रविवार, 30 मार्च 2014

लोकतंत्र को ज़िंदा रखने वालों की अभी भी भारत में कोई कमी नहीं है !



     वर्तमान लोकसभा चुनाव के प्रचार में अति व्यस्त  नेताओं  के बयानों  और उनकी 'बाड़ी लेंग्वेज' का सूक्ष्म परीक्षण किया जाए तो उनके व्यक्तित्व ,विचारधारा और  नेतत्व क्षमता का आकलन आसानी से किया जा सकता है। मसलन 'आप' के नेता केजरीवाल -शुरू में वे आक्रामक  होते  हैं ,फिर खाँसते  हुए  मोदी -राहुल और अन्य दागी नेताओं  का कच्चा चिठ्ठा पेश करते हैं।  इसके बाद वे अडानी ,अम्बानी  और अन्य लुटेरों  के स्विस बेंक  खातों  का  जिक्र करते हैं। उनकी  नुक्कड़  सभाओं  में ,रोड शो में और प्रेस ब्रीफिंग में कुछ  अति आशावादी फुरसतिए  लोग उनके प्रभाव में आ जाते हैं।  इतनी मेहनत  मशक्कत बेकार नहीं जाती  'आप'  के  खाते में कुछ चन्दा तो  आ ही  जाता है। केजरीवाल कोई विचारक या सिद्धांत वेत्ता तो है नहीं ! योगेन्द्र यादव ,प्रशांत भूषण,  मनीष  सीसोदिया,कुमार विश्वाश  एवं  आशुतोष जैसे  'आप' के उच्च  शिक्षित साथी  भी किसी वैकल्पिक आर्थिक -सामाजिक  और राजनैतिक 'दर्शन' या  नीति के चितेरे  नहीं हैं।  वे  केवल भृष्टाचार उन्मूलन तथा  स्थापित पूंजीवादी दलों के  'साफ़-सुथरे' विकल्प बनने  की  काल्पनिक एवं अराजक कोशिशों  में जूट हुए  हैं।   वे   व्यवस्था परिवर्तन का  हो -हल्ला तो खूब मचाते हैं, किन्तु  व्यवस्था परिवर्तन  का अवसर दिए जाने पर उन्हें चुनौतियों से निपटने का उपाय नहीं सूझता तो  वे परोसी हुई थाली छोड़कर पलायन कर जाते हैं। ये जब  दिल्ली जैसे  नगरनिगम  नुमा राज्य  का सञ्चालन भी ठीक से नहीं कर सके तो देश का क्या ' भेला' का लेंगे ? इसीलिये अधिकांस  बुद्धिजीवी , विचारक एवं   प्रगतिशील चिंतक 'आप' को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं क्योंकि उनकी काबिलियत संदिग्ध है।  विगत  दिल्ली विधान सभा चुनाव में मिली आंशिक सफलता  से 'आप' के अविकसित नेता -कम एनजीओ संचालक  इस गलतफहमी में जा पहुंचे कि सारे देश में जमानत जब्त करने निकल पड़े हैं।
                 राहुल गांधी से देश को और खास तौर  से कांग्रेसिओं को बहुत उम्मीदें थीं  किन्तु विगत महीनों सम्पन्न ५ -राज्यों के विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की जो करारी हार हुई है,लगता है उसकी वजह से उनका  आत्म विश्वाश  ही डगमगा गया है।  केंद्र की यूपीए  सरकार ने जो कुछ भी   न्यूनाधिक काम किये होंगे उनको भृष्टाचार की आंधी और  और मॅंहगाई के तूफ़ान ने चपेट में ले लिया है। लगातार १० साल तक सेट ता में रहने से  कांग्रेस में जड़ता आ चुकी है,इसीलिये इन दिनों देश भर में कांग्रेस के खिलाफ जनाक्रोश चरम पर है। विपक्षी  राजनैतिक दलों  ने देश कि आवाम के गुस्से की आग में निरंतर घी डालने का काम जारी रखा है। उन्मुक्त मुनाफाखोरी की अलम्बरदार - आवारा  पूँजी के  तरफदार -कार्पोरेट लाबी से  संचालित  मीडिया  और सोशल साइट्स  का बड़ा हिस्सा  भी  कांग्रेस के खिलाफ जहर उगल रहा है।  व्यवस्थाजन्य  जनाक्रोश  को  परिवर्तन की लहर  के रूप में  पेश किया जा रहा है।  बेशक  २०१४ के लोक सभा चुनावों में  कांग्रेस और राहुल गांधी की सम्भावनाएँ  बहुत क्षीण हैं ।
                               किन्तु  इतिहास साक्षी है कि  आजादी के बाद देश की जनता ने  प्रयोग तो किये हैं किन्तु हर बार , घूम-फिरकर वापिस कांग्रेस पर ही भरोसा  करना पड़ा है। यही वजह है कि राहुल गांधी ने अभी तो प्रतिपक्षियों को  लगभग 'वाक् ओव'र  ही दे रखा है ।  वे शायद २०१९ के  अनुसार एजेंडे पर काम कर रहे हैं।  वैसे भी कांग्रेस के  पक्ष में सब कुछ  उतना ही  बुरा या नकारात्मक नहीं है  ,जितना कि नरेंद्र मोदी ,केजरीवाल जैसे  कुछ व्यक्तिवादी  नेताओं और सत्ता के दलालों  के बरक्स  दुष्प्रचारित किया जा रहा है।  वेशक  कांग्रेस कभी भी अप्रासंगिक नहीं रही  और न भविष्य में वह हासिये पर होगी।  इसकी प्रवल सम्भावना है कि २०१४ के आम चुनावों में  एनडीए  को शायद यूपीए से ज्यादा सीटें मिल जाएँ। यह भी सम्भव है कि नरेंद्र  मोदी ही एन-केन -प्रकारेण प्रधानमन्त्री बन ही जाएँ।  किन्तु स्पष्ट बहुमत अभी किसी को भी नहीं मिलने वाला है ।  क्योंकि ये गठबंधन का दौर अभी २० साल तक और जारी  रहेगा। वेशक  राहुल गांधी अब बिलकुल तनावमुक्त होकर अपने भविष्य की  राजनीतिक साधना  में तल्लीन रहते हैं तो  उनका भविष्य उज्जवल है ?  उन्हें यह कदापि उचित नहीं कि  बार-बार महात्मा गाँधी , अपने पिताश्री राजीव गाँधी  ,दादी श्रीमती इंदिरा गाँधी  और अन्य सपरिजनों  या कांग्रेसियों  कि कुर्वानियों की  दुहाई देते फिरें।  उन्हें  आरएसएस  या साम्प्रदायिक ताकतों पर हत्या का आरोप लगाने की भी जरुरत नहीं है।  वे सिर्फ इतना ही करें कि शालीनता से ५ साल विपक्ष में बैठकर अपनी बारी का इंतज़ार करें। वे चाहें तो आइंदा  महँगाई ,एफडीआई या भ्रष्टाचार पर  देश में जन-जागरण अभियान जारी रख सकते हैं। वे चाहें तो २००४ से १०१३ तक के  कार्यकाल में डॉ मनमोहनसिंह सरकार की  कुछ सकारात्मक उपलब्धियों को भी  देश की आवाम के सामने रख सकते हैं, किन्तु उन्हें अभी ५ साल विपक्ष की भूमिका के लिए ही तैयार रहना चाहिए। १९९९ से २००४ तक एनडीए की अटल सरकार को  भी बेहद फील गुड था किन्तु कांग्रेस को २००४ में फ्री कोकट में  ही सत्ता मिल गई थी।  ठीक  उसी तरह यदि २०१९ में  भी राहुल और कांग्रेस को बिना कुछ किये - धरे  ही  देश की जनता -केंद्र की सत्ता सौंप दे तो  इस सम्भावना से किसी को  कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए !
                   नरेद्र मोदी का नारा है "कांग्रेस मुक्त भारत "  यह बिलकुल  पक्की नाजीवादी सोच है।  याने "राज  करेंगे मोदी  और बाकी बचे न कोय " उनकी  ही अगुआई में संघ परिवार ने  देश भर में जो झूँठ -कपट -पाखंड का जाल फैलाया है  उससे पूरा देश  तो नहीं किन्तु पश्चिमी और मध्य भारत जरूर  बजबजाने लगा  है। भाजपा शाषित राज्यों  की फिजाओं में मोदी के उन्मादी तेवरों का  तीव्रतम असर है। उत्तर भारत के अधिकांस शहरों में मोदी की लफ्फाजी  हिलोरें ले  रही है। परजीवी  चाटुकार ,सत्ता के बिचोलिये और कांग्रेस के दल-बदलू भी  अब  भाजपा की चोखट पर  इन दिनों नाक रगड़ने को बेताब हैं। मध्यम वर्गीय अराजनैतिक किस्म  के अर्धशिक्षित  -   युवाओं  के संघ प्रशिक्षित  समूह  बिना इस बात  को जाने कि भारत में  प्रधान मंत्री का चुनाव जनता नहीं करती  बल्कि  जनता द्वारा चुने गए सांसद ही सदन का नेता याने देश का प्रधान मंत्री चुनते हैं। किन्तु ताज्जुब है कि न तो मोदी ने न संघ परिवार ने यह विमर्श जनता के समक्ष  छेड़ा और न ही केजरीवाल या अण्णा जैसे  अराजकतावादी इस पर कोई बात करते हैं।  अण्णा  हजारे तो केवल व्यक्तियों के विरोध और समर्थन के लिए कुख्यात है।  उसे प्रजातंत्र का  अर्थ भी नहीं मालूम फिर भी कुछ मूर्ख लोग उसे बड़ा गांधीवादी कहते हैं।  उसने पहले मोदी को ईमानदार बताया ,फिर ममता को ईमानदार बताने लगा अब उसे खुद केसिवा  कोई ईमानदार नहीं दीखता। इसी तरह  भारत के अधिकांस  व्यक्तिवादी लोग -अन्ना समर्थक ,रामदेव समर्थक  , ममता  समर्थक या मोदी समर्थक - सभी लोकतंत्र के  दुश्मन हैं। 
                               जो  केवल 'हर-हर मोदी -घर -घर मोदी ' चिल्ला  रहे हैं वे लोकतंत्र के शत्रु हैं ।  संघ  पर जो आरोप है कि उसकी  भारत के वर्तमान संविधान में  कोई आस्था नहीं है ,उसका एजेंडा कुछ और है !तो यह आरोप गलत नहीं है।  क्योंकि मोदी और संघ परिवार  कांग्रेस के खिलाफ  पनप रहे जनाक्रोश को अपने  पक्ष में  भुनाने की जी जान से  जो कोशिश कर रहे हैं उसमें  आंतरिक लोकतान्त्रिक  का दिखावा मात्र है। भले ही राजनाथ ने मोदी के उकसावे में आकर  एनडीए का कुनवा  बढ़ाने की  भी पर्याप्त  जुगत भिड़ा ली है। तमाम बदनाम   दल-बदलुओं और सरगनाओं को ऊँचे आसन  पर बिठाकर पाँव पखारे जा रहे है। आडवाणी   , जशवंतसिंह ,नवजोत सिद्धू ,लालमुनि चौबे और अन्य वरिष्ठ भाजपाई नीम से कड़वे लगने लगे हैं। चूँकि देश के पूँजीपति जानते है कि अभी कांग्रेस का या यूपीए का समय ठीक नहीं  है. इसीलिये वे भी फासिज्म के तरफदार हो गए हैं। उन्हें डर  है कि कहीं  खुदा -न-खास्ता  जनता  कांग्रेस को उखाड़कर किसी ऐंसे को सत्ता में न बिठा दे जो अमीरों के आराम में  खलल पैदा करे , उनकी मुनाफाखोरी और लूट में खलल पैदा कर दे।  कहीं कांग्रेस केस्थान पर लेफ्ट ,तीसरा मोर्चा  या  कोई  अन्य जनतांत्रिक  ताकतों का गठजोड़  सत्ता में न आ जाएँ। इसीलिये  देश के सारे लुटेरे -अमीर और सत्ता के दलाल आज कल "नमो नाम केवलम" का जाप   कर रहे है।  जो केवल तानाशाही और निरंकुश शासन  का आह्वान सिद्ध होगा।  गनीमत है कि दक्षिण भारत ,पूर्वी भारत  में तथाकथित मोदी लहर  का असर नहीं है! इसलिए मोदी और उन के शुभचिंतक वैचैन हैं।  याने लोकतंत्र को ज़िंदा रखने  वालों की  अभी भी भारत  में कोई कमी नहीं है !
                                                      श्रीराम तिवारी 
 

