शनिवार, 31 अगस्त 2013

रेप करने वाला आसाराम क्या क़ानून से उपर है ?

  

       बरसों पहले एक फिल्म  देखी थी -अर्ध सत्य . फिल्म में सदाशिव राव अमरापुरकर विलेन  के  रूप में पुलिस हिरासत से बचने के लिए अपने अड्डे पर किले बंदी करता है . उसे गिरफ्तार करने के लिए ओमपुरी जी इन्स्पेक्टर के रूप में काफी मशक्कत करते हैं किन्तु 'विलेन' कहता है [दारू के नशे में] "कल आना " . ओमपुरी को अंत में फिल्म की पटकथा के अनुसार विलेन की धुलाई करनी पड़ती है . इस समय रात के ११ बज चुके हैं , जोधपुर पुलिस ' दीन -हीन  याचक की तरह,  इंदौर के खंडवा रोड स्थित 'आसाराम - आश्रम' के बाहर रेप काण्ड के आरोपी और  'मोस्ट वांटेड ' अपराधी आसाराम  की गिरफ्तारी के लिए  जूझ रही है . आम जनता में चर्चा है कि  आसाराम क़ानून और व्यवस्था खराब कर सकता है . गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जी ने  आसाराम को किसी भी तरह के प्रोटेक्सन देने पर इतराज जताया है . यह कदम नरेन्द्र मोदी को उनके आद्र्शोंमुखी  व्यक्तित्व की छवि पेश कर रहा है . किन्तु मध्यप्रदेश में आसाराम को जो वेटेज  मिल रहा है उससे जनता में शिवराज सरकार की किरकिरी हो रही है .  गिरफ्तारी  तो दूर उस कुख्यात -दुर्दांत 'महाभ्रष्ट' पतित पापी से बातचीत करने के लिए भी  जोधपुर पुलिस को मध्यप्रदेश शासन और इंदौर पुलिस की ओर से कोई उचित   सहयोग नहीं मिल रहा है .  आश्रम में कीर्तन का ढोंग किया जा रहा है , कभी बीमारी का बहाना तो कभी -ध्यान  समाधि और प्रवचन  का बहाना बनाकर आसाराम गिरफ्तारी देने या जोधपुर पुलिस के समक्ष पेश होने  से   कतरा  रहे हैं . गनीमत है कि  कोई वास्तविक 'सिंहंम ' पैदा नहीं हुआ या फिल्म अर्धसत्य का इन्स्पेक्टर पैदा नहीं हुआ जो  उसे घसीटकर न्यायालय के समक्ष पेश कर सके . कांग्रेस और भाजपा को तो वोटों की चिंता है भले ही  ये एयास -ढोंगी  बाबा देश की बहु बेटियों माता बहिनों के साथ दुष्कर्म करें या देश के क़ानून याने सम्विधान को ठेंगा दिखारहें .

      श्रीराम तिवारी   

शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

दुर्गा शक्ति नागपाल [ब्युरोक्र्सी बनाम राजनीति]

  गौतमबुद्ध नगर में पदस्थ एस डी एम् और  मात्र दो वर्षीय कार्यकाल  की अनुभवी जूनियर  आइ ए एस  अधिकारी- दुर्गा शक्ति नागपाल  को निलंबित किये जाने पर देश में और देश के  बाहर भी  भारतीय राजनीती और ब्यूरोक्रेसी पर विभिन्न मत-मतान्तर दरपेश  हुए   हैं . उत्तरप्रदेश के मुख्य सचिव पर आरोप  हैं कि  उन्होंने अखिलेश सरकार को सही कानूनी राय  नहीं दी और उन पर ये भी आरोप है कि दुर्गा शक्ति को सस्पेंड करने के लिए झूठ और फरेब का सहारा लिया गया .कदलपुर गाँव की  अवैध मस्जिद की दीवार गिराने के बहाने 'रेतमाफिया ' ने अखिलेश सरकार पर दवाव डालकर इस नवोदित अतिउत्साही महिला अधिकारी को सस्पेंड कराने में जो भूमिका अदा की है वो किसी से छिपी नहीं है . यु पी- आइ ए एस- एसोसिएसन ने संगठित होकर इस संदर्भ में सरकार से  अपना प्रतिवाद अवश्य जताया किन्तु उनके बीच के ही सरकारी चमचों और  सपा  द्वारा पालित-पोषित संरक्षण प्राप्त -आरक्षण प्राप्त कतिपय विभीषणों ने आइ ए एस  असोसिएसन के  इस एकजुटता अभियान की  ही हवा निकाल दी थी.  किन्तु अब जबकि स्वयम मुलायमसिंह जी ही दुर्गा शक्ति का निलंबन समाप्त  कराने के लिए मध्यस्थता कर रहे हैं तो  उन चमचों को बड़ी कोफ़्त हो रही है .
                                    वास्तव में अवैध खनन माफिया,स्थानीय भ्रष्ट नेताओं  और उनके  टुकड़ खोर वकीलों  को दुर्गा शक्ति नागपाल से बेहद तकलीफ थी , वे किसी बहाने की तलाश में थे और वो उन्हें 'मस्जिद की दीवार गिरने ' से मिल गया . निशाचरों के चक्रव्यह में 'दुर्गा शक्ति' को घेर लिया गया . सिर्फ   जन आन्दोलन की ताकत ही उसे बचा सकती थी  . लेकिन जन आन्दोलन के लिए न्यायिक बिलम्ब आड़े आ रहा था  . विधायक जी सीना तानकर  कह रहे थे  "हमने उसे ४२ मिनिट में सस्पेंड करा दिया"  . राजनीति  की इस निहायत ओछी हरकत को  जनता  ने, मीडिया ने, सोनिया गाँधी ने  और  आए ऐ एस असोसिएसन ने  एक स्वर में नामंजूर कर दिया था.  जनाक्रोश को भांपकर उ. प्र . सरकार ने बहरहाल 'युद्ध विराम '  कर लेना ठीक समझा और दुर्गा शक्ति नागपाल को पुन : पदस्थ  कराने -निलंबन खत्म करने का फैसला किया  है .
                      अखिलेश सरकार ,सपा और उसके मत्रियों के अलोकतांत्रिक कार्यों और  वयानों से यूपी में राजनैतिक पारा आसमान पर जा  पहुंचा था   . कुछ ईमानदार - क़ानून विदों और सेवा निवृत  वरिष्ठ अधिकारीयों  की राय  है कि राज्य एवं केंद्र सरकार दोनों को यह अधिकार है कि यदि किसी अधिकारी को उसके निलंबन  योग्य चार्ज हैं तो वे आवश्यक आदेश पारित कर सकते हैं . परन्तु केंद्र-राज्य के मध्य असहमति की स्थति में 'केंद्र' के आदेश अंतिम माने जायेंगे . दुर्गा शक्ति नागपाल के निलंबन को ख़ारिज करने का  पूरा हक केंद्र सरकार को है किन्तु राजनीतिक नफ़ा नुक्सान के बरक्स केंद्र सरकार ने अभी तक कोई कारगर हस्तक्षेप नहीं किया है .फिर भी एक निजी याचिका के रूप में ,अवमानना का  मामला सुप्रीम   कोर्ट में  होने से इस प्रकरण में न्यायिक संभावनाएं पूर्णरूपेण  सुरक्षित हैं.  याने दुर्गा शक्ति  यदि निर्दोष हैं और वे वास्तव में किसी षड्यंत्र की शिकार हुई हैं तो उन्हें न्याय अवश्य मिलेगा .  किन्तु इस सन्दर्भ के निमित्त जन-आन्दोलन की संभावनाओं से भी इनकार नहीं किया जा सकता .   हालांकि जिम्मेदार अधिकारी वर्ग ने शुतुरमुर्ग की मुद्रा अख्त्यार कर ली है  और जनता का एक बड़ा हिस्सा  हमेशा की तरह इस प्रकरण में भी  किसी   'अवतार'  के लिए आशान्वित है .
                                                            भारत की अधिकांस जनता 'अवतारवादी' है .  उसे प्राकृत आपदाओं, आसमानी विपत्तियों,भूकम्प -सुनामी इत्यादि   हर समस्या और चुनौती से निपटने के लिए ' चौबीस अवतार' या  'दशावतार चाहिए . अधुनातन साइंस और टेक्नालोजी के युग में भी विराट  जन-समूह  के एक खास 'वर्ग' को  हर युग में , हर जगह  एक अदद चमत्कारी -हीरो चाहिए . उसे यदि  राम,कृष्ण,गौतम, गाँधी जैसा अवतार मिल भी जाए तो वो  उन्हें  भी रिजेक्ट कर  देगा  .  किसी को  राम का यह काम पसंद नहीं , किसी को कृष्ण का यह चरित्र पसंद नहीं , कोई गौतम की धज्जियां  उढ़ाने  लगेगा ,कोई गांधी को कमजोर और  गोडसे को देश  भक्त बताकर किसी और  समकालिक  चरित्र   को महिमा  मंडित करने लगेगा . दरसल यह वर्ग  विश्वव्यापी है . यह तो फिर भी मान्य  किया जा सकता है कि  अलौकिक संकट या आपदा के लिए  उसे अलौकिक और चमत्कारी 'अवतार' ही  चाहिए .  जो लोग  शारीरिक,मानसिक ,सामाजिक ,आर्थिक या बौद्धिक रूप से  नितांत अपूर्ण हैं, नियति या कुदरत ने जिन्हें 'मानवोचित' क्षमताओं से  महरूम रखा है  वे  यदि इस 'अवतारवाद' के फंडे  पर यकीन  करते हैं  तो कोई खास फर्क नहीं पड़ता।।  किन्तु जो लोग भ्रष्टाचारियों को जानबूझकर बार-बार  सत्ता शिखर पर बिठाते  रहते हैं  उन्हें व्यवस्थागत विसंगतियों और सत्ता प्रतिष्ठान की आक्रमकता  से कोई  शिकायत  नहीं होना चाहिए . उन्हें  वर्तमान शासक वर्ग के 'वर्ग चरित्र' को  भी जानना-समझना चाहिए .उसके प्रतिकार का  उचित समाधान करना चहिये . भारत जैसे  लोकतांत्रिक देश में  यह प्रतिकार अहिंसक  जन-आन्दोलन के रूप में  किया जाता रहा है और अब भी किया जा रहा है . अब यह सिद्ध हो गया है कि -अन्यायी और भ्रष्ट शासक वर्ग को इस जन - आन्दोलन  की ताकत  से आसमान से जमीन पर लाया जा सकता है .
                                                         वर्तमान पूँजीवादी -अर्धसामंती व्यवस्था में  यदि कोई शख्स-स्त्री या पुरुष  प्रमाणित तौर   से अत्यंत मेधावी  और प्रकृति प्रदत्त तमाम शक्तियों से सम्पन्न हो,अधिकार सम्पन्न हो , जिसके कन्धों पर व्यवस्था संचालन  का भार हो  और उसे  किसी  मानवकृत   और  व्यवस्था गत समस्या से  जूझना  पड़े तो यह कोई  अप्रत्याशित  घटना  तो नहीं है . अपनी संविधानिक जिम्मेदारी छोड़    उसे महज   'त्राहिमाम-त्राहिमाम '   करने की   आवश्यकता    क्यों  होनी चाहिए ?अभिप्राय यह है की" दुर्गा शक्ति नागपाल" को  किंचित भी मायूस  नहीं होना चाहिए . जनता की अपेक्षाओं और सहयोग  के अनुरूप  साहस  के साथ  राष्ट्रनिष्ठता पर अडिग रहते हुए इस आक्रांत कारी निजाम से डटकर मुकबला करना  चाहिए . उन्हें और आवाम को जानना चाहिए कि कांग्रेस और भाजपा के समर्थन के निहतार्थ क्या हैं ? क्या यह सही नहीं कि  मध्यप्रदेश में ईमानदार अधिकारी होना गुनाह है.  कर्नाटक में भाजपा सरकार क्यों गिरी ? यह सभी को मालूम है  क्या भाजपा इतनी जल्दी भूल गई ?  मध्यप्रदेश में खनन माफिया का सत्ता धारी  पार्टी भाजपा से क्या सम्बन्ध है ये  जग जाहिर है. यहाँ तो   ईमानदार अधिकारी को डम्फर से कुचल कर मार दिया जाता  है . यहाँ पर  जिन  बेइमान और भ्रष्ट अधिकारीयों के पास अकूत धन-दौलत है उन्हें प्रमोसन अवश्य  मिलता है  और ऐंसे अधिकारी केवल  और  केवल सत्ता के दलाल  हुआ करते  हैं .  कांग्रेस और सोनिया जी को यूपी के 'दुर्गा शक्ति' मामले में उदारता दिखाने या हस्तक्षेप करने  से पहले यह जरुर जानना चाहिए था  कि  हरियाणा में आइ ए एस अधिकारी खेमका ने अपनी सर्विस लाइफ़ में ४० बार स्थान्नान्तरण क्यों  भुग्ता ? श्री राबर्ट बाड्रा  जी के 'गड़बड़ झालों पर  जब खेमका ने पर्दा डालने से इनकार किया तो उन्हें अब धमकियां  क्यों  मिल रही  हैं ?   राजस्थान में ,गुजरात में ,बंगाल में ,तमिलनाडु में ,आंध्र में  ईमानदारी की सनक वाले अधिकारी मारे-मारे क्यों  फिर रहे है ? ये कांग्रेस और भाजपा के लिए अबूझ प्रश्न तो नहीं है .  देश भर में लाल फीताशाही  के लिए बदनाम   सत्ता के  दलाल बने हुए अधिकारी ऐयाशी में ,देशद्रोह में लिप्त हैं . उन्हें सस्पेंड या बरखास्त  करने वाला कोई' ४२ मिनिट ' वाला  नेता अब तक इस देश में पैदा क्यों नहीं हुआ ?
              यह   शतप्रतिशत सही है कि  देश के  अधिकांस व्यरोक्रेट्स  भ्रष्ट और सत्ता के चारण - भाट  हैं .  ब्रिटिश शासन के दौरान तो  फिर भी अधिकारी वर्ग में कम से कम इंग्लॅण्ड के राजा  या रानी के प्रति भक्तिभाव होने से चारित्रिक  शुचिता और अनुशासन  प्रियता का भाव हुआ करता था .  आजादी के बाद भारत का व्युरोक्रेट्स  वर्ग दुनिया का सबसे भ्रष्ट  तम तबका बन चूका है . राजनीति को पाप का घडा बना डालने में देश की व्यरोक्रेशी  सबसे अधिक उत्तरदायी है .अधिकांस  राज्नीतिज्ञों  के अशिक्षित   होनेतथा पापपंक  में डूबे होने  से अधिकारी वर्ग देश को लूटने के लिए  स्वतंत्र होता चला गया. जनता समझती है कि  उसकी तमाम परेशानियों के लिए केवल राजनीतिग्य ही जिम्मेदार हैं जबकि ऐंसा नहीं है .आज यदि  देश की संप्रभुता  खतरे में है और आर्थिक  व्यवस्था यदि   बदहाल है तो ये व्युरोक्रेट्स भी  इस दुर्दशा के  लिए बराबर के साझीदार हैं .   कहीं -कहीं तो उच्चाधिकारी  इतने भ्रष्ट  हैं कि भ्रष्टाचार भी शर्मा जाए .  इतने भ्रष्ट तो राजनीती में भी नहीं हैं .
                                      वेशक    इन उच्चाधिकारियों  में से यदा-कदा जब  कुछ नए -नए युवा अधिकारीयों  के ह्रदय   में ,फ़िल्मी स्टायल की ,रावडी राठौर जैसी , खाकी जैसी, 'सिंघम ' जैसी  या 'गंगाजल' जैसी  देश  भक्ति ,जनसेवा और  ईमानदारी   की हिलोरें उठती हैं तो  फिल्मों में तो अवश्य वही  होता है जो 'दर्शक' पसंद करता है किन्तु वास्तविकता के धरातल पर यह 'दुर्गा शक्ति चालीसा'   प्रारंभ हो जाता है .भ्रष्ट व्यवस्था के कल पुर्जे यहाँ ढीले होने लगते हैं तब शासक वर्ग 'अनुशासन ' के ब्रह्माश्त्र से इस तात्कालिक वर्गीय अन्तर्विरोध को 'टाईट '  कर दिया करता है . अर्थात दुर्गा शक्ति को भी  जल्दी ही संतुष्ट कर दिया जाएगा , उनकी  चार्ज   सीट   या तो वापिस ले ली जायेगी या केंद्र सरकार के कार्मिक विभाग के नियमानुसार उन्हें अपील के थ्रू आरोप मुक्त कर दिया जाएगा . या   किसी अच्छी जगह पर पोस्टिंग दे दी जायेगी .  यदि उन पर लगाए गए चार्ज सही भी  पाए गए और नौकरी से जाना पडा तो भी कोई हर्ज नहीं क्योंकि तब हिन्दुत्वादी  पक्ष से उन्हें अखिलेश और सपा से भिड़ा दिया जाएगा .   यदि दुर्गा शक्ति का कनेक्शन सोनिया जी से जुडा तो  कांग्रेस की ओर से उन्हें राजनीती में उतार दिया  जाएगा और दुर्गा शक्ति रुपी प्रकरण का  अस्थायी बुलबुला शांत हो जाएगा .

