मंगलवार, 28 जनवरी 2014

धरना से आगे बढ़ो ,'आप' केजरीवाल -[दोहे]

        
          

        दिल्ली राज्य में छिड़ गई ,दल-दल में तकरार।

        कांग्रेस   और    भाजपा ,   करें 'आप' पर वार।।


         राजनीति  के खेल में ,मुद्दे  भये फुटवॉल।

         आत्मघाती गोल  से  , बचो  केजरीवाल।।


          उदय हुआ जब 'आप' का ,आशा बंधी हजार।

         रिश्वत -रेप -रुक जायंगे ,मिटेगा भृष्टाचार।।


         कहना -सुनना  सरल है ,सदाचार तक़रीर।

        सरिता तट  गिनते रहो ,लहरों की तासीर।।


       जन-संकल्प पूरे करो ,छोड़ -कपट -जंजाल।

       धरना  से आगे बढ़ो ,'आप' केजरीवाल। ।



               श्रीराम तिवारी


      

सोमवार, 27 जनवरी 2014

कारपोरेट की जूठन कखाने वाला मीडिया 'आप' की केवल नकारात्मक छवि पेश कर रहा है !


   कारपोरेट  की जूठन कखाने वाला मीडिया 'आप' की  केवल नकारात्मक छवि पेश कर रहा है !
 आदि शंकराचार्य के बारे में  एक खास घटना का जिक्र आम है कि  उन्होंने न केवल मंडन मिश्र को  शाश्त्रार्थ में परास्त किया बल्कि  तत्कालीन भारत के तमाम धार्मिक -मत-मतान्तरों के विद्द्वानों को भी  शाश्त्रार्थ में पराजित किया था। किन्तु इस दिग्विजय अभियान के   दरम्यान  वे  काशी  के महापंडित मंडन मिश्र की पत्नी से  शाश्त्रार्थ में हार गए थे।  कहा जाता है कि विजेता विदुषी ने बाल-बृह्मचारी - शंकराचार्य से स्त्री-पुरुष के दैहिक   संबंध विषयक सवाल किये थे।  किवदंती है कि इस हार से सबक सीखकर  शंकराचार्य ने योगबल से अपना स्थूल  शरीर शिष्यों को सौंप दिया और  सुरक्षित रखने के निर्देश के साथ  ही अपना  सूक्ष्म जीवात्मा  किसी सद्द दिवंगत राजा के शव में प्रवेश करा दिया। राजा रुपी शंकराचार्य  पुनर्जीवित होकर लगभग ६ माह अपनी रानी के साथ ,प्रजा और मंत्रीमंडल के साथ  सानंद जीवित रहा। नारी-पुरुष के आपसी आंतरिक संबंधों को बखूबी जानकार शंकराचार्य का जीव उस राजा के शरीर को छोड़कर ,  वापिश अपने मूल  पार्थिव शरीर में आ गया। शंकराचार्य  के जीवन की  इस घटना  को 'पर-काया -प्रवेश' भी कहा जाता है। लोकप्रसिद्ध है कि इस  घटना के बाद शंकराचार्य ने पुनः मंडन मिश्र की  पत्नी अर्थात   'अर्धांगनि ' से शाश्त्रार्थ किया और इस शाश्त्रार्थ में  आदि शंकराचार्य  विजयी हुए। प्रतीत होता  है कि अरविन्द केजरीवाल भी  ६ महीने के 'परकाया'प्रवेश की प्रक्रिया  से गुजर रहे हैं ,६ माह बाद ही पता चलेगा कि उन्हें सांसारिक जीवन रुपी  भ्रष्ट राजनीति पर विजय प्राप्त होने की सम्भावना है या नहीं।  अभी तो  लक्षण अच्छे नहीं दिख रहे हैं। कांग्रेस ,भाजपा और भ्रस्ट व्यवस्था रुपी त्रिगुणमयी माया इस बालयोगी 'आप' को  ५ साल तो क्या ६ माह भी शाशन नहीं  करने  देगी।
                       भविष्यवाणियां की जा रही हैं  कि कांग्रेस के आठ सांसदों के बाहरी समर्थन से रोज-रोज   आक्रान्त  चलने वाली 'आप' की सरकार  ६ माह बाद गिर जायेगी।  सत्ता के दो 'महा-लालची'कांग्रेस और भाजपा नहीं चाहते कि कोई 'तीसरा' उनके  निहित स्वार्थों  के  बीच  टांग  अड़ाए । कांग्रेस रुपी गजनवी और भाजपा रुपी गौरी 'आप' के 'सोमनाथ ' को ध्वस्त करने पर आमादा हैं। उन्हें विनोदकुमार  विन्नी  जैसे  जैचंद  खोजने में कामयाबी  मिलने लगी है।  कांग्रेस और भाजपा अधिकांस राज्यों  की सत्ता पर काबिज हैं।  उनका कोई मंत्री या  विधायक इस तरह आधी रात को जनता के बुलावे पर  पैदल नहीं दौड़ पड़ता जैसे कि 'आप' के सोमनाथ  भारती दौड़ पड़े । कांग्रेस और भाजपा के नेताओं का अंतरंग चरित्र इतना कलुषित और भयावह है कि  देख-सुनकर स्वयं शैतान भी शर्मा जाये।  इसीलिये  सोमनाथ  भारती इन भ्रष्टाचारियों की आँख की किरकिरी बन गए हैं। क्योंकि कांग्रेस और भाजपा  के मंत्री विधायक तो भोग-विलाश  में लिप्त हैं ,जनहितकारी स्वशासन  उनके लिए महज चुनावी नारा है। इसलिए उन्हें 'आप' के,केजरीवाल के या सोमनाथ के  ये 'जनवादी' तेवर  कतई  पसंद नहीं हैं। इसीलिये  भाजपा के विधायक धरना दे रहे हैं ,कांग्रेस के नेता धौंस दे रहे हैं और कॉर्पोरेट की जूठन खाने  वाला मीडिया  केवल नकारात्मक पक्ष प्रस्तुत कर रहा है।
                                  अगर 'आप '  ने किसी  भ्रस्ट ताकत के  दवाव में आकर सोमनाथ   भारती से स्तीफा लिया तो गजब हो जाएगा। तब ये सावित हो जाएगा कि भारत में  वही तरीका सही माना जाएगा जो कांग्रेस ६५ साल से और भाजपा ३४ साल से अपना रही है।  वही  होगा जो  इस भ्रष्ट व्यवस्था के अनुकूल होगा। चूँकि  दिल्ली पुलिस काम नहीं कर रही थी और सोमनाथ उससे ईमानदारी से काम करने के लिए  कह  रहे थे  , यदि सोमनाथ का इस्तीफ़ा ले लिया जाएगा तो इसका मतलब ये हुआ कि भ्रष्ट-मक्कार -हिंसक  दिल्ली -पुलिस जिन्दावाद और 'आम-आदमी' मुर्दावाद !  जिस नैतिक मूल्य की रक्षा के लिए 'आप' ने पुलिस के खिलाफ धरना दिया और गृह मंत्री  तक को नहीं छोड़ा ,उस नैतिक मूल्य की  रक्षा  के लिए यदि 'आप' को सरकार भी कुर्वान करनी पड़े तो  चलेगा किन्तु सोमनाथ का इस्तीफा कतई  नहीं होना चाहिए।  दिल्ली पोलिस बनाम सोमनाथ या किसी भी अन्य मुद्दे पर  कांग्रेस और भाजपा  'आप' की जितनी भी टांग खींचे फजीहत उन्ही की होना है। क्योंकि यदि कांग्रेस समर्थन वापिस लेती है तो दुर्गति उसी की होगी और  अगली बार दिल्ली में  'आप' को किसी के समर्थन की जरुरत ही नहीं पड़ेगी। आम आदमी पार्टी को असफल  करने का प्रयास करना   याने  केजरीवाल और उनके साथियों की असफलता मात्र नहीं है बल्कि देश की आम - जनता की  आकांक्षाओं को कुचलने जैसा कुकृत्य होगा। 'आम आदमी पार्टी रुपी  इस नर्मेदनी  को कुचलने का दुस्साहस जो भी करेगा -चाहे कांग्रेस  हो या भाजपा उसका  भविष्य सुरक्षित नहीं  हो सकेगा ।
                                 बहुत सम्भव है कि  अरविन्द केजरीवाल   और 'आप'  को भी  ६ माह बाद वापिश अपने मूल रूप याने 'जन-सन्घर्ष' की राह पर  लौटकर देश के भ्रष्टाचारियों से उसी तरह  भिड़ना पड़े  जैसा  कि आदि शंकराचार्य को  भारत के   तत्कालीन तमाम धार्मिक  पाखंडियों,धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के लोलुपों और आडम्बर  पूर्ण अमानवीय दर्शन और सिद्धांतों को ध्वस्त करना पड़ा था। ।  'आप' को  दिल्ली राज्य  का शासन चलाने का आधा-अधूरा जनादेश मिलने के उपरान्त उसे  लँगड़ाते- लुलाते  हुए चलाने के एक  माह  उपरान्त दिल्ली में राजनीती की असलियत स्पष्ट होने लगी है। अरविन्द केजरीवाल को चुनावी और प्रभावशीलता की  राजनीति  का वो रहस्य समझ आने लगा होगा जो  वे संवैधानिक  राजनीति  के  माध्यम से सिस्टम के अंदर  घुसकर उन्हें देखने को मिल रहा है। 'आप' को मीडिया में दिखने और बयानबाजी के  मोह  से दूर रहकर अपने 'घोषणा पत्र  को पूरा करने के प्राणपण से प्रयास करना चाहिए। जो न कर  सकें वो जनता को बताएं और  देश के  गैर कांग्रेसी -गैर भाजपाई तथा   अनुभवी  -ईमानदार  नेताओं से मार्ग दर्शन प्राप्त  करें। 


                    श्रीराम तिवारी  

शनिवार, 25 जनवरी 2014

खुशी की बात है कि तमाम खामियों के वावजूद इस देश में 'फासिज्म' को कोई स्थान नहीं।



  हर साल कि तरह  भारत के इस  ६५  वें गणतंत्र दिवस पर भी  तमाम नेता ,राजनैतिक -वक्ता ,अफसर ,मंत्री  साहित्यकार ,कवि  कलाकार , तथाकथित   समाजसेवी और मीडिया वाग्मी   - देश की जनता को न केवल शुभकामनाएँ  दें रहे है अपितु  शानदार क्रांतिकारी  पैगाम भी  दे रहे हैं। मुझे लगा कि मैं भी  इस मौके पर देश का , देश के  नेताओं का और जनता का  वह पक्ष भी  रखूं जो हम सभी जानते हैं किन्तु इस अवसर पर उसे याद  कर राष्ट्रीय त्यौहार  की   उमंग को कम नहीं करना चाहते। इस आशय और  मंतव्य के   साथ ही   निम्नांकित पंक्तिओं  के माध्यम से इस अवसर पर   मैं  भी अपने मित्रों,शुभचिंतकों, समकालिक सहचरों और अपने हम वतन  साथियों   को   गणतंत्र  दिवस की शुभकामनायें  प्रेषित  करता हूँ।  
                   वैसे तो तमाम  राजनैतिक  पार्टियां ,उनके आनुषांगिक  संगठन-उनके प्रवक्तागण  ,कार्पोरेट लॉबी , बाबा  - स्वामी  , शंकराचार्य  और  मीडिया  - हर वक्त एक  -दूसरे  पर  कीचड़  उछालने तथा  कभी सही -कभी गलत आरोप  - प्रत्यारोप जड़ने की फिराक  में  रहते  हैं. किन्तु ज्यों-ज्यों आगामी लोक सभा के चुनाव नजदीक आते  जा रहे हैं ,त्यों-त्यों कुछ खास नेता अपनी लक्ष्मण -रेखा लांघने पर उतारू  हो  रहे हैं। अपनी लाइन बढ़ाने के लिए सामने वाले की लाइन मिटाने पर आमादा हैं। अधिकांस हितग्राहियों के तेवर  बेहद आक्रामक ,नकारात्मक और अपनी-अपनी औकात प्रदर्शित करने योग्य हैं।
                                      जनता के सवालों पर , बढ़ती जाती आर्थिक असमानता पर ,जनसंख्या विस्फोट पर , नदियों के पर्दूषण पर ,नारी उत्पीड़न या कन्या संरक्षण पर ,साम्प्रदायिकता या  जातीय संघर्षों पर ,राष्ट्र नव-निर्माण   या सकल राष्ट्रीय उत्पादन पर,  विदेश नीति बनाम  सैन्य अभ्यास पर , अटॉमिक इनर्जी बनाम सम्प्रभुता के संकट  पर , नकली करेंसी  या उसके विमुद्रीकरण पर , संयुक्त राष्ट्र में भारत की दोयम  दर्जे की हैसियत पर या भारत को अंतर्राष्ट्रीय विरादरी में ससम्मान स्थापित किये  जाने  जैसे अनेक महत्वपूर्ण  सवालों पर  बात करने के बजाय अधिकांस  पूंजीवादी दक्षिणपंथी  पार्टियाँ और उनके घोषित -अघोषित 'पी एम् इन वेटिंग '  नितांत वैयक्तिक आरोप याने  टुच्ची राजनैतिक वयानबाजी  में लिप्त हैं।  वे  अपने समकक्षों या प्रतिद्वन्दियों  की  नकारात्मक आलोचना  कर  जनता को  गुमराह या बेबकूफ  बनाने पर आमादा हैं।

