष्ठी से 'वाक आउट ' कर गए !
    
                                               श्रीराम तिवारी 

शुक्रवार, 12 सितंबर 2014

[कुण्डलियाँ ] डूब रहे नवरत्न, देखते शी जिनपिंग संग मोदी !


     लहर  सदा  स्थिर नहीं  , यह जानत सब कोय ।

      जहाँ   पै  हो  धुर्वीकरण ,जीत उधर ही  होय ।।


    जीत  उधर ही  होय , जहाँ है धनबल -भुजबल।

    कैसे  होय विकाश  , वतन जब लुटता  पल-पल ।।


     जनमत  करे निदान  ,नीति-नियत  खोटी जब होई।

     चहुँ दिश  भृष्टाचार ,    सुशासन   कैसे    होई।।



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     भारत  नीति  नियत यह ,  हो भय भूँख  निदान  ।

    किन्तु  निवेश की ललक लखि  ,लपका सकल जहान।।

     लपका सकल जहांन ,जो  भूंखे हैं दौलत  के ।

     करें तिजारत मुल्क , वैश्वीकरण के  झटके ।।

    एफ  डी आई  निर्बाध , बैंक  बीमा  या  गोदी।

     डूब रहे नवरत्न,  देखते शी  जिनपिंग  संग मोदी।।

  

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    साम्प्रदायिकता  बढ़ी ,जात -पाँत  की बात।

    पाकिस्तान  का भी नहीं , रोक सके प्रतिघात।।

    रोक सके प्रतिघात ,  जटिल सीमा  का  मसला।

     हाफिज सईद  दाऊद ,   करें भारत पर हमला।।

    सिस्टम है खूंखार ,बढ़ाता  घोर  विषमता।

     व्यापा   जातिवाद ,   फैलती  साम्प्रदायिकता।

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  श्रीराम तिवारी



 

गुरुवार, 11 सितंबर 2014

ईमान दार और मेहनती इंसान के बजाय जेल का अपराधी बेहतर जिन्दगी क्यों जी रहा है ?


खबर -एक

      मध्यप्रदेश की जेलों में कैदियों के लिए अब  आइन्दा  कठोर -सूखी  रोटियाँ  खाकर दाँत  टूटने का खतरा नहीं रहा।पनीली कंकड़ युक्त दाल में  सूखे टिक्क्ड़ डुबोकर पेट नहीं भरना पडेगा। प्रदेश की भाजपा -शिवराज   सरकार -बिजली , पानी, बेकारी ,सूखा -बाढ़ , ओला -व्यापम ,महँगाई ,रेप ,हिंसा ,चेन-स्नेचिंग  और   इंफ्रास्टक्चरल डवलपमेंट  पर भले ही  कुछ न कर  सकी हो ,किन्तु -हत्या,रेप के मुलजिम ,सिमी के उग्रवादी ,व्यापम घोटाले के अपराधी  , चोर -उचक्के -डाकू , लोकायुक्त द्वारा लपेटे में लिए गए भृष्ट -रिश्वतखोर अफसर-बाबू-पटवारी तथा सजायफ्ता नेताओं को  अब जेल में गरमागरम  रोटियां  खिलाने का इंतजाम अवश्य कर दिया गया है।
                 
                 विगत सप्ताह भोपाल से  जेल  मुख्यालय   ने प्रदेश के सभी जेलरों-अधीक्षकों को निर्देशित किया है कि इस  संदभ में ततकाल कायवाही  करें। लकड़ी और थर्माकोल से बने नवीन आधुनिक डिब्बों  के प्रयोग या अन्य साधनों से कैदियों को बढियां ताजा  रोटियाँ  खिुलायें।  याने मुफ्तखोर अपराधियों  की शासन-प्रशासन को बड़ी -चिंता है  इसलिए उनके वास्ते - नास्ते के अलावा लंच  और  डिनर  में कम से कम -६-६ बढियां-बढियाँ  तंदूरी या मोटी -मोटी ,  गरम-गरम रोटियां  मुफ्त !

   खबर -दो
                  देश के -  प्रदेश  के  हजारों रोजनदारी मजदूर,ठेका मजदूर ,खेतिहर मजदूर ,खदान मजदूर ,मनरेगा मजदूर और यत्र-तत्र बाल मजदूर भी   महज १०० रोज  ही कमा पाते हैं। कभी-कभी तो इतने का भी काम नहीं मिल पाता।  १२-१२ घंटे काम करने के वावजूद  बिना आंदोलन या हड़ताल के समय पर उन्हें यह  मजदूरी भी नहीं मिलती।  प्रदेश में सीटू के नेतत्व में उनके आन्दोलनों की अनुगूँज सभी जगह सुनी जा सकती है। भयानक बीमारियों से घिरे -  महंगाई -ओला-सूखा-पाला की मार से पीड़ित  मध्य  प्रदेश  के लाखों छोटे -किसानों   की हालात सबसे अधिक चिंता जनक है। प्रदेश और देश की सरकार को  तो जापान-अमेरिका-इंग्लैंड  के निवेशकों की चिंता है  .इधर  मुनाफाखोर  पूँजीपतियों   और भृष्ट ठेकेदारों  की पौबारह है। उधर प्रदेश के करोड़ों  निर्धनों के यहाँ दो बक्त की सूखी रोटियाँ  का भी कोई स्थाई इंतजाम नहीं है।रोटी तो दूर की बात स्वच्छ पीने का पानी भी  गाँव के गरीबों को -प्रदेश के हजारों  गाँवों  में  आज भी नहीं है। जिस  दौर में अपराधी होना निरपराध से बेहतर हो  चुका हो उस दौर में अध्यात्म-धर्म-मजहब तथा सांस्कृतिक उत्थान की बातें करना  केवल मानसिक अय्यासी है।  चरित्रहीन लोग ही इन हवाई और धर्मान्धता की बातों को हवा देते हैं।  वे रोटी पर बात नहीं करते। क्योंकि इनके पेट भरे हैं। जबकि इनके हाथ पाप-पंक से सने हैं।  यह एक  अहम सवाल है कि -ईमान दार और मेहनती इंसान  के बजाय  जेल का अपराधी बेहतर जिन्दगी  क्यों जी रहा है ?

