शुक्रवार, 27 जनवरी 2012

जीवन के अनमोल सूत्र -२

[१] बड़ा आदमी होना अच्छी बात है लेकिन अच्छा आदमी होना "बड़ी"बात है.
[२]जिन्दगी में टंटे-झंटे बहुत हैं,तनाव और कुंठा बहुत है,अवरोध और आकांक्षाएं बहुत है फिर भी जिनके चेहरे पर सौम्यता और ओंठों पर मुस्कान है वे ही जीवन का अर्थ जान पाते है.
[३]यदि लोग सिर्फ जरुरत पढने पर आपको याद करते है तो इसमें बुरा क्या है?यह तो आपके लिए आत्म गौरव जैसा है ,क्योंकि आप उस मोमवत्ती की तरह  तब याद किये जाते हैं जब किसी की जिन्दगी का उजास  नदारत होता है.
[४]कहते हैं कि जब कोई किसी को याद करता है तो  एक तारा टूटकर गिरता है  और इस तरह सारा आसमान एक दिन खाली हो जाना चाहिए किन्तु खगोलीय वेत्ता तो नित नए तारों की संख्या बढ़ाते जा रहे हैं.
[५]प्र्तेयेक क्षण ,सेकंड,मिनिट,घंटा,दिन और रात अति महत्व के हैं सुबह हमको आशाओं से अभिप्रेरित करती है,प्र्तेयेक दोपहर  से हम विश्वशनीयता  का सबक सीख सकते हैं ,प्रत्येक सुहानी शाम से हमें प्रेम  की प्रेरणा मिलती है प्रत्येक रात्रि से हमें विश्राम का सहज सन्देश मिल जाया करता है.
               संकलन: श्रीराम तिवारी 

बुधवार, 25 जनवरी 2012

गणतंत्र दिवस पर शक्ति प्रदर्शन का औचित्य क्या है?

   आजादी के  लगभग तीन साल बाद भारत राष्ट्र के तत्कालीन सुविग्य्जनों और कानूनविदों ने भारतीय संविधान को अंगीकृत करते हुए उसकी प्रस्तावना में कहा था "हम भारत के लोग एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक ,धर्मनिरपेक्ष,समाजवादी गणतंत्र स्थापित करने; आर्थिक,राजनैतिक,सामाजिक ,न्याय,विचार-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता औरअवसरों की  समानता स्थापित करने के निमित्त ........के लिए दिनांक २६ जनवरी .......को एतद द्वारा अंगीकृत  और आत्मार्पित करते हैं" यह देश के तत्कालीन करोड़ों निरक्षरों के लिए तब भी अबूझ था और आज़ादी के ६५ साल बाद देश की अधिसंख्य जनता{भले ही वे साक्षर ही  क्यों न हों} को आज भी  इसकी   कोई खास  अनुगूंज महसूस नहीं हो सकी है.तत्कालीन समीक्षकों ने तो यहाँ तक भविष्य वाणी कर डाली थी कि ये तो वकीलों के चोंचले हैं ;आम जनता के पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला.पवित्र संविधान के लागु होने को ६२ वर्ष हो चुके हैं किन्तु कोई भी किसी भी दिशा में संतुष्ट नहीं है.परिणाम स्वरूप  विप्लवी उथल-पुथल जारी है.