                                       नरेंद्र मोदी को शिकायत है कि देश की  आजादी के  ६७  साल बाद भी कांग्रेस जिन्दा क्यों है ? न केवल जिन्दा है बल्कि यूपीए के नाम से आज भी देश पर राज  कैसे  कर  सकती  है ? राहुल का सरनेम 'गांधी' क्यों है ? राहुल को उनकी माता  श्रीमती सोनिया गांधी  ने  मोदी की तरह  चुनाव से पूर्व  'पी एम् इन वेटिंग '  घोषित क्यों  नहीं किया ? उन्हें तो  यह  शिकायत  भी है कि  कांग्रेस ने सरदार पटेल के साथ अन्याय किया उन  को देश का प्रधानमंत्री क्यों नहीं बनाया? मानों सरदार पटेल उनके सपने में आये थे और नेहरू की शिकायत के लिए उन्हें केवल मोदी ही मिले।  मोदी को यह  शिकायत भी  है कि  राहुल गाँधी सहज    जन्मजात  सभ्रांत और जन्मजात नेता  क्यों हैं ?  उन्हें यह शिकायत भी है कि राहुल ने कभी मेरी तरह  चाय क्यों नहीं बेची ?  इसी तरह  कुछ लोगों को मोदी से भी  शिकायत है कि उन्होंने  खेतों में हल क्यों नहीं चलाया ?गेंती फावड़ा लेकर सड़कों या भवन निर्माण मजदूरों  की तरह काम क्यों नहीं किया ?  नरेंद्र मोदी ने निदाई-गुड़ाई क्यों नहीं की ?घास क्यों नहीं छीली ? २००२ में गुजरात के साम्प्रदायिक दंगों में 'राजधर्म' क्यों नहीं  निभाया ?  कुछ लोग तो ये भी कह सकते हैं कि गाँधी -नेहरू या मोदी  जैसे  सरनेम के लोगों ने  गरीबी -भुखमरी -बेकारी क्यों नहीं  देखी ?इत्यादि  !  इत्यादि ! ! आलोचनाओं और अपेक्षाओं का  तो कोई पारावार नहीं !
                                                राहुल गांधी और कांग्रेस को शिकायत है कि मोदी फेंकू  हैं !उन्होंने राहुल को युवराज और पप्पू क्यों कहा ?  मोदी किसी महिला की जासूसी में लिप्त क्यों रहे ? वे शादी शुदा होने  के वावजूद  अपने-आप को कुआँरा  क्यों बताते  हैं ?  किसी जमाने में  रेलवे  स्टेशन पर  चाय बेचने वाले  इस मामूली हिंदुतव्वादी  की  इतनी हिम्मत  कैसे   हुई कि  एडोल्फ हिटलर की तरह  राज्यसत्ता पर काबिज होने के लिए भाजपा की ओर  से   पी एम् इन वेटिंग ही  बन  बैठा  ? जो नरेंद्र मोदी -आडवाणी जैसे  अपने ही वरिष्ठों का मान मर्दन कर  सकता है,  जो अपने ही समकक्षों को ठिकाने लगा सकता है   वह शख्स - उससे असहमत  देश की करोड़ों आवाम के साथ  'गेस्टापो' वाला इतिहास क्यों नहीं दुहरा सकता ? जो  कांग्रेस को  ,अल्पसंख्यकों को और यूपीए समेत  तमाम 'गैर संघ परिवार'  के राजनैतिक भारत  को  घृणा की नजर से  देखता है ,उसे  जड़मूल से खत्म  करने का सपना  रात-दिन देखता है,  ऐंसा असहिष्णु और  कट्टर साम्प्रदायिक व्यक्ति - 'पञ्च शील' के सिद्धांतों वाले , अहिंसा के सिद्धांतों वाले,सहिष्णुता के सिद्धन्तों वाले- महान धर्मनिरपेक्ष   भारत का प्रधान मंत्री कैसे हो सकता है ?
             भाजपा और कांग्रेस से दूरी बनाकर चलने वाले  तीसरे मोर्चे को ,वाम मोर्चे को और नवोदित 'आप'  को  तथा 'आप' पार्टी के नेता  अरविन्द केजरीवाल  को शिकायत है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही मीडिया के विमर्श में कार्पोरेट जगत के ,देशी-विदेशी पूँजी के  पसंदीदा  राजनैतिक  एजेंट क्यों  हैं ? भ्रष्टाचार ,मॅंहगाई  और कुशाशन से लड़ने के लिए आम आदमी पार्टी  को  कुछ वक्त क्यों नहीं दिया जा रहा है? केजरीवाल  और 'आप' की असफलता के लिए कांग्रेसी और भाजपाई दोनों ही  शैतान के गढ़ में घी के दिए क्यों जला रहे हैं ?
                                           वैश्विक संपर्क - सूचना संचार क्रांति तथा  लूट की  खुली  छूट वाली  आर्थिक  - राजनैतिक   व्यवस्था  के वैश्वीकरण  से   भारत  अछूता कैसे रह सकता है ? नव-उपनिवेशवादी  विश्व व्यापरियों को भारत एक चरागाह  मात्र है ,उनके घटिया उत्पादों के लिए बेहतरीन सर्वकालिक बाजार मात्र   है ।  इसलिए  इसका  सामाजिक , साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र भी अधोगामी हो चला है। चूँकि सत्ता पक्ष  ,विपक्ष और  संचार माध्यम  सभी दिग्भ्रमित हो रहे हैं ,  इसीलिए राजनीति  के क्षेत्र में  घटिया  किस्म  की नकारात्मक और पूर्वागृही  आलोचनाओं का दौर जारी है। स्वस्थ और रचनात्मक आलोचना को प्रजातंत्र में  अनिवार्य फेक्टर  माना जाता है ,किन्तु जब राष्ट्र निष्ठां से  ऊपर   निहित  स्वार्थ  शुमार होने लग जाएँ तो सत्ता में बने रहने के लिए झूंठ ,फरेब और ओछे चारित्रिक  आरोप-प्रत्यारोप  रुपी जुमलों  की अनुगूंज स्वाभाविक है।  निहित स्वार्थों की राजनीति  है तो  प्रजातांत्रिक गरिमा खंडित होना स्वाभाविक है। इस विमर्श को जन-चेतना के अभाव  में  क्रांतिकारी विचारधाराओं के अस्तित्व को खतरे के रूप में लिया जाना चाहिए। इस  दौर  की मांग  है कि राजनैतिक आलोचना   का  स्वरुप   सकारात्मक और रचनात्मक  हो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
                                    सार्वजनिक जीवन में सक्रिय अथवा मानवता के लिए कुछ खास बेहतर काम करने वाला कोई  भी  ऐंसा व्यक्ति या समूह  इस धरती पर  कभी  नहीं हुआ जिसकी  निंदा या आलोचना उसके समकालीन प्रतिस्पर्धियों ने  न की हो। व्यक्ति  या समाज ही नहीं बल्कि मानवता के  हित में श्रेष्ठतम महामानवों की विराट परम्परा  द्वारा सृजित सुसंस्कारित  कला -साहित्य और संगीत   भी उसके समकालीनों की  ईर्षा वश  नितांत निदनीय आलोचना से नहीं बच सका। यह सुविदित है कि  संसार  की अन्य सभ्यताओं और उनके शानदार मूल्यों की ही भाँति  भारत  में  भी इंसानियत के बेहतरीन प्रमाण युग-युग में देखने को मिलते हैं। हरिश्चंद्र ,शिवि  ,दधीचि ,अगस्त , नल-दमयंती और भीष्म -कर्ण   जैसे  पौराणिक पात्रों  ने जो बलिदान दिए उससे ही कालांतर में भारतीय मूल्यों की  स्थापना हुई ,उन्ही से  आधुनिक परम्पराओं और  सामाजिक  संस्कारों का जन्म हुआ।  किन्तु प्रत्येक दौर के नकारात्मक  लोगों  ने  तो  उन वेदों को भी नहीं बक्सा -जो  उपनिषदों आरण्यकों, श्रुतियों,संहिताओं ,पुराणों , रामायण ,गीता और महाभारत जैसे सदगर्न्थों के प्रेरणा स्त्रोत कहे जाते हैं।  तुच्छ लोगों ने हमेशा  श्रेष्ठ की आलोचना कर अपने लिए इतिहास में जगह  बनाई।  इन्ही भयंकर भूलों और गलत परम्पराओं के कारण आज भी मानव  समाज  किसी बेहतर क्रांति के लिए नहीं बल्कि अपने-पंथ -मजहब -जात -वर्ण , सत्ता  और अपनी कबीलाई मानसिकता के कारण  एक-दूसरे  के  चरित्र हनन   पर आमादा  हो रहा है।अपनी लकीर बढ़ाने के बजाय औरों की लकीर मिटाने का दौर जारी है।
                        कुछ  पुरातन निषेधों और असहमतियों को  वर्तमान दौर में  प्रतिगामी घोषित किये जाने  का  भी परिणाम है कि  जो अच्छा है वो खतरे में है। जो नकारात्मक और विनाशक है वो  परवान  चढ़  रहा है। जो   पुरातन  कूड़ा  -धार्मिक आडम्बर , साम्प्रदायिकता,जात-पाँत -  अतीत में सामंत शाही को मजबूत बनाने में इस्तेमाल  हुआ  करते थे, वे तो   इन दिनों  पूँजीवाद  को और भृष्ट राजनीति के पोषक तत्व बन चुके हैं। शोषण की कुल्हाड़ी के बेंट बन उसे मजबूत करने के  काम आ रहे हैं।सकारात्म्क  पुरातन मानवीय और वास्तविक   मूल्य  -सत्य ,अहिंसा ,अस्तेय  ,अपरिग्रह अब जमीदोज हो चुके हैं।  संघ परिवार ,स्वामी रामदेव, स्वरूपानंद   ,आसाराम  जैसे लोग इन मूल्यों को एक  बाजारी  उत्पाद के रूप में  गली-गली बेचते रहे  हैं। अब  'नमो' भी इसके मुख्य  सेल्स में  बन गए हैं।  इन सभी ढपोरशंखियों की  अतार्किक और  आधारहीन वैयक्तिक   आलोचनाओं   के कारण राज्यसत्ता के खिलाफ सही आंदोलन सफल  नहीं हो पा रहा है।  वैज्ञानिक और प्रगतिगामी  आलोचना करने वालों को जन-समर्थन नहीं मिला पा  रहा है।उन्हें  नास्तिक ,नक्सलवादी ,विदेशी विचारधारा का या  अराजकतावादी  संज्ञाओं से विभूषित किया जारहा  है। भले ही  उनमें से कुछ ऐंसे भी हों जो कि  विश्व की सुप्रसिद्ध क्रांतिकारी -श्रेष्ठतम  -भौतिकवादी द्वन्दात्मक  याने  युगानुकूल वैज्ञानिक चिंतनधारा  के  समर्थक ही क्यों न हों!
                            शोषण की व्यवस्थाओं में भी सन्निहित  सभ्यताओं की ,संस्कृतियों और मानवीय  कलात्मक सृजनशीलता की,समष्टिगत  या वस्तुगत आलोचना के बरक्स वैयक्तिक आलोचना भी सारे संसार की ही तरह भारत में भी सदैव शसक्त रही है। वैश्विक प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं में जनाधिकार के र्रूप में सर्व मान्य - सर्व   स्वीकृत आलोचना का अधिकार जब किसी राष्ट्र की  सुरक्षा को खतरे में डालने  की स्थति में होता है तो  उसे   प्रतिबंधात्मक निषेध का सामना करना ही  पड़ता है।
                       जिस तरह  रामायणकाल में श्रीराम,लक्ष्मण , सीता , वशिष्ठ ,दशरथ या कैकई जैसे राजसी पात्र   ही नहीं बल्कि  विश्वामित्र  ,परशुराम,विभीषण और सुग्रीव तथा हनुमान जैसे  समाज को दिशा देने वाले  बौद्धिक और मानवता के दिग्दर्शक - महानतम नायक   भी तत्कालीन समाज में ही आलोचना के पात्र बन चुके थे,उसी भाँति कालांतर में कृष्ण,बलराम ,राधा ,रुक्मणि एवं द्वारका का समस्त 'यादव' समाज भी  तत्कालीन ऋषियों-महर्षियों की आलोचना का पात्र बन  चुका था। केवल कौरव ही नहीं ,केवल धृतराष्ट्र ही नहीं ,केवल भीष्म पितामह  ही नहीं ,केवल अस्वत्थामा ही नहीं बल्कि बल्कि धर्मराज युधिष्ठिर,अर्जुन, भीम,नकुल एवं सहदेव   सहित समस्त पांडव  वंश भी तत्कालीन समाज में ही घोर आलोचना का केंद्र बन चूका था।जनमेजय के नागयज्ञ तक की परिचर्चा  में केवल प्रतिहिंसा  और आलोचना का ही  सिंहावलोकन  होता  है।   अब हजारों साल बाद यदि  हम  में से कुछ लोग  उन्ही प्राचीन पात्रों को पूजते रहें ,उनके द्वारा स्थापित मूल्यों या सिद्धांतों  का स्तुति या मन्त्र के रूप में केवल जाप करते रहें तो  यह 'दूर के ढोल सुहावने ' जैसी मिथकीय अवधारणा ही कही जा सकती है। स्थापित   परम्पराओं ,मूल्यों ,आदर्शों और चरित्रों के अनुप्रयोग से  वर्ग विशेष के लाभान्वित होने और किसीवर्ग विशेष के शोषित होने की कसौटी ही तय कर सकती है कि 'आलोचना' के निहतार्थ  क्या  हैं ?
                     अतीत के नायकों के प्रति  इस तरह के व्यामोह से  ' सनातन आलोचना' की सेहत पर कोई असर नहीं पढ़ने वाला। ईश्वर अवतार   , पीर ,पैगम्बर या देवदूत  के रूप में पूजकर किसी भी इंसान को चाहे जितना दैवीय  स्वरुप प्रदान क्यों न कर दिया जाए उसके सामने सदैव 'प्रतिनायकवाद ' का तथाकथित शैतानियत का  या नकारात्मकता का   भूत अवश्य ही खड़ा हुआ दिखाई  देगा।सुकरात ,ईसा ,बुद्ध  , कार्ल मार्क्स  ,विवेकानन्द , लेनिन ,गांधी ,अरविन्द  के बरक्स नेपोलियन , चर्चिल, हिटलर ,जिन्ना,रीगन,येल्तसिन,लेक बालेशा , जिया - उल-हक ,परवेज  मुशर्रफ  और ईदी -अमीन  के समर्थकों की  तादाद दुनिया में हमेशा अधिक क्यों रही है ?
                   आम धारणा है कि आलोचना तभी होती है जब कुछ किया जाता है। कुछ मत करो तो आलोचना का कोई खतरा नहीं। हो सकता हो इसमें आंशिक सच्चाई हो किन्तु राजनीति  के क्षेत्र में तो  अधिकांशतः  आलोचना के निहतार्थ - केवल सत्ता प्राप्ति की अभीष्ट अभिलाषा और प्रतिपक्षी के सर्वनाश की कामना ही प्रकट हुआ  करती है।
                 मेरे इस कथन पर यकीन न हो तो  भाजपा के 'पी एम् -इन वेटिंग 'श्री नरेंद्र  मोदी  के उस वक्तब्य पर गौर   करें जिसमें वे कहते पाये गए हैं कि 'भारत को कांग्रेस मुक्त  बनाना  है ' वेशक कांग्रेस के नेता ,नीतियां और कार्यक्रम शायद अब देश के अनुकूल न रही हों। किन्तु यह सदैव याद रखा जाना चाहिए कि पाकिस्तान की  फौजी तख्ता पलट  की तरह कांग्रेस  सत्ता में  कभी  नहीं आई।  जनता ने बार-बार चुना  ,यह जनादेश का अपमान ही  होगा कि चुनी हुई सरकारों को सिर्फ इसलिए गाली दी जाए कि 'काश हम सत्ता में क्यों न  हुए '? वेशक यदि आपके पास बेहतर नीतियां -कार्यक्रम और ईमानदार नेत्त्व क्षमता है तो अपना 'विजन' घोषणा पत्र   प्रस्तुत कीजिये। वेशक  कांग्रेस को जनता ने पहले भी हराया था और  अब भी हारेगी। किन्तु उसे समूल खत्म करने की बात  करना प्रजातान्त्रिक भावना नहीं है। यह कदाचार - हिटलर ,जिया उल हक़ या ईदी अमीन या रावर्ट मुगाबे - जैसा तो हो सकता है किन्तु गांधी ,सरदार पटेल या नेहरू जैसे नेताओं का   सदाचार कदापि नहीं हो सकता। भले ही उनकी एक नहीं सैकड़ों मूर्तियां हिमालय से ऊंची बनाते रहो  - त्याग ,बलिदान और निजी स्वार्थ  को होम किये  बिना   भगतसिंह जैसे, आजाद जैसे,  और अस्फाक उल्लाह खां  जैसे   शहीदों के सपनों का सच्चा लोकतान्त्रिक -गणतांत्रिक  भारत  न तो मोदी बना सकते हैं ,न राहुल बना सकते हैं और न 'आप' के केजरीवाल !  यह स्वाधीनता संग्राम के मूल्यों को आदर्श मानकर  सामूहिक प्रयासों से  ही सम्भव है।  भारतीय संविधान की प्रस्तावना में निहित संकल्प  को  पूरा करने से ही  सम्भव है। वरना वर्तमान बदनाम  बनाना गणतन्त्र  तो धनतंत्र या लूटतंत्र से ज्यादा कुछ नहीं है।   खुशी की बात है कि  तमाम खामियों के वावजूद इस देश में 'फासिज्म' को कोई स्थान नहीं। 
         