                           जनता को याने उन लोगो को जो वास्तव में इस वर्तमान महाभ्रष्ट व्यवस्था को सुधारने या बदलने की चाहत रखते हैं ऐंसे  देशवासियों को  इस तरह के  व्यक्तिवाद से ज्यादा  उम्मीद नहीं रखना चाहिए कि  कोई एक चना -भाड़  फोड़  देगा . किसी खास नेता या अधिकारी की वकालत करने के बजाय देश की आवाम को इस तरह के  'मुद्दे' की  न केवल  शल्य क्रिया करनी होगी , अपितु इन घटनाओं के बरक्स ईमानदार  ,देशभक्त और बलिदानी  - लोगो को एकजुट करते हुए वैकल्पिक नीतियों  का निर्धारण  भी करना होगा .  न केवल राष्ट्रीय दुश्चिंताओं,व्यवस्थागत दोषों  अपितु  वैश्विक चुनौतियों  के अनुरूप आगे बढ़ाते हुए संयुक संघर्ष की समग्र चेतना का विस्तार  भी  करना चाहिए . तब शायद  इस व्यवस्था में  कोई ठोस बदलाव हो सके  या कोई  क्रांति की झलक इस देश  का उद्धार कर सके . कुछ लोग विगत दिनों देश भर में भ्रष्टाचार मिटाने ,लोकपाल लाने और क्रांति कराने का दम भरते हुए कभी रामलीला मैदान में ,कभी जंतर-मंतर पर केवल स्वांग  भरते रहे , फेस बुक और मीडिया में उन्हें बड़े -बड़े  क्रांतिकारी तमगे दिए गए किन्तु जब भ्रष्टाचार के जंग में 'दुर्गा शक्ति '  ने जंग का बीड़ा उठाया तब अन्ना  हजारे , किरण बेदी ,बाबा रामदेव ,केजरीवाल और सुब्रमन्यम स्वामी अपने-अपने दडवों  में जा छिपे . इनमें से  किसी ने भी इस जमीनी लड़ाई में ' दुर्गा शक्ति नागपाल ' का साथ तो दूर  शाब्दिक 'समर्थन  भी  नहीं दिया क्यों ?
                                      जो 'सबला ' मात्र २५  साल की उम्र  में यूपीएससी फेस करते हुए ; आई ए एस की आल इंडिया  रेंक में ८७५ की लिस्ट में२० वां स्थान प्राप्त कर ले , जिसने कंप्यूटर साइंस  की उच्च्तम  शिक्षा प्राप्त की हो , जो निहायत ईमानदार  ,देशभक्त और निर्भीक हो, जिसे देश की जनता का भरपूर समर्थन और आदर मिले , जो राष्ट्र की संपदा को लूटने वाले 'डाकुओं' पर वक्र दृष्टि  रखती हो, जिसको  स्वयम सोनिया गाँधी  और केंद्र सरकार की सदाशयता प्राप्त  हो जिसको-,भाजपा ,माकपा ,भाकपा और देश भर के मीडिया कर्मियों  का   -बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त  हो ,   ओर्र जिसका नाम ही 'दुर्गा शक्ति ' हो उस एस डी एम् - 'दुर्गा शक्ति नागपाल'  को  कुटिल राजनीतिज्ञों  के एक छिछोरे समूह  से घबराने की जरुरत नहीं है.  उसे सत्य पथ पर अडिग रहना चाहिए .
                               आज के गलाकाट प्रतिस्पर्धी दौर में  बड़ा अफसर  बनना  बहुत   बड़ी बात है .  उत्तर भारतीयों द्वारा   खाये जाने वाले 'बड़े' की तरह . पहले उड़द  को  दाल  में बदलने की कठिन प्रक्रिया ,फिर दाल को गलाओ , दाल लगभग सड़  जाए तो उसे बुरी तरह पीसो ,    पिसी हुई   दाल के कई स्टेप पार कर 'बड़े' बनाओ ,फिर तेल में  तलो  ,जब अच्छी तरह से तल  जाएँ तो छांछ  में दो-चार दिन  के लिए डुबाये रखो और इसके बाद उस 'बड़े' को शक्कर  दही के साथ  चट  कर  जाओ . जमाने का दस्तूर तो यही है कि  यदि बड़ा बनना है तो बहुत कुटना -पिसना  होगा . और एक बात बड़ा  बना ही खाए जाने के लिए है . अब ये व्यक्ति विशेष  पर निर्भर  है कि   बड़ा बनना है या छछूंदर .   छछूंदर याने नेता ,याने खनन माफिया का दलाल , याने नॉन मेट्रिक  -अर्ध शिक्षित ,याने जातिवाद-सम्प्रदाय वाद  के पोखरों में मुँह  मारने वाला अधम-प्राणी .याने  विधायक नरेन्द्र सिंह  भाटी -जिस पर मर्डर,किडनेपिंग और दंगे भड़काने के संगीन आरोप हैं और  यदि वो जनता के बीच  ऐलान करे कि " मैंने उस एस डी एम् -दुर्गा शक्ति का मात्र ४२ मिनिट में तबादला करा दिया "
                                            तो भृष्टाचार रुपी साँप  के गले में फंसे छछूंदर की तरह -अब सपा और अखिलेश के लिए  गोस्वामी जी कह गए हैं :-  उगलत बने न लीलत केरी .  भई  गत साँप  छछूंदर केरी।  जिन लोगों को अपनी एकजुट संघर्ष शक्ति पर भरोसा नहीं वे ही  किसी 'अवतार' या हीरो का इन्तजार करते हैं .  जिस कौम को बचपन से ही सिखाया गया हो की :-
                                              जब -जब होय धरम की हानि . बाढहिं  असुर अधम अभिमानी . .                    वो तो भगवान् या अवतार का इन्तजार कर सकती है किन्तु   जिन लोगों को  मालूम है कि'दुर्गा शक्ति नागपाल' प्रकरण तो  वर्तमान व्यवस्था के  आंतरिक वर्गीय अन्तर्विरोध की एक  ऐसी  चिंगारी  मात्र थी  जो   'जनता-जनार्दन' रुपी आक्रोश की  आंधी बनकर   क्रांति की ज्वाला में  बदल सकती थी .  जनता के मूड को भांपकर इस मामले में स्वयम मुलायम सिंह जी ने  हस्तक्षेप किया और दुर्गा शक्ति नागपाल  का  निलम्बन निरस्त  कराने के प्रयास तेज कर दिए  हैं  . दुर्गा शक्ति को क़ानून के दायरे में देशभक्तिपूर्ण सिद्धान्तवादिता से सदैव अडिग रहना चाहिए . इस घटना से उन्हें ये भी सबक लेना   चाहिए कि  व्युरोक्रेशी सर्वशक्तिमान नहीं है . दर्शल व्यूरोक्रेशी  के ऊपर  व्यवस्थापिका है और उसके ऊपर कार्यपालिका है . कार्यपालिका के ऊपर विधायिका है और विधायिका से उपर देश की जनता है .  जनता के साथ जो रहेगा  वह कभी  परास्त नहीं होगा . जनता के साथ रहने  के लिए भ्रष्टाचार ,कदाचार और साम्प्रदायिकता से दूर रहना होगा .
   
                                                               श्रीराम तिवारी
                             

 

बुधवार, 28 अगस्त 2013

मेहनत का रुपया ही डालर को हरा सकता है [कविता]

        


     भारत  के जनतंत्र को , लगा भयानक रोग .

     राजनीति  में घुस गए , घटिया शातिर लोग . .



   नई  आर्थिक नीति  अब , करती नए सवाल .

    दुनिया के  बाज़ार में , रुपया क्यों बदहाल . .


    क्यों रूपये की हार है , क्यों डालर की जीत .

     क्या  अदभुत  ये नीति है ,पूँजीवाद  से प्रीत . .


     आदमखोर पूँजी हुई , कपट कलेवर युक्त .

     चोर-मुनाफा खोर हैं , इस युग में भयमुक्त . .


     बढ़ते व्यय के बज़ट  की ,अविचारित यह नीति .

     ऋण पर ऋण लेते रहो, गाओ खुशी  के गीत . .



     कवन विकाश कारण किये , राष्ट्र रत्न नीलाम .

    औने -पौने बिक गए , बीमा टेलीकाम . .


    लोकतंत्र की पीठ पर ,  लदा  माफिया राज .

     ऊपर से नीचे तलक , हुआ 'कमीशन' काज . .

  
  विश्व बैंक से   कर  रहे , मनमोहन अनुबंध .

    नव- निवेशकों  पर नहीं, कहीं  कोई प्रतिबन्ध  '. .  


   
पूँजी मिले विदेश से , किसी तरह तत्काल .

मल्टीनेशनल  को नहीं , रूचि यहाँ फिलहाल . .


कोटि  जतन  मिन्नत करी ,खूब नवाया भाल .

  डालर लेकर आये ना ,  साहब  गोरेलाल . .


   डालर-डालर सब  भजें  , रुपया  भजे  न कोय .

    मेहनत  का  रुपया भजो , तो जय-जय भारत होय . .



       श्रीराम तिवारी
   



 

मंगलवार, 27 अगस्त 2013

देश जाग चुका है अब क़ानून से कोई नहीं बच सकता आसाराम भी नहीं .