        ऐंसे कितने नर-नारी होंगे जो ये जानते हैं कि संविधान हमें क्या-क्या देता है और हमसे क्या-क्या माँगता है?हम भारत के जन-गणों ने संविधान की उक्त प्रस्तावना को अपनाया जिसमें वे तमाम सूत्र मौजूद हैं जो देश के विकाश हेतु कारगर हो सकते थे.हासिये पर खड़े प्रत्येक भारतीय को विकाश की मुख्य धारा का पयपान कराया जा सकता किन्तु शोषित जनों  की   वर्तमान बदरंग तस्वीर  को अनदेखा करकेहर  २६ जनवरी के उत्सवी माहौल में सचाई को छुपाया जाता रहा है.
                            सामंतयुग में    जब लोकतंत्र नहीं था तब शायद राजे-रजवाड़े  अश्त्र-शश्त्र  और रणकौशल का प्रदर्शन किया करते थे.यत्र-तत्र शक्ति प्रदर्शन और जुलुस इत्यादि के माध्यम से अपनी रियासत कि जनता को डराकर  रखते थे.आजादी  के बाद अब हम किसे डराना चाहते हैं?कि हर गणतंत्र  दिवस पर न केवल सुसज्जित  सैन्यबलों  की परेड बल्कि तमाम अश्त्र-शस्त्र का जुलुस निकालते हैं.हमारी ताकत और हथियारों की क्षमता को हम जो दुनिया को दिखाते हैं वो ऐंसा ही है जैसे घर फूंक कर तापना. हमारी सेनाओं के बारे में,हमारी अश्त्र-शस्त्र क्षमताओं के बारे मे सूचनाएँ  एकत्रित करने में  दुश्मन राष्ट्रों के जासूसों को कोई खास मशक्कत नहीं करनी पड़ती क्योंकि हम तो खुद सब कुछ बता देने को उतावले हैं.जब दुनिया जानती है कि हम युद्ध कला में बेमिसाल हैं,हमने १९६५,१९७१ और कारगिल युद्ध में सावित कर दिया है कि भारत अजेय है.
           गणतंत्र के रोज शक्ति प्रदर्शन करने के बजाय हमें अपने गणतांत्रिक मूल्यों,तौर-तरीकों,संवैधानिक नीति निर्देशक सिद्धांतों की मीमांसा करनी चाहिए.सैन्य बलों,आयुध भंडारों को तो गुप्त ही रखना चाहिए ताकि शत्रुता रखने बाले देशों को तदनुरूप तैयारी का मौका नहीं मिले.हर साल करोड़ों रूपये खर्च कर  निरर्थक सैन्यपथ संचलन  प्रयोजन करने से संविधान प्रदत्त अधिकारों या तदनुरूप कर्तब्यों के प्रति जनता -जनार्दन की आस्था नहीं बढ़ेगी.मुल्क और आवाम की तरक्की के लिए कानून में आस्था ,कर्तव्य परायणता,राष्ट्र निष्ठां बहुत जरुरी है.इन मूल्यों की स्थापना के लिए सर्व साधारण को संविधान से जोड़ना लाजमी होगा.सिर्फ वकीलों ,पैसे वालों या रुत्वे वालों की  पहुँच में जब तक संविधान सीमित रहेगा तब तक आम जनता का बड़ा हिस्सा आजादी के लिए लालायित   रहेगा.
                                                            श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 24 जनवरी 2012