     सभी को गणतंत्र दिवस  की पूर्व संध्या पर अग्रिम शुभकामनाएं !
                
                              क्रांतिकारी अभिवादन सहित   ! !
                   
                                       श्रीराम तिवारी 

गुरुवार, 23 जनवरी 2014

मांग और पूर्ती का सिद्धांत साहित्य के क्षेत्र में भी लागू होता है !



  हिंदी में पढ़ने -लिखने वाले , हिंदी को राष्ट्रीय गौरव और एकता का प्रतीक  मानने वाले,हिंदी के वक्ता-श्रोता  - ज्ञाननिधि और  हिंदी के शुभ -चिंतक,  सरकारी और गैर सरकारी तौर पर हर साल हिंदी पखवाड़ा या हिंदी दिवस मनाते वक्त बार-बार यही रोना  रोते रहते हैं कि हिंदी को देश और दुनिया में उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। आम  तौर पर  उनकी यह  शिकायत  भी हुआ करती है कि हिंदी में सृजित ,प्रकशित या छपा हुआ साहित्य खरीदकर पढ़ने वालों  की तादाद  तेजी से कम हो  रही है। वे आसमान की ओर देखकर  पता नहीं किस्से से सवाल किया   करते  हैं कि- हिंदी जो कि सारे विश्व में दूसरे नम्बर पर  बोली जाने वाली भाषा है - इसके वावजूद हम उसे संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा सूची में  अभी तक शामिल क्यों  नहीं करा पाये?
                                  विगत शताब्दी के अंतिम दशक में  सोवियत  क्रांति पराभव उपरान्त दुनिया के एक ध्रवीय[अमेरिकन ] हो जाने  से  भारत सहित सभी पूर्ववर्ती  गुलाम राष्ट्रों  को  मजबूरी में न केवल अपनी आर्थिक नीतियां बदलनी पड़ीं ,न केवल नव्य -उदारवादी वैश्वीकरण की -खुलेपन की  नीतियां अपनानी पड़ीं बल्कि देश में प्रगतिशील आंदोलन और तदनुसार सामाजिक -सांस्कृतिक और साहित्यिक चिन्तन पर भी  पडी। नए जमाने के उन्नत आधुनिक तकनीकी संसाधनों  को आयात करते समय  इस नए -भूमंडलीकरण का प्रभाव भी  परिलक्षित हुआ है।जीवन संसाधनों में क्रांतिकारी परिवर्तनों ने न केवल भारत ,न केवल हिंदी जगत बल्कि विश्व की अधिकांस नामचीन्ह भाषाओँ-उनके साहित्य -उनके पाठकों को घेर-घार कर कंप्यूटर रुपी  उन्नत तकनीकी जादुई डिब्बे   के सामने सम्मोहित  कर दिया है।प्रिंट ही नहीं श्रव्य साधन भी अब कालातीत होने लगे हैं। केवल स्पर्श और आँखों के इशारों से सब कुछः मनो-मष्तिष्क तक पहुंचाने वाले -सूचना संचार  सिस्टम के  होते हुए अब  किस को फुरसत है कि कोई  पुस्तक पढ़ने का दुस्साहस करे ?चाहे वो गीता ,रामायण  कुरआन या बाइबिल  ही क्यों न हों ? चाहे वो हिंदी की हो या संस्कृत की ही क्यों न हो ?चाहे वो सरलतम सर्वसुगम हिंदी में हो या किसी अन्य भाषा में आज किसको फुर्सत हा कि कोई किताब  पढ़ने बैठे ?रोजमर्रा  की भागम-भाग और तेज रफ़्तार वाली   वर्तमान  शहरी जिंदगी में बहुत कम सौभागयशाली हैं जो श्रीलाल शुक्ल  की 'राग दरबारी' ,मेक्सिम गोर्की की कि 'माँ ',प्रेमचंद की 'गोदान'निकोलाई आश्त्रोवस्कॆ  की 'अग्नि दीक्षा' या रवींद्र नाथ टेगोर की 'गोरा'पढ़ने का समय निकाल पाएं। जबकि ये सभी कालातीत पुस्तकें आज भी हर लाइब्रेरी में और खास  तौर से   हिंदी में भी  उपलब्ध हैं।आधुनिक युवाओं को तो इन पुस्तकों के नाम भी याद नहीं ,वे  यदि  विजयदान देथा  , सलमान रश्दी ,खुशवंतसिंघ ,राजेन्द्र यादव या अरुंधति रे को जानते भी होंगे तो इसलिए नहीं कि इन लेखकों  का साहित्य  उन्होंने पढ़ा है ,बल्कि इसलिए जानते  होंगे  कि ये लेखक कभी -न कभी किसी विवाद  का हिस्सा जरुर रहे होंगे !या किसी तरह के  केरियर कोचिंग में सामान्यज्ञान की पुस्तक से  इनकी जानकरी मिली होगी।  आज के आधुनिक युवाओं  को पाठ्यक्रम से बाहर की  पुस्तकें पढ़ना या पढ़ पाना ,  इस दौर में किसी तेरहवें  अजूबे से कम नहीं है।  उन्हें लगता है कि साहित्य का ,विचारधराओं का और कविता -कहानी का प्रिंट माध्यम अब गुजरे  जमाने की चीज हो गया है। चंद रिटायर्ड ,टायर्ड और फुरसतियों के भरोसे ही अब सारा छपित साहित्य  टिका हुआ है।  ऐंसा प्रतीत होता है कि  हिंदी  का पाठक भी इन्ही में कहीं समाया हुआ है। जो कमोवेश इरादतन स्थापित है।
          सोशल मीडिया -डिजिटल -साइबर -संचार क्रांति -फेस बुक और गूगल सर्च इंजन ने  न केवल दुनिया छोटी  बना दी है  बल्कि सूचना -संचार क्रांति ने  प्रिंट संसाधनों को -साहित्यिक विमर्श को  भी हासिये पर धकेल दिया है। और छपी हुई बेहतरीन पुस्तकों को भी गुजरे जमाने का ' सामंती'शगल बना डाला है.अब यदि एसएमएस है तो टेलीग्राम  भेजने की जिद  तो केवल पुरातन यादगारों का व्यामोह मात्र  ही हुआ ! वरना दुनिया  में जो भी है ,जिसका भी है,जहाँ  भी है , सब कुछ अब सभी को सहज ही उपलब्ध है.हाँ !शर्त केवल यह  है कि एक अदद इंटरनेट कनेक्शन  और लेपटाप या ३-जी मोबाइल अवश्य  हो ! जबकि किताब छपने ,उसके लिखने के  लिए महीनों  की मशक्कत ,सर खपाने और  यदि  साहित्य्कार -लेखक नया- नया है तो प्रकाशक नहीं मिलने की सूरत में  अपनी जेब ढीली करने के बाद  ही पुस्तक को आकार  दे पायेगा। यदि  उसे  खरीददार नहीं मिल रहे हैं तो ये न तो लेखक का दोष  है,न प्रकाशकों का दोष है ,न पाठकों या क्रेताओं का दोष है ,न  हिंदी भाषा का  संकट है, बल्कि ये तो  आधुनिक युग की  नए ज़माने की ऐतिहासिक आवश्यकता और कारुणिक सच्चाई है।  इसके अलावा भी कुछ और भी छुद्रतम कारण है जिनसे हिंदी और अन्य भाषाओँ के पाठकों का पलायन हुआ है 
                 हिंदी का प्रचार -प्रसार ,हिंदी साहित्य  में विचारधारात्मक लेखन ,हिंदी साहित्य सम्मेलनों की धूम-धाम  ,पत्र  - पत्रिकाओं के प्रकाशनों का दौर अब थमने लगा  है। हिंदी इस देश के आम आदमी की भाषा है। हिंदी 'स्लैम डॉग  मिलयेनर्स ' जैसी फिल्मों के मार्फ़त पैसा कमाने की भाषा है.हिंदी गरीबों -मजदूरों और शोषित-पीड़ित जनों की भाषा है। चूँकि हिंदी में अब इन वंचित वर्गों और सर्वहाराओं  की उनकी मांग के अनुकूल नहीं   लिखा जा रहा है , बल्कि बाजार की ताकतों के अनुकूल,मलाईदार क्रीमी लेयर के अनुकूल महज तकनीकी,उबाऊ  और कामकाजी साहित्य का  तैसे सृजन- प्रकाशन  हो रहा है । इसीलिये हिंदी जगत में वांछित पाठकों की संख्या न  केवल तेजी से गिरी है अपितु  शौकिया किस्म के फ़ालतू लोगों  तक  ही सीमित रह गई है।
        आजादी के बाद संस्कृतनिष्ठ हिंदी की ततसम  शब्दावली के चलन पर जोर देने ,अन्य भारतीय  भाषाओँ के  आवश्यक और वांछित शब्दों से परहेज करने , अनुवाद  की काम चलाऊ  मशीनी आदत से चिपके रहने , अधुनातन सूचना एवं संचार क्रांति के साधनों के प्रयोग में अंग्रेजी भाषा का  सर्व सुलभ होने,हिंदी भाषा के फॉन्ट ,अप्लिकेशन  तथा वर्णों  का तकनीकी  अनुप्रयोग   सहज ही उपलब्ध न होने या कठिन होने  से  न केवल पाठकों की संख्या  घटी बल्कि हिंदी में लिखने वालों का सम्मान और  स्तर  भी घटा है । न केवल तकनीकी कठनाइयों  हिंदी में मुँह  बाए खड़ी हैं  बल्कि  आधुनिक युवाओं को आजीविका के संसाधन और अवसर  भी  हिंदी में उतने  सहज  नहीं जितने आंग्ल भाषा में उपलब्ध हैं। इसीलिये भी देश में ही नहीं विश्व में भी हिंदी के पाठक कम होते जा रहे हैं।   देश में हिंदी को सरल बोधगम्य आजीविका-  परक  और जन-भाषा बनाने की  राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव  में और हिंदी की  वैश्विक  मार्केटिंग नहीं हो पाने से राष्ट्रीय - अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर  मेगा -साय-साय या बुकर पुरस्कार भी उन्हें  ही  मिला करते हैं  जो हिंदी को हेय  दृष्टि  से देखते  रहे हैं। अंततोगत्वा फिर भी हिंदी ही देश  की राजरानी  रहेगी । चाहे वालीवुड हो ,चाहे  खुदरा व्यापार हो ,चाहे बाबाओं-स्वामियों का  भक्ति और साधना  का  केंद्र हो  ,चाहे रामदेव हों ,नरेंद्र मोदी हों ,राहुल गांधी  हों ,केजरीवाल हों ,चाहे अण्णा  हजारे हों चाहे  मुख्य धारा का मीडिया हो ,सभी ने हिंदी के  माध्यम से ही  भारी सफलताएं अर्जित कीं हैं। सभी के प्राण पखेरू हिंदी में  ही  वसते  हैं।  इसलिए यह कोई  खास  विषय नहीं की हिंदी साहित्य   के  पाठकों की संख्या घट  रही है या बढ़ रही है। 
                                     अन्य  भाषाओँ  के बारे  में तो कुछ नहीं  कह सकता किन्तु हिंदी भाषा और उसके समग्र साहित्य़ संसार के बारे में यकीन से कह  सकता हूँ कि उत्तर-आधुनिक सृजन के उपरान्त -अब  यहाँ पब्लिक इंटेलेक्चुअल्स नाम  का जंतु वैसे भी  इफ़रात  में नहीं  पाया जाता। वास्तव में हिंदी जगत में कहानी,कविता ,भक्ति काव्य  ,रीतिकाव्य  , सौन्दर्यकाव्य  ,रस सिंगार ,अश्लीलता  के नए - अवतार फ़िल्मी साहित्य और कला  का  तो  बोलबाला   है  , कहीं -कहीं जनवादी - राष्ट्रवादी -प्रगतिशील और जनोन्मुखी साहित्यिक सृजन  की  अनुगूंज भी सुनाई   देती है किन्तु  समष्टिगत रूप में तात्कालिक दौर  की   समस्याओं  और जीवन मूल्यों  के  वौद्धिक विमर्श पर हिंदी बेल्ट में  सुई पटक  सन्नाटा ही है. इस साहित्यिक  सूखे में  जिज्ञासु या ज्ञान-पिपासु  पाठकों  की कमी होना स्वाभाविक है।मांग और पूर्ती का सिद्धांत केवल अर्थशाश्त्र का विषय नहीं है। साहित्य के क्षेत्र में भी  यह सिद्धांत सर्वकालिक ,सार्वभौमिक और समीचीन है।
                       लेखकों और जनता के बीच संवादहीनता का दौर है ,अभिव्यक्ति के खतरे उठाकर देश और समाज की वास्तविक आकांक्षाओं के  अनुरूप  क्रांतिकारी  साहित्य अर्थात व्यवस्था परिवर्तन के निमित्त रेडिकल - सृजन  शायद आवाम की या सुधी पाठकों की माँग  भले ही न   हो किन्तु देश और कौम के  लिए यह साहित्यिक कड़वी दवा नितांत आवश्यक है.    हिंदी के पाठकों की संख्या  बढे इस बाबत  पठनीय साहित्य की थोड़ी सी  जिम्मेदारी  यदि  साहित्य्कारों की है तो कुछ थोड़ी सी हिंदी के जानकारों याने -सुधी पाठकों की भी है।
                                            