                       श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 8 सितंबर 2014

'कश्मीरियत' के दुश्मन मौत के सौदागर इस बक्त कहाँ हैं ?


  दो दिन  पहले  ही मैंने निम्नांकित  पंक्तियाँ 'पोस्ट' की थीं ……!



      'कश्मीरियत'  के दुश्मन  मौत के सौदागर इस बक्त  कहाँ हैं ?

      जेकेएलएफ -गिलानी -हाफिज सईद - जमात-उद  दावा - अब कहाँ हैं ?

      केशर की क्यारियों में वैमनस्य -अलगाव  के  बीज बोने  वाले-

     आई एसआई - प्रशिक्षित कश्मीरी बच्चों  के हाथों में बन्दूक थमाने  वाले  -

     जल मग्न कश्मीरी आवाम  को  बचाने में जी जान से  जुटे हैं जो आज -

     उन  भारत के जवानों के शीश काटने वाले  इंसानियत के दुश्मन  कहाँ हैं ?



 आज की  खबर  है कि जम्मू -  कश्मीर  के लोगों  की जान  बचाने में  जुटे 'भारतीय बचाव दल ' पर कुछ

   अलगाववादियों -उग्रवादियों ने - जलमग्न श्रीनगर  के  ही कुछ ठिकानों से  पत्थरबाजी की  है।


  इस ओछी हरकत  से   मेरी  उपरोक्त पंक्तियों का जबाब भी  मिल गया  है -

अब इसमें कोई संदेह नहीं की  इस वक्त ये   ' इंसानियत के दुश्मन कहाँ हैं ' ?  जिनकी  नापाक  हरकतों और

एहसानफ़रामोशी  का खामियाजा  न केवल सारे कश्मीर को बल्कि पूरे भारत को  भुगतना  पड़  रहा है।


   श्रीराम तिवारी


                                         

रविवार, 7 सितंबर 2014

हर नारी ऐंसी बने ,जैसी है ऐनूर !



    'माँ  ने अपने दुष्कर्मी 'कपूत' को कराया गिरफ्तार '


पश्चिम बंगाल के २४ परगना अंतर्गत डायमंड हार्वर में एक माँ [ ऐनूर]ने इंसानियत  को तरजीह देकर , पुत्र मोह त्यागकर 'नारीत्व' के उच्चतर मूल्यों का उदाहरण पेश किया  है ।सात साल की मासूम बच्ची के साथ दुष्कर्म करने वाले अपने  'कपूत' [नजीर शेख] की काली करतूत की शिकायत- इस महानतम  माँ ने  खुद ही थाने में  जाकर  पुलिस को की है । पीड़ित बच्ची  -जो कि दूर कहीं जंगल में वेहोश पड़ी थी -को  भी वे स्वयं ही अस्पताल ले गई.  नारी उत्पीड़न और कुकृत्य  से सराबोर  इस भयानक  दौर में नारीत्व की गरिमा मय  यह मिशाल -  अतुलनीय  और वंदनीय है। इस माँ [ऐ नूर बीबी ]का यह बेहतरीन त्याग - सतकर्म-कर्तव्यपरायणता -भारत ही नहीं दुनिया की सभी माताओं-बहिनों और नारियों  के लिए अनुकरणीय है। उनके इस महान गौरवपूर्ण सुकृत्य के लिए  यह  दोहा  समर्पित  है। 

   पतनशील इस दौर में ,मूल्य हुए बेनूर। 
   हर नारी ऐंसी बने ,जैसी है ऐनूर।। 

        श्रीराम तिवारी 

     

शनिवार, 6 सितंबर 2014

हिंदी में अब वंचित वर्गों की मांग के अनुकूल नहीं लिखा जा रहा है !