जीवन के अनमोल सूत्र भाग -एक

[१]जो लोग दिल से भले होते हैं  अक्सर उनकी वाणी में उजड्डता और फूहड़पन झलकता है ये लोग बातों की मृगतृष्णा के बजाय   वक्त आने पर ऐसे मनुष्य मानव मात्र के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार  रहते हैं.
[२] सपनों को आँखों में न बसाइए,क्योंकि आँखों से बहने वाले आंसू उन सपनों को कभी भी बहाकर ले जा सकते हैं.सपनों को ह्रदय में स्थान दीजिये ताकि जब तक रहेगी जिन्दगी वो सपनों को पूरा करने में प्रेरणा स्त्रोत अवश्य बना रहेगा.
[3]  सब इंसान एक जैसे हैं ;फर्क सिर्फ इतना है की कुछ जख्म देते हैं,कुछ जख्म भरते हैं.हम सफ़र सब हैं फर्क सिर्फ इतना है किकुछ साथ देते हैं ;कुछ छोड़ दिया करते हैं.प्यार मोहब्बत सब करते हैं,फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ जान दे  देते हैं; कुछ जान ले  लेते हैं.दोस्ती,  मित्रता ,यारी सब करते हैं फर्क सिर्फ इतना है कि कुछ तो निभाते रहते हैं,कुछ आजमाते रहते हैं.
[४] कोई भी इस जहां में पूर्ण और विशुद्ध नहीं है,यदि तुम इसलिए किसी आदमी  से दूर रहते हो कि वह  बुरा है ,तो तुम अकेले पड़ जाओगे . तुम्हारी भलाई इसी में है कि छिदान्वेशन से दूर रहो और सभी को खुद और खुदा के समान समझकर प्यार करो.
[५]  यदि आप मिलनसार और खुश मिज़ाज  किस्म के इंसान हैं और किसी को कुछ देना चाहते हैं तो उसे  सबसे अनमोल चीज दीजिये.वह अनमोल वस्तु है वक्त;जो आपके  पास ताजिंदगी है और किसी को दो या न दो खर्च तो अपने आप भी होता जाता है.यह आपकी  ओर से आपकी जिन्दगी का बेहतरीन तोहफा आपके निजानंद में योगदान अवश्य करेगा.
                                                                       श्रीराम तिवारी 

गुरुवार, 19 जनवरी 2012

खाद्यान्न महंगाई पर देश में सन्नाटा क्यों?