                             श्रीराम तिवारी  

शुक्रवार, 17 जनवरी 2014

'आप' सावधान रहें ! 'आप' के अस्तित्व को खतरा है !

  
 


     अरविन्द केजरीवाल के  मुख्यमंत्रीत्व  में दिल्ली की 'आप' सरकार ने कुछ लोक-लुभावन फैसले तत्काल  ले  लिए हैं। जैसे -बिजली बिल माफी[आधी-अधूरी ही सही ] ,पानी मुफ्त[आधा-अधूरा ही सही ] ,बिजली कम्पनियों का आडिट,निजी स्कूलों में उनके मालिकों का विशेषधिकार निषेध , खुदरा  व्यापार में ऍफ़ डी आई  का निषेध  , जन-शिकायत -निवारणार्थ हेल्प लाइनों का इंस्टालेशन,जनता दरवार [अब हफ्ते में एक बार],सभी विभागों में भ्रस्टाचारियों के स्ट्रिंग आप्रेसन ,दोषियों के ट्रांसफर,चार्ज शीट ,निलम्बन और ब्रेक -इन सर्विस इत्यादि !समाज के भ्रष्ट तत्वों और बेईमानों का नाराज होना स्वाभाविक है। 'आप' के कुछ साथी भी अनगढ़  और अपरिपक्व हैं वे भ्रस्टाचार की कुल्हाड़ी का बेंट  बनने को भी अगर्सर हो रहे हैं। इसीलिये 'आप' संकट में हैं।
                   'आप' के कारण सत्ता से वंचित भाजपा वाले और 'आप' के ही कारण दिल्ली में भूलुंठित कांग्रेस के घाघ और घिसे हुए नेताओं ने 'आप' की अपरिपक्वता का फायदा उठाना शुरूं  कर  दिया है।  भ्रष्टाचार ,मंहगाई के आरोपों से छलनी यूपीए [वास्तव में कांग्रेस] , साम्प्रदायिकता और पूँजीपति समर्थन  के आरोपों से घिरे एनडीए के नेता मीडिया के माध्यम से तो  'आप' का मजाक उड़ा रहे हैं। लेकिन जब ये नेता अपने-अपने  पार्टी फोरम में भाषण देते हैं तो 'आप' से नसीहत लेने  या उसे गम्भीरता  से लेने की बात  करते  हैं. यह न केवल राजनैतिक बल्कि सांस्कृतिक दोगलापन नहीं तो और क्या है ?  यह अपराधबोध जनित  पराजय की आशंका नहीं तो और क्या है ?
        बचपन में कभी-कभी गाँव से ४० किलोमीटर  दूर स्थित  शहर के स्कूल से घर लौटना होता तो पैदल चलते -चलते अन्धयारी  शाम  हो जाया करती थी. भयानक जंगली- ऊबड़ -खाबड़ और काँटों भरी  पगडंडी पर गिरते -पड़ते  कभी-कभी साँप -अजगर या वनैले हिंसक  पशुओं  का सामना भी हो जाया करता था। जब कोई बाल सखा या भाई - जो अक्सर  साथ  में  होता  - घने जंगल में पत्तों की खडख़ड़ाहट  या किसी प्रकार की  डरावनी आवाज सुनाई  देने पर भयभीत होता तो    हम एक-दूसरे को जोर-जोर से ढाढस बंधाते थे  कि डरना नहीं मैं  हूँ  ना ! जबकि वास्तव मैं तो हम सभी ही  शेर -तेंदुए या भूत -पलीत के काल्पनिक भय से  काँप  रहे होते थे। याने हम सभी  समान  रूप से डरे हुए होते  थे और समान  रूप से एक-दूसरे  को  झूँठी  निडरता दिखाकर अपना भय  कम करने की कोशिश किया करते थे।  जैसे की इन दिनों 'आप' के डर  से डरे हुए  कांग्रेस और  भाजपा के नेता अपने -अपने दलों में वनावटी निडरता  प्रस्तुत कर रहे हैं। इसी काल्पनिक भय  से वे जनता  की आकांक्षा जाने बिना ही  'आप' की भ्रूण हत्या करने की जुगाड़ में लग गए  हैं।  

       'आप' की सरकार  चाहे जितने दिन  चले ,'आप' पर चाहे जितने आरोप  लगें ,'आप' से चाहे कांग्रेस को परेशानी हो ,'आप' से चाहे संघ परिवार [भाजपा या मोदी ] को परेशानी हो ,'आप'  से चाहे किरण बेदी और अण्णा  हजारे को  परेशानी हो , 'आप'के लोग चाहे जितने आपस में झगड़ें - दिग्भ्रमित और समझौता परस्त सावित हो जाएँ , शायद  वे  अपनी घोषणाओं और वादों पर अमल करने में भी असमर्थ रहें  ,शायद वे भ्रष्टाचार उन्मूलन के  अपने पूर्व घोषित उद्देश्य  से भी भटक  जाएँ ,शायद 'आप'  अपने संकल्प में  खरे न  भी  उतरें  ,  'आप'  के साथ  चाहे जितने भ्रष्टाचारी ,पदलोलुप ,गैरजिम्मेदार और असमाजिक तत्व जुड़ते  जाएँ और फिर  भीतरघात   करें ,'आप'  के पास   भले ही किसी खास विचारधारा का  तमगा न  हो, किन्तु इतना तय है कि आज  'आप' के कारण  ही  कांग्रेस , भाजपा के कर्णधार नेता-  चाल -चेहरा -चरित्र के पुनर्मूल्यांकन की दुहाई दे रहे हैं। वे जानते हैं कि  जनता   शनैः  -शनै:  'आप' की  ओर आकर्षित हो रही है. इसीलिये बतौर सावधानी ही सही - भ्रष्टाचार  और शानो शौकत की राजनीति  को  नियंत्रित करने  की बड़ी-बड़ी  बातें  डॉ मनमोहनसिंग ,श्री राहुल गांधी और श्री नरेंद्र मोदी भी करने लगे हैं। यह 'आप' का प्रभाव  नहीं तो और क्या  है?   
                                  अतीत में  ई एम् एस नम्बूदिरीपाद ,ज्योति वसु ,बुद्धदेव भट्टाचार्य,  ई के नयनार ,वीएस अचुतानन्दन और अभी  वर्तमान में त्रिपुरा के मुख्य मंत्री माणिक सरकार  जैसे ईमानदार -क्रांतिकारी वामपंथी मुख्यमंत्रियों की सादगी ,मितव्ययता और शुचिता से नावाकिफ- आधुनिक  शहरी युवाओं - मध्मवर्गीय बुर्जुआ वर्ग  ने और फेसबुक -इंटरनेट से जुड़े तकनीकी क्षमता से लेस  सम्पन्न वर्ग  ने  भारतीय राजनीति की  केवल  वही बदसूरत तस्वीर  देखी है जो  कार्पोरेट जगत के  जरखरीद  मीडिया ने वर्गीय  स्वार्थप्रेरणा  से  अभी तक उन्हें  दिखाई है।दक्षिणपंथी और मुख्यधारा के मीडिया ने अधिकांशतः  पूँजीवादी  - अर्धसामन्ती - साम्प्रदायिक   भारत की तस्वीर ही  पेश की है। लेकिन जबसे  दिल्ली में 'आप'  को सत्ता की जिम्मेदारी मिली है ,तबसे  देश भर में  'राजनैतिक सादगी' की चर्चा आम हो गई है। खास तौर  से  कांग्रेस  और  भाजपा  की नींद हराम हो गई है।   आम  तौर  पर  सभी राजनैतिक दलों और व्यक्तियों के सामंती  और अहंकारी आचरण  पर जनता की नजर है.सत्तासीन  नेताओं के व्यक्तिगत चरित्र ,कृतत्व और 'विचारधारा' पर भी समाज के बौद्धिक वर्ग की नजर है। न केवल राजनीति  बल्कि अफसरशाही ,न्यायपालिका और मीडिया के   चाल-चरित्र -चेहरे पर देश की आवाम की खासी नजर है। यह सब  'आप' के कृपा से ही हो रहा है। इन्नी -बिन्नी के पगलाने से या दिल्ली पुलिस के असहयोग से  'आप' का बाल बांका नहीं होने वाला। ये पब्लिक है सब जानती है। 'आप' के साथियों को  और अरविन्द केजरीवाल को भी जब तक बहुत जरूरी न हो ,मीडिया कवरेज के मोह  से अभी थोड़ा दूर ही रहना चाहिए।  उन्हें इसकी परवाह नहीं करनी चाहिए कि प्रतिष्पर्धा क्या सोचते हैं ।
                                                     'आप' को  गर्व होना चाहिए कि   भारतीय राजनीति  में  घुसे -पड़े भ्रष्ट नेताओं की  लालबत्ती गाडी ,वीआई पी सुविधाएँ , पाँच सितारा  होटलों  में ऐयाशी ,लक्झरी लाइफ का नग्न प्रदर्शन अब उनकी नाक का सवाल नहीं  बल्कि  खौफ़  का प्रतीक बनता  जा रहा है।  अभी तक मंत्री पद पर काबिज  लोग अपने आपको किसी  भी मुहम्मद  तुगलक ,किसी आसिफुद्दौला ,किसी वायसराय या किसी पेशवा ,किसी  नादिरशाह की नाजायज औलाद  से कम नहीं समझते थे। किन्तु 'आप' के 'इमोसनल-अत्याचार' की बदौलत कांग्रेस , भाजपा तथा अन्य भ्रष्ट पार्टियों के महाभ्रष्ट  नेता  जनता को भरमाने के लिए -दिखावे के लिए , ईमानदार ,देशभक्त और सदाचारी होने  की मशक्कत और तदनुसार शातिराना  वयानबाजी भी  करने लगे हैं। इसमें नरेंद्र मोदी  ,राहुल गांधी ,जयराम रमेश ,अरुण जेटली और सुषमा स्वराज जैसे कद्दावर   बड़े नेता भी शामिल हैं। सभी के चेहरे पर साफ़ लिखा है कि 'हम आप से डरते हैं '
                          