शुक्रवार, 28 मार्च 2014

भारत में यदि लोकशाही खतरे में है तो इसके लिए डॉ मनमोहनसिंह जिम्मेदार है !



    निसंदेह 'संघ परिवार' ,भाजपा ,स्वामी रामदेव और 'नरेंद्र मोदी की विचारधारा लोकतंत्र के बरक्स  'फासिज्म' की ओर ले जाती है।इस विचारधारा के नेता,उनके वित्तपोषक- कार्पोरेट संरक्षक लोकतांत्रिक बाध्यताओं के चलते   ऐन  चुनाव के दौरान ही नहीं अपितु हर समय - भारत के  अर्धशिक्षित एवं अविकसित मानसिकता  के जनगण को बरगलाने की कोशिश करते रहते  हैं । कुछ पढ़े-लिखे और सुशिक्षित जनगण भी किसी खास नेता ,महाबली,अवतार या पैगम्बर की आराधना में लीन  हो जाते हैं। वे  मानसिक रूप से सिर्फ  भृष्ट नेताओं या स्वामियों तक ही सीमित नहीं रहते, वे आसाराम ,निर्मल बाबा और उनके जैसे अधिकांस बदमाशों के चंगुल में भी हरदम फंसने को उतावले रहते हैं ।  जैसे कि अभी इन दिनों  ज्यादातर  मीडिया वाले और पैसे वाले  मोदी के तथाकथित  सुशासन ,विकाश, निर्बाध आर्थिक- उदारीकरण,बहुलतावाद  तथा अंध राष्ट्रवाद  के मुरीद हैं। कुछ ' सफेदपोश'तो  मोदी द्वारा परोसे गए आवाम के आम  सरोकारों का लालीपाप लपकने की कोशिश  में ही   फुदक  रहे  हैं।
                      उनका यह बहुदुष्प्रचारित एजेंडा  सभ्रांत वर्ग  के साथ -साथ   यूपीए और कांग्रेस  से नाराज लोगों को  भी खूब लुभा रहा है।  इन्ही कारणों से वर्तमान केंद्र सरकार  के खिलाफ  चल रही  एंटी इन्कम्बेंसी लहर को  मीडिया के मार्फ़त  'नमो लहर' बताया जा रहा है। हर प्रकार के प्रायोजित सर्वे में  तथा बहस मुसाहिबों में "हर-हर मोदी  - घर-घर मोदी "अव्वल बताये जा रहे हैं। हालाँकि  जो असल तस्वीर है वो अभी भी धुंधली है। आइंदा  राजनीति  का ऊंट किस करवट बैठेगा यह आंकना  अभी तो बड़ा मुश्किल काम है । यह  राजनैतिक तस्वीर  -  सुशासन ,विकाश , बहुलतावाद,राष्ट्रवाद  और सर्वजन सरोकारों का केनवास -लोक लुभावन नारों के रंगों से तैयार  किया गया है।यह  केवल एलीट क्लास  को  ही लुभा  पा रहा है। इस प्रायोजित  तस्वीर का रंग न केवल बदरंग है बल्कि नित्य परिवर्तनशील भी है। हालाँकि  इस तस्वीर में यूपीए, एनडीए या 'आप' के  अलावा भी बहुत कुछ  रचे जाने की गुंजायश है । अधिसंख्य क्षेत्रीय  दलों समेत तीसरे मोर्चे बनाम 'फर्स्ट फ्रंट ' एवं  तीन-चौथाई  भारत  की  राजनीतिक ताकत को अनदेखा कर मीडिया के माध्यम से केवल  मोदी ,राहुल तथा नवेले   नेता  -केजरीवाल को ही महिमा मंडित  किया जा रहा है।   इन्ही की आपस में व्यक्तिवादी तुलना भी की जा रही है? भारत के स्थाई शासक वर्ग  ने  यूपीए की लुटिया डूबते देख - यह वैकल्पिक  तस्वीर  याने छवि  केवल अपने क्षणिक 'नयन सुख'  के लिए नहीं अपितु सर्वशक्तिमान शाश्वत  सत्ता सुख के वास्ते निर्मित की है। इस बदरंग और अधूरी तस्वीर में  भविष्य के संकट का ऐंसा बहुत कुछ है जिसे छिपाया जा रहा है।  देश के कर्णधारों को   फासिज्म ' की  यह अनदेखी बहुत  महँगी  साबित हो सकती है।
                  कुछ चिंतकों और प्रगतिशील विचारकों को  यह  गलत फहमी है कि भाजपा की जरुरत ,आरएसएस के सरोकार , मोदी की आकांक्षा  और यूपीए की बदनामी के कारण ही  वर्तमान  दौर का विमर्श व्यक्ति केंद्रित हो गया है। शायद अनायास ही देश के कर्णधारों  ने नीतियां  , कार्यक्रम  एवं राष्ट्रीय  चुनौतियों  के विमर्श को हासिये पर धकेल दिया गया हो. यह सच है कि संघ परिवार हमेशा अपने एजेंडे-एक्चालुकनुवर्तित्व  का मुरीद रहा है, किन्तु इतिहास के पन्नो पर बिखरे सबूतों ने सावित कर दिया है कि  इसका तात्पर्य व्यक्ति नहीं बल्कि विचारधारा ही   है। अब यदि इन दिनों  भारत में 'राग मोदी' की धूम है तो इससे देश की सेहत पर कोई खास फर्क नहीं पड़ने वाला। वैसे भी  इसमें  सारा  कसूर मोदी या संघ परिवार का ही  नहीं माना जा सकता। मान लो   यदि यूपीए -प्रथम की तरह ही यूपीए -२  को  भी  वामपंथ का समर्थन होता और कुछ 'जनकल्याणकारी काम हुए होते तो कांग्रेस  और यूपीए की नैया  इस तरह भवर में हिचकोले नहीं खाती।  इसके अलावा "नमो नाम केवलम' के लिए   देश की आवाम का एक बहुत बड़ा वर्ग भी  जिम्मेदार है। जो हंसी-मजाक में अभी "नमो-नमो' या "हर-हर मोदी -घर-घर मोदी " का जाप करने में मशगूल है।  वो  नहीं जानता कि देशी-विदेशी आवारा पूँजी ने सारे विमर्श को जान बूझकर  'नमो' केंद्रित कर रखा है। जो कि  पूँजीवाद  और फासिज्म दोनों  का उपासक है.                            वर्तमान प्रधान मंत्री डॉ मनमोहनसिंह  की नीतियां  भी इसी पूँजीपति   वर्ग के  हितों की ही पोषक रही  हैं । चूँकि  वे साम्प्रदायिकता, निर्बाध पूँजीवाद  और 'निरंकुश' शासन के पक्षधर नहीं रहे इसलिए  वे न केवल मोदी से बल्कि एनडीए की अटल सरकार से   भी बेहतर माने जांयेंगे । क्योंकि उनके नेत्तव में  न तो सरकार  फील गुड में है और न ही कांग्रेस।  अब यदि वे १० साल बाद पदमुक्त हो रहे हैं और कांग्रेस भी कुछ सालों   के लिय  यदि सत्ता सुख से वंचित हो भी जाती है तो भी उनका यह एहसान तो अवश्य है कि वे फासिस्ट नहीं हैं या कि लोकतंत्र को  डंडे से  नहीं हांका। हालाकि उनकी नीतियों के कारण ही देश के अमीर और ज्यादा अमीर हुए और निर्धन और ज्यादा निर्धन। डॉ मनमोहनसिंह की नीतियों को ही १९९९ -२००४  तक तत्कालीन एनडीए की अटल सरकार ने भी अपनाया था। अमेरिका प्रणीत  और मनमोहन सिंह द्वारा स्थापित नीतियों  को एनडीए ने   इतना अमली जमा पहनाया  कि तब उन्हें "इण्डिया शाइनिंग' और राजनीतिक फील गुड होने लगा था। यूपीए और कांग्रेस को या डॉ मनमोहनसिंह को वैसा घमंड या फीलगुड नहीं हो रहा जैसा भाजपाइयों को २००४ में सत्ता में रहते हो रहा था। आज भले ही  मॅंहगाई ,बेरोजगारी और भृष्टाचार  के के लिए डॉ मनमोहनसिंह की नीतियों को और यूपीए सरकार को गालियां दीं जा रही हैं किन्तु देश को  यह याद रखना  चाहिए  कि मोदी और भाजपा की नीतियाँ   भी वही हैं जो डॉ मनमोहनसिंघ की हैं। चूँकि डॉ मनमोहनसिंह  , सोनिया गांधी और कांग्रेस  के नेत्तव में भारत में लोकशाही  ज़िंदा रही इसलिए उन्हें धन्यवाद दिया जा सकता है । किन्तु उनकी विनाशकारी आर्थिक  नीतियों के कारण  जब जनाक्रोश चरम पर है और जबकि  देश पर  फासिज्म  के सत्ता में आने  की प्रवल  सम्भावनाएं  हैं तो  डॉ मनमोहन सिंह ,सोनिया गांधी ,राहुल और कांग्रेस  पर यह आरोप सदा लगाया जाता रहेगा कि वे भारत में 'फासिज्म' को मौका  देने के लिए उतने ही  जिम्मेदार हैं जितने  कि व्यक्तिपूजक -साम्प्रदायिक और दिग्भ्रमित  जनगण।

                          श्रीराम तिवारी   



 

सोमवार, 24 मार्च 2014

पूँजीवादी दलों का सारा कूड़ा करकट दल-बदल के मार्फ़त- भाजपा ने अपने 'आंचल' में समेट लिया है।