  साल-२०१२  का आगमन भारत के परिद्रश्य में  हर नए साल की तरह ही हुआ,किन्तु आर्थिक मोर्चे पर एक विचित्र बदलाव आया जो पढने -सुनने में सुखद और फलितार्थ में बड़ा ही निराशाजनक मालूम होता है.सरकारी आंकड़ों के मुताबिक विगत २४ दिसंबर-२०११ को समाप्त हुए सप्ताह में खाद्द्य मुद्रा स्फीति दर -३.३६ फीसदी पर आ चुकी थी.उससे  ठीक एक साल पहले यानि २४ दिसंबर-२०१० को यह आंकड़ा २०.८४ फीसदीथा.अमेरिका ,फ़्रांस,ब्रिटेन,यूरोप, और जापान आदि देशों में खाद्द्य मुद्रा स्फीति का आकलन उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर किया जाता है ,जबकि भारत में यह आकलन थोक मूल्य सूचकांक पर निर्धारित किया जाता है.वास्तव में अर्थव्यवस्था से सम्बंधित इस महत्वपूर्ण खबर पर जनता कीठोस प्रतिक्रिया का न होना गंभीर चिंता का विषय है.
                         इन दिनों 'भृष्टाचार'उन्मूलन ,पूंजी निवेश,आधारभूत अधोसंरचना और लोकतंत्र के सभी अंगों की  अपनी-अपनी स्वायत भूमिका को लेकर मीडिया मेंकाफी चर्चा है किन्तु महंगाई से जुडी इस सबसे महत्वपूर्ण खबर  कि-खाद्द्य मुद्रा स्फीति दर गिरते-गिरते न केवल शून्य पर बल्कि ऋणात्मक स्तर तक जा गिरी है;कोई खास चर्चा इस सन्दर्भ में किसी भी सक्रीय और कारगर फोरम में नहीं हो पा रही है.खाद्द्य मुद्रास्फीति दर की गिरावट से मुझे एकबारगी खुशफहमी हुई कि चलो अब कमसे कम खाद्द्य वस्तुएं तो सस्ती मिलेंगी!लेकिन जब इस बाबत अर्थ शाश्त्रियों के बजाय बाज़ार की हकीकत से रूबरू हुए तो मालूम हुआ कि आम आदमी के लिए आसमान छूती महंगाई से बहरहाल इस पूंजीवादी अर्थ व्यवस्था में कोई राहत मिलने वाली नहीं है.
        जिस वक्त खून को जमा देने वाली कड़ाके की ठण्ड में  कोई वेसहारा,निर्धन,बीमार,अपाहिज और लाचार अपने  अस्तित्व के लिए संघर्षरत होता है ;ठीक उसी कड़ाके की ठण्ड में किसी वातानुकूलित महंगे होटल में पूँजी के लुटेरों और भृष्टाचार की कमाई के अलंबरदारों की औलादें क्या कर रही होतीं है ?सूरा -सुन्दरी और अधुनातन भौतिक सुख संसाधनों पर गुलछर्रे उड़ाने वालों को महंगाई के इंडेक्स की फ़िक्र क्यों होने लगी?आटे-दाल का भाव जानने की जिन्हें कभी जरुरत ही न पड़े ऐंसे अधम मनुज यदि राज्य सत्ता की द्योंडी पर मथ्था टेकते हों तो उन्हें बर्दास्त करना महा पाप है. इस मानव निर्मित दुरावस्था और अमानवीय असमानता के खिलाफ अंतहीन संघर्ष का सिलसिला बहुत पुराना है,किन्तु आधुनिकतम तकनीकी विकाश,लोकतंत्रात्मक व्यवस्था,स्वाधीनता के इस दौर में- जबकि संचार एवं सूचना प्रोद्द्योगिकी ने न केवल  मानव मात्र की व्यष्टि चेतना को जागृत किया है अपितु कतिपय तानाशाही से आक्रान्त राष्ट्रों की जनता को आंदोलित भी किया है -स्वनामधन्य स्वयम्भू तथाकथित योगियों,बाबाओं ,समाज सुधारकों और जन-नायकों की विमूढ़ता धिकार योग्य है.ये 'वतरस के लालची'और ढपोरशंखी गैर जिम्मेदार लोग आवाम को उस  सरकार के खिलाफ खड़ा करने के लिए कटिबद्ध  हैं जिसका प्रधानमंत्री न तो सत्ता का लालची है और न ही भृष्टाचार में स्वयम लिप्त है.