मंगलवार, 14 जनवरी 2014

भूंखे को 'आधार' कार्ड , कागज के टुकड़े जैसा।

  


           जैसे    गूगल सर्च  में  ,सिमट  रहा  संसार ।

          वैसे  नंदन  नीलेकणि ,बना रहे  आधार।।


          बना  रहे  आधार  , समेटें   सबका  डाटा ।

         किसके घर में कितना ,नोन  तेल  है आटा।।


           महंगाई की मार , जाब  की ऐंसी -तैसी। 

          भूंखे को 'आधार'  ,कागज के टुकड़े जैसी ।।


                    श्रीराम तिवारी


        

       

          


       

       

       

रविवार, 12 जनवरी 2014

अब आशा है 'आप' से , होगा मुल्क महान ।। [श्रीराम तिवारी के दोहे ]

   


         


              घर में करे जो  चाकरी ,   या  श्रम बेचन जाय ।
                                          
              न्यूनतम वेतन न सही ,गुजर  वसर   तो पाय   ।।


            राजनयिक  शोषण करे , निर्बल का अपमान ।

           चिंता नहीं सरकार को ,  मेरा देश महान।।

      
          नकली वीजा -कदाचरण, झूंठा सब व्यवहार ।

          देवयानी जब  जा फँसी  , तब  चिंतित सरकार ।।


         अमेरिका से  भिड़  लिए  , नेता  दक्षिण -वाम  ।

          फ़ोकट का पंगा लिया ,  जगत  हँसाई काम  ।।

     
            श्रीराम तिवारी


       
      
           नेता -अफसर -मंत्री या   ,भ्रष्ट-पतित  जो कोय ।

           सावन के अंधे हुए  ,  हरा -हरा सब   होय।।


          पूँजीवादी  दलों   में ,भ्रष्ट ऐयाश जो होय।

         देख सफलता  'आप' की ,दुर्जन दुबला होय।।


          बड़े-  बड़े   नेता  डरे ,डरा   संघ   परिवार।

          महिमा सुनकर 'आप' की ,डरा भ्रष्ट संसार।।


           एनडीए- यूपीए  डरे  , फेंकू  डरता  होय।

          नींद हराम युवराज की ,जियरा धक्-धक् होय।।


          
         पूँजीवाद  का  करम  है ,शोषक -शोषित द्वन्द।

          साहस -श्रम -पूँजी  हुए , धूल -धुंआँ उर  धुंद  ।।


          बलिहारी इस तंत्र की , महिमा अपरम्पार।

         चाल -चरित्र -चेहरा   किये ,  सिस्टम ने  खूंखार।।


         मॅंहगाई  गुरवत बढ़ी ,बढ़ा विकट  व्यभिचार।

         नदियां पर्वत   खा रहे  ,खनन माफिया  मार ।।


        नीति नियत नेता हुए ,दिशाहीन नादान।

       अब आशा है 'आप' से  , होगा   मुल्क महान ।।  [श्रीराम तिवारी के दोहे ]


          श्रीराम तिवारी


        





       

       


     






        

        

           



        



         

शुक्रवार, 10 जनवरी 2014

'आप' काम कीजिये। 'आप' का काम बोलेगा कि 'आप' क्या चीज हैं ?