   

   ऐंसा लगता है कि १६ वीं संसद के आसन्न चुनाव -प्रचार के दरम्यान 'संघ परिवार' पुनः फील गुड में आ  चुका  है.भाजपा ही नहीं बल्कि जनसंघ के संस्थापकों को भी लतियाया जा रहा है। मोदी और राजनाथ को  बिहार  में काला चोर चलेगा किन्तु  लालमुनि चौबे नहीं चाहिए।भोपाल से ऐरा-गेरा नत्थूखेरा  चलेगा किन्तु आलोक शर्मा नहीं चाहिए। कर्नाटक में  प्रमोद मुतालिक चलेगा किन्तु राजस्थान में वसुंधरा को  जशवंतसिंघ नहीं चाहिए । लखनऊ से लाल जी टंडन ,वनारस से मुरली मनोहर जोशी नहीं होना मांगता !  गुजरात में मोदी को संजय जोशी , हरिन  पाठक  ,अशोक मेहता ,पंड्या , केशु भाई पटेल ,अशोक दवे  या अमुक-ढीमुख नहीं चाहिए। उनका वश  चले तो उन्हें तो आडवाणी ,सुषमा,शिवराज,विजय गोयल ,सुधींद्र कुलकर्णी ,राजनाथसिंह  और मोहन भागवत  भी नहीं चाहिए।  कहा जा रहा है कि "मोदी लहर ' है,  आंधी है।   यह आंधी मोदी को पी एम् बना पायेगी ये तो पक्का नहीं है. किन्तु  ये पक्का है कि  इस राजनैतिक अंधेरगर्दी की आंधी ने कांग्रेस का,यूपीए का और देश के अन्य दक्षिणपंथी पूँजीवादी  दलों का सारा कूड़ा करकट  दल-बदल के मार्फ़त- भाजपा ने अपने  'आंचल' में समेट  लिया है।  इन महाभृष्ट दलबदलुओं -सत्ता पिपासुओं और मौकापरस्तों के गंदे पोखर  में  सत्ता का  'कमल '   भले ही खिल भी जाए  किन्तु  देश की जनता  को -गरीबी ,भ्रष्टाचार ,मंहगाई और अराजकता से मुक्ति  मिल पाना सम्भव नहीं !
                                                                              श्रीराम तिवारी 

शनिवार, 22 मार्च 2014

शहीद भगतसिंह अमर रहे ! इंकलाब जिन्दावाद !! क्रांति अमर रहे !!!

 आज से ८३ साल पहले आज ही  के दिन  साम्राज्यवादी  अंग्रेज  हुक्मरानों द्वारा  महज एक  खास  क्रांतिकारी अर्थात शहीद भगतसिंह  ही नहीं अपितु एक  कालजयी शानदार विचारधारा को भी  फांसी दी  गई थी। जो लोग भगतसिंह को केवल एक क्रांतिकारी या शहीद मानते हैं  उनकी निष्ठां को नमन। किन्तु वास्तव में  भगतसिंह एक महानतम विचारक ,चिंतक ,प्रगतिशील साहित्यकार ,क्रांतिकारी पत्रकार और उद्भट स्वाधीनता सेनानी थे।  भगतसिंह के सहयोगी कामरेड शिव वर्मा द्वारा संपादित पुस्तक "शहीद  भगतसिंह :चुनी हुई कृतियाँ "और उनके मार्फ़त लिखी गई बहुमूल्य "भूमिका''  में वह सभी सामग्री  उपलब्ध है जो शहीद भगतसिंह के चाहने वालों  को उनके बारे में सही -सही जानकारी देने में सक्षम है। 
              शहादत के बाद से ही   भारत में  हर पार्टी और हर  नेता-  शहीद  भगतसिंह को अपने  मन माफिक परिभाषित करने में  जुटा रहा है ।  इसमें कोई बुराई नहीं।  अमर शहीद  तो सभी की श्रद्धा का पात्र होता ही है। किन्तु जब कोई नकारात्मक ग्रुप या  व्यक्ति शहीद  भगतसिंह को 'हाइजेक' करने की कोशिश करे याने उसके अपने नकारातम्क  विचारों में पिरोने की कोशिश करे तो तदनुरूप विमर्श लाजमी है।  दुनिया जानती है कि भगतसिंह तो जातिवाद , साम्प्रदायिकता ,पूंजीवाद तथा  साम्राज्य वाद  के घोर विरोधी थे।  भारत में सबसे पहले उन्होंने ही नारा लगाया था "इंकलाब जिन्दावाद''. फांसी के तख्ते से उन्होंने ही सबसे  पहले हुंकार भरी थी कि "साम्राज्य वाद का नाश हो "अपने  एक प्रसिद्ध आलेख में  सर्वप्रथम उन्होंने ही कहा था कि :-
   '             'जब तलक  दुनिया में शक्तिशाली मुल्कों द्वारा -निर्बल राष्ट्रों का शोषण होता रहेगा ,जब तलक  दुनिया में शक्तिशाली लोगों द्वारा निर्बल व्यक्तियों का शोषण होता रहेगा ,जब तक दुनिया में  सामाजिक -आर्थिक और राजनैतिक असमानता है  ,जब तक मनुष्य द्वारा  मनुष्य का शोषण -उत्पीड़न जारी  है -तब तलक  क्रांति के लिए 'हमारा' संघर्ष जारी रहेगा "
              वैसे तो  आरएसएस,शिवसेना ,सी पी एम् ,सीपीआई  तथा प्रगतिशील-जनवादी साहित्यकारों  के कार्यालयों में ,अण्णा हजारे के मंच पर ,स्वामी रामदेव के मंचों पर भगतसिंह की तस्वीरें लगी हुई देखीं जा सकतीं  हैं। ओमप्रकाशसिंह 'घायल',कृष्णकुमार  कुमार  ,चकोर ,सत्तन और  विश्वाश  जैसे अपरिपक्व कवियों की  कविताओं  में भी  भगतसिंह के तेवर  नजर आते हैं. किन्तु वामपंथ को छोड़कर  बाकी के सभी में अंध-राष्ट्रवाद ,साम्प्रदायिकता  ,पूंजीवाद  और साम्राज्यवाद की  सड़ांध कूट  कूट कर भरी   है.साथ ही भगतसिंह के 'नारों' का अर्थ भी ये नहीं जानते। यदि जान जायंगे तो ये सब भी कटटर  'कम्युनिस्ट' हो जायेंगे। क्योंकि भगतसिंह ने स्वयं लिखा है कि वे 'वोल्शेविक" हैं। वोल्शेविक का क्या मतलब होता है यह बताने की जरुरत नहीं। फिर भी कोई मंदबुद्धि है तो उसे वह पुस्तक एक बार अवश्य पढ़ना चाहिए जो फाँसी  के कुछ क्षणों पहले भगतसिंह ने पढ़ डाली थी। उस पुस्तक का नाम है "लेनिन की जीवनी " है। 

  आज से ४५ साल पहले की बात है। विश्वविद्द्यालयीन  छात्र जीवन के दौरान  सागर के लकड़ी -चद्दर  वाले-खण्डहरनुमा  इकलौते किराए के कमरे [ स्थानीय  बोली में -कोठा] में रहता था। उस दौरान मेरे पास  निर्धारित  कोर्स  सम्बन्धी  सेकंड हेंड  पुस्तकों के अलावा रामायण ,गीता और हनुमान चालीसा की भी एक -एक पुस्तिका हुआ करते थी।  हनुमान जी की एक तस्वीर भी हुआ करते थी । उस  छाती फाड़  तस्वीर में श्रीराम जानकी और लक्ष्मण प्रकट हो रहे थे। इसके अलावा एक मात्र अनमोल पूँजी  मेरे पास  और भी  थी । एक अदद  गैर धार्मिक  तस्वीर-जिसमें शहीद भगतसिंह,राजगुरु,सुखदेव तथा चंद्रशेखर आजाद का ओज  दमकता रहा  था।वो तस्वीर-  जिसमें भगतसिंह  के सिर पर हैट है ,चंद्रशेखर आजाद  मूँछ ऐंठ रहे हैं,राजगुरू -सुखदेव भी शौर्य मुद्रा में सीना ताने खड़े हैं- उस दौर में  किसी घर में इस तस्वीर का होना राष्ट्रीय चेतना से सराबोर होने  ,प्रगतिशील होने तथा  शिक्षित  - सुसभ्य  होने का द्दोतक हुआ करता था।  यह तो  याद नहीं कि किस प्रेरणा से ये तस्वीर मेरे समीप  आई। शायद किसी हिंदी फ़िल्म में  स्वाधीनता संग्राम के ह्रदय विदारक दृश्यों  से प्रभावित होकर या किसी राष्ट्र कवि  की  ओजस्वी  कविता  से प्रेरित होकर कमरे में लगाईं होगी।  हालाँकि उस दौर में  देश के विभाजन विषयक तत संबंधी  मर्मान्तक  साहित्य  का सृजन इफरात से हो रहा था। एक ओर शहादत हसन  मंटो,इस्मत चुगताई,भीष्म शाहनी ,अब्दुल गफ्फार खान जैसे लोगों ने आपबीती लिखी तो  दूसरी ओर  बालीबुड ने भी - धरती कहे पुकार के  '   'पूरब -पश्चिम' 'दस्तक' 'नया दौर 'मदर इंडिया ' जैसी अनेक   राष्टवादी फिल्मों  का  निर्माण किया। आजादी मिलने  के बाद  देश की गुलामी के इतिहास  की तपिश से प्रेरित  इतिहास लेखन का  दौर  बुलंदियों को छूने लगा। इसी दौर में राष्ट्रवाद के अतिरेक तथा  स्वाधीनता संग्राम के  बलिदानियों के प्रति  कृतज्ञ भाव से शायद  मेने यह  तस्वीर अपने 'अध्यन  कक्ष' में लगाईं होगी ।
                           इतने सालों बाद भी  यह तस्वीर मैंने  अभी तक  सम्भाल  रखी  है। हर साल १५ अगस्त  ,   २६ जनवरी, २-अक्टूबर ,१४ नवम्बर को और खास तौर पर  २३ -मार्च को  इस तस्वीर  पर पुष्पांजलि अर्पित करता  हूँ।  इस तस्वीर के कारण  मुझे विश्व के तमाम क्रांतिकारी साहित्य ही नहीं वरन  विभिन्न क्रांतियों के इतिहास को सरसरी तौर  पर जानने -समझने  की भी  प्रेरणा मिली। इस के कारण ही  भारत और विश्व के   महानतम बलिदानियों  के विचारों  को  जानने -समझने  की उत्कंठा उत्पन्न  हुई और ततसम्बन्धी   अध्यन  की अभिरुचि ने  ही मार्क्स, एंगेल्स ,लेनिन, चेग्वेरा ,रोजा  लक्जमवर्ग , गोर्की ,आष्ट्रोवस्की ,हो-चिन्हमिन्ह , ईएमएस, एकेजी ,बीटीआर ,स्टालिन या माओ ही नहीं बल्कि फायरबाख ,वाल्टेयर ,रूसो , जार्ज वाशिंगटन और गैरी बाल्डी  जैसों को भी पढ़ने का मौका मिला। इन्हें पढ़ने -समझने के बाद ही ये जाना कि इन सबके वैचारिक  सारतत्व  का नाम ही 'शहीदे आजम भगतसिंह " है।  इन दिनों  भारतीय जन-मानस  में और विशेषतः अंधराष्ट्रवादी ग्रुपों   व्यक्तियों और संगठनों में न केवल  इन नायकों के उत्सर्ग  की  अतिरेकपूर्ण कहानियाँ गढ़ी  जा रही हैं ,  अपितु शहीदों के व्यक्तित्व्  का चमत्कारिक रूप ह्रदयगम्य किया जा रहा है। भगतसिंह के  क्रांतिकारी  'विचारों'  को जाने बिना ही उन्हें साम्प्रदायिक और फासीवादी लोग अपना हीरो सिद्ध करने में जूट हैं। यह केवल अनैतिक कदाचार  ही नहीं  बल्कि राष्ट्रीय अक्षम्य अपराध  भी है।
           अण्णा हजारे ,केजरीवाल ,बाबा रामदेव या कांग्रेस ही नहीं बल्कि 'संघ परिवार' भी  शहीद भगतसिंह के मुरीद  बनने  का ढोंग करते हैं।  किन्तु वे यह जान बूझकर छिपा जाते हैं कि शहीद  भगतसिंह ही नहीं बल्कि उनके तमाम साथियों की 'विचारधारा' क्या थी।केवल  शहीद भगतसिंह ही नहीं बल्कि उनके तमाम साथी  भी  जिस  'हिंदुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी '  के सदस्य थे  उसके बारे में संघियों का ,कांग्रेस का  , भाजपा  का और 'आप' का क्या ख्याल है ? सभी अपने आप को गर्व से 'वोल्शेविक "कहा करते थे.   क्या बाबा रामदेव यह जानते हैं ? क्या संघी , केजरीवाल ,अण्णा  या रामदेव जो 'इंकलाब जिन्दावाद 'का नारा लगाते हैं  ,उन्हें उसका अभिप्राय मालूम है ? ' साम्राज्यवाद  मुर्दावाद '  का नारा लगाने वाला केवल वही  हो सकता है जो लेनिन और स्टालिन  के विचारों  से सहमत हो।  चूँकि भगतसिंह लेनिन के अनुयायी थे इसलिए उन्हें यह हक था कि  वे 'साम्राज्यवाद  -मुर्दावाद 'या 'इंकलाब जिन्दावाद ' का नारा बुलंद करें।  इन दिनों भारत में  फासीवादी  ताकतें ,  व्यक्तिवादी अराजक  किस्म के नेता ,साम्प्रदायिक उन्मादी  सभी भगतसिंह का और उनके साथियों का  नाम लेकर राजनीती कर रहे हैं वे दरशल भगतसिंह को न तो  जानते  हैं और न ही उनके विचारों के समर्थक हैं   ये ढोंगी ,पाखंडी ताकतें सत्ता प्राप्ति के लिए  देश के अमर शहीदों का बेजा इस्तेमाल कर रहीं हैं।