ये बात अलहदा सही है कि भारत राष्ट्र की आजादी के तत्काल बाद से  ही सर्व व्यापी भृष्टाचार  का वैक्टीरिया इस देश को खोखला करने में जुट गया थाऔर उसने पूरे तंत्र को अपनी चपेट में लिया था..वर्तमान सरकार कोतो  विरासत में एक महाभ्रुष्ट व्यवस्था मिली थी.आज जो लोग अचानक भृष्टाचार के नाम पर राजनैतिक रोटियाँ सेकने की कोशिश कर रहे है उनसे मेरा अनुरोध है कि वे वर्तमान सरकार की सबसे बड़ी और भयानक गलती के खिलाफ आवाज बुलंद करें. वर्तमान सरकार का सबसे बड़ा अपराध है गलत आर्थिक नीति.आज भले ही भारत भर के गोदाम खाद्यान्न से ठसाठस भरे है किन्तु देश के २० करोड़  निर्धन -नंगे-भूंखों  सर्वहारा जन अभी भी बंचित है.देश खाद्यान्न में कमोवेश वैश्विक स्थिति के सापेक्ष बेहतर स्थिति में है इसके लिए देश के किसानों और सरकार दोनों का शुक्रिया किन्तु जब सरकार की तथाकथित उदारीकरण ,भूमंडलीकरण की नीतियाँ वांग दे रही हों तो दीगर मुल्कों द्वारा भारत के खादायान्न भंडारों पर उनकी कुद्रष्टि होना स्वाभाविक है.परिणाम स्वरूप खाद्यान्न निरंतर महंगा होकर खुदरा बाज़ार में आम जनता तक पहुँचता है.
          जिनकी क्रय शक्ति गाँव में २० और शहर में २६ रुपया रोज़ हो उनका  बाज़ार की ताकतों से मुकाबला कैसा?इसीलिये निरंतर बड़ी तेजी से गरीब वर्ग भुखमरी के  गर्त में धकेला जा रहा है. ये बात सही है कि दुनिया भर में बढ़ रही अनाज की कीमतों के लिए एक ओर कतिपय मुल्कों में जनसंख्या विस्फोट और दूसरी ओर मासाहार ,जैव ईधन,सट्टेबाजी तथा उत्पादन में कमी इत्यादि को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है ;किन्तु भारत में लगभग हर आवश्यक खाद्यान्न के रिकार्ड उत्पादन के वावजूद,खाद्यान्न के इंडेक्स में गिरावट के वावजूद खुदरा बाज़ार में चीजों के दाम नहीं घटाए जाने  पर आम जनता की चुप्पी और विपक्ष का इस मुद्दे पर आंदोलित नहीं होना किस बात को इंगित करता है?
   भृष्टाचार ,कालाधन,लोकपाल ,आरक्षण तथा विदेशी पूँजी विनिवेश जैसे मुद्दों पर तब तक कोई कारगर सफलता  नहीं मिल सकेगी जब तक देश की एक तिहाई आबादी को कम से कम एक जून का भोजन नसीब नहीं हो जाता.सत्ता पक्ष और प्रमुख विपक्ष के हाथ से जन सरोकारों की लगाम छूट चुकी है.महंगाई का घोडा वेलगाम  हो चूका है ,सभी उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों पर सरकार का कोई नियंत्रण अब नहीं रहा.सब कुछ बाज़ार के हवाले और बाज़ार के रहमोकरम पर छोड़ दिया गया है.जनता के प्रति कोई जबाब देही नहीं रही.सवाल उठाना चाहिए कि जब सब कुछ बाज़ार को तय करना है तो सरकार के होने का क्या मतलब है?यह सवाल उनसे जो सत्ता में हैं ,यह सवाल उनसे भी जो सत्ता में आने के लिए बेताब है और राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों में आम जनता के  वोट  के याचक हैं ; जो गैर राजनीतिक बिसात पर शुद्ध राजनीती के तलबगार हैं उनसे भी यह सवाल किया जाना चाहिए कि मुनाफाखोरों,सटोरियों ,मिलावातियों,जमाखोरों से उनका ऐंसा क्या रिश्ता है कि उनके खिलाफ एक शब्द नहीं निकलता ....
                                                            श्रीराम तिवारी
     