     युग  बदलते रहते   हैं .  व्यवस्थाएं बदलती रहती हैं .  सभ्यताएँ  बनती  -बिगडती  रहती हैं.   राष्ट्रों की सीमायें बदल जाया करती हैं.   इतना ही नहीं इस  धरती का तो  अखिल ब्रह्मांड के सापेक्ष  भूगोल भी बदलता रहता है . किन्तु एक चीज है जो दुनिया में  कभी   नहीं बदलती .  कोई उसे  बदलना भी  चाहे तो  नहीं बदल   सकता .    वो है  धार्मिक या मज़हबी गुरु-घंटालों  में भोले-भाले लोगों या धर्मभीरु जनता की अन्ध  - आस्था  . यही वजह है कि अब  धर्म  केवल ' अफीम ' ही नहीं बल्कि उसका  सर्वकालिक धंधा भी बन चूका है  . दुनिया के ज्ञात-अज्ञात सभी धर्मो-मतों-पंथों या 'दर्शनों' में एक चीज उभयनिष्ठ है, वो है धर्मभीरु जनता का इन गुरु घंटालों के द्वारा निरंतर  ठगा जाना और इन महाठगों  के व्यभिचार  पर  व्यवस्था की मौन स्वीकृति .
                   आधुनिक  विज्ञान तकनीकी और सूचना सम्पर्क क्रांति के दौर में  तो इन 'गुरु घंटालो' का धन्धा बहुराष्ट्रीय निगमों या मल्टी नेशनल  कम्पनियों को भी मात दे रहा है . इन[ अ]- धार्मिक  उस्तादों के उत्पादों को दुनिया की धर्मभीरु जनता न केवल ज्यादा पैसे देकर खरीदती है बल्कि इन घटिया  उत्पादों में  उसकी   अगाध  - अन्धश्रद्धा  के कारण इन  तथाकथित धार्मिक-आध्यात्मिक-दार्शनिक -भावातीत -धर्मौपदेशकों  को दुनिया भर की सरकारों से भी परोक्ष मदद और विभिन्न तरह की छूट मिला करती है . इन्हें इनकम टेक्स ,सेल टैक्स से तो छूट है ही किन्तु इन्हें अपने -अपने अखाड़े -आश्रम -गुरुकुल या 'ठिये ' बनाने के लिए  भी उपयुक जमीन -प्लाट  फ्री फ़ोकट में मिल जाया करते हैं . ये धर्म-उपदेशक  दुनिया भर में  समान  रूप से  इस बात के लिए भी[ कु]  - ख्यात हैं कि वे 'राज्यसत्ता'  या क़ानून के प्रति जबाबदेही से बचने का विशेषाधिकाररखते हैं .      कुछ तो   अपने-आपको   धरती पर ईश्वर-गॉड या अल्लाह  का उत्तराधिकारी भी  मानते हैं . जबकि सभी धर्मों-मज़हबों  का सार -तत्व कहता है कि :-
                             " एकम सत  विप्रा वहुधा वदन्ति " अर्थात सत्य या ईश्वर एक ही  है और  लोग उसे नाना प्रकार से  कहते-सुनते रहते  हैं .  " ईश्वरः सर्वभूतानाम ह्र्देशे अर्जुन तिष्ठति, भ्राम्यन सर्व  भूतानि  यंत्रारुढ़ानी  मायया " याने :-कस्तूरी कुण्डल  वसे मृग ढूंढ़े  वन माहिं . ऐंसे घट -घट  राम हैं दुनिया देखे नाहिं . .
अर्थात ईश्वर  सभी प्राणियों में समान  रूप  से समान  भाव  से स्थित है ,लोग भ्रमवश या अज्ञान  के कारण   उसे[इश्वर को ]  अपने से बाहर देखते हैं या खोजते हैं . कुछ को तो यही भ्रम है कि  ज्ञान या ईश्वर  सिर्फ उनकी वपौती है . भारत में ऐंसे  'महाज्ञानी'  पर- उपदेशक बहुतायत से पाए जाते हैं . उनका कहना है कि  यदि वे न होते दुनिया नर्क हो जाती . मेरा मानना है कि  ये 'पाखंडी' न होते तो यह धरती  और खूबसूरत होती और दुनिया में यह सम्प्रदायवाद,आतंकवाद नस्लवाद भी न होते . निसंदेह  इन परजीवियों से भारत  बहुत ज्यादा पीड़ित है
                   भारत में ये बाबा -स्वामी,संत-बापू ,उपदेशक,आस्था-संस्कार चेनलों पर जनता को  दिन रात ज्ञान की गंगा में डुबो-डुबो कर स्वर्ग भेज रहे हैं . उनका यह पाखंड    केवल आर्थिक -सामाजिक  विशेषाधिकार  तक ही सीमित नहीं है . यहाँ भारत में   तो 'नारी देह शोषण' का अधिकार भी  ,स्वामियों ,शंकराचार्यों ,मठाधीसों,  बाबाओं  ने  युगों-युगों से  से प्राप्त कर रखा है .  भगवान् रजनीश ,जयेंद्र सरस्वती,स्वामी चिन्मयानन्द  ,भीमानंद, से  लेकर तथाकथित  'संत' आशाराम बापू  तक  सभी   पर समय-समय पर न केवल  'यौन  - शोषण'  अपितु हत्या के भी  आरोप भी लगते रहे हैं.  कुछ पर मुकद्दमें चल रहे हैं . कुछ को जमानत पर ही जिदगी गुजारनी पड़  रही है . कुछ  को उनके किये की सजा भी  मिली और जेल भी हो आये.  किन्तु पीड़ितों  को  समाज में पुनः  उचित स्थान मिले,उनके पारिवारिक और वैयक्तिक जीवन की भरपाई हो सके , शारीरिक ही नहीं बल्कि' पीड़ित नारी को भावात्मक पुनर्स्थापन के निमित्त समाज और 'राज्य' की ओर से कोई  उचित सदाशयता प्राप्त हो  , ऐंसा कोई ठोस कदम अभी तक  समाज के प्रबुद्ध वर्ग की ओर से और वास्तविक एवं  उच्च आदर्शों के आग्रही साधू- संतों- महात्माओं  की ओर से इस विमर्श में अभी तक नहीं उठाया गया है . सरकार और विधायिका की ओर से भी  कोई अपेक्षित  उल्लेखनीय  कदम  अभी तक नहीं उठाया गया है . सभी दूर पीड़ित पक्ष को न्याय दिलाने का अभिप्राय - अपराधी को पकड़ने ,जेल भेजने ,कड़ी सजा देने की मांग  तक सीमित है .  कोई  कठोर क़ानून  की पैरवी कर रहा है , कोई पुलिस ढांचे में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करता दिखाई देता है , कोई समाज की सोच को बदलने की बात करता है , कोई महिलाओं के पहनावे में  खोट देखता है और कोई वर्तमान पूँजीवादी  व्यवस्था को इस 'यौन-उत्पीडन' के लिए जिम्मेदार मानकर इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की बात करता है , जबकी  इस देश  में इन दिनों हर -रोज   इन नारी -उत्पीडन या यौन शोषण की घटनाओं से देश में लाखो'अनाम' माता-बहिने- बहु-बेटियां'  की तादाद वेशुमार हो चुकी है . उनके आंसू पोंछने ,उन्हें शारीरिक,मानसिक,सामाजिक और आर्थिक रूप से पुनः स्थापित करने के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए . लोकतंत्र के चौथे खम्बे के रूप में मीडिया को इस संदर्भ में जन-जागरण अभियान  चलाना चाहिए न केवल टी आर पी के लिए इन घटनाओं को नमक -मिर्च लगाकर पेश किया जाता रहे .  वेशक बलात्कारियों  को फांसी की सजा दिलाई जाए चाहे वो  अपराधी -नेता हो ,आम आदमी हो या कोई  तथाकथित संत या बापू ही क्यों न हो . वेशक आसाराम के आपराधिक चरित्र से हिन्दू -धर्मावलम्बी वेहद शर्मिंदा हैं किन्तु समाज के कतिपय साधू महात्माओं ने और स्वयम स्वामी शंकराचार्य स्वरूपानंद जी सरस्वती ने आसाराम को साधू-संत न मानकर एक मामूली कथावाचक और ग्रहस्थ ही  माना  है . देश के विद्द्वान वुद्धिजीवी और प्रगतिशील साधू समाज ने आसाराम को ' विजनेस  मेन ' की उपाधि से विभूषित किया है . इसलिए धर्मभीरु जनता को भी चाहिए की आसाराम के आश्रम से ,उसके उत्पादों से  और उसकी 'रासलीला  से दूर ही रहे .   
                                             अपने आर्थिक नेटवर्क की बदौलत    आशाराम   अभी  तक जेल के सीकचों से बाहर हैं .  उनके एक' वर्ग विशेष' के अनुयायी ही  हर बार की तरह इस बार भी ढाल बनकर आशाराम को बचाने में जुटे हैं. हालांकि जोधपुर पुलिस ने२७ अगस्त को , उनके इंदौर स्थित आश्रम में  बड़े सम्मान से न केवल जोधपुर पुलिस थाने  में ३० अगस्त तक  'अनिवार्य उपस्थति'  का' सम्मन ' थमाया अपितु भारत छोड़कर विदेश भागने की संभावनाओं से भी ताकीद कर दिया है.    पुलिस ने देश भर में आसाराम का 'देश न छोड़ने और पुलिस की नजरों में  बने रहने' का  नोटिफिकेसन  जारी कर दिया है. अब आसाराम की गिरफ्तारी का रुक पाना एक चमत्कार ही हो सकता है . उन्हें अपने शुभ-अशुभ कर्मों का दंड इसी जन्म में भोगना पद सकता है क्योंकि  जनता के सब्र का प्याला भर चूका है .  सुप्रीम कोर्ट ,संसद और मीडिया  की नज़रों में अब महिला उत्पीडन' एक सबसे जघन्य अपराध बन चूका है , कोई भी बच नहीं सकता फिर भी यदि  आसाराम को अभी भीअपनी 'ताकत'  का गरूर है तो येइस  देश की जनता का, महिलाओं का  और खास तौर  से  देश के संविधान का भी अपमान है.  
                                                      आसाराम  से जुड़े आर्थिक हितग्राहियों का स्वार्थ  तो सर्वविदित है .  किन्तु यक्ष प्रश्न  ये है  की कुछ महिलायें  क्यों  आशाराम को ' केरेक्टर सर्टिफिकेट'  देने पर आमादा हैं ?  इसका धर्मभीरु   गोरखधन्धा क्या है?  निसंदेह आसाराम में धूर्तता कूट -कूट कर भरी है ,  उसे जनता को ठगना आता है . जहां तक जनता  के ठगे जाने का सवाल  है तो ये तो बहुश्रुत है की ठगे जाने को सैकड़ों -हजारों मिलेंगे उन्हें मूर्ख बनाने वाला होना चाहिए . आसाराम इस युक्ति में खरे उतारते हैं .  उनकी  अर्ध अश्लील और भौंडी वाक्पटुता से  पुरुषों से  महिलायें  ज्यादा गुमराह होती रही हैं . यही वजह है कि  जब भी आसाराम पर कोई लांछन लगता है तो महिलायं ढाल बनकर  खड़ी  हो जाती हैं और आसाराम को कठघरे  तक ले जाना पुलिस  और कानून के लिए यह परेशानी का सबब हुआ करता है . समाज की  यही वह परजीवी अमर्वेलि  है जो  अद्ध्यात्म  को पाखंड और साम्प्रदायिकता से जोडती है .देश के विकाश को अवरुद्ध करती है और जनता को नकारा बनाती है,इतिहास साक्षी है कि  अतीत में  इन्ही ढोंगी बाबाओं और पर-उपदेशक पाखंडियों के कारण विदेशी आक्रमण का मुकाबला करने में तत्कालीन जनता और शासक नाकाम रहे और देश को हजारों साल की गुलामी का भुक्त भोगी होना पड़ा . इस  आधुनिक 'ग्लोवल विलेज'युग में भी भारत की शोषित  जनता और उत्पीडित महिलाओं को अपने असली दुश्मन की पहचान नहीं है तो क्या किया जा सकता है ? आजकल कुछ  महिलायें तो  इन बाबाओं के आश्रम में ही अपना जीवन गुजार रही हैं , कुछ ने तो इस व्यवस्था से समझौता ही कर लिया है .  यह वर्तमान व्यवस्था की त्रासद  बिडम्बना है .   
               आसाराम के दुराचरण पर केवल  आसाराम  की महिला प्रवक्ता ही नहीं, उनकी तथाकथित शिष्याएं ही नहीं  बल्कि  उमा भारती  ,स्मृति ईरानी  जैसी अन्य नेत्रियाँ  भी  उनकी पक्ष में  खड़ी हो गईं   हैं.  क़ानून को  तो मामले की पड़ताल करना जरुरी है.  देश को और समाज  को सच का सामना करने में हिचकिचाहट नहीं होना चाहिए .आसाराम   यदि  वाकई  निर्दोष हैं तो क़ानून की मदद करनी चाहिए और कोर्ट  से बरी होकर दुनिया के सामने अपनी 'सत्यनिष्ठा ' प्रकट करनी चाहिए .  लोग कह रहे हैं कि   यदि  वे  दुष्कर्म '- दोषी नहीं हैं तो क़ानून से क्यों भाग रहे हैं ?दिल्ली और राजस्थान की  पुलिस के वांछित अपराधी  - तथाकथित  आध्यात्मिक 'गुरु' क़ानून से डरकर इधर-उधर क्यों भाग रहे हैं .  आसाराम ने  [२५] अगस्त को इंदौर में  छोटी सी प्रेस कांफ्रेंस में , घुमा-फिराकर एक ही बात की  है कि 'लोग मुझ पर आरोप लगाते रहते हैं किन्तु मैं निर्दोष हूँ ' मैं एक चमत्कारी संत हूँ . वगैरह … वगैरह …!   गिरफ्तारी से बचने के लिए वे अपने इंदौर स्थित  खंडवा रोड  पर स्वयम के भव्य आश्रम में 'एकांतवास' कर रहे हैं . उनके अनुयाइयों के अनुसार '२७-२८'अगस्त को सूरत[गुजरात] में होने जा रहे  'कार्यक्रम' से पहले वे  इंदौर में तीन दिवसीय  'एकांत-चिन्तन '  कर रहे हैं .
                                               .यह एक आश्चर्यजनक   किन्तु कटु सत्य है कि  आशाराम पर जब-जब ऐंसे कदाचार-दुराचार के  आरोप लगते हैं , वे इंदौर अवश्य आते है .  उनका आर्थिक और  तथाकथित 'आध्यत्मिक'  साम्राज्य ना केवल अहमदावाद इंदौर बल्कि  रतलाम ,भोपाल,जबलपुर,बेतूल, छिंदवाडा ,खंडवा,सूरत   तथा मुबई  तक फैला हुआ है .  उत्तर भारत के  छग  और  मध्यप्रदेश  में तो  आसाराम ने गहरी पकड बना  रखी  है . इसीलिये यहाँइंदौर में वे डेरा डाले हुए है .   उन्हें लगता है कि  पैसे और अनुयाइयों की ताकत से वे फिर क़ानून से बच  जायँगे . किन्तु "रहिमन हाँडी  काठ की , चढ़े ना दूजी बार " अब आसाराम के सामने एक ही विकल्प है 'क़ानून के सामने अपना पक्ष रखो ' निर्दोष हो तो सम्मान पाओ और दोषी हो तो कठोर दंड  भुगतने के लिए  तैयार रहो . सच्ची  आध्यात्मिक आस्था है तो ईश्वर  शरणम गच्चामि… !
                      राष्ट्रीय अखवारों की  खबर है कि  शाहजहांपुर उत्तरप्रदेश की १६ वर्षीय एक किशोरी ने भी आरोप लगाया है कि 'इलाज के बहाने आशाराम बापू ने उसे कमरे में बुलाया और दुष्कर्म किया'हालाँकि  यह प्रकरण अभी पुलिस  थाने में  विधिवत दर्ज नहीं हुआ है . लगता है आशाराम में  बाकई  कोई शैतानी आत्मा का निवास है जो  दुष्कृत्य की दैवीय शक्ति  से परिपूर्ण है.   चूँकि शैतान किसी कानून को नहीं मानता वो उस से  ऊपर हुआ करता है. अतएव बलात्कार, यौन शोषण इत्यादि शब्द उसके लिए वर्जित नहीं हैं .   इस तरह के घोर अलोकतांत्रिक  और नैतिकताओं के 'अराजक' व्यक्तित्व के रूप मे  भी आसाराम को एक खास राजनैतिक पार्टी द्वारा  और कुछ महिला नेत्रियों द्वारा समर्थन दिया जाना नितांत दुर्भाग्य् पूर्ण है . ये पीड़ित महिलाओं  का घोर  अपमान  है .
                           आशाराम और उनके लड़के नारायण साईं  को नज़दीक से जानने वाले वेहिचक कहते हैं कि  हवाला,सट्टा , मनी  लांड्रिंग और विभिन्न प्रकार के जीवन उपयोगी - उत्पादों -औषधियों के  उत्पादन  -  विक्रय   जैसे कारोबार के अलावा हर शहर में आश्रम-गुरुकुल इत्यादि के नाम पर महँगी  जमीनों की खरेद -फरोख्त  में भी इन दोनों पिता-पुत्र को  कुख्याति हासिल है . उनसे जुड़े अंडर वर्ल्ड  के माफिया, कालाबाजारी करने वाले  ,स्टेक  होल्डर्स ,फ्रेंचायजी तथा लाभार्थी नहीं चाहेंगे कि  आशाराम का आर्थिक साम्राज्य खतरे में पड़े.  इसके लिए वे आशाराम के कुक्रत्यों  की या तो अनदेखी किया करते  हैं  या फिर परदे के पीछे  राजनैतिक सौदेबाजी  करते हुए जमाने भर में ढिंढोरा पीटेंगे कि  देखो देश की वर्तमान   केंद्र सरकार  हमारे आध्यत्मिक गुरु को नाहक बदनाम कर रही है . यह सुविदित है कि  केंद्र या  राजस्थान की  सरका र   का आसाराम से कुछ भी लेना -देना नहीं है .   आशाराम की इन दोनों सरकारों से कोई आपसी रंजिस भी नहीं  थी.  फिर क्यों आसाराम के बहाने कुछ नेता  केंद्र सरकार या राजस्थान सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं?  जिस पीडिता ने  आसाराम पर  आरोप लगाए हैं या   मजिस्ट्रेट के समक्ष  बयान दिए  हैं उसको गलत साबित करना  तो आशाराम और उनके 'साम्राज्य' के बाएं हाथ का खेल था किन्तु  ये 'महापुरुष'' परम ग्यानी ' भूल गए :-

   पुरुष बली नहिं  होत  है , समय होत  बलवान .

    भीलन लूटीं गोपिका , वहि अर्जुन वहि  वान . .
 