  हिंदी में पढ़ने -लिखने वाले , हिंदी को राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक  मानने वाले,हिंदी के वक्ता-श्रोता  - ज्ञाननिधि और  हिंदी के शुभ -चिंतक,  सरकारी और गैर सरकारी तौर पर हर साल हिंदी पखवाड़ा या हिंदी दिवस मनाते वक्त बार-बार यही रोना  रोते रहते हैं कि हिंदी को देश और दुनिया में उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आम  तौर पर  उनको  यह  शिकायत  भी हुआ करती है कि हिंदी में सृजित ,प्रकशित या छपा हुआ साहित्य खरीदकर पढ़ने वालों  की तादाद  में तेजी से कम हो  रही है। वे आसमान की ओर देखकर  पता नहीं किस से सवाल किया  करते  हैं कि- हिंदी -जो कि सारे विश्व में दूसरे नम्बर पर  बोली जाने वाली भाषा है - इसके वावजूद हम उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में  अभी तक शामिल क्यों  नहीं करा पाये?
                                  विगत शताब्दी के अंतिम दशक में  सोवियत  क्रांति पराभव उपरान्त दुनिया के एक ध्रवीय[अमेरिकन ] हो जाने  से  भारत सहित सभी पूर्ववर्ती  गुलाम राष्ट्रों  को  मजबूरी में न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं ,न केवल नव्य -उदारवादी वैश्वीकरण की -खुलेपन की  नीतियां अपनानी पड़ीं बल्कि देश में प्रगतिशील आंदोलन और तदनुसार सामाजिक -सांस्कृतिक और साहित्यिक चिन्तन पर भी नव्य -उदारवाद की छाप  पडी। नए जमाने के उन्नत आधुनिक तकनीकी संसाधनों  को आयात करते समय  इस नए -भूमंडलीकरण का प्रभाव भी  परिलक्षित हुआ ।जीवन संसाधनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों ने, न केवल भारत ,न केवल हिंदी जगत बल्कि विश्व की अधिकांस नामचीन्ह भाषाओँ-उनके साहित्य -उनके पाठकों को घेर-घार कर कंप्यूटर रुपी  उन्नत तकनीकी  रुपी  जादुई डिब्बे   के सम्मुख  सम्मोहित  सा  कर दिया है । प्रिंट ही नहीं श्रव्य साधन भी अब कालातीत होने लगे हैं। अब तो केवल स्पर्श और आँखों के इशारों से  भी सब कुछ वैश्विक स्तर पर - मनो-मष्तिष्क तक पहुंचाने वाले -सूचना संचार  सिस्टमईजाद हो चुके हैं। इतने सुगम और तात्कालिक संसाधनों  के  होते हुए अब  किस को फुरसत है कि कोई बृहद ग्रन्थ या  पुस्तक पढ़ने का दुस्साहस करे ? फिर चाहे वो गीता ,रामायण  कुरआन या बाइबिल  ही क्यों न हों ? चाहे वो हिंदी,इंग्लिश  की हो या संस्कृत की ही क्यों न हो ?चाहे वो सरलतम सर्वसुगम हिंदी में हो या किसी अन्य भाषा में आज किसको फुर्सत  है  कि  अधुनातन संचार साधन छोड़कर किताब  पढ़ने बैठे ? रोजमर्रा  की भागम-भाग और तेज रफ़्तार वाली  वर्तमान   तनावग्रस्त  दूषित जीवन शैली  में बहुत कम सौभागयशाली हैं- जो बंकिमचंद की 'आनंदमठ ' शरतचंद की 'साहब बीबी और गुलाम ' , रांगेय राघव की 'राई  और पर्वत', श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' , मेक्सिम  गोर्की  की  'माँ  ', प्रेमचंद की 'गोदान', निकोलाई आश्त्रोवस्की   की 'अग्नि दीक्षा' , रवींद्र नाथ टेगोर की 'गोरा' , महात्मा गांधी की 'मेरे सत्य के प्रति प्रयोग ', पंडित जवाहरलाल नेहरू की 'भारत एक खोज'  तथा  डॉ बाबा साहिब आंबेडकर की 'बुद्ध और उनका धम्म' पढ़ने सके  !  जबकि ये सभी कालातीत पुस्तकें आज भी भारत की  हर लाइब्रेरी में  उपलब्ध हैं।  इन सभी महापुरुषों की कालजयी रचनाएँ -खास  तौर से   हिंदी में  भी   बहुतायत  से  उपलब्ध हैं। अधिकांस आधुनिक युवाओं को तो इन पुस्तकों के नाम भी याद नहीं , कदाचित  वे   विजयदान  देथा  , सलमान रश्दी ,खुशवंतसिंघ ,राजेन्द्र यादव या अरुंधति रे को जानते भी होंगे तो इसलिए नहीं कि इन लेखकों  का साहित्य  उन्होंने पढ़ा है ,बल्कि इसलिए जानते  होंगे  कि ये लेखक कभी -न कभी किसी विवाद -विमर्श   का हिस्सा जरुर रहे होंगे !गूगल सर्च पर या  किसी तरह के  केरियर कोचिंग में  इनकी आंशिक   जानकरी उन्हें  मिली होगी।  यह सर्वमान्य सत्य है कि  गूगल या अन्य माध्यम से आप अधकचरी  सूचनाएँ तो  पा  सकते हैं, किन्तु ज्ञान तो अच्छी पुस्तकों से ही पाया जा  सकता है।