                    

शनिवार, 14 जनवरी 2012

धरती का चीत्कार सुनो!

     ओपेक देशों की महती कृपा से कच्चे तेल[पेट्रोलियम]की कीमतों में  निरंतर बृद्धि होती आई है.विकाशशील देशों की जरूरतों के मद्देनजर उनके  विदेशी मुद्रा भण्डारका अधिकांस भाग इस मद में विलीन होता जाता है.आधुनिक वैज्ञानिक एवं तकनीकि विकाश के लिए अत्यावश्यक उर्जा के रूप में स्थापित पेट्रोलियम उत्पादों की मांग लगातार बढ़ रही है.विद्दुत उत्पादन,दूर संचार उपकरण सञ्चालन,रेल ,बस,कार,स्कूटर,हवाई जहाज,पनदुब्बियाँ और निर्माण के प्रत्येक उपकरण से लेकर अन्तरिक्ष में मानव की दखलंदाजी तलक हर एक उपक्रम के लिए ईधन चाहिए.इसकी आपूर्ति के वैश्विक श्त्रोत शने-शने छीजते जा रहे हैं.जिन देशों के पास प्रचुर मात्रा में पेट्रोलियम उपलब्ध था ,उनके भण्डार भी अब समाप्ति की ओर हैं.जिनके पास नहीं था या न्यून मात्रा में ही था वे अपनी सकल राष्ट्रीय बचतों का एक बड़ा हिस्सा इस मद में खर्च करते रहने को मजबूर थे.वैकल्पिक उर्जा के श्त्रोत खोजने में लगे वैज्ञानिकों और पर्यावरण चिंतकों ने सौर उर्जा  का महत्व प्रतिपादित किया है.विगत शताब्दी के अंतिम ५० सालों में खनिज तेल समेत तमाम प्राकृतिक संसाधनों का जितना दोहन किया गया वह  मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास के  सकल योगसे  भी अधिकतर है.इस शताब्दी के प्रथम दशक में जितना दोहन किया गया वह उससे भी ज्यादा है.आइन्दा इस क्षेत्र में  मांग की गति तीव्रतर होती जायेगी और उत्पादन संसाधन  खाली होते चले जायेंगे.तब स्थिति भयावह होगी , खनिज तेल ,कोयले और अन्य खनिजों के निरंतर महंगे होते जाने से कृषि क्षेत्र में भी महंगे संसाधन होना स्वाभाविक है और परिणामस्वरूप महंगाई अपने अकल्पनीय चरम पर होगी.
                                              मानव सभ्यता के १० हज़ार सालों में  भी  मानव ने  प्राकृतिक संसाधनों की उतनी दुर्गति नहीं की जितनी विगत १०० सालों में कर डाली.वैज्ञानिक उन्नति और भौतिक सभ्यता के विकाश क्रम में उपनिवेशवादी राष्ट्रों और हिंसक हमलावर जातियों ने जहां एक ओर स्व-राष्ट्रों के प्राकृतिक संसाधनों को निचोड़ डाला वहीँ दूसरी ओर भारत ,अफ्रीका,लातीनी अमेरिका  जैसे प्राकृतिक संपदा से सम्पन्न राष्ट्रों की भी दुर्गति कर डाली.धरती पर के हरे भरे जंगल के जंगल काटकर जहां देशी राजे रजवाड़ों ने अपनी अयाशी के अनगिनत ठिकाने बनाये वहीँ विदेशी आक्रान्ताओं ने  पर राष्ट्रों को अपनी हवस का शिकार बनाया.लन्दन,मानचेस्टर में कई पुराने भवनों में जो शीशम और सागौन की लकड़ी लगी है वो भारत और दक्षिण अफ्रीका की बर्बादी का प्रतीक है.अब भूमंडलीकरण और उदारीकरण के बहाने जमीन के नीचे जो कुछ भी बचा है उसे हथियाने के उपक्रम जारी हैं.यह दुखद त्रासदी है कि सत्य अहिंसा और करुणा के अलमबरदार तब भी कुलहाडी के बैंट बने थे अब भी बन रहे हैं.शायद गुलाम राष्ट्रों और समाजों की इस मानसिकता में जीने के लिए हम अभिशप्त हैं.
        माना की विज्ञान के अनुसंधानों से मानव ने प्रकृति के दुर्भेद्य हिस्सों तक पहुँच बनाई है.जीवन को सरल सुगम और निरापद बनाने की संभावनाएं विकसित कीं हैं,किन्तु अन्वेषण और जिज्ञाषा की इस भूंख ने इस हरी-भरी धरती और नीले स्वच्छ आसमान का जो बंटाढार किया है वह तो उसकी समस्त वैज्ञानिक उपलब्धियों के सापेक्ष बेहद घाटे का सौदा है.जनसँख्या वृद्धि,वेरोजगारी,पर्यावरण प्रदूषण,इत्यादि भयावह समस्याओं पर राज्य सत्ता के लिए कोई कारगर अजेंडा नज़र नहीं आ रहा है.दुनिया भर के लोकतान्त्रिक मुल्कों की जनता आज भी महंगाई,वेरोजगारी,भृष्टाचार  और स्वतंत्रता जैसे स्वार्थों तक चिपटी हुई है.वोट की ताकत को दूरगामी सामूहिक स्वार्थों की ओर मोड़ने का वक्त आ गया है. मानव मात्र को यह भावी पीडियों के लिए अवदान नहीं ,एहसान नहीं अपितु अपराध बोध से छुटकारा होगा कि अपने निहित और भौतिक स्वार्थों से परे....,अपने जातीय,धर्म और सम्प्रदाय के तुच्छ स्वार्थों से परे.....  सारी की सारी धरती के रक्षार्थ..... विराट जनमेदिनी  का तुमुलनाद हो!....
       शायद हम धरती को बचाने में सफल हो सकें .....दुनिया  भर के जालिमों के खिलाफ..... दुनिया के मजदूर-किसान और नौजवान एक हो!सर्वहारा के एकजुट संघर्ष से ही ये संभव है...
     श्रीराम तिवारी