                    शहीद  भगतसिंह अमर  रहे !  इंकलाब  जिन्दावाद !! क्रांति   अमर रहे !!!

                                        श्रीराम तिवारी  

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

इस साल रंगपंचमी पर हो गई ,भारत की जमकर बल्ले-बल्ले।



    इस साल रंगपंचमी पर हो गई ,भारत की  जमकर   बल्ले-बल्ले।

   दिन में होली -रात दीवाली ,  गाँव -शहर में क्रिकेट के  हल्ले-हल्ले।।

   पाकिस्तान पर भारत की जीत,कोहली- धवन- रेना के बल्ले-बल्ले।

    रवींद्र जडेजा -भुवनेश्वर -रोहित के ,अभी  तो मजबूत हैं कल्ले-कल्ले।।
    
                   श्रीराम तिवारी  

तो 'मोदी विरोध ' का क्या औचित्य रह जाएगा ?



  देश में ,दुनिया में ,भाजपा के अंदर ,भाजपा के बाहर और राजनैतिक विमर्श के सम्पूर्ण परिवेश में - जो लोग नरेंद्र मोदी के नेत्तव का विरोध कर रहे हैं वे वेशक  धन्यवाद के पात्र हैं। किन्तु जो लोग 'संघ परिवार' और उसके अनुषंगी राजनैतिक  संघठन  भाजपा की 'दूषित' विचारधारा का विरोध करते हैं वे उनसे भी  महान हैं। लेकिन  जो लोग वंशवाद , अलगाववाद ,क्षेत्रीयतावाद ,व्यक्तिवाद ,जातिवाद,उग्र वाद  तथा हर किस्म की  लूट और शोषण-अन्याय का विरोध करते हैं ,उसके खिलाफ संघर्ष करते हैं - वे ही  असली देश भक्त हैं। इन सबसे महान और देशभक्त वो हैं जो दल-बदलुओं  को कभी  माफ़ नहीं करते हैं।  नरेंद्र मोदी उतने खतरनाक नहीं जितना की उन्हें बताया जा रहा है। नरेद्र मोदी से कई गुना खतरनाक ,जहरीले और सत्ता लोलुप और राष्ट्र विरोधी  लोग न केवल 'संघ परिवार' में  बल्कि अन्य पूंजीवादी -क्षेत्रीय -व्यक्तिवादी- गैर भाजपाई  दलों में  भी  भरे पड़े हैं। मुलायमसिंह ,मायावती ,जयललिता ,करूणानिधि या नवीन पटनायक ही नहीं बल्कि शिवसेना ,मनसे,अकाली   ,हजपा या झारखंड मुक्ति मोर्चे में से ऐंसा कौन सा दल या नेता है  जो दूध का धुला है या जो भाजपा या मोदी  से किसी भी आपत्तिजनक मामले में उन्नीस है ? झारखंड की जनता ने एक बार 'एक आम आदमी'[मधु कोड़ा। को मौका दियाथा  उसने क्या गुल खिलाया? यह सर्वविदित है कि उस वंदे ने २ साल में  ही ५ हजार करोड़ की सम्पदा लूटकर स्विस बेंक में जमा कर डाली।  हमारे आधार प्रणेता नंदन नीलकेणी जी ने विगत कुछ ही सालों में  ७७५०० करोड़ कमाए ,कहाँ से आये ? मोदी के ऊपर तो सभी हमलावर हैं ,होना भी चाहिए क्योंकि वे कहीं न कहीं दोषी है किन्तु मोदी के बहाने देश में मोदी से ज्यादा खतरनाक और लुटेरे छुट्टा क्यों घूम रहे हैं ? क्या वे सिर्फ इसलिए सदाशयता के पात्र हैं कि वे  'पी  एम् इन वैटिंग ' नहीं हैं ? 
              संघ परिवार ने जानबूझकर  ये इंतजाम किया कि  मोदी  पर  निरंतर  कटटर हिंदुत्वादी  होने का शोर मचाया, ताकि बहुसंख्यक हिन्द समाज का ध्रुवीकरण 'संघ' निर्देशित भाजपा  के पक्ष में किया जा सके। अब जबकि उन्हें लगने लगा कि इतनी मेहनत  -मशक्कत के वावजूद ,गुजरात विकाश के झूंठ परोसने के वावजूद ,पूँजीपतियों  को देश की सम्पदा लूटने की खुली छूट देने के वावजूद - अकेले हिंदुत्व्  या 'नमो नाम केवलम 'से  आगामी लोक सभा चुनावों में एनडीए का कुनवा  २७२ तक नहीं पहुँचने वाला  है तो वे  अब  आनन्  -फानन राष्ट्रव्यापी दल-बदल अभियान में जी जान से जुट गए हैं. कर्नाकट के महाभृष्ट  श्रीरामलु  , येद्दुरप्पा से लेकर उत्तराखंड के सतपाल महारज तक और  मुंबई के नचैये -गवैयों से लेकर यूपी के जगदम्बिका पाल  तक  जो कल तक पानी पी -पी कर भाजपा और मोदी को कोसते रहते थे वे सभी अब उसी सड़ांध भरी नांद  में मुँह  मारने को उतावले हो रहे हैं।  यह स्प्ष्ट है कि भाजपा और संघ परिवार  कोई पवित्र गंगा सागर नहीं है कि कोई भी गटर या नाला  उसमें आकर मिल जाए और पवित्र हो जाए ! किसी ने  क्या खूब  कहा है कि जब नाव डूबने को होती है तो चूहे सबसे पहले भागते हैं !  कांग्रेस की डूबती नाव से  उछलकर   भाजपा की साम्प्रदायिक एवं  पूँजीवादी नांद में गोते लगाने को आतुर दल बदलुओं को पुण्यात्मा मानकर लोग यदि फिर से चुनते हैं और  एनडीए के  इस तरह के  २७२ संसद  चुनाव जीत जायेंगे  तो 'मोदी विरोध  ' का क्या  औचित्य  रह जाएगा ?
                               

                                                श्रीराम तिवारी -[www.janwadi.blogspot.com]
   
  

गुरुवार, 20 मार्च 2014

"वतन की फ़िक्र कर नांदां ,मुसीबत आने वाली है"

 