 निसंदेह 'आम आदमी पार्टी ' में  अपने पावन उद्देश्य के लिए समर्पित  उसके संस्थापक  नेता- गिने चुने  तकरीबन आधा दर्जन के करीब ही होंगे।  किन्तु  जब इस पार्टी  के उदय से  वर्तमान व्यवस्था के गहन अन्धकार को चीरकर आगे बढ़ने की सम्भावनाएं परिलक्षित होने लगीं तो  अब  उसकी सदस्यता पाने के लिए लाखों लोग  उत्सुक हो रहे हैं। 'आप' में शामिल होने वाले  नेताओं की  आषाढ़ के मेंढ़कों जेसी बाढ़ आ गई है।स्थापित और नवागंतुकों की भीड़ में मुख्य  मुद्दे गौड़  होते जा रहे हैं  और केवल कोरे नेत्तव के लिए सत्ता की - राष्ट्रीय राजनीति  पर  अधिकांस घाघ नजरें तेज हो गई हैं।कुछ  अतिउत्साही तो  दिल्ली के  नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को  भारत  के  प्रधानमंत्री पद  की दौड़ में  भी मानकर  ज़रा ज्यादा ही तेज  चल रहे हैं. तथाकथित पवित्र साध्य  को साधने के लिए अपवित्र -स्वार्थी नेताओं का नया जमावड़ा बनने  लगा है। ऐंसे हालात में 'आप' की शुचिता पर सवाल खड़े होना लाजिमी है। उसके भ्रष्टाचार विरोधी और आम आदमी वाले  स्वरुप को  मजबूत आधार देने के लिए समाज के सच्चे और अच्छे लोगों को आगे आकर 'आप' का साथ देना चाहिए। केवल उसकी खामियां गिनाने या उपदेश झाड़ने से क्रांतियां नहीं हुआ करतीं !
               कांग्रेस के  दिग्गज -दिग्गी राजा, जयराम   रमेश,मणिशंकर अय्यर  और खुद राहुल गांधी भी 'आप' के मुरीद होते दिख रहे हैं।  माकपा नेता प्रकाश कारात ,प्रख्यात नृत्यांगना मल्लिका सारा भाई और जर्नलिस्ट आशुतोष ही नहीं बल्कि 'बड़े-बड़े' लोग भी अब 'आप' को गम्भीरता से ले रहे हैं।  संघ प्रमुख मोहन भागवत और वर्तमान नेता प्रतिपक्ष सुषमा  स्वराज  ने भी इशारों-इशारों में  भाजपा को 'आप'  से सावधान रहने और उसी गम्भीरता से लेने का उपदेश दिया है।  किन्तु इस सबके वावजूद  शैतानियत भी परवान चढ़ रही है।  किरण वेदी  जैसी  असफल और अस्थिर मानसिकता   को 'आप' की यह 'महिमा '  रास नहीं आ रही है। संस्थागत रूप से  भाजपा ,संघ परिवार और   कांग्रेस  पार्टी और  उनके  स्थापित नेता  भी 'आप' और उसके नेता केजरीवाल को जल्दी निपटाने के मंसूबे बना रहे हैं। वे  ६ माह के  उपरान्त  दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लगा हुआ देखना चाहते हैं। इस तरह की  नकारात्मक  सोच के  भी उनके पास  पर्याप्त कारण भी  हैं। 
                                                         बकौल कांग्रेस महासचिव जनार्दन   द्विवेदी और अन्य अनेक पूर्वागृही  स्वनामधन्य 'विचारकों' के अनुसार  'आप' की तो  कोई 'विचारधारा  ही  नहीं है. इसलिए उसका कोई भविष्य नहीं है । बकौल डॉ हर्षवर्धन दिल्ली की केजरीवाल सरकार ने भ्रष्टाचार से समझौता कर लिया है वह कांग्रेस की फ्रेंचाइजी बन चुकी है बगैरह बगैरह . . . . .    अन्य आलोचकों के भी  तर्क हैं कि केवल मुफ्त पानी देने ,मुफ्त  बिजली  देने या भ्रष्टाचार के खिलाफ 'हेल्प-लाइन' चालु कर  देने से  या  भृष्टाचार की जांच कराने  का दम  भरने  से ही  'आप' एक जिम्मेदार पार्टी नहीं  कही जा सकती । राष्ट्रीय पार्टी के रूप में दर्ज होने के लिए  यह जरूरी है कि -विचारधारा  का  खुलासा पहले हो। इसके अलावा 'आप'पार्टी  का  संविधान ,मेनिफेस्टो और चुनाव आयोग   के  नियमानुसार  कम से कम ४ सांसद  भी  देश भर  से अवश्य  चुने जाना चाहिए। अभी तो दिल्ली में  आंशिक सफलता ही  मिल पाई है उसे भी  कांग्रेस के आठ विधायकों का बिना शर्त [?] समर्थन  को  नजर अंदाज नहीं करना  चाहिए। इन मूल भूत तथ्यों के आधार पर ही 'आप' को अपने पाँव  पसारना चाहिए। वगैरह वगैरह।                                         इन तथ्यों के आधार पर  यह  अत्यावश्यक  है कि  राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में गम्भीर मुद्दों पर  'आप' के नेताओं को सोच -समझकर ही  वयान देना चाहिए। वयान देने से पूर्व आपस में सलाह मशविरा तथा तथ्यों की जांच परख भी कर लेनी चाहिए। कुमार विश्वाश ,प्रशांत भूषण और अन्य 'आप' नेता भले ही सच वयानी कर रहे हों किन्तु उनके सच को जनता के गले  उतारना जिस मीडिया का काम है उसको भी प्रॉपर  ब्रीफ़िंग किया जाना चाहिए।  सब्सिडी बांटने या मुफ्त सेवाओं के लिए धन कहाँ से आयेगा,'आप' की आर्थिक नीति क्या है ? इन  बातों पर ध्यान नहीं देंगें तो   'आप'  पार्टी सर्वाइव कैसे  कर सकेगी ? केवल लोकलुभावन घोषणाओं और 'मुफत के चन्दन -घिस रघुनंदन ' से काम नहीं चलेगा ! इस तरह तो 'आप' के   नेता  किसी   गम्भीर और  बड़ी भयंकर  कठिनाई में भी  फंस सकते हैं।  उनकी  किसी मामूली सी गफलत से देश की उस आकांक्षा  को भी  धक्का लग सकता है जिसमें यह  निहित है  कि  'आप' से  आम आदमी   का उद्धार तो होगा  ही , बल्कि  भृष्टाचार,महंगाई   कुशाशन का खात्मा हो भी  सकेगा।
                       निसंदेह वर्तमान 'भारत-दुर्दशा'  के लिए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही बराबर के जिम्मेदार हैं।  चूँकि तीसरा मोर्चा  खण्डित पड़ा है ,वाम मोर्चा अभी अपने  जन -संघर्षों को 'वोट बैंक ' में नहीं बदल  पाया  हैं. पूँजीपतियों  का दलाल मीडिया 'नमों  नाम केवलम ' जप रहा है । स्थापित नेता और पार्टियां  श्रीहीन हो चुकी हैं।  ऐंसे में  भ्रष्टाचार - कदाचार और बेईमानी  का खातमा कर देश में वास्तविक आदर्श  लोकतंत्रात्मक - व्यवस्था  कायम  हो इसके लिए जरूरी है  कि कांग्रेस और भाजपा जैसे  बड़े दलों को सत्ता से बाहर  रखा जाए.    न केवल दिल्ली राज्य में बल्कि  पूरे देश में  'आप' को  शासन करने का निरापद एक  अवसर अवश्य  प्रदान किया जाए। 'आप' के नेताओं  को भी चाहिए की पूंजीवादी भ्रष्टतम्  अधोपतन से बचने की कोशिश करे।जरूरी नहीं की वो 'इंकलाब जिन्दावाद ' के नारे लगाए। अन्ना हजारे की तरह 'आप' को  'वंदे मातरम'का नारा लगाकर अपनी देशभक्ति सावित  करने  की कोई जरुरत नहीं। 'आप' काम कीजिये। 'आप' का काम  बोलेगा कि 'आप' क्या चीज हैं ?  
                       अन्ना हजारे की यह सलाह वाजिब भी हो सकती थी  कि 'आप' को और केजरीवाल को  अभी दिल्ली पर ही ध्यान  केंद्रित  करना चाहिए। लेकिन अण्णा के  मन में खोट है।  वे संघ से संचालित हैं और उसके खिलाफ  जाने का माद्दा उनमें नहीं है । जबकि 'आप' के प्रशांत भूषण ,योगेन्द्र यादव और केजरीवाल जैसे  चतुर नेताओं  ने संघ परिवार   की  चालों को ठीक पहचाना है। उन्होंने संघ की पहचान  एक नकारात्मक -संवैधानेतर  सत्ता व शक्ति केंद्र के रूप में कर ली है। प्रशांत का यह आरोप कि 'नरेंद्र  मोदी को  तो अम्बानी जैसे पूँजीपति   हांकते  हैं' क्या यह सावित नहीं करता कि मोदी न केवल असहिष्णुता के प्रतीक हैं ,न केवल घोर व्यक्तिवाद और  साम्प्रदायिकता के प्रतीक हैं बल्कि वे  निर्मम पूँजीवाद  के अलम्वरदार  भी  हैं।  निसंदेह  प्रशांत भूषण या  'आप' का निर्मम विरोध  अभी तक केवल भाजपा और कांग्रेस तथा भ्रष्ट व्यवस्था से था. किन्तु जब से हिंदुत्ववादियों ने 'आप' के कार्यालय पर हिंसक हमला किया है, तबसे 'आप'  के समर्थकों में संघ परिवार के खिलाफ माहौल  बनता जा रहा है  । हिंदुतव्वादियों द्वारा दिल्ली में  'आप' पार्टी  के कार्यालय पर हिंसक   आक्रमण  से  संघ परिवार बनाम आम आदमी पार्टी की लड़ाई में मोदी का पी एम् बन पाना और  कठिन होता जा रहा है। बड़े महनगरों में मध्यम  वर्गीय  पढ़ा लिखा हिन्दू  युवा वर्ग 'आप' की ओर खीच रहा है। संघ  परिवार को सब कुछ  मालूम है।
                         मोहन राव भागवत,राम माधव,राजनाथ सिंह  और भैयाजी जोशी इस मामले में डेमेज कंट्रोल की कोशिश  में लगे हैं। किरण वेदी का मोदी शरणम गच्छामि हो जाना कोई आकस्मिक घटना नहीं है। यह एक राजनैतिक और घोर बेइमानीपूर्ण सौदेवाजी है कि जो किरण वेदी कल तक राजनीति को पाप का घड़ा  बताया करते थी , अण्णा  को राजनीति  से दूर रहने की वकालत करती थीं अब वे खुद राजनीति के पीकदान में कूंद पडी हैं। यह तो  'थूक लो छांट लो'  वाली बात हो गई ।  एक साल पहले किरण वेदी और 'इंडिया अगेंस्ट करप्शन'  के लोगों ने  ही  सबसे पहले ''आप' के गठन का विरोध किया था। जब केजरीवाल और अन्य साथियों ने 'आप' का गठन किया ,दिल्ली में चुनाव लड़ा और बेहतरीन जन- समर्थन  हासिल किया तो जिन लोगों के अहम् को ठेस पहुंची उनमें  किरण मोदी और अन्ना हजारे  टॉप  पर थे। 'आप' को मिल रहे देश व्यापी समर्थन से  जिनके अहंकार को ठेस लगी है , वे लोग अब भाजपा और संघ के दडवे में घुसने को बैचेन हैं । किरण मोदी  अब खुलकर 'आप' के खिलाफ आ गईं हैं। उनके जैसे  नापाक  तत्वों  ने 'आप' को गुमराह करने के लिए  पहले भी  बिन मांगे सुझाव  दिया  था कि केजरीवाल को सरकार नहीं बनाना चाहिए ! डॉ हर्षवर्धन के नेत्तव में भाजपा  की सरकार बनने  दी जाए।  भाजपा सरकार  को 'आप'  बाहर से समर्थन दे।   किन्तु कांग्रेस की 'चाल' से -उसके बिना शर्त समर्थन से जब  'आप' की सरकार बन ही  गई तो  अब 'आप'  के निशाने पर भाजपा  और मोदी आ चुके  हैं. किरण वेदी जैसी  बिन पैंदी की लुटिया अब भाजपा की गटर गंगा मेंडूबने जा रही है।
                                 लगता है कि  अन्ना हजारे भी  प्रकारांतर से राष्ट्रीय राजनीती में नरेंद्र मोदी को 'कवरिंग फायर' दे रहे हैं।  आरोप लगाए जा रहे हैं कि   अण्णा  हजारे ने ऐंसा इसलिए निर्देशित किया है, क्योंकि उन्हें लगता है कि नरेंद्र मोदी के नेत्तव को,उनके प्रधान मंत्री बनने  के अभियान को  अरविन्द केजरीवाल  से खतरा है। अरविन्द केजरीवाल का उज्जवल -धवल  चरित्र और आम आदमी वाले व्यक्तित्व से  नरेंद्र मोदी  जैसे  विवादास्पद नेता और भाजपा  जैसी पूंजीवादी दक्षिणपंथी पार्टी को  गंभीर  खतरा हो सकता  है। इस घटनाक्रम से 'आप' अपने आप ही एक ऐंसे  नवीन  'विचार' याने प्रति दक्षिणपंथ  को धारण करती हुई प्रतीत होती है ।,  जिसकी धर्मनिरपेक्षता  और समाजवादी  प्रजातांत्रिकता अभी सिद्ध होना बाकी है. इसलिए 'आप' को अभी   दिल्ली राज्य  की  सरकार पर पूरा ध्यान देना चाहिए। दिल्ली को  भ्रष्टचार मुक्त कर देश को आशाजनक सन्देश देना चाहिए ताकि  सम्पूर्ण भारत को भय-भूंख -भ्रष्टाचार से मुक्त करने लायक हैसियत 'आप' की हो सके।
                   आप के कुछ निस्वार्थी समर्थकों का ख्याल है कि अभी तो  दिल्ली में 'आप' रुपी   बिल्ली के भाग से  कांग्रेस  की सत्ता का सींका  ही टूटा है , उनका ये भी कहना है कि  दिल्ली विधान सभा चुनाव में  भाजपा  की आशा रुपी  दही कि हाँडी  फूटने से देश में मोदी का विभ्रमजाल भी टूट गया है । मीडिया द्वारा लगातार भरमाये जा रहे और क्षेत्रीय  पार्टी से  राष्ट्रीय विराट दल  बनने के लिए  उतावले हो रहे 'आप' के नेता चौतरफा औचक  चकरघिन्नी खाने को बे करार हो रहे हैं। प्रशांत भूषण  ने कश्मीर रुपी बर्र के छत्ते में हाथ  डाल  दिया है ,कुमार विश्वाश तो अमेठी से चुनाव लड़ने को बेताव हो रहे हैं। वे  कभी मोदी को  ललकारते हैं ,कभी राहुल को चिढ़ाते हैं कभी अपने समर्थक विधायक को ही रुसवा करते दिख रहे हैं। राखी बिड़ला जब से मंत्री बनी हैं उन्हें 'सब कुछ लागे नया-नया ' याने अब तो क्रिकेट की  गेंद भी उन्हें  दुश्मनों का आक्रमण नज़र आने लगी है।  ये  शुभ संकेत नहीं हैं।  वेचारे  केजरीवाल अकेले पड़ते  जा रहे हैं। योगेन्द्र यादव ने  जो राष्ट्रीय छितिज पर नजर दौड़ाई है  वो शायद बेहतर कदम हो किन्तु  उन्हें चाहिए कि दिल्ली में 'आप' की सरकार की इज्जत पहले संभालें  .  केजरीवाल की परशानी ये है कि   भाजपा ,कांग्रेस उन्हें  कुछ सोचने या करने का अवसर ही नहीं देना चाहते ।   मीडिया  और 'आप' के समर्थकों  का कहना है कि केजरीवाल हम तुझे चेन से सोने नहीं  देंगे !ऐंसे विषम  हालात में योगेन्द्र यादव का यह   एलान सुनने में आया  है कि हम राष्ट्र  व्यापी  संगठन खड़ा करने जा रहे हैं । वेशक  ऐंसा  करने का उनका अधिकार और कर्त्तव्य दोनों हो सकते हैं किन्तु दिल कहता है कि कहींये बहुत जल्दवा- जी  और अतिउत्साह  में लिया गया फैसला  सावित न हो जाए।
                 आम आदमी पार्टी की दिल्ली में आंशिक सफलता  के उपरान्त अखिल भारतीय स्तर पर  उनका समर्थन करने वालों की  तादाद रोज-रोज बढ़ती जा रहे है। सभी वर्गों के लोगों का सपोर्ट उन्हें अवश्य  मिलता हुआ नजर अवश्य आ रहा है. अनगिनत  वेरोजगार युवा और राजनीति  में असफल हो चुके  फुरसतिए हजारों की संख्या में 'आप' के बाड़े में घुसने को बेताब हैं। इसकी कोई गारंटी नहीं कि  ये सभी केजरीवाल या 'आप' के उस दृष्टिकोण से सहमत हैं जो  तथाकथित  भ्रष्टाचार ,मॅंहगाई  और कुशासन के खिलाफ  जंग छेड़ने के जूनून से ताल्लुक रखता  है 'आप' की और पलायन करने वालों में शिक्षित,माध्यम वर्गीय युवक-युवतियाँ , आधुनिक सूचना संचार क्रान्ति से सुसज्जित छात्र -नौजवान सहित सभी वर्गों के प्रोफेशनल्स तथा कार्पोरेट लाबी भी आकर्षित होती जा रही है। ये वर्ग भाजपा का   अधिकांस  और  बाकी  कांग्रेस व अन्य दलों का न्यूनाधिक  हो सकता है।  यह जन सैलाब कभी इन्ही  स्थापित  बड़े दलों का मजबूत  आधार स्तम्भ हुआ करता था अब  उनको लगता है कि कांग्रेस और भाजपा का ज़माना गया सो अब  वे    'आप' की और शनेः शनेः   होता जा रहा है।  इनमें वे असफल नेता और कार्यकर्ता भी हैं जो कांग्रेस ,भाजपा और अन्य स्थापित पार्टियों द्वारा अतीत में लतियाये जा चुके हैं।
                                कुछ अपवादों को छोड़ दें , वामपंथ के अलावा अधिकांस राजनैतिक पार्टियों में भ्रष्ट और बेईमान भरे पड़े हैं  वे ही अब 'आप' के बाड़े में खिचे चल जा रहे हैं ।  इंडिया अग्नेस्ट करप्शन ,अण्णा  हजारे और संघ परिवार  के अधिकांस विचारक अब एक हो गए हैं ये सब मिलकर 'आप' को  रोकने के लिए जुट गए हैं। उधर 'आप'  के भीतर घुसने को  भ्रष्ट तत्व  भी  बेताब हैं।  भाजपा के लोग जानते हैं कि   मोदी को ताज पहनाने के लिए  'आप ' का असफल  होना जरूरी है। राहुल गांधी या कांग्रेस अभी कोई चुनौती नहीं हैं।  इसलिए मोदी समर्थक 'आप' के खिलाफ  लाम बद्ध हो चुके हैं  .  भारतीय  राजनीति में अधिकांस  भ्रष्ट  तत्व् ही काबिज हैं अब यदि कोई इधर से उधर जाता है,कांग्रेस ,भाजपा या किसी अन्य पूंजीवादी पार्टी से 'आप' में जाता है  तो  उसके दल -बदलने का मतलब ह्रदय परिवर्तन तो नहीं कहा जा सकता।  इस तरह भ्रष्टाचार ,मंहगाई और  कुशासन  से छुटकारा  पाना  आसान नहीं है। सभी क्रांतिकारियों और प्रगतिशील -धर्मनिरपेक्ष तत्वों की यह ऐतिहासिक जिम्मेदारी है कि 'आप' का साथ दें !