बुधवार, 11 जनवरी 2012

राष्ट्रीय युवा-दिवस पर स्वामी विवेकानंद का पुण्य स्मरण.....

  कभी-कभी एक विशेष समयांतराल के उपरान्त इस पृथ्वी पर  एक ऐसा मनुष्य जन्म लेता है ,जो किसी अन्य लोक से आया हुआ सा प्रतीत होता है.वह अपने व्यक्तित्व-कृतित्व से इस धरा पर महिमा,शक्ति और दीप्ति का जिस तरह  अवदान विखेरता है ,उससे  आभासित होता है कि यह कोई अवतारी आत्मा है.यह महान शख्सियत इस सुख-दुःख ,गुण-दोषमय संसार में आम आदमी की भांति विचरण करते हुए भी कुछ इस भांति छटा बिखेरता  है कि लगता है  मानो वह किसी अन्य दिव्य लोक का अतिथि है जो केवल एक रात के लिए किसी वियावान में ठहरता है और किसी तीर्थयात्री की तरह भोर की वेला में अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करता है.
     
          ऐंसे   सत्पुरुष  अपने आपको सम्पूर्ण मानवजाति से सम्बद्ध रखते हुए भी उनके  भयावह दुर्गुणों से अनुरक्त नहीं हुआ करते बल्कि उनके हर्ष-विषाद के हमसफर बन जाते हैं.ऐंसे ही सत्पुर्षों के लिए श्रीमद भागवत पुराण में कहा गया है;-
                   कुलं  पवित्रं  जननी कृतार्थः, वसुंधरा पुण्यवती  च तेन;
                    अपार सम्वितु सुखसागरेअस्मिन्न लीनं परे ब्रह्मणि  अस्य चेत;
 सम्पूर्ण मानवीय संवेदनाओं,लौकिक-पारलौकिक स्थापनाओं,अध्यात्म की विवेचनाओं से सम्पन्न आदर्श अवतारी तो इस धरा पर बहुतेरे हुए है किन्तु सांसारिक सच्चाइयों,वैश्विक चुनौतियों,सर्वधर्म एकत्व के साक्षात् अवतार स्वामी विवेकानंद का अवतरण न केवल चिरस्मरणीय  है अपितु मानव मात्र के लिए अनुकरणीय भी है.
 स्वामी विवेकानंद वास्तव में आधुनिक मानव के आदर्श प्रतिनिधि हैं.विशेषकर भारतीय युवकों के लिएतो  स्वामी विवेकानंद से बढ़कर दूसरा कोईआदर्श नेता  नहीं हो सकता.
                           भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिन देशवासियों ने अपने प्राण न्यौछावर किये  या जेलों की यातनाये सहीं उन सभी के दिलों में  मष्तिष्क में स्वामी विवेकानंद का सन्देश विद्यमान था. राष्ट्रीय गौरव,स्वाभिमान और निर्भयता के साथ-साथ धर्म निरपेक्षता के बीज भी  स्वामी विवेकानंद के 'वैज्ञानिक अध्यात्मवाद' में समाये हुए थे. कालांतर में वे  अपने पूर्ववर्ती महापुरषों से वे कई मायनों में भारत भाग्य-निर्माता सिद्ध हुए हैं.
   वेदान्त का प्रतिपादन, हिंदु-धर्म का महिमा गान अथवा विश्वधर्म सम्मलेन के शिकागो अधिवेशन में अभिव्यक्त सांगोपांग  भारतीय ज्ञान मञ्जूषा कि अविरल  भागीरथी को भारत ,अमेरिका और यूरोप में  ही नहीं बल्कि सारे सभ्य-संसार ने अनवरत प्रवाहमान देखा है. ये भी कोई अचरज की बात नहीं थी क्योंकि यह सब तो उनके पूर्ववर्तियों और उत्तर्वर्तियों  ने कमोवेश  किया ही है .स्वामी विवेकानंद अपने युग के समकालीन और अपने से पूर्ववर्ती अवतारों, महापुरषों और धर्म-ध्व्जों से इस मायने में श्रेष्ठ हैं कि  उन्होंने सर्व प्रथम भारत राष्ट्र की परिकल्पना  की थी. वे पाश्चात्य अधुनातन  विज्ञान ,अर्थशास्त्र ,फिलोसफी और प्रजातांत्रिक समाजवादी राजनैतिक विज्ञान के प्रथम प्रखर भारतीय थे. इन सभी दृष्टिकोणों से स्वामी विवेकानंद का केवल भारत या अमेरिका ही नहीं वरन विश्व के धार्मिक,सांस्कृतिक,और आध्यात्मिक इतिहास में सर्वोच्च स्थान है. वे उस विचारधारा से न केवल अवगत थे बल्कि भारतीय पोषक भी थी जो उन्हें यूरोप और विशेषत;फ़्रांस की यात्रा के दौरान पढने,समझने और सुनने में आई थी.इस विचारधारा को उनको समकालीन चिन्तक कार्ल मार्क्स और एंजिल्स  ने सम्पादित किया था.
   अपने भारत भ्रमण के दौरान स्वामीजी ने अनेकों बार इस विचार और दर्शन की ओर इंगित किया था.उन्होंने दरिद्रनारायण के उत्थानके लिए  और भारतीय युवाओं को स्वाभिमानी बनकर भारत राष्ट्र के प्राचीन गौरव के प्रति सचेत होने हेतु  बारम्बार आह्वान किया था,
    उनका नारा था ;-
                                      उतिष्ठत जागृत प्राप्य वरन्य वोदहत.......
    संयुक्त राष्ट्रसंघ के निर्णयानुसार जब १९८५ वर्ष को 'अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष'घोषित किया गया तो इसके महत्त्व को अंगीकृत करते हए तत्कालीन भारत सरकार ने १२ जनवरी को स्वामी विवेकानंद के जन्म दिन को 'राष्ट्रीय युवा दिवस'के रूप में मनाने का अभिमत लिया.
 स्वामीजी का दर्शन,उनकी जीविनी,उनके कार्य,उनकी शिक्षाएं और उनका आदर्श हर युग की युवा पीढी के लिए प्रेरणा स्त्रोत  रहेगा.
                                   श्रीराम तिवारी

शनिवार, 7 जनवरी 2012

जनता की जनवादी क्रांति से ही भारत को चीन पर बढ़त हासिल हो सकती है.