  मीडिया के माध्यम से और संघ परिवार के 'कनबतिया'प्रोग्राम की असीम अनुकम्पा से  भारत में लोक सभा  चुनाव  के बरक्स   इन दिनों  एक छवि का निर्माण किया जा रहा  है कि गुजरात के महान[?] मुख्यमंत्री और भाजपा तथा एनडीए के तथाकथित प्रतीक्षारत  प्रत्याशी प्रधानमंत्री  श्री नरेंद्र मोदी मानो वनारस और वडोदरा से संसद में पहुँचने वाले हैं और भाजपा  एक सिंगल लार्जेस्ट पार्टी के रूप में राष्ट्रव्यापी स्पष्ट जनादेश पाकर अपने  एनडीए  अलायंस  को साथ लेकर मोदी के नेत्तव में महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के समक्ष पेश  होगी  कि 'लो हुजूर  हम आ गए  हमें शपथ दिलाओ '!कि लाल किले पर भगवा झंडा फहराने का वक्त आ गया है। कि भारत को अब लोकतंत्र नामक 'बिजूके' की,धर्मनिरपेक्षता के पुरातन मूल्यों कि अब  कोई जरुरत नहीं क्योंकि एक अदद फुहरर देश की सेवार्थ  अब  संघ परिवार ने पैदा कर लिया है।
                राजनीति  यदि तथाकथित अनेक  संभावनाओं  से भरी पड़ी  है तो जो कुछ परिदृश्य सप्रयास निर्मित किया जा रहा  है, तश्वीर इसके उलट  क्यों नहीं  हो सकती है? जैसे  कि  मान लो  कांग्रेस अपने दिग्गज और  धर्मनिरपेक्ष चेहरे -दिग्विजयसिंह  को वनारस से चुनाव लड़ा दे.तमाम गैर भाजपाई पार्टियां - सपा  , वसपा  , वामपंथ , नवोदित 'आप'  और समस्त धर्मनिरपेक्ष -जनतांत्रिक ताकतें  एकजुट होकर दिग्विजयसिंह को जिताने में जुट जाएँ  तो  मोदी को वनारस से  हराया क्यों नहीं जा  सकता ? मानलो मोदी  वनारस से हार जाएँ और उन्हें हराने वाला  कोई  भी  हो ,भले ही वे  दिग्विजयसिंह  ही  न हों !  मोदी वनारस से हारते हैं तो यूपीसे  उनका अधिक से अधिक सीट लाने का मनोरथ भी पूरा कैसे हो सकेगा ?  तब जरूरी नहीं कि भाजपा को उसके चापलूसों ने  अपने काल्पनिक सर्वे में  जो २०० से ज्यादा सीटें एडवांस में दिलवा दीं वे मिल ही जाएँगी  ! तब  जरूरी नहीं कि एनडीए का कुनवा २७२ को छू सके ! तब  जरूरी नहीं कि 'गुजरात नरेश ' वड़ोदरा से जीतकर भारत के प्रधानमन्त्री बन ही  जाएँ ! तब यह भी तो सम्भव है कि  वनारस कि ही तरह  धर्मनिरपेक्षता की  राष्ट्रव्यापी जीत  भी प्रत्याशित  हो !
                     चूँकि  कांग्रेस[यूपीए]  , सपा  , वसपा  , वामपंथ ,जदयू ,नवीन पटनायक ,जयललिता तथा अन्य  कई भाजपा विरोधी पार्टियाँ  और धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं और वे सभी  चाहें तो  न केवल वनारस बल्कि  अखिल भारतीय पैमाने पर धर्मनिरपक्ष मतों का विभाजन रोकर कटटर साम्प्रदायिकता का ,फासिज्म का ,पाखंड  की विजय का रास्ता रोक सकते है. जनतांत्रिक ताकतों  का  अभी भी देश में बहुमत है। धर्मनिरपेक्ष   ताकतों की एकजुटता से ही  निरंकुश शासकों के आसन्न संकट  को रोका जा सकता है। यदि एकजुट नहीं होंगे तो लतियाये  जायेंगे और फिर दशकों तक लोकतंत्र की वापिसी के लिए संघर्ष करना होगा। अभी तक तो  केवल वामपंथ ही   भारत  में धर्मनिरपेक्ष  - जनतांत्रिक शक्तियों की एकता के लिए  निरंतर प्रयास रत रहा है लेकिन  कांग्रेस  सपा ,वसपा , जदयू ,आप और अन्य सभी  दल  अपने निहित स्वार्थजन्य - अहंकार के चलते मोदी की आंधी को केवल सत्ता परिवर्तन समझने की भूल कर रहे हैं। इन सभी को चाहिए कि अपने -अपने पार्टी आफिस की दीवारों पर जनाब अल्लामा इकबाल साहिब की ये पंक्तियाँ  लिख लें ताकि विवेक जागृत होने की कुछ तो  सम्भावना बनी रहे।  


    "वतन की फ़िक्र कर नांदां ,मुसीबत आने वाली है,

      तेरी बर्बादियों के मशविरे हैं आसमानों में ,

      न संभलोगे तो मिट जाओगे ,हिंदोस्ताँ वालो ,

      तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी दस्तानों में "


                                                                           श्रीराम तिवारी
   

बुधवार, 19 मार्च 2014

एनडीए की मांद में , डूब रहे गुलफाम !




      देश की  संसद  के लिए  , हो रहे आम  चुनाव।

      जाति -मज़हब -वंश ने,  पुनः बनाया  ठाँव।।

  
      ठग -लम्पट फिर से  खड़े  , बाहुबली  तमाम।

      जिनके कारण देश की ,  संसद  हुई  बदनाम।।


        कोटि जतन चिंतक  करे ,और चुनाव आयोग।

       धांधली आम  चुनाव  की , मिटा नहीं है रोग  ।।

    

     लोकतंत्र के बदन पर, जिनने किये हैं घाव।

      जनता उन्  नेताओं पर ,पुनः लगाती दाव।।                                  


      मोदी माथे फिर लगा , कदाचरण का दाग।

       भंडाफोड़  उनका हुआ  ,विकीलीक्स के ब्लॉग ।।


      निंदारस  के नवोदित , नेता  'आप' बेजोड़।

       गृह जिसके  बलवान हैं ,उससे करते होड़ ।।



       सतपाल महारज भी , ,चले भाजपा द्वार।

      कांग्रेस की  नाव  का , कौन है  खेवनहार ।।


      जदयू -जया -करुणानिधि  , वसपा -सपा- नवीन ।

      वामपंथ के बिना नहीं , बजे किसी की   वीन।।


         दल -बदलू पिछड़े -दलित  , कल तक थे बदनाम ।

          एनडीए  की  मांद  में , डूब रहे गुलफाम ।।

                      श्रीराम तिवारी




     

रविवार, 16 मार्च 2014

यदि 'विजयपथ ' इतना आसान है तो नरेद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते ?


   संघ परिवार और भाजपा की पुरजोर चेष्टा है कि एन-केन प्रकारेण केंद्र की सत्ता  हासिल की जाए। नरेद्र मोदी को  प्रधान मंत्री बना जाए। संघ का अजेंडा लागू किया जाए।  यूपीए की गफलतों,नाकामियों और उससे जनता की नाराजी को वोटों की शक्ल  में  बदलकर जन -समर्थन   अपनी ओर  करने के विभिन्न क़दमों के बरक्स सेलिब्रटीज को ,कलाकारों को ,फ़िल्मी हस्तियों को ,पत्रकारों को और रिटायर्ड अफसरों को  तो भाजपा टिकट दे ही रही है , साथ ही दल बदलुओं -भ्रस्ट नेताओं को ,धनकुबेरों को और  महाभ्रष्ट बाहुबलिओं को भी संसद में बिठाने  का अवसर प्रदान कर  रही है। हालांकि ममता ,जय ललिता और 'आप' के तेवर भी कुछ ऐंसे  ही हैं किन्तु इनकी कोई खास औकात नहीं है कि बिना भाजपा या बिना कांग्रेस के समर्थन के ये दुमछल्ले दल केंद्र की सत्ता का कोई  कोना भी छू सकें।इन चिंदी चोरों को बजाजी का शौक भले ही चर्राया हो किन्तु ये सभी अगंभीर किस्म की राजनीति  के खुरचन मात्र हैं ! इसीलिये मीडिया भी इन्हें कुछ खास तवज्जो नहीं दे रहा है ।    