        श्रीराम तिवारी           

गुरुवार, 9 जनवरी 2014

नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री नहीं बन सकते ; क्योंकि -

 नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री नहीं बन सकते ; क्योंकि - १
       
        हालांकि  भारतीय प्रजातांत्रिक व्यवस्था में प्रधानमंत्री का चुनाव  सांसद  करते हैं। सांसदों का चुनाव जनता  करती है। बहुमत दल का नेता या उमीदवार लोकसभा में २७६ सांसदों का समर्थन सिद्ध कर देश का प्रधानमन्त्री बन सकता है। फिर भी कुछ अप्रजातांत्रिक किस्म के लोग आटोक्रेसी  के अनुरूप व्यक्ति बनाम व्यक्ति  की   काल्पनिक   टक्कर पेश कर देश में भ्रामक तस्वीर पेश करते रहते हैं। वे अमेरिका या फ़्रांस के राष्ट्रपतियों के चुनाव की मानिंद   भारतीय लोकतंत्र  का प्रारूप बना देना चाहते हैं।  चूँकि गठबंधन का दौर है ,इसलिए सभी बड़े दल सहमें हुए हैं कि अपने बलबूते तो सरकार बना पाना कदापि सम्भव नहीं है ।  चूँकि देश की जनता भ्रष्टाचार ,मंहगाई और अव्यवस्था से छुब्ध है इसलिए  'आम आदमी पार्टी' जैसे नए दलों  को तेजी से समर्थन बढ़ रहा है। भारतीय राजनीती में  'आप' के  उदय से तमाम   समीकरण तेजी से बदल रहे हैं । स्थापित पार्टियां और नेता 'आप' से डरे हुए हैं। 'आप' की सम्भावनाएं तेजी से परवान चढ़ रही हैं। 
      विगत दिनों  सम्पन्न हुए  ५ राज्यों -दिल्ली, छ्ग ,मिजोरम ,राजस्थान और मध्यप्रदेश-के  विधान सभा चुनाव  परिणामों को  सेमी फायनल याने आधार मानकर कुछ लोग आगामी लोक सभा चुनावों के मद्देनजर ख्याली घोड़े दौड़ाने में जुट गए हैं । अभी  तक  तो देश की राष्ट्रीय राजनीती में प्रमुखतः  नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी या यूपीए बनाम एनडीए ही  माना जा रहा  था. कभी- कभार  तीसरे मोर्चे की और से नीतीश या अन्य  किसी कद्दावर नेता के नाम को भी खबरों के जखीरे में थोड़ी सी जगह मिल जाया करती थी । इस विमर्श में  भी मोदी को ही हर तरह से बढ़त  में दिखाया जाता  रहा है।  किन्तु  दिल्ली में 'आप' की  आंशिक सफलता  और केजरीवाल के  नेत्तव  में उनके शुरुआती कार्यक्रम , नीतिगत फैसलों और ईमानदाराना कोशिशों के बरक्स  देश भर में 'आम आदमी पार्टी' के प्रति सकरात्मक रुझान आया है। इससे उत्साहित होकर  मीडिया के एक हिस्से ने नए किस्म के विमर्श की और देश का ध्यानाकर्षण किया है। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के एक सीमित  सर्वे में  मोदी को राहुल या नीतीश से नहीं बल्कि केजरीवाल से चुनौती मिलने की सूचना  है।  निसंदेह मोदी अभी भी अव्वल बताये जा रहे हैं ,दूसरे नंबर पर अरविन्द  केजरीवाल  और तीसरे नंबर पर राहुल गांधी बताये जा रहे हैं। किन्तु मात्र एक हफ्ते पुरानी 'आप' की सरकार का मुखिया , मात्र एक साल पुरानी 'आप' पार्टी का नेता यदि इतने कम समय में  कांग्रेस और भाजपा  के नेताओं को चुनौती देने की स्थति में आ गया है तो आगामी ५ महीनों में वो देश का प्रधान मंत्री  क्यों नहीं बन सकता ?
                       विगत विधान सभा चुनावों के  दौरान- ख़बरों के आदान -प्रदान में एक  वानगी  शिद्दत से हरेक की जुवान पर या   लेखन में थी कि 'ये विधान सभा  चुनाव - आगामी २०१४ के  लोक सभा चुनावो का सेमी फायनल'   है। मीडिया या राजनीति  के जिस  किसी भी  शख्स ने यह 'वानगी '  सर्वप्रथम  पेश की  हो   वो अवश्य ही  इंटलेक्चुअल' ही होगा । क्योंकि  उसके  इस  सैद्धांतिक कथन का  जमीनी हकीकत  से प्रमाणीकरण होने जा रहा है। क्योंकि  जिन पांच राज्यों में विधान सभा चुनाव हुए उनमें सभी राज्यों के अपने-अपने  सामाजिक  , आर्थिक ,जातीय , राजनैतिक  चरित्र  और एंटीइनकम्बेन्सी फेक्टर के अनुरूप जीत-हार के परिणाम  आये हैं। किसी की कोई लहर नहीं थी।   वेशक  ! दिल्ली और मिजोरम में ट्रिंगुलर  फाइट  थी । किन्तु राजस्थान ,मध्यप्रदेश और छ्ग में  कांग्रेस और भाजपा की सीधी  टक्कर थी। इन राज्यों में भाजपा की सफलता उनके स्थानीय कार्यकर्ताओं और नेताओं की अपनी मेहनत  और कांग्रेस की अपनी[कु] करनी का परिणाम है  इसमें  मोदी के प्रभाव का कहीं कोई प्रमाण नहीं है। अखिल भारतीय पैमाने पर दीगर राज्यों में भाजपा की  ऐंसी स्थति नहीं है. शेष राज्यों में मोदी की  लोकप्रियता भी केवल प्रायोजित ही है। सुना  है कि राहुल गांधी भी अब  नमो  की तर्ज पर अपना ' सार्वजनिक  चेहरा'  प्रस्तुत करने जा रहे हैं। चूँकि केजरीवाल को केवल जनता का ही सहारा है और वे भृष्टाचार ,मंहगाई तथा कुव्यवस्था के लिए भाजपा और कांग्रेस को बराबर का साझीदार मानते हैं  ,इसलिए  'आप' और केजरीवाल के  पक्ष में  जनता का रुझान तेजी से बढ़ रहा है । प्रधानमंत्री पद के सर्वे में  केजरीवाल अभी  नंबर दो पर हैं किन्तु यदि अन्ना हजारे ,तीसरा मोर्चा और वाम मोर्चा उनका समर्थन करे तो  वे  मोदी  का विजय रथ रोक सकते हैं।


       नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री नहीं बन पाएंगे; क्योंकि -२ 
    

           विगत विधान सभा  चुनावों के दरम्यान मध्यप्रदेश में एक खास बात उभरकर  सामने आई थी , जिसे मीडिया ने जाने-अनजाने नजर अंदाज किया है। अन्य राज्यों के बरक्स मध्यप्रदेश में नरेद्र मोदी कि जितनी भी चुनावी सभाएं कराईं गईं उनमें से किसी में भी शिवराज सिंह  चौहान ने मंच शेयर नहीं किया। मध्यप्रदेश  छ्ग और राजस्थान   विधान सभा चुनाव  में मिली अप्रत्याशित सफलता को  भाजपा और  संघ परिवार ने ' नरेंद्र मोदी लहर' का परिणाम  सिद्ध करने की कोशिश की है। हालाँकि  संघ परिवार और भाजपा नेताओं के - दिल्ली और मिजोरम में असफलता  पर - अपने अलग  मापदण्ड  हैं। खुद मोदी की गुजरात में सत्तात्मक  हैसियत उतनी  सटीक  नहीं  है जो  उनके आतंक युक्त चाल-चलन  और जर -खरीद  प्रचार तंत्र के मार्फ़त देश और दुनिया को बताई जा रही है।  जबकि शिवराज सिंह चौहान  ने कभी भी किसी भी मंच पर यह 'मोदी लहर' के असर का  'महाझूठ' स्वीकार नहीं किया।
                         वास्तविकता यह है कि  गुजरात और राजस्थान की तरह ही  मध्यप्रदेश  में संघ परिवार का अपना मजबूत ताना बाना  पहले से ही है।   इधर भारी  भ्रष्टाचार  और अपराधीकरण के वावजूद - शिवराज  सिंह   चौहान का  भी लगातार  चुनावी  धुंआधार प्रचार साल भर से जारी था।  उधर मध्यप्रदेश  कांग्रेस संगठन में आपस की फूट  अपने  चरम पर थी  इन सब कारणों से मध्य प्रदेश  में न केवल   शिवराज की हेट्रिक बनी   बल्कि  शिवराज  को मोदी से ज्यादा बेहतर कामयाबी भी  मिली। यह सर्वविदित है कि  गुजरात विधान सभा  में मोदी की ताकत याने  विधायक संख्या में क्रमशः  घटत दर्ज  हुई है । जबकि शिवराज ने अतीत के सारे कीर्तिमान ध्वस्त कर  अब तक के सर्वाधिक विधायक  मध्यप्रदेश विधान सभा में पहुंचाए हैं।
                         शिवराज की  इस  शानदार सफलता के बाद  राजनैतिक गलियारों में चर्चा थी कि भाजपा उन्हें  अपने संसदीय बोर्ड में  नरेद्र मोदी की तरह  ही शामिल कर लेगी। लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज भी यही चाहते होंगे ! किन्तु नए साल की शुरुआत में हुई भाजपा संसदीय बोर्ड की  बैठक में पार्टी  अध्यक्ष राजनाथ सिंह के समक्ष प्रस्तुत किये गए  इस प्रस्ताव को 'नमो' ने वीटो कर दिया है।जो  शिवराज कल तक भाजपा की धर्मनिरपेक्ष छवि और विनम्र व्यवहार के प्रतीक थे वे भाजपा  और संघ के  थिक टैंक की  सनद के वावजूद भाजपा संसदीय बोर्ड के द्वार से बे आबरू लौटा दिए गए हैं। शिवराज   अपनी  ही पार्टी  के  सर्वोच्च  नीतिनिर्धारक  फोरम में यदि शामिल नहीं हो सके हैं  तो यह  उन लोगों  की- समझ  का  सर्टिफिकेशन है-  जो  पहले से ही  'नमो'  के अधिनायकवादी तौर  तरीके  को  घातक मानते आ रहे  हैं.
                                   दरसल कांग्रेस  से ,तीसरे मोर्चे  से और नवोदित 'आप' से जो व्यक्ति रंच मात्र भी  नहीं डरता उसका नाम शिवराज सिंह चौहान है. निसंदेह  शिवराज के राज में मध्यप्रदेश की संसदीय  सीटें गुजरात से ज्यादा ही होंगी !  यहाँ कांग्रेस,आप पार्टी या तीसरा  मोर्चा कोई खास  भूमिका  अदा कर पाने की स्थति में नहीं है।  मध्यप्रदेश में भाजपा और शिवराज हिंदुतव के नहीं धर्मनिरपेक्षता के झंडावरदार बन चुके हैं। पूँजीपति  वर्ग में  शिवराज सिंह चौहान  अब मोदी से ज्यादा वांछनीय नेता सावित हो चुके  हैं।  यदि भाजपा और संघ परिवार ने मोदी  के साथ-साथ   शिवराज को भी  आगामी १०१४ के लोक सभा चुनाव के मद्देनजर  वैकल्पिक 'पी एम् इन वैटिंग 'रखा होता तो  संघ परिवार की सत्ता अभिलाषा पूरी होने के ज्यादा चांस हो सकते थे।  राज ठाकरे  , प्रशांत भूषण और धर्मनिरपेक्ष कतारों में विभिन्न नेताओं और वर्गों  ने जो आरोप मोदी पर लगाए हैं वे शायद शिवराज पर नहीं लग पाते ! तब एनडीए के पास एक ऐंसा नेता होता जो अटल बिहारी के जैसा नहीं तो उनके शिष्य तुल्य तो अवश्य ही होता। और तब केजरीवाल या किसी ओर की जगह भाजपा और एनडीए का प्रधानमंत्री होता।
                      किन्तु शिवराज को रोककर भाजपा ने अपने ही पैरों पर कुल्हड़ी मार ली है। उसने  कांग्रेस की ही  राह पकड़ ली है याने  जो भविष्य कांग्रेस और राहुल गांधी का है वही भाजपा और नरेंद्र मोदी का होने के आसार बनते जा रहे हैं। 'आप' के उदय से तीसरे मोर्चे के ,वाम मोर्चे के और क्षेत्रीय दलों के  होसले अंगड़ाई लेने लेगे हैं। चूँकि  धर्मनिरपेक्षता और  जनतांत्रिकता में मोदी  बहुत कमजोर हैं , निरंतर  हार की और  अग्र्सर कांग्रेस  का समर्थन गैर भाजपा को ही मिलेगा और तब  नरेद्र मोदी की हालत डॉ हर्षवर्धन जैसी हो कर रह जायेगी।  इस दौर में नवोदित  आम आदमी पार्टी और   केजरीवाल  के सभी गृह बलवान हैं   उसका दिल्ली फार्मूला [कांग्रेस का बाहर से समर्थन ] पूरे भारत में भी  सफल हो जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। तब मोदी भी आडवाणी की तरह 'पी एम् इन वैटिंग ' ही रह जायंगै। शायद तब  आडवाणी जी को  भी प्रशन्नता ही होगी !
    