 याने  आसाराम के दिन अब लद  चुके हैं ,यौन-उत्पीडन पर महिलायें अब  खामोश नहीं रहने वालीं ,अब नारी सिर्फ भोग्या नहीं रही ,अब महिलाओं को गरिमा के साथ वास्तविक   समता-साहस  और सम्मान  के साथ  जीने के लिए  किसी 'बाबा' अवतार या स्वामी की दरकार नहीं रही. भारतीय नारी  अब अबला नहीं बल्कि सबला  होने के लिए कटिबद्ध  हो चुकी है . यही वजह कि  जमाने भर में ऐंसा  प्रतीत होने लगा कि  भारत तो अब  'यौन शोषण'  के लिए अभिशप्त हो चूका है . जबकि हकीकत ये है कि  नारी का शोषण अतीत में अधिक हुआ करता था और प्रतिकार की कोई गुंजाईस  नहीं थी . किन्तु इस नए दौर में महिलाओं  ने अपने सम्मान अपने  स्त्रीत्व,अपने नारीत्व  की  रक्षा  के लिए  संघर्ष  करना सीख लिया है.  इसलिए अब कोई  माता , बहिन   ,  बेटी या महिला चुपचाप  उत्पीडन-शोषण -दमन सहते रहने के लिए किसी कोने  में रोते बैठे रहने के लिए बाध्य नहीं है.  क्योंकि लोकतंत्र और क़ानून उनके लिए भी है और किसी को सत्ता में बिठाने या हटाने की वोटिंग क्षमता  को महिलायीं भी अब अच्छी तरह से जान गई  हैं .
               इस  जघन्य अपराध  के कारण आसाराम अन्दर से वेहद घबराए हुए हैं, किन्तु अपने आत्मविश्वाश को वनाये रखने की नाहक चेष्टा में और अपने वचाव  में   हास्यापद हरकतें भी कर रहे हैं . एक ओर तो उन्होंने  अपने   वचाव  में कुछ खास   धंधेबाज  लोगों   को 'आन्दोलन' के  काम पर लगा दिया  है , दूसरी ओर वे स्वयम  अपने वचाव   के बहाने  'श्रेष्ठतम पुरषों ' पर घटिया लांछन लगा-लगा कर जनता का ध्यान डायवर्ट कर रहे हैं  .  वे समाज और देश में  साम्प्रदायिक कटुता के बीज भी बो  रहे हैं . महात्मा गौतम बुद्ध,श्रंगी ऋषि ,गुरु नानक देव , अहिल्या  और ययाति जैसे मिथकों को  पेश कर  न केवल अपनी  तुलना  कर रहे हैं अपितु अपने बचाव के निमित्त इन महापुरुषों की छवि को भी धूमिल कर रहे हैं .
                      अवयस्क लड़की के साथ  'कुकर्म' करने वाले इस देश में अकेले आशाराम बापू ही नहीं  हैं . रोज -रोज दिल्ली,मुंबई,और जोधपुर ही नहीं बल्कि सारा  भारत  इन दिनों  'पुरुषत्व'प्रदर्शन के लिए दुनिया में मशहूर हो रहा है .१५ अगस्त को जोधपुर में  आशाराम बापू   जैसे दुराचारी ने   ने जो किया वो अपराध जगत में सबसे घृणित और निंदनीय कुकृत्य है .सुश्री उमा  भारती ने तो बाकायदा  प्रेस और इलेक्ट्रोनिक मीडिया के समक्ष  आशाराम को क्लीन चिट  दे दी हैं .  दुष्कृत्य की  शिकार लड़की के साथ हमदर्दी  दिखाने ,या उसके  साथ हुए जघन्य कुकर्म की मेडिकल रिपोर्ट इत्यादि  की जानकारी लिए बिना ,अस्पताल में पीडिता से मिले बिना ही उमा भारती और प्रभात झा जैसे भाजपाइयों ने  अपनी छवि को ही बट्टा लगा  दिया है . प्रभात झा तो खैर  घोर  पुरातनपंथी और पितृसत्तामक सामन्त्कालीन  व्यवस्था के पिछलग्गू हैं किन्तु उमा भारती को क्या हो गया ? कहीं  वे नारी वेश में प्रछन्न   या खंडित व्यक्तित्व तो नहीं  हैं.  उनके द्वारा एक दुराचारी को बचाया जाना और एक अबोध बालिका को झुन्ठा  बताना निसंदेह न केवल निंदनीय बल्कि मर्मान्तक है .  सुश्री उमा भारती का नारीत्व सन्देहास्पद  हो चूका है .    और इसीलिये शायद  वे  एक निर्दोष निरीह  अवयस्क बालिका के साथ दुराचार करने वाले  कपटी लम्पट और ऐय्याश 'बाबा ' आशाराम  को 'बिना कोर्ट या क़ानून के अंतिम निर्णय का इंतज़ार किये ही 'निर्दोष' बताकर  समस्त नारी जाति  को अपमानित किया है .  ईश्वर का लाख-लाख शुक्र है कि  उमा भारती ,प्रभात झा  और उनकी पार्टी दिल्ली में और केंद्र में सत्ता में नहीं है वरना आशाराम जैसे पापी के एक इशारे पर पुलिस उस लड़की  की ऍफ़ आई आर ही नहीं लिखती .  शायद उस पीडिता को और उसके  सपरिजनों  को कब का मार दिया गया होता . ईश्वर  शीला दीक्षित जी को उम्रदराज करे , अशोक गहलोत को लम्बी उम्र दे की वे दोनों  पूरी ईमानदारी से उस पीडिता के 'संरक्षण' में खड़े हो गए जो आशाराम जैसे 'राक्षस की हवस का शिकार हुई  है .  अधिकांस जागरूक लोग ,माध्यम वर्ग और  धर्मभीरु लोग जानते  हैं  कि  आशाराम एक   ऐंसा 'नरपशु' है जिसने  दर्जनों निर्दोषों को मरवा दिया है . उसने न जाने कितनी महिलाओं ,विवाहित,अविवाहित और अवयस्क या  कुमारी कन्याओं का लगातार यौन शोषण किया है . यह साधू संत कुछ नहीं केवल' ठग विद्द्या' में सिद्धहस्त आपराधिक  मानसिकता का 'चुटकुलेबाज' है . यह शेम्पू, सावून,तेल आसन, माला ,अगरवत्ती ,कपूर, पोथी से लेकर अपनी फोटो तक बेचता है और देश-विदेश के बदमाशों को इसने  अपने 'विशाल आर्थिक साम्राज्य'  में  भर्ती कर रखा है .  विगत दिनों दिल्ली में जो मुठ्ठी भर लोग उसके समर्थन में जुलुस या प्रदर्शन कर रहे थे उनको या तो ये सब मालूम नहीं या वे सभी आशाराम के जर - खरीद गुलाम  थे . भाजपा ने यदि वोट की  राजनीति  के मद्देनज़र आशाराम को बचाने  की कोशिश की तो यह  दाव  उसके लिए उलटा भी पड़  सकता है . हिन्दू समाज   में सोचने समझने की क्षमता  है कि  भाजपा का चाल -चेहरा -चरित्र क्या है ?उमा भारती के बारे में भी  देश की महिलाओं  का नज़रिया विपरीत हो सकता है .
                        जोधपुर की इस घटना के बाद तुरंत मुंबई में और फिर दिल्ली में भी  महिला उत्पीडन की शिकायतें देश  भर  में चर्चित हैं.   देश भर में  इन पीड़ित महिलाओं या लड़कियों के दुःख दर्द  में सहानुभूति व्यक्त की जा रही है . महाराष्ट्र और केंद्र सरकार की आलोचना हो रही है , लोग बहुत नाराज हैं , किन्तु किसी ने भी कहीं भी किसी  बलात्कारी को सही नहीं ठहराया  जैसा कि  उमा भारती और  प्रभात झा ने आशाराम जैसे बलात्कारी को सही और पीडिता को गुनाहगार ठहराया है . यह नाकाबिले बर्दास्त स्थति है .
      हालांकि इस घटना से  पहले १६ दिसंबर-२०१२ को दिल्ली में चलती बस में गेंग रेप और  २२  अगस्त को मुंबई में पत्रकार लड़की के साथ गैंग रेप  हुआ .  २३-अगस्त -२०१३ को पुनः दिल्ली में घटित बलात्कार की घटना तो मात्र भारतीय समाज की खदबदाती   हाँडी  का उफान भर है ,  ये तो वे घटनाएं हैं जो अपराधियों की किसी  चूक  से या पीड़ितों के साहसपूर्ण प्रतिकार से जनता - क़ानून और प्रशासन  के सामने दरपेश हुईं हैं.  दरसल पूरा  देश इन घटनाओं से आप्लावित है . नारी उत्पीडन, कन्या उत्पीडन , बाल यौन शोषण , गेंग  रेप तथा दुष्कर्म के साथ-साथ अमानवीय नृशंस व्यहार अथवा हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए
भारतीय समाज इन दिनों सारे संसार में बुरी तरह बदनाम हो चला है .  ऐंसा भी नहीं है कि  देश का सम्पूर्ण समाज ही  'कामान्धता' का शिकार हो चूका है . अधिकांस  पुरुष और युवा अपनी करियर या पारिवारिक ,सामाजिक  सरोकारों के प्रति सजग हैं , अधिकांस को अपने समाजगत ,सम्प्रदायगत मूल्यों में गहन आश्था है . किन्तु  बढ़ती हुई आबादी और  गिरते  हुए पूँजीवादी आर्थिक-सामाजिक  अवमूल्यन ने गुमराह लोगों की भी समाज में मात्रा बढ़ा दी है .  इसमें कदाचित वर्तमान दौर के बाजारबाद और खुलेपन की भी भूमिका हो सकती है . वास्तविकता क्या है यह तो   समाज शास्त्री या 'मनोवैज्ञानिक ही बता सकते हैं  ,  मेरा अनुमान यही है कि  अब भारतीय नारी शोषण -उत्पीडन को छिपाने में विश्वाश नहीं करती और यही वजह है कि मीडिया के मार्फ़त देश और दुनिया को  रोज-रोज नयी -पुरानी तत्संबंधी आपराधिक घटनाएँ दरपेश हो रही हैं. शोषण से लड़ने की  उसके प्रतिकार की यह चाहत ही ज़िंदा समाज  और प्रवाहमान सभ्यता की पहचान है .
                               देश के भिन्न-भिन्न हिस्सों में ,बड़े-छोटे सभी तरह के शहरों-कस्वों जैसे -   छिंदवाडा  ,खंडवा,रतलाम ,देवास, उज्जेन और इंदौर में आशाराम के  ऊपर न केवल दुष्कर्म के, न केवल' नारी-शोषण'  के , न केवल आर्थिक घोटाले के,   बल्कि जमीनों की खरीद -फरोख्त में गुंडागर्दी  के और तांत्रिक क्रिया इत्यादि के   संदर्भ में  हुई मौतों के - बेहद संगीन   आरोप लगते रहे हैं हैं .  इन तमाम वारदातों के परिप्रेक्ष में आशाराम बापू पर सी बी आई  जाँच  की मांग गंभीरता से की जा रही है .
                                         आनंद ट्रस्ट के ट्रस्टी और देश के ख्यात सामजिक कार्यकर्ता और वरिष्ठ एडवोकेट  सतपाल आनद  ने रजिस्टार जनरल ,सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया ,को ई -मेल  भेजकर सी बी आइ  जाँच  की मांग की है . उन्होंने कहा कि  न केवल आशाराम द्वारा उत्पीडित बच्ची को न्याय मिले बल्कि उसे दस-लाख रूपये की धनराशि  भी दी जाये .उन्होंने मांग की है कि  न केवल आशाराम  द्वारा उत्पीडित अपितु - मुंबई दिल्ली समेत  देश के विभिन्न हिस्सों में 'यौन-उत्पीडन'  की शिकार महिलाओं  को-  न केवल  तत्काल उचित न्याय मिले बल्कि बिना किसी हीले -हवाले के तत्काल दस लाख रूपये पीड़िता के  खाते में जमा कराये  जाएँ .  स्मरण हो कि  विगत दिनों  मध्यप्रदेश में ऐंसे  ही एक प्रकरण में दुष्कर्म पीडिता एक बच्ची को दस लाख  रूपये  की  राहत के लिए एडवोकेट सतपाल आनंद ने पहले  सेसन कोर्ट से लेकर हाई कोर्ट तक लड़ाई लड़ी  थी किन्तु जब  हाई कोर्ट में उनकी याचिका ठुकराई गई तो वे सुप्रीम कोर्ट गए और वहा से उस पीड़ित बालिका को दस  लाख रूपये  दिलाये जाने का आदेश पारित कराया . उन्होंने रजिस्टार जनरल आफ -सुप्रीम कोर्ट आफ इंडिया  को आशाराम के तमाम धनबल-बाहुबल और आपराधिक कृत्यों की जांच  कराने के लिए केंद्र  को आदेशित करने  बाबत अनुरोध किया है . आसा है कि अब और किसी  आसाराम को  आइन्दा और अपराध करने की इजाजत  ये देश नहीं देगा .
                                                       
श्रीराम तिवारी     

शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

seria [damishk] men maare gaye hajaaron nirdoshon ko shrddhanjali.


   सीरिया में जहरीले रासायनिक हमले में मारे गए हजारों निर्दोषों  के  प्रति शोक  संवेदना स्वरूप दुनिया के तमाम शांति कामी   एक्टिविस्ट  से अनुरोध है कि  सीरिया में हो रहे नर-संहार को रोकने के लिए दोनों पक्षों  के बीच मध्यस्थता करे .  सीरिया की आवाम  को चाहिए  कि  शांतिपूर्ण तरीकों से अपने रोष का इजहार करे . सत्तारूढ़ सैनिक सरकार और  भूतपूर्व राष्ट्रपति असद को भी इस अवसर पर कोई ऐंसी  हरकत नहीं करना चाहिए कि  सीरिया गृह  युद्ध की आग में बर्बाद हो जाए ….

                                                           श्रीराम तिवारी 

सोमवार, 19 अगस्त 2013

देश की सुरक्षा के लिए उसकी राष्ट्रभाषा हिन्दी की सुरक्षा भी ज़रूरी है.

  विचारों और भावों को प्रकट करने वाले मानवीय ध्वनि संकेतों को 'भाषा '  कहते हैं . दूसरे  शब्दों में भाषा की परिभाषा इस प्रकार की जा सकती है कि "जिस साधन  या माध्यम के द्वारा मानव जाति अपने भावों और विचारों को बोलकर-लिखकर प्रकट करती है उसे भाषा कहते हैं "मानव -समाज जब प्रारम्भिक अवस्था में था तब  वह  इशारों से या अपनी आदिम और अनगढ़ भाषा  से काम चला लेता था . किन्तु मानवीय सभ्यताओं के परवान चढने पर विभिन्न भाषाओँ ने भी अपने मौखिक  स्तर को लिखित रूप प्रदान किया . मौखिक ध्वनियों को लिखकर प्रकट करने के लिए जो चिन्ह या प्रतीक सुनिश्चित किये गए ,उन्हें ही लिपि कहते हैं .
                        संसार में अनेक भाषाओँ का उदय अस्त हुआ ,उनकी लिपियाँ तक खो चुकी हैं . किन्तु जो भाषाएँ अभी भी विद्यमान हैं  उनमें 'हिन्दी 'भी एक महत्वपूर्ण भाषा है . प्रत्येक भाषा की अपनी-अपनी एक लिपि होती  है 'हिन्दी और संस्कृत ' भाषाएँ जिस लिपि में लिखी जाती हैं उसे 'देवनागरी' लिपि कहते हैं .  इसी तरह पंजाबी भाषा गुरुमुखी लिपि में ,उर्दू भाषा अरबी- फ़ारसी  लिपि में और अंग्रेजी भाषा रोमन लिपि में लिखी  जाती है . भारतीय -यूरोपीय भाषा परिवार विश्व में विशालतम भाषा परिवार है . भारत की महान भाषा संस्कृत ,जिसे देववाणी भी कहा जाता है ,का सम्बन्ध इसी 'भारोपीय'[इन्डोयुरोपियन ]भाषा परिवार से है . हिन्दी की 'जननी' भी संस्कृत ही है . इस प्रकार हिन्दी का सम्बन्ध भी प्रकारांतर से 'भारोपीय' या भारत-यूरोपीय  भाषा परिवार से है . हिंदी के अतिरिक्त सिन्धी ,पंजाबी ,कश्मीरी ,गुजराती ,मराठी ,उड़िया, असमियाँ  , बँगला,आदि क्षेत्रीय  भाषायें  भी इसी भारोपीय परिवार की सदस्य हैं .
      'भारोपीय भाषा परिवार' की भारतीय शाखा को" भारतीय आर्य -भाषा -शाखा " भी कहा जाता है . इस  शाखा का प्राचीनतम रूप 'वैदिक संस्कृत' है . इससे ही हिन्दी भाषा का जन्म हुआ है . इस  वैदिक संस्कृत से सर्वप्रथम 
लौकिक संस्कृत का जन्म हुआ था . लौकिक संस्कृत में रामायण महाभारत जैसी 'महाकाव्य'  रचे गए . पाणिनि ने व्याकरण शास्त्र का सृजन किया था .  बाल्मीकि ,वेद -व्यास ,वशिष्ठ ,भृगु और कालिदास जैसे प्रभ्रत कवियों  ने परिनिष्ठित संस्कृत में विराट  साहित्य सृजन किया है . कालांतर में इसी से पाली-प्राकृत भाषाओँ का जन्म हुआ और लगभग एक हजार साल पहले से  प्राकृत भाषा   का अपभ्रंस में रूपान्तरण  होने लगा था  इस विकाश क्रम  में दक्षिण की द्रविड़  परिवार की -तमिल ,तेलगु,मलयालम तथा कन्नड़ को छोड़कर शेष सभी भारतीय भाषाओँ का विकाश अपभ्रंश से ही हुआ है . हिन्दी का अपना एक विशाल अनुशीलन क्षेत्र है ,यह उत्तर भारत के विशाल भूभाग के अलावा मारिशस ,सूरीनाम ,फ़िजी ,गुयाना और नेपाल में भी बोली -लिखी जाती है . चौदह सितम्बर -1949  को भारत की संविधान सभा ने हिन्दी भाषा को भारत संघ की 'राजभाषा ' के रूप में मान्यता प्रदान की है .संविधान के अनुच्छेद -343 के अनुसार भारत संघ की राजभाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी है . 
                             इसके अलावा हिन्दी इन राज्यों की भी राजभाषा है :-उत्तर प्रदेश   ,बिहार  ,मध्यप्रदेश  ,राजस्थान, हरियाणा हिमांचल, ,उत्तराखंड,झारखंड ,दिल्ली और सभी केन्द्र्शाषित  प्रदेशों में हिन्दी राजभाषा है . पंजाब,गुजरात ,महाराष्ट्र और असम  ने द्वतीय भाषा के रूप में हिन्दी को मान्यता दी हैं . दुनिया में हाली वुड के बाद सबसे बड़ा फिल्म संसार  हिन्दी का ही है. भाषा  व्याकरण ,संगीत ,साहित्य  से समृद्ध हिन्दी भाषा -वर्तमान दौर के  भूमंडलीकरण   में  सार्थक अभिव्यक्ति  के लिए   दुनिया में बेजोड़ है .हिन्दी अब  केवल राजनीती ,धर्म -अध्यात्म या काव्य सृजन का माध्यम ही नहीं बल्कि बाज़ार  का सबसे शसक्त माध्यम भी बन चुकी है .  चूँकि दुनिया के बहुराष्ट्रीय निगमों या कम्पनियों के उत्पादों को खपाने के लिए  भारत एक विशाल बाज़ार हैऔर उस विशाल बाज़ार की भाषा चलताऊ  हिन्दी है इसलिए वतमान दौर के हिन्दी लेखक  , कवि ,साहित्यकार अब हिन्दी के शुद्ध स्वरूप को बचाने  के लिए चिंतित हैं .  कुछ लोग वर्तमान दौर की  मुम्बैया या 'मुन्ना भाई एम् बी बी एस ' वाली हिदी से नाखुश हैं . किन्तु जमीनी हकीकत यही है कि  जिस तरह नदियाँ अपनाअपना अनगढ़  रास्ता तो खुद बनाती हैं किन्तु 'जनकल्याण' के अनुरूप यदि उसका रास्ता मोड़ना ही है तो कोई 'भागीरथ' तो होना ही चाहिए . वैसे तो हिन्दी भाषा का वेग  सतत प्रवाहमान है किन्तु वैश्विक चुनौतियों से  देश की  सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आम आदमी को मुख्य धारा से जोड़ना लाजिमी है और इसके लिए सर्व सुलभ -सर्व संगेय हिन्दी के विस्तार का पुरजोर प्रयास   किया जाना चाहिए .     