                      मीडिया के  केंद्र में  अभी तो फिलहाल  केवल मोदी सिरमौर हैं।  विभिन्न सर्वे और सूचनाएँ  बता रहीं हैं कि आगामी लोक सभा चुनाव के उपरान्त गठित होने जा रही १६ वीं   लोक सभा में  एनडीए का कुनबा बढ़ता जा रहा है। ये  कयास भी  लगाए जा रहे हैं कि आगामी केंद्र  सरकार के गठन  हेतु   न केबल एनडीए को वांछित  बहुमत हासिल होने जा रहा है बल्कि अकेले भाजपा ही  'सिंगल लार्जेस्ट पार्टी ' के रूप में २००  सीटों का आंकड़ा  पार करने जा रही है। देश के प्रमुख शहरों के परम्परागत सटोरिये तो  नरेद्र मोदी को १०० % भारत का  भावी प्रधानमंत्री मान चुके हैं।हो सकता है आसन्न भविष्य में राजनैतिक सीनेरियो  इससे कुछ अलग  हो ! सम्भव है  कि इतिहास  इन सभी पूर्वानुमानों को  २००४ की तरह ही गलत साबित कर दे!  किन्तु अब गुंजाइश कम ही है। काश  ऐंसा हो जाए कि  एनडीए-यूपीए दोनों ही सत्ता से बाहर हो जाएँ ! काश यह सम्भव हो  कि एंडीऐ की सरकार  ही न बन पाये !यदि बन भी जाए तो कम से कम यही  सम्भव  हो  कि  'नमो' पीएम न बन सकें!  भले ही अटलनुमा  कोई और  चेहरा सामने आ जाए  !  वास्तव में मोदी अब व्यक्ति नहीं रह गए हैं। वे उन तमाम विचारधाराओं के प्रतीक बन चुके  हैं जो देश के मजदूरों  - गरीबों ,किसानों और अल्पसंख्यकों के हितों से ऊपर,देश की गंगा जमुनी तहजीब से ऊपर ,देश के सार्वजनिक  उपक्रमों से ऊपर,कार्पोरेट लाबी को ,  भृष्ट  पूंजीपतियों को , सत्ता के दलालों को  और देश की सम्पदा को लूटने वालों को वरीयता प्रदान  करती है।
                                                चूँकि  गठबंधन की राजनीति का दौर है कुछ भी अप्रत्याशित सम्भव है। भले ही 'नमो ' देश के प्रधानमंत्री  न बन पाएं, किन्तु यूपी में और खास तौर  से काशी-बनारस   में   धर्मनिरपेक्ष दलों की वर्तमान दुर्दशा याने आपसी फूट बता रही है कि  यदि मोदी  'वनारस' से लोक सभा का चुनाव लड़ते हैं तो उनकी जीत १००% पक्की है। मोदी की यह जीत गुजरात से बाहर पहली होगी और यह बेशक  कट्टर  पूँजीवाद की जीत होगी ! मोदी की वनारस से जीत याने 'कट्टर साम्प्रदायिकता  ' की जीत होगी  ! मोदी की बनारस से जीत याने नाजीवाद  की आग को हवा देना जैसा है। मोदी की वनारस से जीत याने भारत में 'फासिज्म' का उदय ! वनारस की, यूपी की और  भारत की  धर्मनिरपेक्ष -  जनतांत्रिक ताकतें यदि  एकजुट होकर मोदी को वनारस में  जीतने से नहीं रोक सकतीं तो उनको प्रधानमंत्री बनने से भी  नहीं रोक सकेंगीं  !  मोदी यदि वनारस से संसद में जाते हैं तो इसके लिए न केवल यूपीए बनाम कांग्रेस जिम्मेदार होगी ,न केवल माफिया डॉन मुख्तार अंसारी जैसे तथाकथित मसलमानों के स्वयंभू ठेकेदार जिम्मेदार होंगे ,न केवल केजरीवाल जैसे ढपोरशंखी अराजक नेता जिम्मेदार होंगे ,न केवल मुरली मनोहर जोशी-लालकृष्ण आडवाणी-लालजी टण्डन और सुषमा स्वराज जैसे रणछोड़दास जिम्मेदार होंगे  ,न केवल  ममता -माँयावती-जयललिता जैसी अहंकारी नेत्रियां जिम्मेदार होंगी ,न केवल मुलायम,नीतीश नवीन और पासवान  जैसे  जातीयतावादी और फिरका परस्त - मौका परस्त जिम्मेदार होंगे -  बल्कि  वे राजनैतिक शक्तियां भी मोदी की जीत के लिए  जिम्मेदार होंगी जिन्होंने तटस्थता का रुख अपनाया हुआ है।  जिन्होंने अतीत में लगातार  अल्पसंख्यकों का,दलितों का और  पिछड़ों का भरपूर  राजनैतिक दोहन  किया है वे नेता और दल भी मोदी रुपी प्रचंड आंधी के आह्वान के लिए जिम्मेदार माने जायेंगे। अभी तक जो यूपीए और इन क्षेत्रीय दलों ने  किया है वो सब मोदी की जीत का इंतजाम मात्र है।
            अब यदि भाजपा या संघ परिवार भी 'हिन्दुत्व 'और विकाश के मुद्दे पर यही करता  है और मोदी को वनारस से  जिता  ले जाता है तो  इसमें क्या शक   है ? यदि अल्पसंख्यक समाज के ध्रुवीकरण की ही प्रतिक्रिया स्वरुप बहुसंख्यक समाज  भी ध्रुवीकृत होकर 'नमो' को जीत दिलाता है तो  मोदी की  इस जीत के लिए न सिर्फ मुस्लिम कट्टरपंथी  तमाम  नेता बल्कि  वे भी  जिम्मेदार होंगे  जो नहीं जानते कि  नरेंद्र मोदी फ़ासिज्म  के घोड़े पर सवार होकर  पूँजीवाद  का अश्वमेध करने क्यों  जा रहे  हैं ? जो यह नहीं जानते कि मोदी और संघ परिवार  साम्प्रदायिकता का  नरमेध करने  के लिए इतने  उतावले क्यों  हो रहे  हैं ? जो लोग  यह सब नहीं जानते और फिर भी आज 'नमो' का जाप कर रहे हैं तो  इसे  सामूहिक  हाराकिरी के अलावा  क्या कहा जा सकता  है ? न केवल  बनारस के रास्ते, बल्कि मध्यप्रदेश ,गुजरात ,राजस्थान ,दिल्ली और छ्ग से  मोदी के राज्यारोहण की सम्भावनाएँ अत्यधिक बलबती होती  जा रही हैं। इसकी वजह क्या है ?     
                           दुनिया का सबसे बड़ा और  भारत का सबसे  कट्टर साम्प्रदायिक ,अतुल्य ताक़तवर एवं  तथाकथित   गैरराजनैतिक संगठन "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ'जिसका सृजनहार हो , छद्म  विकाशका नारा  जिसका  अलमबरदार  हो, कट्टर हिंदुत्व् वाद जिसका   सरपरस्त हो ,देश-विदेश के अधिकांश  सरमायेदार  - पूँजीपति  जिसके मुरीद हों ,जो कांग्रेस समेत तमाम गैरभाजपाई पार्टियों  की असफलताओं और कमजोरियों को तो  अतिश्योक्तिपूर्ण ढंग से निरंतर बखान करता  रहता हो  किन्तु देश में हुए अब तक  हुए अनेक  बेहतरीन कामों के बारे में  मौन रहता हो,जो देशव्यापी मैराथान -विराट आम सभाओं में न केवल बार-बार गुजरात विकाश का झूँठ  परोसता रहा हो बल्कि आकर्षक योजनाओं के लालीपाप को  प्रस्तुत करते रहने में  भी अव्वल रहा हो ,जो  ततसम्बन्धी परिवर्तन के लिए  वैकल्पिक  नीतियों  पर चुप्पी लगाए रखता हो,जिसे मीडिया को साधने का हुनर आता हो ,जो  कारण थापर जैसे पत्रकारों के जहरीले  सवालों को  शंकर  की तरह  पीने में माहिर हो ,जो परिवार  की झंझटों से दूर हो  ,जो अपने ही  वरिष्ठों  का निसंकोच  लतमर्दन  करने में  निपुण हो , जो सामाजिक -जातीय -क्षेत्रीय आकांक्षाओं के दोहन में निष्णात हो ,जो न केवल गुजरात बल्कि भारत  के तमाम 'सत्ता के दलालों 'का आकर्षण केंद्र बन चुका  हो ,वो वनारस से  देश का सांसद क्यों नहीं बन सकता ? यदि सांसद बन सकता है तो देश  का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकता ?
                                    वर्गीय स्वार्थों में बटे धर्मनिरपेक्ष दलों की आपसी खींचतान के कारण, सामाजिक - जातीय -साम्प्रदायिक  विषमता के कारण, निर्धन -निर्बल किसान -मजदूर और दीगर सर्वहारा वर्ग  में अपनी  वर्गीय चेतना का अभाव और संघर्षों की शक्ति को संसदीय ताकत में बदल पाने  का माद्दा या हुनर नहीं होने के कारण, उनके हरावल दस्तों के  असंगठित होने के कारण ,कांग्रेस- यूपीए  की विनाशकारी नीतियों का धर्मनिरपेक्ष -जनतांत्रिक विकल्प अभी तो भ्रूण अवश्था में भी नहीं है। एनडीए का या भाजपा का या मोदी का आर्थिक दर्शन यूपीए का ही आर्थिक दर्शन है।  यूपीए -एनडीए के डॉ मनमोहनसिंह के विनाशकारी आर्थिक  विकल्प से चिपके रहने  के कारण   देश  की अधिसंख्य आवाम का जीवन दूभर हो चूका है।  देश की आवाम को  भृष्टाचार और कुशाशन से  तब तक  निजात नहीं मिल सकती जब तक इन नीतियों को नहीं बदला जाता।  चूँकि मोदी का दर्शन वाही है जो यूपीए का है ,कांग्रेस  का है  या डॉ मनमोहनसिंह का है। जब कांग्रेस के पराभव  का पूरा इंतजाम डॉ मनमोहनसिंह कर चले हैं तो 'नमो' का  'विजयपथ ' इतना  आसान क्यों नहीं होगा ?  मोदी भारत के प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते ?