                 आज के आधुनिक युवाओं  को पाठ्यक्रम से बाहर की  पुस्तकें पढ़ पाना  इस दौर में किसी तेरहवें  अजूबे से कम नहीं है।  उन्हें लगता है कि साहित्य  ,विचारधाराएं ,दर्शन  या  कविता -कहानी का  दौर अब नहीं रहा। उनके लिए तो समूचा प्रिंट माध्यम  ही अब  गुजरे  जमाने की चीज हो गया है। यह कटु  सत्य है कि चंद रिटायर्ड -टायर्ड और पेंसनशुदा - फुरसतियों के दम पर  ही अब सारा छपित साहित्य  टिका हुआ है।  ऐंसा प्रतीत होता है कि अब  हिंदी  का पाठक भी इन्ही में कहीं समाया हुआ है।  भाषा -साहित्य के इस युगीन धत्ताविधान  में यह पीढ़ीयों  के बीच मूल्यों का भी  क्षेपक है।  जो कमोवेश राजनैतिक इच्छाशक्ति से भी  इरादतन स्थापित है। इस संदर्भ में यह  वैश्विक  स्थिति है। भारत में और खास तौर  से हिंदी जगत में यह बेहद चिंतनीय अवश्था में है। दुनिया में शायद ही कोई मुल्क होगा जो अपनी राष्ट्र भाषा को उचित सम्मान दिलाने या उसे राष्ट्र भाषा के रूप में व्यवहृत करने के लिए इतना मजबूर या  अभिशप्त होगा  ,जितना कि  हिंदी  के लिए भारत  असहाय है ! दुनिया में शायद ही   कोई  और राष्ट्र होगा जो अपनी राष्ट्रभाषा के उत्थान के लिए इतना पैसा पानी की तरह  बहाता  होगा जितना की भारत। भारत में लाखों राजभाषा अधिकारी हैं ,जो राज्य सरकारों के ,केंद्र सरकार   के सभी  विभागों  में ,सार्वजनिक उपक्रमों में  अंगद के पाँव की तरह जमे हुए हैं। इनसे राजभाषा को या देश को एक धेले  का सहयोग नहीं है। ये केवल दफ्तर में  बैठे -बैठे ताजिंदगी  भारी -भरकम वेतन-भत्ते पाते हैं ,कभी-कभार एक -आध अंग्रेजी  सर्कुलर  का घटिया हिंदी अनुवाद करते हैं। साल भर में एक बार सितंबर  माह में 'हिंदी पखवाड़ा'या 'हिंदी सप्ताह' मनाते हैं। अपने बॉस को पुष्प गुच्छ भेंट करते हैं ,कुछ ऊपरी  खर्चा -पानी भी हासिल कर लेते हैं। रिटायरमेंट के बाद पेंसन इनका जन्म सिद्ध अधिकार है ही।  स्कूल ,कालेज ,विश्विद्द्यालयों के हिंदी शिक्षक -प्रोफेसर और  कुछ  नामजद एनजीओ भी राष्ट्र भाषा -प्रचार -प्रसार के बहाने  केवल अपनी आजीविका  के  लिए ही  समर्पित हैं ।  हिंदी को देश में उचित सम्मान दिलाने या उसे संयुक राष्ट्र में सूचीबद्ध कराने के किसी आंदोलन में उनकी कोई सार्थक भूमिका  नहीं है। अपनी खुद की  पुस्तकों के प्रकाशन में   ही इनकी ज्यादा रूचि हुआ करती है ।
          सोशल मीडिया -डिजिटल -साइबर -संचार क्रांति -फेस बुक और गूगल सर्च इंजन ने  न केवल दुनिया छोटी  बना दी है  बल्कि सूचना -संचार क्रांति ने  प्रिंट संसाधनों को -साहित्यिक विमर्श को  भी हासिये पर धकेल दिया है। और छपी हुई बेहतरीन पुस्तकों को भी गुजरे जमाने का ' सामंती'शगल बना डाला है.अब यदि एसएमएस है तो टेलीग्राम  भेजने की जिद  तो केवल पुरातन यादगारों का व्यामोह मात्र  ही हुआ न  ! वरना दुनिया  में जो भी है ,जिसका भी है,जहाँ  भी है , सब कुछ अब सभी को सहज ही उपलब्ध है.हाँ शर्त केवल यह  है कि एक अदद इंटरनेट कनेक्शन  और लेपटाप,एंड्रायड -वॉट्सऐप  या ३-जी मोबाइल अवश्य  होना चाहिए   !  इधर  किताब छपने ,उसके लिखने के  लिए महीनों  की मशक्कत ,सर खपाने और प्रकाशन की मशक्क़त !   यदि  साहित्य्कार -लेखक नया- नया  हुआ  तो प्रकाशक नहीं मिलने की सूरत में  अपनी जेब ढीली करने के बाद  ही पुस्तक को आकार  दे पायेगा। यदि  उसे  खरीददार नहीं मिल रहे हैं तो  मुफ्त में या गिफ्ट में देने की मशक्क़त !  इस दयनीय दुर्दशा के लिए न तो लेखक  जिम्मेदार  है,न प्रकाशकों का दोष है ,न तो  पाठकों या क्रेताओं  का अक्षम्य अपराध  है , यह न तो  हिंदी भाषा का  संकट हैऔर न ही साहित्यिक संकट है ! बल्कि ये तो  आधुनिक युग की  नए ज़माने की ऐतिहासिक आवश्यकता और कारुणिक सच्चाई है।  चूँकि समस्त वैज्ञानिक आविष्कारों और  सूचना एवं संचार क्रांति का उद्भव गैर हिंदी भाषी  देशों में हुआ है तथा   हिंदी  में अभी इन उपदानों के संसधानों  का सही -निर्णायक मॉडल उपलब्ध नहीं है इसलिए किताबें अभी भी प्रासंगिक है बनी  हुई हैं।