  आम तौर पर विश्व में    किसी भी भाषाई  लेखक के लिए  अपनी स्वयम की  मातृभाषा  के विमर्श पर कुछ भी लिखना  गर्व की बात है , बिलकुल देशभक्तिपूर्ण काव्य सृजन की तरह . किन्तु भारत में किसी भी भाषा के उत्थान-पतन या उसके राष्ट्रीय सरोकारों के बरक्स लिखना , बिलकुल  तलवार की धार पर चलने जैसा है .राष्ट्रभाषा हिन्दी  के सम्बन्ध में तो इस पर कोई दो राय  भी नहीं हो सकती .   कोई  भी  हिन्दी भाषी लेखक  अपने लेखन में यदि   समसामयिक भाषाई दुर्गति पर अरण्यरोदन करते हुए    सच का सामना करता है  तो क्षेत्रीय भाषा- भाषियों   और    समकालीन  प्रगतिशील  स्वभाषियों    का   भी   कोपभाजन बन जाता  है और यदि   भाषा  के अनुशाशन को ताक  पर रखकर कोई कवि -लेखक या रचनाकार  भाषाई और साहित्यिक उदारता से ओत-प्रोत-आधुनिकतावादी हिन्दी  साहित्य का   सृजन करता है तो परम्परावादियों की नज़र में पथभ्रष्ट  माना  जाता है. वस्तुतः  हिन्दी को भी हिन्दुस्तान की तरह अन्दर बाहर से खतरा है और इसी वजह से वर्तमान युग  में  राष्ट्रीय   चिंताओं के केंद्र में हिन्दी भी समाहित है .जब  दुनिया के तमाम देश अपनी-अपनी  भाषाई शुद्धता के आग्रह के वावजूद  'आधुनिक वैश्वीकरण ' के हमराह हैं तो भारत के   हिन्दी भाषी  क्षेत्र  को  भी इस भूमंडलीकरण के दौर से भाषाई समझौता करने या सरेंडर होने की जरुरत नहीं है .
                         बर्षों बीत गए जब तत्कालीन विदेशमंत्री अटल बिहारी वाजपेई ने 'संयुक राष्ट्र संघ ' के मंच से हिंदी में भाषण दिया था . तब न केवल हिन्दी  भाषी भारतीयों  को बल्कि उर्दू समेत तमाम क्षेत्रीय भाषा   भाषियों को अपनी 'राष्ट्रभाषा'  के गौरव का अहसास हुआ था . यह अत्यंत कारुणिक [उर्दू में  दर्दनाक] स्थति है   कि    हिन्दी को संयुक राष्ट्र संघ की भाषाओँ में अभी तक स्थान नहीं मिला . न केवल संयुक राष्ट्र संघ में  न केवल   भारतीय प्रशाशनिक सेवाओं में ,न केवल एलीट क्लास याने सभ्रांत वर्ग  के लिए स्थापित किये जा रहे नए-नए अधुनातन शिक्षा संस्थानों में , न केवल न्याय पालिका और लोकतांत्रिक संस्थाओं  में  बल्कि साइंस- टेक्नालोजी और अन्तरिक्ष अनुसंधान क्षेत्र में  हिन्दी आज  केवल "नामपट्ट' की वैकल्पिक  भाषा मात्र बन चुकी है . ईसाई मिशनरीज द्वारा संचालित या शोषक शासक वर्ग के निमित्त स्थापित  अत्यंत वैभवशाली  शिक्षा संस्थानों में 'हिन्दी  में बात करना मना है '.आजादी के ६६ साल बाद भी  देश के समस्त महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज और भारतीय संविधान  का  'अंग्रेजी' वर्जन  ही  मान्य  किया जाता है .  इन तमाम विसंगतियों के वावजूद हिन्दी दुनिया के सर चढ़कर बोल रही है तो उसके लिए ठीक हिन्दुस्तान की  तरह लिया जाना चाहिए कि -;
  
      कुछ बात है ऐंसी  कि  हस्ती मिटती  नहीं हमारी , सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा … !

      खुदा 'अल्लामा इकबाल साब ' को नेमत और जन्नत दोनों प्रदान करे . उन्होंने ही पहली बार फारसी लिपि और उर्दू  जुबान में फरमाया था -;

   हिन्दी हैं हम ,वतन हैं हम , ये  हिन्दोस्ताँ  हमारा …


 आज की बोलचाल की भाषा में बच्चे पैरोडी यों किया  करते हैं -:

 " हिन्दी को मिटा सके ये जमाने में दम नहीं , ज़माना हिन्दी से है ,हिंदी जमाने से  नहीं "….
 
 ये गलत नहीं है . अभी पिछले महीने की बात है चीनी सैनिक भारतीय सीमा के अन्दर घुस आये थे . उनके हाथों में  बड़े -बड़े लाल-लाल बैनर थे जिन पर शुद्ध हिन्दी और देवनागरी लिपि में लिखा था " आप चीन की सीमा में हैं  , कृपया यहाँ से चले जाएँ ,धन्यवाद " भारतीय फौजियों को तब और ज्यादा अचरज हुआ जब उन  चीनी सेनिकों ने  बाकायदा" शुद्ध हिन्दी "  में न केवल  भारतीय सेनिकों को गालियाँ दीं बल्कि खून-खराबे की चेतावनी भी उन्होंने  हिन्दी में ही दी .  ऐंसा तो हो नहीं सकता कि  चीनी सैनिक अपनी स्वयम की चीनी भाषा न जानते हों  . ये भी नहीं हो सकता कि  अंग्रेजी न जानते हों.  क्योंकि सीमाओं पर जब दोनों पक्षों में सुलह सफाई की बात आती है तो 'अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा 'के रूप में अंग्रेजी का ही प्रयोग  अधिकांस्त : किया जाता है .तात्पर्य ये कि पूरा चीन याने डेड़  अरब  नर-नारी चीनी भाषा तो जानते ही हैं किन्तु जिन्हें भारत  की सीमा पर तैनात करते हैं उन्हें हिन्दी जरुर सिखाते हैं . जिन्हें जापान की सीमा पर भेजते हैं उन्हें जापानी जरुर सिखाते  हैं और जिन्हें रूस की सीमा पर भेजते हैं उन्हें रूसी जरुर आती होगी . अंग्रेजी का जानना तो दुनिया भर में आवश्यक है ही . भारत की भाषाई  स्थति  'तदर्थवाद' से प्रेरित है . जब आग लगी तो कुआँ  खोदना शुरू कर दिया . सीमाओं पर जो हमारे प्रहरी हैं उनके भाषाई ज्ञान के बारे में कुछ भी कहना उचित नहीं होगा . किन्तु देश की सीमाओं   के अन्दर भी तो भाषाई चेतना  अत्यंत सोचनीय है . न केवल गैर हिन्दी भाषी प्रान्तों में बल्कि 'हिन्दी बेल्ट' में भी भाषाई उपेक्षा की सबसे ज्यादा शिकार कोई है तो वो है भारत की राष्ट्रभाषा  याने हिन्दी।
                      अपनी सरकारी नौकरी के दरम्यान मेरा स्थानान्तरण होता रहता था . एक बार   विशुद्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र-बुंदेलखंड -सागर   से  अर्ध हिन्दी भाषी क्षेत्र मालवा -इंदौर स्थानांतरित होकर आना हुआ. जिस आफिस में ज्वाइन किया वहाँ  का सबसे बड़ा अफसर सरदार था और आधी हिन्दी आधी  पंजाबी बोलता था . उसके बाद वाला अफसर  बंगाली था वो  अस्सी प्रतिशत बँगला और दस-दस  प्रतिशत हिन्दी-अंग्रेजी की खिचड़ी में  बात करता था  ,अधीनस्थ  बाबू वर्ग का बहुमत था और वे सब आपस में शुद्ध  मराठी बोलते थे . मेरे जैसे हिन्दी भाषी से वे या तो बात ही नहीं करते थे या फिर बिगड़ी हुई हिन्दी में बात करते थे . वे दूध को 'दूध'  जीवन को जिवन और शुभ को  सूभ लिखते थे .मेरी संस्कृतनिष्ठ तत्सम शब्दावली को  सुनकर वे मेरे सभी सहकर्मी  व्यंग  से   मुस्कराकर  शीश नवाते थे. "कहते थे जय हो पंडित जी की "… ! और  इसी भाषाई विद्वत्ता की  गफलत में  मैं   उनका नेता बन बैठा . लगभग पचास के स्टाफ में , मैं अकेला हिन्दी भाषी था. मात्र एक अदद   सफाई कर्मचारीथा जो  मालवी बोलता था औरएक  गेट मेनथा जो  नेपाली बोलता था . ये सभी लोग  हालाँकि   हिन्दी अच्छी तरह से जानते थे किन्तु आपस में अपनी क्षेत्रीय भाषा का ही इस्तेमाल किया करते थे. चूँकि विभाग का सारा काम अंग्रेजी में हुआ करता था .अतएव  कार्य के दौरान तो कोई परेशानी मुझे नहीं हुई किन्तु अपने उद्गारों की अभिव्यक्ति के लिए मैं लगभग तरस जाया करता था    मैं हिन्दी और टूटी फूटी अंग्रेजी के अलावा  और कोई भाषा नहीं जानता था  किन्तु  'राष्ट्रभाषा ' के  प्रति मेरे  विनम्र  आग्रह  और अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ के साहित्यिक विमर्श में रूचि लेने से  उन  सभी को न केवल  हिन्दी बोलने   अपितु  लिखने-पढने के लिए  भी विवश  कर दिया।  राष्ट्रीय और सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का बेहतरीन सिलसिला चल पड़ा .  जो अब भी अबाध रूप से जारी है . तात्पर्य ये कि  यदि हम हिन्दी भाषी लोग अपने देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओँ में रूचि लें ,बढ़ावा दें तो इन अल्पसंख्यक क्षेत्रीय भाषा-भाषियों का 'हिन्दी -भय' समाप्त हो सकता है और हिन्दी को उसका उचित राष्ट्रीय - राजभाषा या राष्ट्रभाषा का सम्मान अवश्य मिले पायेगा .   सरकारी हिन्दी नीति और उसके कार्यान्वन तो भृष्टाचार की भेंट चढ़ जाते हैं . हांडी  के एक चावल के रूप में प्रस्तुत है एक निजी अनुभव-; 
                           मुझे   विशुद्ध  हिन्दी भाषी शहर के एक  केन्द्रीय कार्यालय का पूर्ण रूपेण[?]  हिन्दी करण  करने के   सरकारी प्रयाशों की  विसंगति देखने का अवसर मिला .   एक विचित्र विडम्बना देखने को मिली .  सरकार की ओर से एक हिन्दी अधिकारी महोदया  नियुक्त थीं .  यद्द्य्पि उनकी मातृभाषा सिन्धी थी ,उनके  कोई रिश्तेदार दिल्ली में बड़े अफसर थे सो 'जेक' लगवाकर वे   भी   हिन्दी अधिकारीबन गईं  , वे कभी-कभार    ग्यारह बजे आफिस आती थी और लंच के बाद घर चली जातीं थी. साल में रक बार १४-सितम्बर को हिन्दी दिवस  का आयोजन अवश्य हुआ करता था .  उनके पुर्व और पश्चात् भी पदस्थ कर्मचारियों का यही हाल रहा था .  मैं अपनी ३७ साल की सर्विस लाइफ़ में ये नहीं समझ पाया कि  ये हिन्दी अधिकारी जो लगभग  एक लाख रुपया महिना वेतन लेते हैं     वो हिन्दी विकाश  के लिए काम क्या करते हैं  ?  देश के तमाम केन्द्रीय कार्यालयों ,सार्वजनिक उपक्रमों ,शिक्षा संस्थानों , अकादमिक संस्थानों और एनजीओ  के मार्फ़त  हिन्दी भाषा प्रसार के नाम पर , हर साल सरकारी कोष से अरबों-खरबों रुपया बर्बाद किया जाता है , जबकि देश की अधिसंख्य जनता  की आजीविका और बाज़ार की आवश्यकता ने हिन्दी को आज मजबूत स्थति में स्व्यम्वेव  खड़ा कर दिया है . जरुरत सिर्फ इतनी ही  है कि  हिन्दी भाषा के 'सौन्दर्य और मूल्यों ' को  सुरक्षित बनाए रखा जाए . देश की सुरक्षा को हिन्दी भाषा की सुरक्षा के साथ समेकित किया जाये .
                                  श्रीराम तिवारी      
                            