             श्रीराम तिवारी    

मंगलवार, 11 मार्च 2014

सत्ता का नाटक करें ,धतकर्मी शिवराज!

    


     ओला वृष्टि   आपदा  ,मध्यप्रदेश पर गाज।

     सत्ता का नाटक करें ,धतकर्मी  शिवराज।।


    धतकर्मी  शिवराज , दिल किसानों का तोड़ें ।

    नाकामी   निज   छिपा,केंद्र पर ठीकरा फोड़ें।।


    सारे देव मनाये , फिर भी खाली है झोला।

     कितना ही मुँडवाओ, अब तो पड़ना  ही है ओला।।

                      श्रीराम तिवारी


   


    


   

बुधवार, 5 मार्च 2014

केंद्र के खिलाफ तांडव नृत्य में लीन हैं शिवराज !




                            वैसे तो 'संघ' परिवार' के तमाम समर्थक, प्रचारक,अनुयाई और नेता  एक जैसे   ढपोरशंखी  ,गप्पवाज  तथा  मिथ्यावादी  हैं।  किन्तु संघ ने  मोदी को जो अपना  अल्पकालिक 'राजनैतिक कमांडर इन -चीफ' बनाया है वो लगता है कि  उनके वैचारिक चिंतन की कसौटी पर खरा उतने वाला  नहीं है। संघ ने अपने सुनिश्चित मापदंड और तयशुदा सिद्धांत के तहत ही  यह  निर्णय लिया  होगा  कि  गोयबल्स सिद्धांत "एक झूंठ सौ बार बोलो तो  कुछ मूर्ख लोग उसे सच ही मानने लगेंगे " ' के अनुपालन  में  सर्वश्रेष्ठ निष्णांत  'नमो'  को ही अपना राजनैतिक उत्तराधिकारी घोषित किया है।  लेकिन यदि 'संघ ' की नजर शिवराज पर नहीं पडी तो यह शिवराज का दुर्भाग्य और मोदी का सौभाग्य है।  वास्तव में शिवराज ही हैं जो मोदी से कुछ  ज्यादा  ही उस सिद्धांत  में सिद्धहस्त हैं कि "झूंठ बोलो -जोर से बोलो -बार बार बोलो".  जिस तरह मोदी  अपने प्रदेश [गुजरात] को प्रोपेगंडा के मार्फ़त  लगातार  सिंगापूर जैसा सर्वोन्नत और 'महान' बताते हुए नहीं थकते।  ठीक उसी तरह शिवराज  इन्ह चौहान भी मध्यप्रदेश् को  नार्वे  या   स्विट्जरलेंड  जैसा समृद्ध बताने में रंच मात्र  नहीं शरमाते।
                    मध्यप्रदेश में इस साल  हायर सेकेंडरी और हाई स्कूल के सैकड़ों छात्रों को एन परीक्षा के  एक घंटे पहले  ही  बताया जा रहा है कि चूँकि  आपके  स्कुल ने आपका रेकार्ड नहीं भेजा इसलिए  बोर्ड द्वारा आपको रोल नंबर  नहीं दिया जा सकता। यह  सर्विदित  है कि  मध्यप्रदेश सरकार का केवल माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता  महाविद्द्यालय  ही नहीं बल्कि समूचा  शिक्षा विभाग  ही  सीधे -सीधे 'आरएस एस के हाथों में कसमसा रहा है  . संघ संचालित शिवराज सरकार का कहना है कि  छात्र  परीक्षा  में नहीं बैठ सकते। सवाल  है कि  क्यों ? इसमें  छात्रों की  गलती क्या  है ? यदि शासन की या सरकार की गलती से सैकड़ों बेगुनाह छात्र  परीक्षा  से वंचित हो रहे हैं तो सरकार का उत्तरदायित्तव क्या है ?उधर व्यावसायिक परिक्षा मंडल में हुए  भयानक भ्रस्टाचार की  कालिमा से शिवराज का चेहरा बदरंग हो रहा है।  शिवराज के कार्यकाल में ही  रिश्वतखोरी  से की गईं भर्तियों से, योग्यता  की उपेक्षा से जहां   हजारों मुन्ना भाई इनके कार्यकाल में  डॉ बन चुके हैं वहीँ दूसरी ओर  सभी सरकारी महकमों में केवल या तो संघनिष्ठ भ्रष्टाचारी  घुसे हैं या  व्यापम जैसे घोटालों से उत्पन्न  अयोग्य  अक्षम और मक्कारों की फौज प्रदेश का सर्वस्व लूटने में  जुटी है।  शिवराज ने अपने कार्यकाल में ऐंसे  डाक्टर  तैयार किये  है  जिनका उस्तरा मरीज के आपरेशन में नहीं उसकी जान लेने के काम आयेगा। शिवराज सरकार ने ऐंसे इंजीनियर और ठेकेदार  तैयार किये हैं कि उनके बनाये पुल  एक महीने में ही धराशाही हो रहे हैं। किसी को विश्वाश न हो तो  सूचना के अधिकार के तहत जानकरी ले सकता है कि नए पुल ही क्यों धर्षायी हो रहे हैं जबकि  अंग्रेजों के जामने के १००-१५० साल पुराने पुल आज भी पुख्ता हैं।
                  मध्यप्रदेश में मावठे की  तूफानी बारिस और ओलों से   गेंहूं -चना -मसूर तथा रवी की अधिकांस  फसल  चोपट हो चुकी है ,शिवराज  चौहान तो  खेतों में फोटो  खिचा  रहे हैं। उनके सहयोगी मगरमच्छ  के आंसू बहा रहे हैं। करोड़ों रूपये उनकेउज्जैनी  मंत्रीमंडल बैठकों पर  तथा करोड़ों  उनके हेलीकाप्टर पर  फूँके जा रहे हैं. शिवराज के साथ सैकड़ों कारों  का  कारवाँ धुल उड़ाकर मध्यप्रदेश  के सूखा पीड़ित किसानों को आत्महत्या पर मजबूर कर  रहा है .शिवराज सिंह मीडिया को मेनेज कर ,अखवारों को विज्ञापन देकर सत्ता की राजनैतिक   नौटंकी कर रहे हैं। केंद्र सरकार के खिलाफ धरना ,प्रदर्शन और उपवास  का नाटक कर रहे हैं। उनके संगी साथी सभी  इस समय फीलगुड में हैं। अफसर भ्रस्टाचार में सराबोर हैं। मध्यप्रदेश से  आगामी लोक सभा चुनाव में  में "२९ में से २९'  सांसद जिताने  का मकसद है शिवराज का। ताकि चुनाव बाद वे  मजबूती से मोदी के अगेंस्ट   एनडीए के वैकल्पिक पी एम् प्रत्याशी बन सकें। इसीलिये वे भी मोदी की ही तरह कांग्रेस मुक्त मध्यप्रदेश का    नारा लगा रहे हैं।  हकीकत यह है कि मध्यप्रदेश में  विपक्षी कांग्रेस और अन्य दल   अभी  जनता से कोसों दूर है।
                        रोम जलने पर  नीरो ने बांसुरी बजाई  थी ये तो पक्का पता नहीं किन्तु शिवराज सरकार और  संघ परिवार  सभी मिलकर इस असंकट की घड़ी में केवल सत्ता की  राजनीति कर रहे हैं। जिस तरह नमो  ने  गुजरात बाइब्रेंट ,नर्मदा साबरमती को जोड़ने जैसे  मुद्दों के बहाने गुजरात और देश में पकड़ बनाई उसी के  बरक्स  शिवराज ने भी  मध्यप्रदेश विकाश   के लिए पूँजी निवेश के लिए पूँजीपतियों  को लुभाया , नर्मदा -शिप्रा को जोड़ने का मुद्दा उछाला ,केंद्र के तथाकथित सौतेले व्यवहार के तराने गाये और  अखवारों में विकाश के   शगूफे बड़ी चतुराई से आसमान में   उछाले  हैं। उन्होंने  मध्यप्रदेश  को 'मददयप्रदेश ' बना डाला है। हर गाँव  हर गली में शराब की दूकान खोलने में शिवराज शायद देश में सबसे  आगे हैं।  मध्यप्रदेश की अस्मिता और जनता का  सब कुछ चुनाव की बाली बेदी पर  चढ़ाकर शिवराज कन्द्र के खिलाफ 'आंदोलन' के  'तांडव' नृत्य में लीन   हैं
                                       जिस तरह  केदारनाथ त्रासदी के समय जबकि  सारा देश हिल चूका था तब 'नमो' उस पर भी राजनीती कर रहे थे। गप्प मार रहे थे कि मेने १५००० लोगों को बचाया। चाहे गोधरा कांड हो ,चाहे मुजफ्फरनगर साम्प्रदायिक उन्माद हो ,  चाहे मेरठ साम्प्रदायिक  दंगा हो,चाहे सीमाओं पर पाक आतंकवादियों के हमले हों हर राष्ट्रीय आपदा के समय 'नमो' ने केवल राजनीति  ही की है। हर संदर्भ में देश  और दुनिया  के सामने   मोदी ने लफाजी और  झूंठ  के परनाले  बहाये  है. गुजरात की अधिकांस जनता दुखी और ट्रस्ट है किन्तु दम्भ पाखंड के तुमुलनाद में जनता की आवाज को निरतर दवाया जा रहा है।  इसी तरह शिवराज  भी एक तरफ तो  नर्मदा का चुल्लू भर  पानी शिप्रा में डालकर मालवा को गुजरात से बेहतर  बंनाने  का सपना दिखा रहे हैं  दूसरी ओर  भुखमरी के शिकार मध्यप्रदेश को बचाने  के लिए  केंद्र से हजारों  करोड़ों की भीख मांग रहे हैं।  चूँकि आचार संहिता लग चुकी है और केद्र सरकार भी बिना छानबीन के ,बिना चुनाव आयोग की अनुमति के कुछ नहीं कर सकती।  फिर भी शिवराज  ने भी  मोदी की तर्ज पर अपनी सभी  नाकामियों को केंद्र पर ढोलते रहने का ढपोरशंख बजाना जारी  रखा है. मध्यप्रदेश में कांग्रेस सन्निपात की अवस्था में ,तीसरा मोर्चा बिखरा हुआ है  और 'आप' का आता-पता नहीं है इसलिए संघ परिवार के लिए यदि मोदी शुम्भ हैं तो शिवराज निशुम्भ साबित होने जा रहे हैं।
                   यदि आप से कोई सवाल करे कि  गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के वर्तमान 'पी एम् इन वेटिंग' श्री नरेंद्र भाई मोदी   की तरह 'गोयबल्स' के  पदचिन्हों पर शतप्रतिशत  चलने वाला नेता भारत में दूसरा  कौन है? याने  केवल  अपनी वाग्मिता  से  जनता को मूर्ख बंनाने बाला फासिस्टों की  बेहतरीन  नक़ल करने वाला शख्स  भाजपा  में कौन है ?तो आप बेहिचक कह सकते हैं -सिर्फ और सिर्फ शिवराजसिंह चौहान -वर्तमान   मुख्यमंत्री [म.पृ ] . इन दिनों शिवराज न केवल  सिर्फ 'नमो' की नक़ल में जुटे  हैं। वे   'नमो' को छोड़कर शेष सम्पूर्ण संघ परिवार को ,मोहन भागवत को ,  राजनाथ  सिंह को  ,आडवाणी जी  को ,मुरली मनोहर जी  को  यहां  तक की  सुषमाजी को भी  मध्यप्रदेश में महिमा मंडित कर  अपना  पुरषार्थ दिखाने में मशगूल हैं. एतद  द्वारा लिख दिया  जो सनद रहे वक्त पर काम आवे कि चुनाव  वाद भाजपा संसदीय बोर्ड की पहली  मीटिंग में शिवराज भी  मोदी के सामने  खड़े हो सकते है  शिवराज मोदी को तगड़ा  झटका दे सकते हैं ! तब नमो  नाम केवलम का क्या होगा ?

                                   श्रीराम तिवारी 

मंगलवार, 4 मार्च 2014

[चुनावी छप्पय छंद ]



     कोर कसर नहीं रखना है साथियो  ,

     वेला चुनावों की चरम पर आई है ।


     सोच समझ  वोट करना है  साथियो,

      देश के लुटेरों की करना धुनाई  है  ।।


       यूपीए  -कांग्रेस  अमीरों की जेब में ,

       वोटर  इनको गरीब की लुगाई है।


      अण्णा  अनाड़ी है ,ममता  खिलाड़ी है ,

     चिंदी  मिली  चुहिया  को   नंगी नहाई  है ।।

 
        केजरी -अमीरों  के  मुरीद 'आप' भी हैं ,

       तभी तो विनिवेश पर मुहर  लगाईं है।

     
         भ्रस्ट -पस्त दल-बदलु घेर-घार एनडीए ,

         'नमो' ने  सत्ता की जुगत भिड़ाई है  ।। 


                श्रीराम तिवारी
 

शनिवार, 1 मार्च 2014

सम्पादकीय -फॉलो अप -मार्च -२०१४

 सम्पादकीय -फॉलो अप -मार्च -२०१४

                भारत की सोलहवीं लोक सभा के लिए  आसन्न  चुनावी जंग  का बिगुल बज चूका है। चुनाव आयोग, सत्ता रूढ़ यूपीऐ गठबंधन ,प्रमुख विपक्षी एनडीए गठबंधन,थर्ड फ्रंट,लेफ्ट फ्रंट समेत तमाम राजनैतिक पार्टियां, मीडिया ,पूंजीपति और सत्ता के दलाल सभी अपने -अपने काम पर लग गए हैं। इन सभी पक्षों के आपसी वाद- संवाद  और तुमुलनाद  से आवाम याने जनता याने मतदाता किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो रहा है।  देश की  आजादी के बाद से हीअभी तक तो  लगातार यही  परिलक्षित हो रहा है कि  अधिकांश  शिक्षित और अशिक्षित जनता खुद ही  दिग्भ्रमित है।सम्भवतः उसकी सोच  है कि  देश को चलाना और उसके भविष्य का निर्धारण करना उसका काम नहीं। यह काम केवल राजनीतिक  नेताओं का है।
                             देश में बहुत सारे ऐसे नर-नारी  भी हैं  जो सोचते हैं 'कोउ होय नृप हमें का हानि"।कुछ तो   ऐंसे भी हैं जो सोचते हैं "होहि है सोई जो राम रचि  राखा ''  कि हमारे -तुम्हारे करने से कुछ होने वाला नहीं।  जो चल रहा है वही  प्रभु' की मर्जी है । इसके बरक्स सिस्टम पर काबिज  घोर स्वार्थियों -लालचियों  के अलग-अलग  समूह बड़ी चालाकी से - कभी यूपीए  के नाम से ,कभी एनडीए के नाम से  और कभी तीसरे मोर्चे के नाम  से देश  पर शासन  करते रहे हैं।  इस वर्ग ने अपने निहित स्वार्थ , अपने वर्गीय स्वार्थ  और अपने -अपने परिवार स्वार्थ  सिद्धि करते हुए अपनी  व्यवस्था के सभी क्षेत्रों में अपनी नाकामियों ,अपने नैतिक  कदाचरण , अपने आर्थिक घोटालों  के झंडे गाड़े हैं। ये शासक लोग  व्यवस्था जन्य  भृष्टाचार तथा  राष्ट्रीय  स्तर पर अनुत्तरित  अनेक  ज्वलंत यक्ष- प्रश्नों  की जिम्मेदारी देश की अवाम पर   थोपते आ रहे  हैं।  देश  की जनता  भी खुद ही जाने-अनजाने , प्रजातंत्र रुपी  आम्रवृक्ष को काटने में सत्ता की  कुल्हाड़ी  का  बेंट  बन ती  चली जा रही  है। भारतीय प्रजातंत्र के महान और विराट वृक्ष को अतीत में  भी हजारों बार विदेशियों  ने  भी जी भर कर  लूटा खरोचा था।  हमें फिर भी गुमान है कि :-
      
        "कुछ बात है ऐंसी कि हस्ती मिटती नहीं हमारी , सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा "
    