                 हिंदी का प्रचार -प्रसार ,हिंदी साहित्य  में विचारधारात्मक लेखन ,हिंदी साहित्य सम्मेलनों की धूम-धाम  ,पत्र  - पत्रिकाओं के प्रकाशनों का दौर अब थमने लगा  है। हिंदी इस देश के आम आदमी की भाषा है। हिंदी 'स्लैम डॉग  मिलयेनर्स ' जैसी फिल्मों के मार्फ़त पैसा कमाने की भाषा है.हिंदी गरीबों -मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनों की भाषा है। चूँकि हिंदी में अब इन वंचित वर्गों और सर्वहाराओं  की उनकी मांग के अनुकूल नहीं   लिखा जा रहा है , बल्कि बाजार की ताकतों के अनुकूल,मलाईदार क्रीमी लेयर के अनुकूल महज तकनीकी,उबाऊ  और कामकाजी साहित्य का  तैसे सृजन- प्रकाशन  हो रहा है । इसीलिये हिंदी जगत में वांछित पाठकों की संख्या न  केवल तेजी से गिरी है अपितु  शौकिया किस्म के फ़ालतू लोगों  तक  ही सीमित रह गई है।
        आजादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ततसम  शब्दावली के चलन पर जोर देने ,अन्य भारतीय  भाषाओँ के  आवश्यक और वांछित शब्दों से परहेज करने , अनुवाद  की काम चलाऊ  मशीनी आदत से चिपके रहने , अधुनातन सूचना एवं संचार क्रांति के साधनों के प्रयोग में अंग्रेजी भाषा का  सर्व सुलभ होने,हिंदी भाषा के फॉन्ट ,अप्लिकेशन  तथा वर्णों  का तकनीकी  अनुप्रयोग   सहज ही उपलब्ध न होने या कठिन होने  से  न केवल पाठकों की संख्या  घटी बल्कि हिंदी में लिखने वालों का सम्मान और  स्तर  भी घटा है । न केवल तकनीकी कठनाइयों  हिंदी में मुँह  बाए खड़ी हैं  बल्कि  आधुनिक युवाओं को आजीविका के संसाधन और अवसर  भी  हिंदी में उतने  सहज  नहीं जितने आंग्ल भाषा में उपलब्ध हैं। इसीलिये भी देश में ही नहीं विश्व में भी हिंदी के पाठक कम होते जा रहे हैं।   देश में हिंदी को सरल बोधगम्य आजीविका-  परक  और जन-भाषा बनाने की  राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव  में और हिंदी की  वैश्विक  मार्केटिंग नहीं हो पाने से राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर  मेगा -साय-साय या बुकर पुरस्कार भी उन्हें  ही  मिला करते हैं  जो हिंदी को हेय  दृष्टि  से देखते  रहे हैं। अंततोगत्वा फिर भी हिंदी ही देश  की राजरानी  रहेगी । चाहे वालीवुड हो ,चाहे  खुदरा व्यापार हो ,चाहे बाबाओं-स्वामियों का  भक्ति और साधना  का  केंद्र हो  ,चाहे रामदेव हों ,नरेंद्र मोदी हों ,राहुल गांधी  हों ,केजरीवाल हों ,चाहे अण्णा  हजारे हों चाहे  मुख्य धारा का मीडिया हो ,सभी ने हिंदी के  माध्यम से ही  भारी सफलताएं अर्जित कीं हैं। सभी के प्राण पखेरू हिंदी में  ही  वसते  हैं।  इसलिए यह कोई  खास  विषय नहीं की हिंदी साहित्य   के  पाठकों की संख्या घट  रही है या बढ़ रही है।
                                     अन्य  भाषाओँ  के बारे  में तो कुछ नहीं  कह सकता किन्तु हिंदी भाषा और उसके समग्र साहित्य़ संसार के बारे में यकीन से कह  सकता हूँ कि उत्तर-आधुनिक सृजन के उपरान्त -अब  यहाँ पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स नाम  का जंतु वैसे भी  इफ़रात  में नहीं  पाया जाता। वास्तव में हिंदी जगत में कहानी,कविता ,भक्ति काव्य  ,रीतिकाव्य  , सौन्दर्यकाव्य  ,रस सिंगार ,अश्लीलता  के नए - अवतार फ़िल्मी साहित्य और कला  का  तो  बोलबाला   है  , कहीं -कहीं जनवादी - राष्ट्रवादी -प्रगतिशील और जनोन्मुखी साहित्यिक सृजन  की  अनुगूंज भी सुनाई   देती है किन्तु  समष्टिगत रूप में तात्कालिक दौर  की   समस्याओं  और जीवन मूल्यों  के  वौद्धिक विमर्श पर हिंदी बेल्ट में  सुई पटक  सन्नाटा ही है. इस साहित्यिक  सूखे में  जिज्ञासु या ज्ञान-पिपासु  पाठकों  की कमी होना स्वाभाविक है।मांग और पूर्ती का सिद्धांत केवल अर्थशाश्त्र का विषय नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी  यह सिद्धांत सर्वकालिक ,सार्वभौमिक और समीचीन है।
                       लेखकों और जनता के बीच संवादहीनता का दौर है ,अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर देश और समाज की वास्तविक आकांक्षाओं के  अनुरूप  क्रांतिकारी  साहित्य अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त रेडिकल - सृजन  शायद आवाम की या सुधी पाठकों की माँग  भले ही न   हो किन्तु देश और कौम के  लिए यह साहित्यिक कड़वी दवा नितांत आवश्यक है.    हिंदी के पाठकों की संख्या  बढे इस बाबत  पठनीय साहित्य की थोड़ी सी  जिम्मेदारी  यदि  साहित्य्कारों की है तो कुछ थोड़ी सी हिंदी के जानकारों याने -सुधी पाठकों की भी है।
                                            