बुधवार, 14 अगस्त 2013

वर्तमान दौर की नीतियों से देश की संप्रभुता ओर स्वाधीनता खतरे में;-

     जो -जो राष्ट्र अतीत में कभी किसी'परराष्ट्र' के  गुलाम थे  और कठिन संघर्ष और बलिदानों की कीमत पर आजाद हुए वे सभी हर साल  अपनी आजादी की सालगिरह पर जश्न अवश्य  मनाते हैं, शहीदों की कुर्बानी को अवश्य याद करते हैं ,  उन्हें नमन करते हैं और संकल्प लेते हैं कि  वे न केवल शहीदों का बलिदान याद रखेंगे ,  न केवल अपने मुल्क की आजादी को  अक्षुण रखेंगे बल्कि उसे समृद्धशाली और  सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न बनाने की ओर निरंतर पीढी -दर-पीढी अग्रसर होते रहेंगे .  हम भारत के 'जन-गण ' भी अपने 'वतन की आजादी का पर्व 'पन्द्रह  अगस्त' को मनाते हैं ,हम  हर साल इस दिन देश के अमर शहीदों को याद करते हैं ,उनके संघर्षों को याद करते हैं.वतन की आजादी ,उसका नव-निर्माण और  उसकी संप्रभुता और अखंडता की शपथ लेते हैं इस दिन भारत की राजधानी दिल्ली में और प्रदेशों की राजधानियों में सरकारी तौर  पर जश्न मनाया जाता है और इस दौर के 'राष्ट्र नायक '    देश की आवाम को  देश भक्ति का ज्ञान देते हैं  हालाँकि इन  वेचारों  को स्वयम भी  राष्ट्र की 'संप्रभुता' का अर्थ  मालूम नहीं होता . वे अपने संविधान के मूलभूत संकल्प  को या तो जानते ही नहीं या फिर  प्रमाद वश उसकी जानबूझकर अनदेखी किया करते हैं .यदि किसी  ने ज़रा सी ईमानदारी दिखाई कि  उसे हासिये पर धकेलने  के लिए ये 'व्यवस्था' तैयार बैठी है .
                                       पंद्रह अगस्त 1947   को ' यूनियन जेक ' की जगह 'तिरंगा ' लहराया  तो लोग समझे की देश आजाद हो गया जबकि इस तारीख  को तो  भारत [इंडिया] केवल अंग्रेजी दस्तावेजों में ही   इन्द्राज  हुआ था .  अंग्रेज तो भारत-पाकिस्तान का बंटवारा करके  कुटिल मुस्कान के साथ चले गए किन्तु पूरा भारतीय उप महादीप लहू लुहान कर गए . वे   इस प्रायदीप में लगभग 527  देशी  रियासतों को  छुट्टा छोड़ गए . भारत  -नेपाल  , भारत-चीन , भारत -पाकिस्तान के बीच सीमाओं का कभी न खत्म होने वाला झगडा छोड़ गए .अंग्रेज लोग  इस  खंड-खंड 'राष्ट्र'  में   हिन्दू-मुस्लिम के, वर्ण भेद के , जातीयता के संघर्षों का  बीज वपन कर इंग्लेंड  चले  गए . इस रक्तरंजित  राष्ट्र की सामाजिक  दुरावस्था  से , सामंतशाही से  और गुलामी जनित दरिद्रता से परिपूर्ण  भारत को    '' सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक-धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी  गणराज्य " के   निर्माण का संकल्प  जिन महान नेताओं ने  लिया था ;यदि  उनके प्रति यह आधुनिक पीढी कृतज्ञता प्रकट  करती है तो कोई एहसान नहीं करती . निसंदेह यह महान कार्य करने  वाले बलिदानियों  की   संख्या  लाखों में हो सकती है  किन्तु "को न नसाइ  राज पद पाई " आजादी के बाद जो सत्ता में प्रतिष्ठित हुए थे - वे पंडित नेहरु ,सरदार पटेल  और डॉ आंबेडकर तो  इसके श्रेय भाजन  हो गए किन्तु शेष सभी के बलिदान को यह राष्ट्र भूलता चला गया .
                                     भारत राष्ट्र का निर्माण   भले ही   तत्कालीन  सेकड़ों सामंतों और रियासतों के विलय उपरान्त   संभव हुआ  हुआ हो, किन्तु   इस महत कार्य  याने 'राष्ट्र निर्माण  का श्री गणेश तो  प्रथम स्वाधीनता संग्राम से ही प्रारम्भ हो चूका था  और इस महानतम कार्य को  अमली जामा पहनाया   -  कांग्रेस और  महात्मा गाँधी  ने , शहीद  भगत सिंह-आजाद-सुखदेव -राजगुरु  की शहादत ने  ,  उनकी वोल्शैविक  क्रांति की तर्ज पर बनाई गई - क्रांतिकारी 'हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी  'ने   ,नेताजी सुभाष चन्द्र बोस और उनकी  आजाद हिन्द फौज ने,  सीमान्त गाँधी अब्दुल गफ्फार खान और उन के लाल कुर्ती दल  ने  , मुंबई समेत देश भर के मेहनतकशों की हड़ताल  ने,  तत्कालीन इंडियन  नेवल स्ट्राईक ने और  इतिहास के पन्नों पर नाम नहीं जिनका - उन तमाम अज्ञात  महान बलिदानियों ने  इस टूटे-फूटे क्षत-विक्षत सेकड़ों साल की  गुलामी  से पीड़ित 'भारत'  को अपने प्राणों का अर्ध्य  देकर मूर्त रूप दिया था . आजदी के पर्व पर भी  हम उनको,उनकी कुर्बानी को और उनके  महान  संकल्प को  विस्मृत कर दिया करते हैं .
                       अपने हमवतन शहीदों -क्रांतिकारियों के अलावा भारतीय स्वाधीनता संग्राम में तत्कालीन   दुनिया के अनेक महानायकों  एवं    मित्र राष्ट्रों  का भी विशेष योगदान रहा है.  लेनिन, टालस्टाय , ज्यां पाल सात्र ,आइन्स्टीन, मैक्स मूलर, एनी  वेसेंट और कार्ल मार्क्स जैसे महान दार्शनिक निरंतर भारत की जनता के पक्ष में ;दुनिया भर में अलख जगाते रहे .   दुनिया के अनेक  महान क्रांतिकारी लोग  जो 'साम्राज्यवाद' से नफरत करते थे उनका भारत की जनता से भाईचारा सर्वविदित है  . द्वतीय विश्व युद्ध   का तो सारी दुनिया की आजादी में  महत्वपूर्ण योगदान रहा है.     निसंदेह महायुद्ध हो या खंड युद्ध उससे मानव इतिहास में  कोई सकारात्मक परिणाम शायद ही निकला हो  किन्तु द्वतीय महायुद्ध ने भारत की आजादी में परोक्ष सहयोग दिया था.  इसका  जिक्र कम ही होता है  कि  दुनिया में इस्लाम की  'खिलाफत' को पूंजीवादी क्रांति ने  ख़त्म   किया और  ब्रिटिश साम्राज्यवाद का  सूर्यास्त -द्वतीय महायुद्ध  से संभव हुआ.  न केवल भारत बल्कि  अधिकांस  देशों पर इन्ही दो ताकतों का वर्चस्व रहा है,आज भी  ये ताकतें 'सभ्यताओं के संघर्ष' के नाम पर   दुनिया को तवाह करने पर तुली हुई हैं . विश्व शांति ,अमन ,भाईचारा ,समाजवाद  सब  हासिये पर चले गए हैं क्योंकि दुनिया अब 'एक् ध्रुवीय ' हो चली है .  गनीमत है कि  भारत में इन मूल्यों को अभी भी सम्मान प्राप्त है.    
                                             भारत  राष्ट्र के निर्माण का श्रेय  प्राय :   रवीन्द्रनाथ टेगोर ,अरविन्द  घोष ,लाल-बाल -पाल    पंडित नेहरु ,सरदार पटेल  ,सुब्रमन्यम भारती   मौलाना  आजाद , डॉ राजेन्द्र प्रसाद , श्यामा प्रसाद मुखर्जी और डॉ भीमराव आंबेडकर तक सीमित कर दिया जाता है  और न केवल भारत से  बल्कि सारी दुनिया  से , जिस कारण से ब्रिटिश हुकूमत को भागना  पडा वो -बहुत कम लोग जानते हैं .  दुनिया में साम्यवाद का उदय, द्वतीय विश्व युद्ध  और 'सोवियत क्रांति '  ये तीन फेक्टर ऐंसे  हैं  जिसके कारण ब्रिटेन में 'टोरी ' पार्टी की पहली बार हार हुई और 'लेबर पार्टी जीती . लेबर पार्टी ने १९४६ के अपने घोषणापत्र में साफ़ लिखा था कि  यदि हम चुनाव में  जीते तो  न केवल 'इंडिया' बल्कि सारी दुनिया  को आजाद कर देंगे . लेबर पार्टी जीती , एटली  प्रधानमंत्री बने और ब्रिटिश जनता की खास तौर  से लेबर पार्टी और उसके हमदर्द मजूरों-किसानों की आकांक्षा  का उन्हें आदर करना पडा. लार्ड माउन्ट वेटन  को भेजकर भारत की आजादी का सरंजाम करना पडा . इस दरम्यान भारत में 'अंग्रेजो भारत छोडो , जेल भरो आन्दोलन परवान चढ़ रहा था  और भारत के बाहर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज  उत्तर पुर्व से हमले करते हुए असाम तक आ चुकी थी. अंडमान निकोबार  पर आजाद हिन्द फौज का कब्जा हो चूका था .   निसंदेह  आजादी के बाद का  नेतत्व और सरकार दोनों ही  देश की  नई  पीढी को आजादी का  सही  इतिहास  बता पाने  में असमर्थ  रहे हैं.   भारत राष्ट्र की संप्रभुता को स्थापित करने में ,उसे परिभाषित करने में , उसे एक निष्कंटक राष्ट्र के रूप में स्थिर करने में हम अभी तक असफल रहे हैं .
    किसी   ' राष्ट्र ' की संप्रभुता को   परिभाषित किये  बिना उसके 'गुलाम'  या 'आजाद ' होने का तात्पर्य वेमानी है .  मानव सभ्यताओं के उत्थान-पतन के साथ ही   संप्रभु  'राष्ट्र' शब्द की  परिभाषाएँ  भी देश-काल और परिस्थितियों  के अनुरूप  निरंतर  परिवर्तनशील रही हैं . किसी एक राष्ट्र या कौम की आजादी या गुलामी   दूसरे  किसी  अन्य राष्ट्र या कौम  की आजादी या गुलामी   के बरक्स - अन्योंन्याश्रित होते हुए भी  उसकी अंतर्वस्तु या  सार रूप में सर्वथा भिन्न हो सकती है .एक साथ गुलाम होने वाले या एक साथ आज़ाद होने वाले दो पृथक राष्ट्र अपनी सामाजिक,सांस्कृतिक और भौगोलिक संरचना अर्थात आंतरिक बुनावट और ऐतिहासिक सिलसिले के कारण 'राष्ट्र' को और उसकी संप्रभुता को  भिन्न अर्थों में अभिव्यक्त  किया करते हैं .इसीलिये  यह जरुरी नहीं कि किसी एक  देश की 'आजादी ' किसी दूसरे  देश की आजादी  के समतुल्य हो . इससे यह भी स्वयम सिद्ध है कि  यह भी आवश्यक नहीं कि  एक साथ 'आजाद' हुए राष्ट्र सामान रूप से शक्तिशाली या समृद्ध हों या सामान रूप से लोकतांत्रिक , धर्मनिरपेक्ष  या समाजवादी हों . चीन -पाकिस्तान या दक्षिण अफ्रीका के सापेक्ष भारत में कहीं बेहतर लोकतंत्र है  किन्तु प्रति व्यक्ति आय में भारत इन तीनों  देशों से पीछे है . इन देशों की संप्रभुता को किसी से कोई ख़तरा नहीं जबकि भारत की अखंडता और संप्रभुता पर संकट के बादल सदा मंडराते रहते हैं .
                                 भारत  की संप्रभुता  के लिए तीन खतरे हैं  - एक तो वर्तमान आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण  के परिणामस्वरूप देश की सार्वजनिक संपदा और तिजारत  को विदेशी नीति नियामकों के द्वार पर बंधक बना  देने से नव-उपनिवेशवाद का खतरा .  देश की संप्रभुता को   दूसरा ख़तरा  चीन और पाकिस्तान के नापाक गठजोड़ से उत्पन्न हुआ है .  तीसरा ख़तरा भारत के अन्दर ही मौजूद है   भ्रष्ट सरकारी   तंत्र  , अराजकता ,नक्सलवाद ,साम्प्रदायिक कट्टरवाद ,क्षेत्रीय अलगाववाद ,चुनावी  गड़बड़ी ,जातिवाद  और आर्थिक असमानता के भयानक बिशाणु  -भारत की संप्रभुता और अखंडता को अन्दर से चुनौती दे रहे हैं .  सीमाओं पर चीन-पाकिस्तान घात लगाए बैठे हैं . पाकिस्तान की सेना निरंतर 'शीज फायर' का उल्लंघन कर रही है . पाकिस्तानी फौज और   आतंकवादी  भारतीय सैनिकों की धोखे से हत्याएँ  कर रहे हैं . देश की वेशकीमती सबमरीन पनडुब्बी आई एन एस सिंधुरक्षक  को तबाह कर दिया गया है. ऐंसे  संकटकालीन दौर में - देश  की जनता को व्यक्तियों के नायकत्व की जय-जय कार करने के बजाय ,सत्ता के लालचियों पर बहस करने के बजाय -राष्ट्र की  सुरक्षा  जैसे  गम्भीर  मुद्दों पर चिंतन -मनन करना चाहिए . न केवलवैयक्तिक स्वार्थों का  चिंतन -मननअपितु सामूहिक स्वार्थों पर आधारित भारत राष्ट्र की संप्रभुता -एकता -अखंडता के लिए भी चिंतन -मनन और विमर्श किया जाना चाहिए .  वेशक  जो भी भारतीय अपने देश से  से जितना पा रहा है उसके समानुपात में अपने हिस्से की आहुति दे तो ही  देश  की संप्रभुता सुरक्षित  रह सकती है . इस तरह के चिंतन या सोच से काम नहीं चलेगा की देश को 'भगतसिंह ' तो  सेकड़ों  हजारों चाहिए  किन्तु  वे  पड़ोसियों के घर पैदा हों मेरे घर में नहीं .   राष्ट्र निर्माण का अभिप्राय सिर्फ हर पांच साल में चुनाव  करवा लेना भर नहीं है बल्कि  वतन     पै  मरने वालों ने जो सपना देखा था उसे पूरा करना भी जरुरी   है .              
                                                        विष्णुगुप्त  चाणक्य  से लेकर   मैजनी  तक , गैरीबाल्डी  से लेकर सरदार पटेल तक और जार्ज वाशिंगटन से लेकर नेल्सन मंडेला तक सभी ने राष्ट्रीय एकीकरण या राष्ट्र पुनर्निर्माण के शानदार  उदहारण पेश किये हैं . हमें पंद्रह अगस्त पर ही  नहीं अपितु  राष्ट्रीय आपदा और संप्रभुता के संदर्भ में  भी इन  महान विभूतियों  के व्यक्तित्व और कृतित्व का  स्मरण रखना चाहिए .  शायद हम मौजूदा संकट का मुकबला कर सकें और अमर शहीदों के सपनो  का  भारत बना सकें …।  स्वाधीनता दिवस अमर रहे …। स्वाधीनता  संग्राम में  और देश की सीमाओं पर अपने प्राण न्यौछावर करने वाले अमर शहीदों को क्रांतिकारी अभिवादन …! 
                                            shriram tiwari    

मंगलवार, 13 अगस्त 2013

aam chunaav men 'netaaon' ka imthaan...!

             

          लोकतांत्रिक राज की   , जनता   है   सरताज  

          ताज किसी के सर धरे , गिरे किसी पर गाज . . 



         लोकतंत्र  की परीक्षक , यदि  जनता  विद्द्वान . 

          तो ही  आम चुनाव में  ,  ले सकती  इम्तहान . . 


          
          पांच बर्ष   नेतत्व ने,  किये न  जन-हित  काम .

          अब नेताओं की बानगी  ,  ज्यों   आंधी   के आम . .


         सत्ता सीन नेतत्व को , नहीं भरोसा रंच .

        लोक लुभावन  विधेयक ,केवल चिटिंग प्रपंच . .


         श्रीराम तिवारी


        
        

शनिवार, 10 अगस्त 2013

पाकिस्तानी फौज का 'फायनल डेस्टिनेशन' १ ९ ७ १ की शर्मनाक पराजय है ...!

   निसंदेह   मौजूदा दौर में भारत  के सितारे गर्दिश में हैं . चीन के  फौजी जवान बार-बार भारतीय सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए भारत को धमकाते रहते हैं .  पाकिस्तान के आतंकवादी और फौज दोनों मिलकर न केवल  भारत  की सीमाओं  पर अपितु भारत के अन्दर -कभी मुंबई , कभी बोधगया , कभी दिल्ली ,कभी बंगलुरू और आये दिन कश्मीर में - भी  मार काट मचाये हुए हैं.आर्थिक मोर्चे पर भी स्थिति बेहद  चिंतनीय है .  विदेशी मुद्रा भण्डार  छीज  रहा है . आयात-निर्यात संतुलन देश के  पक्ष में नहीं है . डालर के सापेक्ष रुपया दयनीय स्थति में  पहुँच  गया है. इस नाजुक स्थति में  भारत  को अमेरिकी और यूरोपीय निवेशकों  के  नाज़ -नखरे उठाने  पड़  रहे हैं . विदेशी निवेशकों को मनचाही लूट और मनचाही कानूनी छूट  की लाल कालीन  बिछाई जा रही है . सार्वजनिक क्षेत्र, सेवा क्षेत्र , वीमा क्षेत्र ,  बैंकिंग क्षेत्र ,टेलीकाम  क्षेत्र और खुदरा व्यापार इत्यादि में विदेशी निवेश को शतप्रतिशत  छूट  देकर हमने देश को आर्थिक गुलामी के मोड़ पर ला खडा किया है .  इन हालात के लिए  देश का वर्तमान नेतत्व  और  सत्तारूढ़ गठबंधन सरकार  तो  जिम्मेदार  है ही   साथ ही   'प्रतिगामी ' आर्थिक नीतियाँ और  व्यवस्था के भृष्ट तत्व  भी  जिम्मेदार हैं . देश के पूँजीवादी  राजनैतिक दल  भी कमोवेश इस असहनीय दुरावस्था के लिए किंचित जिम्मेदार हैं . आजादी के ६ ६ साल बाद भी  देश की जनता 'वास्तविक राष्ट्रवाद'   की चेतना से कोसों दूर है . महज मुठ्ठी भर पत्रकार ,मीडिया कर्मी और स्वनामधन्य वुद्धिजीवियों के अलावा इन शब्दों के निहतार्थ भी जन-मानस  तक नहीं पहुँच पा रहे हैं . गाहे -बगाहे उग्र-राष्ट्रवाद का नारा लगाकर कुछ लोग देश में विभ्रम अवश्य पैदा करते रहते हैं. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है तो उसे दिखना भी चाहिए . भारत को  केवल चुनावी या वैधानिक  लोकतंत्र ही नहीं बल्कि  ऐंसा शक्तिशाली लोकतंत्र  होना चाहिए कि  देश का 'अन्त्यज' भी उसको परिभाषित करने की क्षमता रखता हो और जिस लोकतंत्र का नाम सुनकर चीन -पाकिस्तान थर-थर कांपते हों . एक पुनर्जागरण ,एक रेनेसा ऐंसा हो की भारत में प्रजातांत्रिक राष्ट्र तो  हो किन्तु 'बनाना ' गणतंत्र  नहीं  बल्कि समृद्ध  राष्ट्र निष्ठ - समाजों  आत्मनिर्भर - व्यक्तियों, समर्पित -  नेताओं  , जन-अनुकूल नीतियों  और बहु विध  संस्कृतियों  का  समवेत स्वर में  क्रांतिकारी सिंहनाद हो! शोषण विहीन भारत ही अपने मदमस्त पड़ोसियों को काबू में रखने में समर्थ हो सकेगा … ! एक तरफ करोड़ों   नंगे भूंखे  हों और एक  तरफ चंद  समृद्धि के पहाड़ खड़े हों तो किसका राष्ट्र? कैसा राष्ट्र ? पागल-  जंगखोर आतंकवादियों से मुकाबला  तो फौज कर लेगी किन्तु देश के अन्दर मौजूद अनगिनत राष्ट्रघातियों  से मुकाबला कौन करेगा ? 
                           वर्तमान दौर की आर्थिक-वैदेशिक और सामरिक नीति  को चूँकि यूपीए और एनडीए दोनों का वरद हस्त प्राप्त है अतएव  देश के ये दोनों बड़े राजनैतिक समूह और उनका नेतत्व करने वाले बड़े दल कांग्रेस और भाजपा  भी इस हालात के लिए  जिम्मेदार हैं . इन दोनों में से  सत्ता में कौन है इससे व्यवस्था की सडांध पर  कोई खास फर्क नहीं पड़ता .  देश को रसातल में ले जाने के लिए यह 'आर्थिक उदारीकरण '  की  पूँजीवादी    नीति ही प्रमुखत : जिम्मेदार है . इसके चलते देश के बाहर की ताकतें तिजारत के बहाने भारतीय रक्षा तंत्र में  अन्दर तक घुसपेठ कर चुकी हैं . आधुनिक सूचना एवं संचार क्रांति के फलस्वरूप  हमारे दुश्मनों को देश की  सामरिक तैयारियों  की समस्त सूचनाएं मुफ्त में मिल रहीं हैं . हमारे जवान कहाँ कब कितनी संख्या में पहुँच रहे  हैं इसकी जानकारी दुश्मन को पहले से ही उपलब्ध है तो सीमाओं पर हमारे जाबाँज  सेनिकों का बलिदान कैसे रुक सकता है?  बाह्य और आंतरिक संघर्ष के कारण भारत न तो गरीबी से लड़ पा रहा है , न  तो  सही  ढंग  से आधुनिकीकरण  कर पा रहा है और न ही चीन या  पाकिस्तान  को मुँह तोड़  जवाव दे पा रहा है . जिस देश का रक्षा मंत्री एक जग जाहिर सूचना देने में तीन दिन लगा दे और जिस देश के विपक्षी संसद ही न चलने दे उस देश का केवल 'भगवान्' ही मालिक है . इन हालातों में ये उम्मीद करना कि  अमेरिका की तर्ज पर पाकिस्तान में घुसकर  आतंकवादियों  का नामोनिशान मिटा दो यह केवल' मौसमी बतरस ' के सिवाय कुछ नहीं  है.  
                                वेशक पड़ोसी देशों  के अन्दर भी अनेक चुनौतियां हैं . पाकिस्तान  में भी हर जगह मारकाट मची है , उनकी अर्थ व्यवस्था  बदहाल है . गरीबो, मेंहगाई  और क्षेत्रीयता  से पाकिस्तान बजबजा रहा है . आतंकवाद परवान चढ़ा है .  अमेरिका चीन और सउदी   अरब से  जो मदद मिलती है वो पाकिस्तान की आदमखोर  -जंगखोर  सेना के दोजख में समा जाती है . दुनिया जानती है कि भारत की सीमाओं पर पाकिस्तान को कोई ख़तरा नहीं है किन्तु भारत का हौआ  खडा किये बिना उसे सउदी  अरब , चीन तथा अमेरिका  से  मदद नहीं मिल सकती . पाकिस्तान का  भारत पर निरंतर आक्रमण करते रहना उसकी इसी भिखमंगेपन  की वजह है .  इसी तरह चीन भी तिब्बत के अलगाव वादियों को -दलाई लामा को  भारत में शरण दिए जाने से हमेशा खुन्नस से भरा रहता है , हालंकि वो  जानता है कि  भारत से उसे कोई ख़तरा नहीं क्योंकि उसकी सैन्य तयारियाँ भारत से दस गुना ज्यादा हैं . चीन के सापेक्ष भारत को प्रवाह के विपरीत तैरना पड़  रहा है .  चीन  ने  दो-दो मोर्चे  एक साथ भारत के खिलाफ खोल रखे हैं . एक सीमाओं पर और दूसरा व्यापारिक प्रतिस्पर्धा   के क्षेत्र में .  आर्थिक विकाश की दौड़ में भारत से आगे बने रहने के चक्कर में वो सीमाओं का विवाद वनाये रखना चाहता है . इसीलिये कभी कभार उसके फौजी  झंडा डंडा लेकर भारत की सीमा में घुस आते हैं .  भारत की सेनाओं को अपने देश के लोकतंत्रात्मक विधान के आदेश पर सीमाओं पर अनुशाशन बनाए रखना आता है . जबकि पाकिस्तान और चीन की फौजें बेलगाम हैं और उन पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं हैं .  ऐंसे  असभ्य और बर्बर - पागलों से घिरे होने के वावजूद भारत अपना आपा नहीं खोता जब तक कि  पानी सर से ऊपर न गुजर जाए .  क्योंकि भारत में दुनिया का सबसे बड़ा और वास्तविक लोकतंत्र है . पाकिस्तान का लोकतंत्र तो  पाकिस्तानी  फौज के बूटों तले  सिसकता रहता है और चीन में तो लोकतंत्र शब्द ही वर्जित है .  लोकतंत्र क्या है इसे जानने  के लिए   दुनिया भारत की ओर देखती है. दुनिया को पाकिस्तान और चीन से तो  सिर्फ युद्ध की दुर्गन्ध ही हासिल होगी .  पाकिस्तान  में अमन रहे ,पाकिस्तान में लोकतंत्र रहे यह पाकिस्तान के हक़ में है किन्तु उसे   यह तभी नसीब होगा जब वो अपने पड़ोस में एक लोकतांत्रिक  और सहिष्णु राष्ट्र के रूप में  भारत की कद्र करना सीखे . केवल १ ९ ७ १ के  बँगला देश मुक्तिसंग्राम  की पराजय  के दंश से  प्रेरित होकर भारत से स्थाई बैर रखना पाकिस्तान के भी हित में कदापि नहीं है .