 अब भारत के नौनिहाल  शासक भी , उसके अपने वतनपरस्त भी , उसी लूटखोरी के  काम में  जुटे  हुए हैं। हर पांच साल बाद  लोक सभा  चुनाव ,विधान सभा चुनाव याने आम चुनाव में दिग्भ्रमित  जनता  भी बारी-बारी से  उन्ही को  चुनती  चली आ रही है जो  भारतीय प्रजातंत्र के इस दरख्त की कोंपलों को नोंचते रहते हैं। फर्क सिर्फ इतना हर है कि जब कांग्रेस ज्यादा बदनाम हो जाती है तो ऐंटी इन्कम्बेंसी  फेक्टर का लाभ उठाकर कहीं -कभी   भाजपा,  कहीं वसपा , कहीं सपा , कहीं बीजद ,कहीं जदयू , कहीं राजद  और  अन्य  राष्ट्रीय या क्षेत्रीय दल   प्रजातंत्र रुपी आम्रकुंज को उजाड़ने का अवसर पा जाते हैं.  आइंदा  आगामी पांच  वर्ष के लिए  राष्ट्र वृक्ष को कुतरने का यह सौभाग्य अब  किसे  मिलेगा  यही देश के वर्तमान  विमर्श का प्रश्न है ?  इस हेतु   आजकल   असली -नकली प्रायोजित -विभिन्न मीडिया सर्वे  भी  बदनाम हो रहे  हैं।  जो" पी एम् इन  वैटिंग" में हैं या उम्मीद से हैं या  अभी विपक्ष में हैं  वे  जन मानस को अपने पक्ष में लाने   की हर सम्भव कोशिश में जी जान से  लगे हैं। अभी तक उन्होंने २७६ से ज्यादा विशाल आम सभाएं कर डाली हैं। याने जितने सांसद उन्हें प्रधानमंत्री बनाएंगे उतनी सभायें तो अब तक मोदी जी ने कर ही डाली हैं। यह सवाल पूंछ जा सकता है कि यदि एक रैली में कम से कम एक करोड़ भी खर्च हुआ तो ये २७६ करोड़ मोदी को किसने दिए ?क्यों दिए ?क्या  केजरीवाल का आरोप सच है कि मोदी और राहुल तो अम्बानी की जेब में हैं।
               मोदी जैसे अर्धशिक्षित लोग भी  चाय चोपाल से लेकर ,राष्ट्रीय -अंतर्राष्ट्रीय सवालों पर विशेषज्ञता बघार रहे हैं।  वे अपने  गठबंधन में  उन सभी छोटे-बड़े क्षेत्रीय दलों  को लुभाने  में भी  जुटे हैं जो उन्हें  २७६ सांसदों  का आंकड़ा पार करने के लिए जरूरी हैं.  उनके लिए अब नीतीश न सही तो  पासवान  भी  चलेगा ! उनको  ससम्मान वापिस बुला रहे हैं जो  २००२ में अटलजी के[एनडीए] राज में  साम्प्रदायिकता के नाम पर  इन्ही नरेंद्र मोदी की भूरि-भूरि निंदा करते हुए यूपीए के चरणांनुगामी  हो गए थे।जो   मोदी विरोध के नाम पर ,मंत्री पद को भी  ठोकर मारकर चले गए थे।  वे पासवान ,वे येदुरप्पा अब पाक साफ़ होकर एनडीए की मांद  में डुबकी लगा रहे हैं। दलित नेता रामराज उर्फ़ उदितराज  जो  कभी संघ परिवार को मनुवादी और भाजपा को सवर्ण पार्टी के रूप में देखा करते थे ,जो अम्बेडकरवादी  और  गोलवलकर वादी कभी  एक- दूसरे  को फूटी आँखों देखना भी पसंद नहीं करते थे वे  अब  एक मच पर एक साथ गलबहियाँ  डाले खीसें निपोर रहे हैं।जय हो !  जो कभी कहा करते थे "बुद्धम शरणम गच्छामि"  वे अब न केवल सत्ता शरणम गच्छामी  बल्कि संघम शरणम गच्छामि हो रहे हैं।
             सत्ता की  की चाह में तीसरा मोर्चा भी दम  मारने लगा है। गैर कांग्रेस और गैर भाजपा की  विचारधारा  वाले छोटे-बड़े १३ दलों को एकजुट कर वामपंथ ने भाजपा की राह में जबरदस्त कांटे बो दिए हैं। थर्ड फ्रंट अब अपने आपको फर्स्ट फ्रंट का नाम देने जा रहा है। भाजपा नीत  एंडीऎ  और वाम नीत शेष  विपक्ष की राह में 'आप' भी प्रकट हो गए हैं।  इन सभी ने राजनैतिक  ध्रवीकरण की  प्रक्रिया  तेज कर दी है। यह  गठबंधन  की मजबूरी है या सत्ता लोलुपता   की सामूहिक  लाचारी या  व्यवस्था परिवर्तन की क्रांतिकारी  आकांक्षा  यह तो भविष्य ही बता सकेगा !  किन्तु यह परम सत्य है कि वामपंथ को छोड़कर शेष सभी दलों  की आर्थिक नीतियाँ  वही हैं जो डॉ मनमोहनसिंह की हैं ,जो विश्व बेंक की हैं ,जो देशी -विदेशी पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए   कायम की गई हैं।
                       कांग्रेस के नेत्तव में यूपीए गठबंधन याने वर्तमान   सत्ता पक्ष भी  चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले  हड़बड़ी में  जनता के गुस्से को शांत करने में  जुट गया  हैं। राहुल गांधी के मार्फ़त  भृष्टाचार -  उन्मूलन, लोकपाल और अन्य  कई आकर्षक अध्यादेशों  की बानगी ,कर्मचारियों के लिए सातवां वेतन आयोग  , १००%  मंहंगाई  भत्ता भुगतान  ,पेंसन  सुरक्षा विधेयक ,किसानों को फसल बीमा योजना , मनरेगा में सुधार, गाँव  -गाँव में पेयजल ,आदिवासियों को  जमीन के पट्टे, ग्रामीण  स्वास्थ् योजनाओं में सुधार और  विस्तार तथा वित्तमंत्री पी  चिदम्बरम द्वारा पेश अंतरिम बजट में कई लोक लुभावन  योजनाओं का पिटारा  खोलकर  देश की  नाराज  जनता  का रुझान  पुनः अपने पक्ष में करने का  जोरदार अभियान चलाया जा रहा  है। राहुल गांधी  विश्वविद्द्यालय के  छात्रों से लेकर देश के ऑटो रिक्सा वालों से भी बतया रहे हैं।     
                                         चूँकि विगत विधान सभा चुनावों में कांग्रेस को ५ में से केवल दो छोटे  राज्यों - मणिपुर और छ्ग में ही संतोषजनक  जनादेश मिल सका था। हालांकि छ्ग में कांग्रेस की सरकार नहीं बन सकी  किन्तु  पहले से जनाधार  तो अवश्य ही बढ़ा है और यह आगामी लोक सभा चुनाव के लिए उत्साहवर्धक था। कांग्रेस  के चुनावी  रणनीतिकारों का ख्याल था कि राजस्थान ,मध्यप्रदेश और गुजरात में तो वैसे भी  विगत १५ सालों से कांग्रेस की सांसद संख्या निरंतर भाजपा से कम ही रही है, इसके बावजूद  केंद्र में सरकार तो कांग्रेस नीत यूपीए गठबंधन  की बनती  रही है।  इसके तीन प्रमुख कारण हैं। पहला कारण - प्रमुख विपक्षी दल भाजपा  पर साम्प्रदायिकता का ठप्पा ,दूसराकारण -आर्थिक नीतियां  वही जो डॉ मनमोहनसिंह की याने कांग्रेस  की याने  यूपीए की। तीसरा सबसे बड़ा कारण - दक्षिण भारत के अधिकांस राज्यों  से  ,पूर्वी भारत के कई राज्यों  से  उसकी संसद में दयनीय  स्थति। इसके बरक्स  कांग्रेस के लिए यह सबसे बड़ा धनात्मक  बिंदु यह  रहा  है कि जब जब उसे  उत्तर भारत  में चुनावी  शिकस्त मिली  तब -तब दक्षिण भारत  ने  ही उसे उबारा है।  किन्तु पृथक  तेलांगना राज्य निर्माण उपरान्त  कांग्रेस  को अब  शेष सीमांध्र में बेहद मुश्किल और जटिल जनाक्रोश का सामना करना  पड़ रहा है ।
                                      मनमोहन सरकार द्वारा अलग तेलांगना राज्य की मांग स्वीकार किये जाने  के बाद रायल सीमा और आंध्र में तेलांगना विरोधी आंदोलन इतना उग्र हो चूका है कि कांग्रेस का नाम लेने वाला वहाँ अब सुरक्षित नहीं है। मुख्यमंत्री किरणकुमार रेड्डी  समेत पूरा मंत्रिमण्डल ही कांग्रेस छोड़ चूका है  तो बाकी इक्के-दुक्के का तो अल्ला ही मालिक है। कांग्रेस ने  तेलांगना पृथक राज्य गठन विषयक विधेयक संसद मे  जिस ढंग से प्रस्तुत किया  वह घोर अलोकतांत्रिक था।  केवल तेलगु देशम ही नहीं बल्कि खुद कांग्रेसी सांसदों और मंत्रियों ने भी   मिर्ची काण्ड कर डाला। अलोकतांत्रिक हिंसक हंगामा खड़ा किया गया क्यों ?  क्या यह   कांग्रेस को रायल -सीमांध्र से बाहर का रास्ता दिखाने का  जीवंत प्रमाण  नहीं  है ? भले ही टीआरएस और उसके  अनुयायी पृथक तेलंगना में कांग्रेस का ,सोनिया गांधी का  गुणगान करते  रहें, उनके मंदिर बनाते रहें ,उनकी मूर्तियां बनाकर  उन्हें  भगवान् बनाकर पूजने लगें किन्तु छोटे राज्य रूपी   बर्र   के छत्ते में हाथ  डालकर  कांग्रेस ने राहुल गांधी की सम्भावनाएं  कम कर दी हैं। न केवल सीमांध्र में बल्कि  उन तमाम  क्षेत्रों में शून्य कर दी है जहां छोट-राज्यों की मांग वर्षों से की जा  रही है। असम में बोडोलैंड व कर्वी  आंगलांग  ,पश्चिम बंगाल में  गोरखालेंड ,महराष्ट्र में विदर्भ ,यूपी एवं एमपी में बुंदेलखंड और  पश्चिमी  यूपी में हरित प्रदेश  की आकांक्षा पूरी  नहीं होने के लिए कांग्रेस को खामियाजा भुगतना पडेगा। हालांकि छोटे राज्यों का निर्माण न  केवल देश के  संसाधनों की बर्बादी है  , न केवल शासक वगों  के संख्या में बृद्धि का कारक है  ,न केवल अफसरशाही में बृद्धि अपितु  भृष्ट शासकों की नयी पौध को पैदा करने का उपक्रम भी है। दरशल   छोटे राज्यों की स्थापना  की मांग और फिर ततसम्बन्धी आंदोलन न केवल  सत्ता प्राप्ति का एक घटिया  राजनैतिक साधन है अपितु मजबूत भारत के खिलाफ भी है।