       
            राष्ट्रभाषा -हिंदी  दिवस पर अनन्य शुभकामनाओं के साथ ,

  
               क्रांतिकारी   अभिवादन सहित ,

                    श्रीराम तिवारी  

मंगलवार, 2 सितंबर 2014

मुनाफाखोर और सरमायेदार देशों के सामने झोली फैलाना गरिमामय नहीं कहा जा सकता।

  संघ परिवार को उम्मीद थी कि  केंद्र में अपनी  सरकार आएगी  तो धारा -३७० , यूनिफार्म  सिविल कोड,राम -  लला मंदिर , स्वदेशी -स्वाभिमान संधारण तथा काला  धन वापिसी   इत्यादि के संदर्भ में कुछ नया  काम  होगा। चूँकि मोदी सरकार अपने प्रथम  चार महीनों में तो  इन मुद्दों पर कुछ खास प्रगति  निसंदेह  नहीं कर पाई है,  जिसका असर विधान सभाई  उपचुनावों में भी दिखाई दे गया  है ।  इसलिए 'संघ परिवार'  के बौद्धिक चिंतकों  में अब  बेचैनी   व्याप्त होने लगी  है। स्वयं संघ प्रमुख मोहनराव  भागवत  को भी कहना पड़ा है  कि सरकार का कामकाज संतोषजनक तो  नहीं है. किन्तु  वे चाहते हैं कि  'मोदी सरकार ' को एक साल तक न 'छेड़ा'  जाए ।  मोदी सरकार के  आलोचकों[ जिसमे सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है ] का कहना है कि  महज गंगा सफाई अभियान का नारा लगाने,काशी  का कायाकल्प करने तथा  विदेशी सैर-सपाटों से सारा सिस्टम बदल जाएगा  यह बात  लोगों के  गले नहीं उतर  रहीं ।  चाहे धड़ाधड़   खाते खुलवाने की बात हो  या आधार को सर्व समावेशी बंनाने की बात हो  यह कोई नयी  योजना नहीं है।  मनमोहन के राज में  नंदन निलेकणि जैसे विद्वान  भी यही सब करने जा  रहे थे । जापान से बुलेट रेल लाने  की बात  हो  या अमेरिका से सामरिक भागीदारी  की बात हो  सभी मुद्दे पूर्ववर्ती सरकारों ने पहले ही अंजाम तक पहुंचा दिए थे। जो  अंधाधुंध विदेशी पूँजी  निवेश  और विदेशी पूँजी की निर्भरता  की बात मोदी जी  अमेरिका और जापान में जाकर कर आये हैं  वो  तो नरसिम्हाराव के जमाने  से ही  चल रही है। अब यदि  ऍफ़ डी आई  को  १००% बढ़ाया जा रहा  है तो  यह तो अधोगामी कदम है। इसमें गर्व या उपलब्धि की बात क्या है ? क्या इससे  देश का विकाश  हो  जाएगा  ? क्या मँहगाई ,अशिक्षा,हिंसा -आतंक का तांडव रुक जाएगा?
                               जहाँ तक 'गुड-गवर्नेस ' की बात है तो अभी तो न केवल यूपी-बिहार -एमपी बल्कि सारा देश ही  हत्या ,रेप,साम्प्रदायिक उन्माद और भृष्टाचार से  खदबदा रहा है। उधर सीमाओं पर पाकिस्तानी फौजें पहले से ज्यादा आग उगल  रहीं हैं । कश्मीर अशांत है। महँगाई  की चर्चा  करना तो अब बेमानी है। केवल कुछ राजपालों को बदलने , सार्वजनिक उपक्रमों में१००% ऍफ़  डी  आई  बढ़ाने,लव-जेहाद पर सामजिक सौहाद्र मिटाने तथा  पडोसी राष्ट्रों  की चिरौरी करने से राष्ट्रीय गौरव और राष्ट्र - स्वाभिमान कहाँ प्रदर्शित होता है।  देश में मोदी सरकार के आगमन उपरान्त तो  महिलाओं ,दलितों, कमजोरों ,अल्पसंख्यकों और  मजदूरों पर अत्याचार तेजी से बढे हैं। सरकार के रिपोर्ट कार्ड में ये सब तो  कोई बताने वाला नहीं है। क्या अमेरिका में प्रायोजित तालियों और भारत में मीडिया को साध लेने मात्र से सुशासन या गुड गवर्नेस  आ सकता  है ?
                   प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र भाई मोदी  द्वारा सम्पन्न   भूटान ,नेपाल , जापान और अमेरिका की   यात्राओं  से देश का कितना कल्याण  होगा ? कब होगा  ?  इसकी भविश्यवाणी  अभी से करना  तो मुनासिब नहीं। किन्तु यदि उनके  प्रारम्भिक   चार माह के  कार्यकाल में इन्हे समाहित करने की चेष्टा करें तो  सार्थक कार्यों में इन यात्राओं  को शुमार  किये जाने लायक तो कदापि कुछ भी नहीं है । क्या लुटेरे राष्ट्रों से निवेश रुपी भीख माँगना कोई राष्ट्र गौरव की बात है ?  इधर ये दक्षेश के  निर्धन पड़ोसी  मुल्क - भारत को कुछ देने के बजाय  ज्यादा  खींचने की फिराक में  रहते हैं। भूटान और नेपाल से  भारत को कब क्या मिला ? नेपाल से बाढ़ , तस्करी मिला करती है।  चीन -पाकिस्तान  का परोक्ष आक्रमण ही भारत को मिलता रहा है।  ये छुद्र पडोसी  ब्लेकमेलिंग भी करते रहते हैं।  जापान -अमेरिका को पटाकर -चीन को  चमकाने के फेर में हमें इन नंगे-भूंखे  पड़ोसियों  को देना  ही ज्यादा पड़ता है। जहाँ तक जापान का प्रश्न है तो उसका  भारी  भरकम  निवेश  पहले से ही भारत में दशकों से जारी है। मारुती -सुजुकी से भी दशकों -पहले जापान की पूँजी ने भारतीय बाजार को केप्चर कर लिया था। अब यदि  अगस्त -२०१४  में मोदी जी ने जापान  अमेरिका जाकर निवेश के लिए   पुनः  लाल-कारपेट  बिछाने की  दुहाई दी है  तो इसमें   गौरवान्वित होने जैसा  क्या है ?
          वेशक उन्होंने २१ वीं सदी के असल  नायक 'भारत -जापान'  बताये हैं. वो सब तो फिर भी ठीक है ,किन्तु  इन यात्राओं में वे  भारत को जरा ज्यादा ही कंगाल  निरूपित कर  आये हैं।  उन्होंने  भूटान,नेपाल ,जापान और  अमेरिका में  बार-बार  कपडे बदल कर- वैयक्तिक  तेवर बदलकर -भारत को 'कमतर' दिखाकर  तथा  सम्पन्न राष्ट्रों को 'माई-बाप' बताकर - याचक वाला  अंदाज  दिखाकर -देश को रुसवा ही किया है। यह आचरण कदापि   स्वीकार्य नहीं  किया जा सकता। नमो की  यह सांस्कृतिक,कूटनीतिक और राजनैतिक - चूक  समझ से परे   है।  भारत जैसे महान और विराट -शक्तिशाली लोकतान्त्रिक राष्ट्र के प्रधानमंत्री का - जापान और अमेरिका -जैसे मुनाफाखोर और सरमायेदार  देशों  के सामने झोली फैलाना गरिमामय नहीं कहा जा  सकता।  इससे हमे क्या फायदा  होगा ? केवल यही की दुश्मन का दुश्मन हमारा दोस्त कहने मात्र को हो जाएगा ! ये नकारात्मक विदेश नीति का  तुच्छ विचार  है। यह भारत के  गौरव पूर्ण स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है।