                                        यह सर्वविदित है कि  पाकिस्तान  प्रशिक्षित आतंकवादियों ने ,पाकिस्तान की आर्मी ने और पाकिस्तान की कुख्यात आई एस आई  ने भारत के खिलाफ अनवरत 'युद्ध' छेड़ रखा है . वे केवल कश्मीर के अलगाव वादियों , छग के नक्सलवादियों  के मददगार या   मुम्बई  के हमलावरों के सरपरस्त  या सीमाओं पर भारतीय फौजियों की धोखे से हत्या करने वालों के 'आका' ही नहीं  हैं; बल्कि वे नेपाल के रास्ते ,राजस्थान के रास्ते  ,खाड़ी  देशों के रास्ते ,कश्मीर के रास्ते  व् समुद्री  मार्गों से भारत में अरबों रुपयों की नकली 'करेंसी' खपाने,मादक पदार्थों की तस्करी कराने  के लिए बाकायदा योजनायें  बनाकर ,उन्हें अमल में  लाने के लिए दुनिया भर में कुख्यात हैं .  भारत से डरे होने के कारण भारत   को उसकी  सीमाओं पर परेशान करने के लिए पाकिस्तान के हुक्मरान निरंतर  अमेरिका और चीन से मुफ्त में प्राप्त  हथियारों का जखीरा  और उन्नत तकनीकि   प्राप्त  करते    रहते   हैं  .निसंदेह अमेरिका और चीन के आपसी सम्बन्ध कभी सामान्य नहीं रहे किन्तु  वैश्वीकरण,उदारीकरण और बाजारीकरण  के अधुनातन दौर में भारत   की उभरती संभावनाओं से आक्रान्त होकर  ये दोनों वीटो धारक शक्तिशाली राष्ट्र भारत को एक विशाल बाज़ार के रूप में इस्तेमाल करते रहने की चाहत  तो रखते हैं किन्तु इसके   साथ-साथ    पाकिस्तान   स्थित    भारत विरोधी तत्वों  के बारे में मौन  रहते हैं . यदि उन्हें ओसामा-बिन-लादेन से या अल-कायदा से परेशानी थी या है तो वे आधी रात को बिन बुलाये मेहमान की तरह  ड्रोन हमलों से   पाकिस्तान  की संप्रभुता का चीर हरण करते हुए  उसके घर में घुसकर मार सकते हैं . यदि दाउद  या हाफिज सईद  भारत को बर्बाद करने के लिए पाकिस्तान की सरजमीं का इस्तेमाल कर रहे हैं और भारत उसके  प्रतिकार   का कोई कदम  उठाता है तो भारत को संयम वरतने की सलाह दी जाती है . यदि भारत कोई कठोर कदम  उठाता  है तो पाकिस्तान के पक्ष में अमेरिका और चीन दो-दो शक्तिशाली  राष्ट्र वीटो स्तेमाल करने को मौजूद हैं , जबकि भारत का सुख-दुःख में साथ देने  वाला एकमात्र मित्र राष्ट्र 'सोवियत संघ ' अब नहीं रहा . उसकी जगह जो पन्द्रह देशों का ढुलमुल फेडरेशन  है उसमें आज का  'रूस ' भारत की कोई खास मदद नहीं कर सकता  .
                   निसंदेह पश्चिमी देश भारत को एक खतरे के रूप में तो नहीं देखते किन्तु वे चीन के  विराट  भाग्योदय   से आक्रान्त हैं . चूँकि चीन की सैन्य शक्ति लगातार  बिकराल होती जा रही है और अमेरिका सहित तमाम गैर साम्यवादी पूँजीवादी  राष्ट्र चाहते हैं की भारत  बलि का बकरा बने याने चीन का  मुकबला करे . उधर चीन  के वर्तमान  नेतत्व  की समझ है की आधुनिक नव-उदारवादी दुनिया  के बाज़ार में  भारत उनका प्रमुख प्रतिद्वंदी  या प्रतिश्पर्धि है . लगता है कि  न केवल वैश्विक बाज़ार में अपितु  सीमाओं के विवाद पर  चीन ने भारत को घेरने  की  जो रणनीति बना   रखी है  उसमें पाकिस्तान उसका सबसे बड़ा 'मोहरा ' है . पाकिस्तान की  आज़ादी पसंद -अमनपसंद  आवाम को  भारत से सनातन शत्रुता  को मोह त्यागना होगा वरना भारत  के साथ 'सनातन संघर्ष ' में पाकिस्तान का असितत्व ही समाप्त हो जाएगा .  भारत  का  तो जितना बिगड़ना था सो बिगड़ लिया अब तो  पाकिस्तान की बारी है . उसे ' चीन के इस झांसे में नहीं आना चाहिए कि "दुश्मन का दुश्मन दोस्त हुआ करता है "
                                          निसंदेह भारत को चीन और पाकिस्तान के नापाक गठजोड़ से जूझना  पड़  रहा  है . भारत के नीति निर्माता  -केंद्र सरकार ,संसद ,सेनायें और 'जनता ' सजग हैं कि  देश को अनावश्यक युद्ध की विभीषिका से जितना संभव हो बचाया जाए . भारत में जिम्मेदार राजनीतिक पार्टियां और विपक्ष भी अपने पड़ोसी राष्ट्रों की काली करतूतों से वाकिफ है और संकट की अवस्था में सत्ता और विपक्ष तथा  पूरा भारत एक जुट मुकाबले के लिए तैयार है  भारत को अपनी सामरिक क्षमता और ' प्रथम आक्रमण न करने  के सिद्धांत ' पर पूरा यकीन है किन्तु देश में कुछ जज्वाती लोग हैं जो 'खून का बदला खून ' या १ ९ ७ १ की तरह भारत विजय के लिए लालायित हैं उन्हें सब्र  करना ही होगा क्योंकि इस दौर में बात सिर्फ तोप - तमंचे की नहीं  बात '  एटम  बम , हाइड्रोजन बम ,नापाम बम .   की भी इस दौर में फितरत है . भले ही चीन और पाकिस्तान को  इनके इस्तमाल से दुनिया रोक ले किन्तु 'आतंकवादियों ' को  कौन रोक सकता है . उन्हें रोकने का  उपाय  एक ही है  केवल 'अमन पसंद आवाम ' के सामूहिक प्रतिरोध से ही  उन्हें रोक जा सकता है .      
                    इन  नापाक  इरादों को भारत में  तब तक सफलता नहीं मिल सकती जब तक कि  उन्हें भारतीय सरजमीं से मदद न मिल जाए अर्थात    जब तक    भारत के ही  कुछ गैर जिम्मेदार -स्वार्थी  या लापरवाह तत्व पाकिस्तान रुपी  कुल्हाड़ी  के 'बैंट ' नहीं  बन   जाते  तब तक   पाकिस्तान के नापाक तत्व भारत का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते  .  कहावत है कि  साँप  इंसान को  डर  के कारण  डस  लेता है ,पाकिस्तान भी भारत से डरता है   और इसीलिये वह भारत को सदैव काटने को आतुर रहता है .
                                    कभी अफगानिस्तान  स्थित  भारतीय दूतावास पर पाक प्रशिक्षित तालिवानियों का  हमला, कभी  कारगिल पर हमला ,कभी पूंछ -राजोरी में भारतीय सीमाओं में घुसपेठ और  भारतीय नागरिकों या फौजियों की छिपकर जघन्य ह्त्या  ये तमाम  हमले एकतरफा हैं और  भारत के खिलाफ  पाकिस्तान की दुर्दांत सेना के   परोक्ष आक्रमण का महत्वपूर्ण  हिस्सा हैं . भारतीय रणनीतिकार , सेन्य  विशेष्ज्ञय और सेना    यह सब जानते हैं किन्तु  भारत सरकार  "युद्ध नहीं शान्ति चाहिए " के सिद्धान्त  का पालन करने को वचनबद्ध   है . क्योंकि  सीमित युद्ध की अवस्था में तो  भारत  किसी भी मोर्चे पर पाकिस्तान को  शिकस्त  दे सकता  है किन्तु  पाकिस्तान को मिल रहे अमेरिकी संरक्षण और चीनी प्रश्रय से मामला जटिल हो गया है . इसीलिये  भारत को फूंक -फूंक कर कदम बढाने होते हैं . इस स्थिति में भारत को पाकिस्तान  के जमुहुरियतपसंद  लोगों की संवेदनाओं का ध्यान भी रखना होता है क्योंकि समूचा पाकिस्तान पाप का घड़ा  नहीं  है . पाकिस्तान में  मुठ्ठी भर आतंकवादी और जंगखोर  अवश्य हैं किन्तु भले और नेक इंसानों की कमी वहाँ पर भी नहीं है .पाकिस्तान के  करोड़ों मजदूर -किसान और व्यापारी न तो  किसी से  युद्ध चाहते हैं और न वे आतंकवाद के  समर्थक  हैं वे हम भारतीयों जैसे ही सहिष्णु और 'धर्मभीरु' हैं किन्तु उन्हें पाकिस्तानी फौज की गुलामी से छुटकारा अभी तक  नहीं मिल पाया है .  खुदा  खेर करे …!
                  सभी पाकिस्तानी युद्धखोर हैं या आतंकवादी है यह  तो कोई भी नहीं  कहता . आम तौर  पर   भारत -पाकिस्तान की   जनता  का 'साझा इतिहास' और साझी विरासत है दोनों  मुल्कों  में अमनपसंद और जम्हूरियत पसंद लोगों का  ही बहुमत है . दोनों ही  मुल्कों में इंसानियत के  ,भाईचारे  के   और आर्थिक  मसलों  की  अन्योन्याश्रित आत्मनिर्भरता के पैरोकार मौजूद  हैं . फर्क सिर्फ इतना है कि  भारत में कोई भी, किसी  की   भी ,कभी भी, कहीं भी,   खुलकर आलोचना ,भर्त्सना ,निंदा या समीक्षा कर सकता है किन्तु पाकिस्तान  में  लोकतंत्र अभी सेना के बूटों तले  कराह रहा है , वहाँ  कोई भी पाकिस्तानी नागरिक  फौजी जनरलों   के खिलाफ , आतंकवादियों के खिलाफ , हाफिज सईद  के खिलाफ नहीं बोल सकता .   भारत के पक्ष में बोलने  बाले पाकिस्तानी को  ज़िंदा  नहीं  छोड़ा जाता . हम भारत के लोग बहुत सौभाग्य शाली है कि  हमारे देश में  कम से कम बोलने -लिखने और पढने  पर उतनी पाबंदी नहीं है जितनी पाकिस्तान में है . सीमाओं  पर भारतीय  जवानों की नृशंस ह्त्या पर   यदि भारत का रक्षा मंत्री  कहता है कि  'हत्यारे आतंकवादी थे' तो इस पर इतना शोर मचाने की आवश्यकता नहीं थी  क्योंकि यदि पाकिस्तानी फौज ने[ जैसा कि  बाद के बयान में रक्षा मंत्री ने कहा ] ही हमारे सेनिकों  की ह्त्या की है तो  उसमें गलत क्या है ? पाकिस्तानी फौज तो दुनिया की सबसे बड़ी आतंकवाद  की ही  जननी है जिसका बाप 'कट्टरवाद' है और 'फायनल डेस्टिनेशन ' महा विनाश है …!
                      
                        श्रीराम तिवारी 

गुरुवार, 1 अगस्त 2013

न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक अधिनायकवाद......