     श्रीराम तिवारी
    
                 
     

सोमवार, 6 जनवरी 2014

'झाड़ू ' से उम्मीद सब करने लगे हैं।

     इन दिनों दिल्ली में आम आदमी पार्टी की 'आंशिक' सफलता से  बहुत सारे नर-नारी,पढ़े -लिखे युवा-छात्र नौजवान  अति उत्साहित हैं. कुछ वे लोग भी गदगदायमान हैं जिन्हें जनता के इन्हीं सवालों को लेकर देश में निरंतर  चल रहे  प्रगतिशील आंदोलन,  वामपंथी ट्रेड यूनियन  आन्दोलनों  और विभिन्न सामाजिक-आर्थिक  सांस्कृतिक -साहित्यिक और देशभक्तिपूर्ण  -जनसंघर्षों की जानकरी ही नहीं है. इनके अलावा कुछ वे भारतीय भी 'आप' से ज़रा ज्यादा ही  आशान्वित हैं जो सोचते हैं कि भ्रष्टाचार,महंगाई तथा व्यवस्था परिवर्तन के  शाश्वत सवालों को केवल  अण्णा हजारे नुमा अनगढ़ अनशनों  या 'आप' के विचारधाराविहीन राजनैतिक हस्तक्षेपों के प्रयोग से  ही हल किया जा सकता है। वर्तमान राजनैतिक प्रहसन और तदनुरूप  विडंबनाओं  पर व्यंग  करते हुए  मेरे  मित्र  'प्रेम -पथिक' ने  मोबाइल पर सन्देश भेजा है :-

   फूल भी अब शूल से लगने लगे हैं। …

    हाथ के नाखून भी चुभने लगे हैं। ....


    गंदगी का राज है चारों तरफ  तो ,

   'झाड़ू ' से उम्मीद सब करने लगे हैं।

     अपने अल्पज्ञान और  सामान्य बुद्धि के वावजूद मैनें भी  विगत वर्ष- यूपीए सरकार की विनाशकारी आर्थिक नीतियों , कांग्रेस  के भ्रष्टाचार और उसकी   संगठनात्मक  खामियों ,भाजपा और  नमो  के ढपोरशंखी दिशा - हीन  दुष्प्रचार   तथा  अण्णा  हजारे -स्वामी  रामदेव जैसे अगम्भीर और 'टू इन वन' खंडित  चोंचलेबाजों  के खिलाफ  निरंतर लिखा है। जो मेरे अपने  ब्लॉग- www.janwadi.blogspot.com   पर ,प्रवक्ता . कॉम  पर   , हस्तक्षेप .कॉम पर, फ़ेस बुक और ट्वीटर  पर निरंतर  प्रकाशित भी होता रहा है। अभी भी जस का तस संगृहीत है।  इसका उल्लेख मैं इसलिए  नहीं कर रहा हूँ कि उसमें   मेरा वह अनुमान या आकलन  सही सावित हुआ  है जो ये बताता है कि दिल्ली[राज्य] में न तो कांग्रेस की सरकार होगी और न ही  भाजपा की। बल्कि इसका उल्लेख इस संदर्भ में प्रासंगिक है कि मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा इस  बहुलतावादी देश की जन-आकांक्षाओं को केवल  'दिल्ली मेड '  राजनैतिक घटनाओं  के आधार पर परिभाषित करने पर तुला हुआ है।  कुल  मिलाकर   लब्बो लुआब  वही  सामने  खड़ा है कि नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी बनाम केजरीवाल बाकी सब कंगाल !
                                            वेशक  मीडिया और जन-विमर्श  के केंद्र में  इन दिनों नरेंद्र मोदी ,राहुल गांधी और केजरीवाल  शिद्दत से  विराजे हैं.  देश के राजनैतिक ,आर्थिक ,सामजिक ,जातीय ,भाषायी और व्यवस्थागत ढांचे पर विहंगम दृष्टिपात के उपरान्त  कोई भी सामान्य वुद्धि  का भारतीय नागरिक  भुजा उठाकर घोषणा कर सकता है  कि ये तमाम सूचना तंत्र पथभ्रष्ट और दिग्भ्रमित हो रहा है या जानबूझकर किया जा रहा है। यह  सच  है कि   देश में गैर कांग्रेसवाद और गैर भाजपावाद का दौर  अभी भी जारी  है । किन्तु उससे भी बड़ा सच ये है कि इन दोनों ही बड़ी पार्टियों  के बिना  देश की स्थिरता  और पूंजीवादी  प्रजातांत्रिक  राजनीति  चल भी नहीं सकती।उससे भी बड़ा सच ये है कि ये दोनों ही बड़ी पार्टियां-कांग्रेस और भाजपा  देश की बर्बादी का कारण  हैं। इसलिए जनता इनसे छुटकारा चाहती है। अतः यह स्वयं सिद्ध है कि आगामी लोक सभा चुनाव -२०१४ में  भाजपा ,कांग्रेस भले ही लाख कोशिश कर लें किन्तु उनके घोषित चेहरे मोदी और राहुल  'पी एम् इन वेटिंग' ही रहेंगे। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी होकर जिस तरह दिल्ली विधान सभा में  विपक्ष  में सुशोभित है उसी तरह लोक सभा में भी शोभायमान होगी। कांग्रेस की  सम्भावनाओं पर तो  मनमोहन जी कब का पानी फेर चुके हैं। 
                      अपने  हम सोच मित्रों और आलोचकों को यह एतद द्वारा शिद्दत के साथ सूचित किया जाता है, ताकि वक्त पर [मई-२०१४  के बाद  कभी भी ]काम आवे ,कि आगामी लोकसभा चुनाव-मई-२०१४  में  बनने  जा रही  नई  सरकार का नेतत्व्  न तो नरेद्र मोदी कर सकेंगें और न ही राहुल गांधी ! केजरीवाल  और 'आप' तो कदापि नहीं  ! यह भी  लगभग तय है कि  बड़े-बड़े दलों के नेता शायद ही ये  ये पद हासिल  कर  सकें ! वेशक - केजरीवाल का  ये कहना कि मैं लोक सभा का  चुनाव नहीं  लडूंगा कोई मायने नहीं रखता।  तात्कालिक रूप से भले ही  वे अपने आप को इस लोक सभाई  चुनाव एरिना से  बाहर समझें । किन्तु  जब आगामी लोक सभा चुनाव -२०१४ में परिस्थतियां उन्हें  बाध्य करेंगी तो  अपनी  सम्भावित विराट भूमिका से वे बच नहीं सकेंगे। खुद न सही किसी और बेहतर चहरे को समर्थन देकर वे अपनी राजनीति  जारी रख सकते हैं। सवाल उठता है कि  भारत का  आगामी  प्रधानमंत्री  कौन होगा? आसान सा जबाब है कि  संसद में जिस 'गठबंधन' का बहुमत होगा उसका सर्वाधिक पसंदीदा  उम्मीदवार  भारत का प्रधान मंत्री होगा।  चूँकि एनडीए ,यूपीए  को भाजपा और कांग्रेस लीड कर रहे हैं और देश की जनता इनसे छुटकारा चाहती है इसलिए जो इन दोनों गठबंधनों में नहीं हैं वे  छोटे-छोटे दल ,वाम मोर्चा और 'आप' जैसे नवोदित दल एका कर सकते हैं और देश को बेहतर सरकार  और  एक अच्छा  प्रधानमंत्री दे सकते हैं।  केजरीवाल भी विकल्प हो सकते हैं।  इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे चुनाव लड़ेंगें या नहीं ,उनके पास नीतियां और कार्यक्रम है या नहीं।  
                                     जब बिना चुनाव लड़े ही  विनाशकारी नीतियों और पूँजीवादी कार्यक्रमों  को लागू कर   डॉ  मनमोहनसिंग  १० साल तक लगातार भारत के प्रधान मंत्री रह  सकते हैं , इंद्रकुमार गुजराल  प्रधान मंत्री हो सकते हैं, बिना नीतियों और कार्यक्रमों के चंद्रशेखर प्रधानमंत्री हो सकते हैं , तो'आप'के केजरीवाल,प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव  देश के  प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते ? वाम मोर्चे बनाम  तीसरे मोर्चे के प्रकाश कारात  , सीताराम येचुरी , ए वी वर्धन , समाजवादी - शरद  यादव  नीतिश कुमार ,मुलायमसिंग  प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सकते ?जबकि इनके पास शानदार  नीतियां और बेहतरीन  कार्यक्रम  और राजनैतिक अनुभव भी  है। अपने-अपने क्षेत्र के दिगज -  बीजद के  नवीन पटनायक  , बसपा की माया  , एएआईडीएमके की जयललिथा या कोई  विख्यात हस्ती -ब्यूरोक्रेट  प्रधानमंत्री  क्यों नहीं  बन सकते ?
             वेशक कांग्रेस   के  राहुल गांधी  का प्रधान मंत्री बन पाना अभी  तो सम्भव नहीं है किन्तु सेम पित्रोदा - नंदन  नीलेकणि या मीरा कुमार   को पेश कर कांग्रेस  अपनी प्रासंगिकता बरकरार रख सकती है।  लेकिन   भारतीय  मीडिया की  यह कोई  राष्ट्रीय मजबूरी नहीं है कि केवल मोदी बनाम राहुल की ही नूरा कुस्ती पेश करता रहे या 'आप' के अनुभवहीन  नेताओं -मंत्रियों के पीछे हाथ धोकर पड़ा रहे।  और भी  हैं जमाने में दीदावर  जो खिलने को  तैयार बैठ हैं। वशर्ते  देश की वास्तविक  राजनीतिक -सामाजिक -आर्थिक -क्षेत्रीय -भाषाई और  सांस्कृतिक बहुलतावादी -तस्वीर पर मीडिया की  नजरे-इनायत का जज्वा हो।
                     अण्णा  हजारे के  नेत्तव  में   विगत वर्ष रामलीला मैदान  में सम्पन्न  अनशन कार्यक्रम तक मैं  अरविन्द केजरवाल  को भी 'खलनायक ' श्रेणी में ही गिनता था। किन्तु जब अनशनकारियों को लगभग चिढ़ाने वाले अंदाज में कहा गया कि - "हिम्मत है तो राजनीति  में आओ ! चुनाव लड़कर-जीतकर  दिखाओ ! केवल रामलीला मैदान या जंतर के जंतर -मंतर पर नौटंकी से  जन-लोकपाल नहीं बनने  वाला , केवल  'इंकलाब -जिंदाबाद' या 'भारत माता की जय'  के नारे लगाने से क्रांति सम्पन्न  नहीं होने वाली। आदर्श की बातें करना और राज-काज चलाना दोनों में  जमीन -आसमान का फर्क है " . . . .  !   वगेरह  वगेरह।
                      वेशक यह तंज करने वाले अल्फाज अण्णा  जैसे  कम पढ़े लिखे और मट्ठर व्यक्ति को भले ही समझ में न आये हों किन्तु ये व्यंगवाण रूपी शब्द  ही थे जो अरविन्द केजरीवाल को आम आदमी से खास नेता बंनाने में मददगार सावित हुए  ।  अरविन्द  केजरीवाल आज दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं।  भले ही उनके सर पर  काँटों का ताज रखा गया है किन्तु इतना तय है कि  स्थापित राजनैतिक दलों और नेताओं और अण्णा  जैसे नकली शूरवीरों  को वे निराश नहीं  करेंगे।   विधान सभा चुनाव से कुछ दिन  पूर्व फ़ॉलो -अप पत्रिका में और लाइव इंडिया पत्रिका में मेरा तत्संबंधी  आलेख  छपा था। जिसमें मैनें  घोषणा की थी कि 'आप' को सत्ता सोंपने की तैयारी मैं है दिल्ली की जनता।एक शुभ चिंतक आलोचक महोदय ने तब मुझे नसीहत  देते हुए कहा था -दो सीटें भी नहीं मिलेंगी -"आप'को !  उनका ये भी  मशविरा था कि  " यदि  नारे लगाने से सड़कों पर धरना -प्रदर्शन से  क्रांति  सम्भव होती  तो वामपंथ के नेत्तव में  यह कब की हो गई होती ! ये  'आप' के  केजरीवाल जैसे विचारधाराविहीन  -आंदोलनकारी राजनीति  की जमीनी सच्चाइयों से नावाकिफ हैं  ये  अन्ना और केजरीवाल तो केवल कोरा धरना -प्रदर्शन ही करना जानते हैं जबकि साम्यवादियों   - वामपंथियों  के पास तो  इन धरना -प्रदर्शनों  के माध्यम से व्यवस्था परिवर्तन उपरान्त वेहतरीन सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावादी - सामाजिक  , आर्थिक और राजनैतिक  विकल्प  भी उपलब्ध है" उनके इस बक्तव्य के बाद  -दिल्ली में केजरीवाल की ताज-पोशी 'के बाद मुझसे रहा नहीं गया सो  उनकों - जो  'आप' की  आंशिक सफलता से अभी भी  सदमें हैं , वे जो  मोदी को प्रधान मंत्री  देखना चाहते हैं, वे जो राहुल को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं और वे जो समझते हैं कि देश का कार्पोरेट जगत ही तय करेगा कि कौन बनेगा-  प्रधानमंत्री -भारत सरकार ,नई -दिल्ली तो में उन्हें पहले से ही ये  बता दूँ कि  राहुल,  मोदी या  केजरीवाल नहीं - बल्कि कोई और ही बनेगा भारत का प्रधान मंत्री !

         श्रीराम तिवारी