         जापान ,अमेरिका या चीन  यदि  भारत में  आगामी ५ सालों में १०  लाख  करोड़ का निवेश करते हैं  तो इसमें गर्व की क्या बात है ? इससे किसका भला होने जा रहा है ?  अतीत में  भी दान खाता लेकर  न  तो जापान  भारत   आया , न अमेरिका आया , न ही इंग्लैंड ।  ये सूदखोर पूँजीवादी  सरमायेदार राष्ट्र -केवल  उदारीकरण - भूमंडलीकरण   के बहाने,  अपनी पुरानी हो चुकी टेक्नॉलॉजी को भारत में खपाने,उनके घरेलू आर्थिक संकट को भारत जैसे विकाशशील राष्ट्र के कन्धों पर लादने तथा पुनः कुछ कमाने   - धमाने  ही भारत या  विश्व के किसी अन्य विकाशशील देश में डेरा डालने पहुँच जाते हैं।जबकि प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर सम्पन्न  भारत को - वैश्विक  आवारा पूँजी  के निवेश की कोई जरुरत ही  नहीं है।
                                       अभी कुछ दिनों पहले ही अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की मैनेजिंग डायरेक्टर ने  भी  अपनी  सालाना  रिपोर्ट में  भी यही दर्शाया था कि 'भारत  दुनिया का वह अमीर मुल्क है जहाँ संसार के सर्वाधिक गरीब रहते हैं ।  आर्थिक उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के कारण  ही भारत में अमीर और ज्यादा अमीर हो रहे हैं , गरीब और ज्यादा गरीब हो रहे हैं। भारत के तमाम खरबपति -अरबपति - पूँजीपति  चाहें तो अपने देश के गऱीबों की गरीबी दर्जनों  बार दूर कर सकते हैं।  "इसे न तो मनमोहनसिंह ने समझा और न मोदीजी समझना चाहते हैं ,वे तो अडानी,अम्बानी , भारती ,बिड़ला और टाटा के मुरीद हैं ,वे जापान के मुरीद हैं ,वे पैसे वालों के मुरीद हैं। गरीब को  वे  मात्र वोटर समझते हैं.इसमें किस उपलब्धि का बखान किया जा सकता है ?
                हालाँकि मनमोहन सिंह की  नीतियों के मद्देनजर  मोदीजी की नीतियों का आकलन किया जाए तो   दोनों का  डीएनए  भी एक ही है। यूपीए -२  के सापेक्ष -'मोदी सरकार'  प्रत्येक  क्षेत्र में  भले ही  आक्रामक  दिख   रही  है , किन्तु फिर भी वह यूपीए-१ से बेहतर परफार्मेंस  नहीं दे पा रही है ।  यूपीए-१ के दौर में  देश की जनता को जो राहत दी  गई  उस मनरेगा ,आरटीआई , आंशिक खाद्द्य सुरक्षा तथा संचार क्रांति के लिए कौन भुला सकता है ?  तब जो   इन्फर्स्ट्र्क्चरल डवलपमेन्ट  शुरू हुआथा  उसी की बदौलत तो  यूपीए को २००९ में  भी  दुवारा मौका मिला ! यूपीए-२ फिसड्डी रही इसलिए २०१४ के चुनाव में कांग्रेस और उनके गठबंधन साथियों की दुर्गति हुई। मोदी सरकार अपने प्रथम सौ दिनीं- कार्यकाल में 'यूपीए-३  जैसा आचरण करती रही  है। अभी तक वह किसी भी क्षेत्र में  मनमोहनी नीतियों से अलग नहीं हो पाई है।मात्र  मोदी जी के  मुखर होने  या हिंदी में बतियाने के अलावा और कोई फर्क इन दोनों में कहाँ है ?
                        वित्त मंत्री श्री जेटली जी के अनुसार  आर्थिक बृद्धि दर  विगत तिमाही में ५.७ की  दर्ज हुई है। जबकि  मई-२०१४ में यह ५ के आसपास थी।  पूर्व वित्त मंत्री  चिदंबरम जी का कहना है  की हमने जो बोया वही तो  'मोदी सरकार' के दौर में काटा जा रहा है।  ये तो हमारी उपलब्धियां है। मोदी सरकार  को तो अभी बक्त चाहिए। उनकी बात में कुछ वजन तो जरूर है। क्योंकि कुछ अन्य मुद्दों पर  खुद भाजपा प्रवक्ता भी  कहते  आ रहे हैं कि  'इतनी जल्दी आउट -पुट  नहीं आ सकता। परिणाम आने में बक्त लगता है। अभी तो हनीमून भी शुरू नहीं हुआ !  बच्चा  पैदा होने में समय लगता है। बगैरह बगैरह  …!
                          फिर भी माना जा सकता है कि - भारत  की जनता के लिए न सही किन्तु सत्ता रूढ़ राजनैतिक परिवार  के लिए  और खास तौर  से देश के उद्द्यमी वर्ग के लिए तो  यह एक शुभ और सुखद अनुभूति  ही  है कि प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र भाई  मोदी जी की चीन से वार्ता ठीक- ठाक रही  है। वाणिज्यिक दॄष्टि  से तो  जापान,अमेरिका  यात्रायें भी कमोवेश   सफल रही है । चूँकि विश्व आतंकवाद या भारतीय  उपमहादीप के हिंसक मजहबी उन्माद के लिए स्वयं अमेरिका ही जिम्मेदार है।  अमरीका या चीन से ये उम्मीद करना कि  वो पाकिस्तान  को आर्थिक मदद बंद कर देगा  पूर्णतः खंख़्याली  ही है।
             ठीक उस बक्त जब 'मोदी सरकार ' के १०० दिन पूरे  भी हुए। जब   श्री नरेंद्र भाई मोदी जापान स्थित ' तोजी  मंदिर ' में भगवान बुद्ध को प्रणाम कर रहे थे। 'वन्दे  मातरम' और 'भारत माता की जय  के  नारों के बीच जापान के प्रधानमंत्री श्री आबे के सानिध्य में - यूनेस्को द्वारा संरक्षित इस 'तोजी  मंदिर'  प्रांगण में श्री नरेंद्र  मोदी ने तभी  अपने प्रधानमंत्रित्व  कार्यकाल का सिंहावलोकन  भी  किया  हो तो अति उत्तम ।  उन्होंने  जापान की  जनता,वहाँ के नेता और मीडिया  को  तो अवश्य ही  प्रभावित किया है। शायद  मोदी सरकार  अपने  सौ दिवसीय कार्यकाल का लेखा -जोखा तैयार कर जनता के बीच लाने की मशक्क़त कर रही है।  किन्तु जहाँ तक देश की जनता -जनार्दन  की ओर  से  रिपोर्ट कार्ड प्रस्तुत किये जाने  का सवाल है तो अभी-अभी सम्पन्न विधान सभा उपचुनावों में वह उजागर हो चुका  है।  क्या  भाजपा नेतत्व इन हालात से परिचित है?