     भारत में लोकतांत्रिक और संवैधानिक अधिकारों की रक्षा का  दायित्व  यदि न्यायपालिका का है तो नीतियाँ  बनाने का  उत्तरदायित्व 'संसद' को ही है और संसद का  चुनाव देश की जनता करती है . यदि कोई कहीं खामी है  या सुधार की जरुरत है  तो यह देश की संसद  की जिम्मेदारी है .  संसद में कौन होगा कौन नहीं होगा  यह जनता तय करेगी . संसद में बेहतरीन ,ईमानदार ,देशभक्त और उर्जावान नेता हों यह जनता की जिम्मेदारी है .  राजनीति में वैचारिक बदलाव जनता की ओर से ही आना चाहिए . कोई  भी वेतन भोगी या स्वयम्भू सामाजिक कार्यकर्ता या धर्मध्वज - फिर  चाहे वो राष्ट्रपति हो या सुप्रीम कोर्ट का मुख्य नयायाधीश  हो या देश का प्रधानमंत्री हो या अन्ना हजारे बाबा रामदेव जैसे स्वनामधन्य  हों चाहे कोई खास समाज या समूह हो  - स्वयम के बलबूते नीतिगत निर्णय कोई भी  नहीं ले सकता . ये काम देश की जनता का है और वह 'संसद '  के मार्फ़त कर सकती है . हाँ  उल्लेखित विभूतियों  में से कोई भी पृथक-पृथक या सामूहिक रूप से , यदि कोई सन्देश या सुझाव देश की जनता को देते  हैं तो उसका  स्वागत किया जाना चाहिए .
                                   हम भारतीयों की वैसे तो ढेरों खूबियाँ हैं जिन्हें  देख -सुनकर बाहरी  दुनिया दांतों  तले अंगुलियाँ   दबा  लेती  है ,कि देखो  कितना  विचित्र देश है भारत .   दुनिया के अन्य देशों की जनता तो  लोकतंत्र के लिए संघर्ष कर रही है जब  की  भारत  की जनता   फिर किसी महापुरुष के अवतार  का इंतज़ार कर रही है. कि सातवें आसमान से कोई आयेगा और उनके दुखों-कष्टों का शमन करेगा . हालांकि   भारतीय प्रजातंत्र की खामियों को उजागर करने में न  केवल देश का मीडिया , न केवल  बाबा रामदेव ,न केवल  अन्ना हजारे ,  न केवल पूंजीवादी दक्षिणपंथी विपक्ष या  वामपंथ   बल्कि देश की न्याय पालिका भी  परोक्षत: आंशिक रूप से   निरंतर सक्रिय है.लेकिन  जनता के हिस्से का काम जनता को भी करना होगा। केवल तमाशबीन होना लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण नहीं हैं .    
                                पंडित  नेहरु के नेतत्व में जब भारत ने दुनिया को गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत दिया तो न केवल तत्कालीन दोनों  महाशक्तियों -सोवियत  यूनियन और अमेरिका अपितु तीसरी दुनिया के अधिकांस राष्ट्रों में भारत को  सम्मान की नजर से देखा जाता था . भारत  की  न्यायपालिका का तब भी दुनिया में  डंका  बजा करता था .  इंदिरा जी जैसी ताकतवर नेता का भी चुनाव रद्द कर सकने की क्षमता उस दौर   की  न्याय पालिका में विद्द्य्मान थी .   हालाँकि तब भारत घोर दरिद्रता और भुखमरी  से जूझ रहा था . आपातकाल में इंदिरा जी की डिक्टेटर शिप में  भारत ने भले ही   कुछ सामरिक बढ़त हासिल  की हो ,एटम बम बना लिया हो ,  या हरित-श्वेत क्रांति के बीज -वपन कर लिए हों, कुछ तात्कालिक अनुशाशन भी  सीख लिया हो   किन्तु  'भारतीय संविधान ' को  ताक पर  रख दिए  जाने से,न्याय पालिका  समेत लोकतंत्र  चारों स्तंभों  को पंगु बना देने से  ये तमाम खूबियाँ गर्त में चली गईं और इसके उलटे   दुनिया  भर के प्रजातंत्र वादियों ने हमें 'दूसरी गुलामी' की हालत में  देखकर  हिकारत से   नाक भौं   सिकोडी थी .   इससे पुर्व भारत के अलावा  हमारे सभी पड़ोसी -पाकिस्तान,बांग्ला देश, नेपाल ,श्रीलंका और म्यांमार  में तानाशाही का ही   बोलबाला   था .  दुनिया ने कहा - भारत भी तानाशाही  की  मांद में धस गया .   अंग्रेजों के जुमले उछलने लगे थे कि  ये भारत-पाकिस्तान  जैसे बर्बर और नालायक देश  तो गुलामी के ही लायक है. ये प्रजातंत्र का मतलब क्या जाने . इन देशों की आवाम को कोड़े खाना ही पसंद है . इन्हें तो अंग्रेज ही काबू कर सकते हैं . बगैरह ।बगैरह …. !
                                        तब देश की जागरूक जनता और विपक्ष ने  इस  नकारात्मक  प्रतिक्रिया से प्रेरित होकर जय प्रकश नारायणके नेतत्व में नारा दिया  था "सिंहासन  खाली  करो … कि जनता आती   है …  और अनेकों  कुर्बानियों के परिणाम स्वरूप भारत में प्रजातंत्र की पुन : वापिसी हुई थी . १ ९ ७ ७  में 'जनता पार्टी ' की सरकार बनी थी  .  भले ही वो 'दोहरी सदस्यता ' का शिकार हो गई या खंड-खंड होकर बिखर गई किन्तु इसमें कोई शक नहीं  कि इस 'मिनी क्रांति  के बाद भारत की  जनता को प्रजातंत्र की आदत  सी  हो गई थी .   गुमान हो चला था कि अब भारत में कोई भी तुर्रम खां प्रधानमंत्री या राष्ट्र पति बन जाए  किन्तु वो संविधान के मूल सिद्धांतों से छेड़ -छाड़ करने की हिमाकत नहीं करेगा .  लेकिन संविधान से छेड़छाड़  का ख़तरा  यदि विधि-निषेध के साथ   राजनीतिज्ञों  के अलावा  उसके रक्षकों से ही हो तो  मामला गंभीर हो  जाता  है . इस सन्दर्भ में सार्थक जन-हस्तक्षेप बहुत जरुरी है .
                                                               भारत में  इन दिनों 'न्यायिक सक्रियतावाद ' की बहुत चर्चा हो रही है  . आये दिन इस या उस बहाने कभी कार्य पालिका  ,कभी व्यवस्थापिका और कभी -कभी तो  विधायिका पर भी विभिन्न न्यायालयों के आक्षेपपूर्ण  'फैसले ' दनादन    आते  जा रहे हैं .  कुछ  प्रबुद्ध जन के अलावा अधिकांस    मीडिया - विशेषग्य  इन प्रतिगामी  निर्णयों पर खुश होकर  तालियाँ पीट रहे हैं.   यह  देश का दुर्भाग्य है कि जिस मुद्दे पर गम्भीर बहस या चिंतन-मनन की जरुरत है ,  संविधान  के स्थापित मूल्यों  को  ध्वस्त होने  से बचाने की जरुरत है , उस मुद्दे पर  अपनी संवैधानिक राय  प्रकट करने के बजाय  केवल  अज्ञानता या  हर्ष प्रकट करते रहते हैं . लोग समझते हैं कि इन फैसलों से भ्रष्ट्र  राजनीतिज्ञों पर लगाम  लगेगी !  यह एक मृगमारीचिका के सिवाय कुछ नहीं है .  वे यह   भूल जाते हैं  कि  पूँजीवादी प्रजातंत्र में  यह आम बीमारी है .  इस  व्यवस्था में  न्याय की प्रवृत्ति यदि आद्र्शोंमुखी है तो  उसके पास यह विकल्प है कि पहले वो अपना' घर '  ठीक करके दिखाए .  भारतीय न्याय पालिका को  विधायिका में अतिक्रमण के बजाय पहले   देश  के' न्याय मंदिरों' में हो रहे अनाचार पर सख्ती  से रोक लगाना चाहिए .
                     मुंबई के 'डांसबार ' प्रकरण पर महाराष्ट्र सरकार और नयायपालिका के मध्य उत्पन्न गतिरोध पर   मान मुख्य न्याधीश[निवृतमान ] अल्तमस कबीर  महोदय की ये स्थापना की 'लोगों  के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना न्यायपालिका का काम है …. यदि कोई अपना कार्य ठीक ढंग से नहीं कर रहा है  तो हमारे [न्यायपालिका के पास ]  पास  विशेषाधिकार है कि हम उसे उसका काम करने को कहें '' …  इत्यादि में  न्यायिक क्षेत्र की   सदिच्छा भले ही निहित हो  किन्तु यह स्मरण रखना चहिये की किसी व्यक्ति विशेष या खास समूह के हितों की हिफाहत में देश की गर्दन तो नहीं  कटने जा रही है  ! संविधान के प्रदत्त प्रावधानों में तो देश की संसद ही सर्वोच्च है और उसे ही यह देखना है कि देश में कौन ठीक से काम नहीं कर रहा . संसद को ये अधिकार भी  है कि  न्याय पालिका के काम काज पर भी  नजर रखे  . संसद  ही जनता के  प्रति  उत्तरदायी है  क्योंकि उसे जनता चुनती है . न्याय पालिका को संसद का  ,विधायिका    का  अतिक्रमण करना और जनता द्वारा यह सब  करते हुए देखना और तालियाँ बजाकर खुश होना विशुद्ध नादानी है . यह  प्रजातान्त्रिक चेतना के  अभाव में नितांत 'न्यायिक -अधिनायकवादी ' प्रवृत्ति है
                            विगत दिनों इलाहाबाद  हाई  कोर्ट ने भी एक दूरगामी परिणाम मूलक फैसला दिया है .  राजनैतिक उद्देश्य से  जातीय सम्मेलन बुलाने ,रैली करने और मीटिंग करने पर पाबंदी  लगा ने का हुक्म ही दे दिया .   क्या यह उसके क्षेत्राधिकार में   आता हैं ?  यदि  हाँ  तो ६ ५ साल से इस पर  प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगाया  गया . जब काशीराम ,मायावती ,लालू ,मुलायम नीतीश , कर्पूरी ठाकुर,किरोडीलाल वैसला जैसे नेता   आजीवन जातिवाद की राजनीती  करते रहे तब क्यों नहीं रोक गया ?  अकाली दल ,शिवसेना ,रिपब्लिकन पार्टी खोब्रागडे और गवई या दुर्मुक ,अन्ना द्रुमुक  इत्यादि  का तो आधार ही जाति है . मुसलिम ईसाई जमातों के विभिन्न सम्मेलनों  में क्या जातिवाद नहीं होता ? उन पर कभी अंगुली क्यों नहीं उठाई गई . अब जब  ब्राह्मण- ठाकुरों- बनियों के सम्मलेन होने लगे तो इतराज क्यों ?   इलाहाबाद हाई कोर्ट के  इस  फैसले  को यदि मानते हैं तो  देश में कोहराम नहीं मच जाएगा ? यदि नहीं मानते तो 'अवमानना' नहीं  होगी क्या  ?     इसी तरह   सुप्रीम कोर्ट ने भी  अदालत से सजा पाए सांसदों -विधायकों  की संसदीय पात्रता से   सम्बंधित संविधान की  धारा  ८ {४}  को निरस्त कर, पुनर्परिभाषित कर , न केवल  अपीलीय  समयावधि को संशयात्मक बना दिया  अपितु  संविधान में उल्लेखित और विधि निर्मात्री शक्तियों  की अधिष्ठात्री सर्वोच्च विधि निर्मात्री संस्था  याने 'संसद'  को दुनिया के सामने लगभग  'अपराधियों का गढ़ ' ही  सिद्ध  कर दिया  है . मानाकि संसद में एक-तिहाई  खालिस अपराधी ही हैं.  अब यदि माननीय उच्चतम न्यायालय का फैसला मानते हैं तो ये गठबंधन  सरकार ही चली जायेगी . विपक्ष में भी दूध के धुले नहीं हैं  अतएव लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गई कोई 'लोकप्रिय सरकार' का गठन संभव ही नहीं है . तब क्या देश में अराजकता नहीं फ़ैल जायेगी ? क्या फासीवाद के खतरों को दरवाजा खोलने जैसा प्रयास नहीं है ये ? और यदि न्यायालय के फैसले का सम्मान नहीं करते तो वो 'अवमानना' भी तो  राष्ट्रीय संकट के रूप में त्रासद हो सकती है .
                                   निसंदेह  न्यायधीशों  की  मंशा  और उद्देश्य देशभक्तिपूर्ण और पवित्र हो सकते हैं किन्तु यह  'अंग्रेजों के ज़माने के जेलर ' वाली  आदेशात्मक  प्रवृत्ति न केवल लोकतंत्र के लिए बल्कि उसके अन्य स्तंभों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो सकती है .  क्योंकि  संविधान में तथाकथित  छेड़-छाड़ यहाँ पर वही कर रहे हैं जिन पर उसकी सुरक्षा का दारोमदार है .  माननीय न्याय् धीशों  की    सदिच्क्षा से किसी को इनकार नहीं है   यह सच  है  कि राजनीती में अपराधीकरण की अब इन्तहा हो चुकी है , इस पर  अंकुश    लगना    ही    चाहिए  किन्तु'' संविधान के रक्षक याने '' याने  सर्वोच्च न्यायालय को इस  सन्दर्भ में अपने  संवैधानिक "परामर्श क्षेत्राधिकार " का प्रयोग करते हुए संसद और विधायिका से तत्सम्बन्धी  विधेयक लाने को कहना चाहिए था .जन प्रतिनिधत्व क़ानून में खामी खोजने के बजाय या अपने क्षेत्राधिकार से इतर अतिक्रमण करने से  सभी को बचना  चाहिए   था  .  संविधान के प्रावधानों  के अनुरूप   आचरण के लिए  राष्ट्रपति को, संसद को और कार्यपालिका को सलाह देने का काम अवश्य ही सुप्रीम कोर्ट  का ही  है और यह  काम बखूबी हो भी  रहा है किन्तु तात्कालिक रिजल्ट के लिए उकताहट में संविधान रुपी  मुर्गी को   हलाल करने की कोई जरुरत नहीं है .इस संदर्भ में यह भी स्मरणीय हैं  की न्याय के मंदिरों  को भी भ्रष्टाचार के  अपावन आचरण से मुक्ति दिलाने का पुनीत कार्य  स्वयम  न्यायपालिका को भी  साथ-साथ करना  चाहिए। लोकतंत्र  के चारों स्तम्भ एक साथ मजबूत होंगे तो ही देश और देश की जनता का कल्याण संभव होगा । अकेले कार्यपालिका या विधायिका को डपटने से क्या होगा?  देश की जनता का मार्गदर्शन  किया जाएगा तो वह स्वागतयोग्य है .
                                                                          देश की  सवा सौ करोड़ आबादी के भाग्य का   फैसला  दो-चार  वेतन भोगी लोग  नहीं कर सकते  भले ही वे कितने ही ईमानदार और विद्द्वान न्यायधीश ही  क्यों न  हों . लोकतंत्र में तो  देश की जनता ही प्रकारांतर से 'संसद' के रूप में  अपने हित संरक्षण के लिए उत्तरदायी है . संसद का  चुनाव लिखत-पढ़त  में तो  जनता ही  करती है और जब किसी के पाप का घड़ा ज्यादा भर जाता है तो उसे भी जागरूक जनता  निपटा भी देती है. देश के सामने सबसे महत्वपूर्ण कार्य  आज यही है कि  लोगों को जाति ,धर्म और क्षेत्रीयता से परे राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में शोषण विहीन भारत के निर्माण की ताकतों को एकजुट किया जाए . लोग केवल अद्धिकारों के  लिए ही  नहीं बल्कि अपने हिस्से की जिम्मेदारी को भी  जापानियों चीनियों  के बराबर न सही कम से कम पाकिस्तानियों के समकक्ष तो स्थापित करने के लिए जागरूक हों  !     प्राय : देखा गया है कि  भारतीय  जनता   के कुछ   असंतुष्ट   हिस्से-  कभी नक्सलवाद के बहाने , कभी साम्प्रदायिक नजरिये के बहाने , कभी अपने काल्पनिक स्वर्णिम सामन्ती अतीत के बहाने ' कभी आरक्षण के बहाने, कभी अलग राज्य की मांग के बहाने और कभी देश की संपदा में लूट की हिस्सेदारी के बहाने -भारत के संविधान '  पर  हल्ला बोलते रहते हैं  ऐसें  तत्व  स्वयम तो लोकतंत्र की मुख्य  धारा से दूर  हैं ही  किन्तु जब संविधान पर आक्रमण होता है तो ये बड़े खुश होते हैं .  जैसे कोई मंदबुद्धि अपने ही घर को जलता  हुआ देखकर खुश होता है .  प्राय : देखा गया है कि सुप्रीम कोर्ट ,हाई कोर्ट या कोई भी कोर्ट  जब  कभी  कोई ऐंसा जजमेंट  देता  है  जो मुख्य धारा के  राजनीतिज्ञों ,राजनैतिक दलों  या लोकतंत्र के किसी गैर न्यायिक स्तम्भ को  खास तौर से सरकार  या  कार्यपालिका को परेशानी में डालने वाला हो तो यह 'असामाजिक वर्ग' वैसे ही उमंग में  आकर ख़ुशी  मनाता  है जैसे किसी  फ़िल्मी हीरो द्वारा खलनायक की पिटाई से कोई  दर्शक खुश होता है … ! वे व्यवस्था परिवर्तन के लिए किसी भगतसिंह के जन्म लेने का इंतज़ार करते हैं और चाहते  हैं की वो पैदा तो हो किन्तु  उनके घर में नहीं पड़ोसी के घर में जन्म ले ….


           श्रीराम तिवारी