           भले ही प्रधानमंत्री ने अपने सांसदों, मंत्रियों और पार्टी पदाधिकारियों को हिदायत दे  रखी  है  कि "वे महत्वपूर्ण और नीतिगत मामलों में प्रेस से बातचीत न करें , यदि जरूरी हो तो होमवर्क कर लें ,मीडिया वालों से  हलकी-फुलकी बातचीत से बचें,अपने नाते-रिश्ते वालों को उपकृत करने या लाभ के पद पर बिठाने से बचें ". लेकिन फिर भी अधिकांस उसका पालन नहीं कर रहे हैं। पीएमओ को बार-बार फटकार लगाने की नौबत आ रही है। स्वयं प्रधानमंत्री जी  भी अपने सहयात्रियों को संदेह की नजर से देखते हैं  य़े सभी तथ्य बता रहे हैं कि  'मोदी सरकार' के   अंदर भी सब कुछ ठीकठाक नहीं है। जहाँ तक बाहर की बात है तो  इन १००  दिनों के कामकाज पर जनता और मीडिया  की मिश्रित प्रतिक्रिया  की बात है तो वह  बहुत  स्पष्ट  जाहिर हो  चुकी  है। इन ताजा विधान सभा के उपचुनावों  और उनके  परिणामों  से  सब को सब कुछ साफ़ -साफ दिख रहा है। बिहार में लालू नीतिश  गठबंधन पुनः हरा-भरा होने लगा है। उत्तराखंड  , कर्नाटक  , पंजाब , मध्यप्रदेश ,महाराष्ट्र छग  -  इत्यादि  प्रांतों में कांग्रेस को आशातीत सफलता मिली है। ऐंसा कोई राज्य नहीं  बचा जहाँ पर   कांग्रेस को  पुनः  विजय -संजीवनी  न मिली  हो ।
                  जनता के अच्छे दिन आये हैं  या नहीं ये  तय होना  तो अभी बाकी है.लेकिन  मोदी  सरकार के प्रथम १०० दिनों का देश की जनता पर असर परिलक्षित  होने लगा  है। कांग्रेस सहित सम्पूर्ण विपक्ष ,मय  -तीसरा मोर्चा -वाकई फीलगुड महसूस कर  रहे हैं । लोक सभा  की तीन सीटों में  से एक - टीआरएस ,एक भाजपा और एक सपा को मिली है। क्या बाकई  यह किसी तरह  के  'संघनिष्ठ प्रभाव' या 'मोदी लहर ' का असर है ? कांग्रेस को तो नेतत्व विहीन होने ,आपस में लड़ने -भिड़ने  के वावजूद ,इतनी  ज्यादा  बदनामी  होने के वावजूद,  बिना कुछ किये धरे ही प्रत्येक  राज्य में अप्रत्याशित समर्थन मिल रहा है। गुजरात  राजस्थान के  विधान सभा उपचुनाव में कांग्रेस को बिन मांगे ही जनता ने  तीन  सीटें जिताकर  लोकतंत्र में  उसके प्रति  अपनी आस्था  दुहराई  है।  यहाँ तक की कुछ जगह तो कांग्रेस  ने भाजपा की ही सीट  छीन ली है। हालाँकि जब तक कोई अन्य सार्थक  विकल्प नहीं मिलता -जनता  भी कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा  को ही  बारी  बारी से चुनने को अभिसप्त  है।  यूपी में सपा की बम्फर जीत और बंगाल में भाजपा का खाता  खुलना -एक ध्रुवीकृत  राजनैतिक रुझान का प्रमाण है। यूपी में  मायावती  की वसपा का मैदान से हटना और मुस्लिम +पिछड़ा +दलित का एकजुट होकर सपा को वोट करना। बिहार  के लालू-नीतीश  सिद्धांत का ही सफल  संस्करण है।  
 निसंदेह -भूटान ,नेपाल ,जापान यात्राओं में  मोदी जी ने वैश्विक मीडिया का ध्यान -आकर्षण   किया है किन्तु घरेलु मोर्चे पर हर  चीज जस की तस है.पूर्ववर्ती यूपीए और वर्तमान मोदी सरकार के क्रिया-कलापों में  केवल वित्तण्डावाद  और अम्लीकरण की तीव्रता  का फर्क है। कश्मीर में  बाढ़ प्रभावितों के प्रति मोदी जी ने सही संवेग और राजधर्म का परिचय दिया है। शायद इसीलिये उनके कटु आलोचक भी बहरहाल तो प्रशंसा ही कर रहे हैं। किन्तु जनता का रुझान  अब तेजी से भाजपा और मोदी सरकार के प्रति कम होने लगा है।
                         विगत लोक सभा चुनाव में  कांग्रेस नीत यूपीए के १० वर्षीय कुशासन से तंग आकर ही  देश की आवाम ने भाजपा या 'नमो' के नेतत्व में एनडीए को प्रचंड बहुमत  प्रदान किया था। लेकिन १०० दिनों में ही 'संघ' का और जनता का  भी  मोह भंग   होने लगा  है।  मोदी सरकार के लिए  यह खतरे की घंटी हो सकती है। अब  'मोदी सरकार ' का तलवार की धार पर चलने का वक्त आ  चुका है। आम तौर  पर  विश्लेषकों की राय है कि चूँकि   'नमो' रुपी बरगद के पेड़ के नीचे  अन्य  नेता -कार्यकर्ता रुपी पेड़- पौधों को अपना रूप -आकार विकसित करने का वांछित अवसर ही नहीं मिला तो परिणाम आशाजनक कैसे सम्भव हैं। अभी तो  हर चीज  'नमो' के कब्जे में है, यहाँ तक कि  कोई  केंद्रीय  मंत्री  तो क्या भारत का गृह मंत्री  भी  'नमो' की इच्छा के बिना अपना मनपसंद  पीए भी   नहीं  रख  सकता।  अतः यह सम्भव हो सकता है की व्यक्तिगत रूप से  तो 'नमो' अपना 'आउट- पुट ' देने में सफल रहे हैं , किन्तु विभिन्न राज्यों के भाजपाई नेता  , केंद्रीय  मंत्री  तथा पार्टी के नए पदाधिकारी - समष्टिगत रूप से  अपने रण - कौशल का इजहार करने में  अभी असमर्थ  हो  रहे  हैं। इसी लिए मोदी सरकार के १०० दिन सफल  होने में सभी को संदेह है । भारत  के कार्पोरेट घरानों  ,  पूँजीपतियों   ,मंदिरों  ,मठों, गिरजों, गुरुद्वारों  और वक्फ बोर्डों के पास इतना धन है कि  जापान को १० बार  खरीदा  जा सकता है। अमेरिका को  बाजार में  टक्कर दी जा सकती है।  भारत   के मध्यम  वर्ग के पास इतना सोना है कि  अमेरिका का स्वर्ण भण्डार भी शर्मा जाए !  चीन ,जापान ,अमेरिका और यूरोप  के आगे सर झुकाने से कुछ नहीं होगा प्रधान मंत्री  जी !  देश के अंदर  झाँक  कर  देखिये नरेंद्र भाई मोदी  जी   । कस्तूरी कुण्डल  वसे… याद  कीजिये मान्यवर  !   विनाशकारी पूँजीवादी  नीतियाँ   बदलिए   श्रीमान  ! यदि उठा सको तो - दुनिया के सामने भारत का  'सर उठा कर अपना  '५६' इंच का सीना  तानकर  दिखाओ ! तब शायद   कोई  बात बने' !

                                            -; श्रीराम तिवारी ;-