विगत दिनों भारत के प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह ने भुवनेश्वर में स्वदेशी तकनीकी को बढ़ावा देने का ऐलान किया और इस क्षेत्र में  चीन की बढ़त को स्वीकार किया.अब यक्ष प्रश्न ये है कि क्या  अमेरिकी मंत्रनाओं से चीन आगे  बढ़ा है? भारत किन कारणों से पिछड़ा है ? इन सवालों के उत्तर जाने बिना कोई निदान सम्भव नहीं.भारत चीन से या अमेरिका से केवल नीतियों में अंतर  के कारण नहीं पिछड़ा है, बल्कि इस् घोर राष्ट्रीय  दीनता के प्रमुख कारन ये हैं;- [१] भयानक शोषण, अशिक्षा ,अन्धविश्वास,सरकारी क्षेत्र की मक्कारी [२] रिश्वतखोरी ने भारत को इस मुकाम पर ला खड़ा किया है किउसके बिना पत्ता भी नहीं हिल -दुल  सकता.[३]     विदेशी मिशनरियों द्वारा आदिवासियों और उत्तर पूर्व के भारतीयों  को राष्ट्र की  मुख्यधारा से अलग  करने के कुटिल मंसूबे.[४]आंतरिक अलगाववाद.एवं पाकिस्तानी हुक्मरानों का कश्मीर के मामले में  भारत के साथ स्थाई किस्म का शत्रुतापूर्ण व्यवहार [५] भारत की आधुनिक पीढी के रूप में  मध्यवित्त वर्गीय जनता का  राजनीती के प्रति वितृष्णा पूर्ण  नजरिया.[६]आजादी के तत्काल बाद से ही गरीब -अमीर के बीच के फासले में उत्तरोत्तर बृद्धि होती चली गई और जनता के संघठित संघर्षों से यदि थोडा बहुत सुधार हुआभी है  तो उसकी उपलब्धि  जातीय आधारित आरक्षण त था पहुँच वालों के उदरमें समा गई.
 .बाकी जो बचा तो अफसर और सत्ताधारी नेता ले उड़े.आम जनता के हिस्से ठन-ठन गोपाल प्रस्तुत .इन ६ कारणों के अलावा भी अन्य कारण हो सकते हैं किन्तु बहरहाल इस आलेख की विषय वस्तु मात्र कारणों की खोज करना ही नहीं बल्कि किसी ठोस क्रांतिकारी आवश्यकता को रेखांकित करना है.
                     भारत के पढ़े लिखे मध्यम वर्ग की आदत है कि पश्चिमी विकसित राष्ट्रों की नक़ल करके गौरवान्वित होना .ये आदत कोई नई या अनहोनी जैसी  चीज   नहीं  है.वस्तुत  एक सह्श्त्र वर्ष की गुलामी की मानसिकता  से यही वर्ग नैतिकता विहीन श्रीहीन और पौरष विहीन हुआ था.इसके  रीढ़ विहीन हो जाने का परिणाम ये हुआ कियह वर्ग  देश की  तमाम विज्ञान सम्मत विरासतों,सामाजिक -आर्थिक-चारित्रिक परम्पराओं और नैतिक मूल्यों  को जमीन दोज़ करते हुए सर्व आयातित संसाधनों के साथ-साथ नीतियाँ को  भी उन्ही राष्ट्रों से  मुफ्त में प्राप्त करने चला,जिनके स्वार्थों ने भारत को न केवल गुलाम बनाया अपितु सदियों तक बुरी तरह लूट खसोट भी की.
    चीन में एक भी भिखारी नहीं,एक भी अनिकेत [बेघर]नहीं एक भी शिक्षित बेरोजगार नहीं जबकि चीन की तमाम जनता का ७० फीसदीहिस्सा  बूढा हो चला है ,वहां  कामगारों से पेंशनर्सकी संख्या ज्यादा हो चुकी हैफिर भी सरकारी या गैरसरकारी दोनों ही तरह के चीनी कामगारों को पेंशन सुविधा का संवैधानिक अधिकार है. जबकि भारत में सिर्फ सरकारी क्षेत्र केसेवा निवर्त्त्कों - जो की देश की जनता का मात्र २.०५% है -पेंशन दी जा रही है.चूँकि निजी क्षेत्र में ;खास तौर से आई टी सेक्टर और मीडिया क्षेत्र में सीनियर सिटीजन को पेंशन देने का न तो कोई सम्वैधानिक प्रावधान है और न ही इस शोषित युवा वर्ग की कोई संगठित संघर्ष की तैयारी है.आवास सुरक्षा या खाद्द्यान सुरक्षा का तो केवल सपना ही देखा जा रहा है.
   आज़ादी के उपरान्त जिन आर्थिक नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय  नीतियों  का भारत ने अनुशरण किया  कमोवेश उनमें राष्ट्रीय स्वाभिमान और भारतीय आत्मावलोकन विद्यमान हुआ करता था.आपातकाल के बाद सत्ता में जनता पार्टी के आने से लगा की भारत ने लोकतंत्रात्मकता में एक और पग आगे बढाया है किन्तु दरसल यह एक भावुक तथा अल्पकालीन मृग मरीचिका ही सावित  हुआ .गैर कांग्रेसवाद के नाम पर सिंदीकेटों,जनसंघियों,समाजवादियोंऔर  तत्कालीन तमाम गैर कांग्रेसी गैर वामपंथी दलों एवं ग्रुपों  ने 'जनता पार्टी' नामक जो खिचडी पकाई थी वो भारत के तात्कालिक हित साधने में तो कुछ हद तक सफल रही किन्तु गैर कांग्रेसी मानसिकता और निरंतर विपक्ष में रहने की आदत के सिंड्रोम से पीड़ित  तथा इंदिराजी की लोकप्रियता से भयाक्रांत जनता पार्टी में उसके अपने धडों में घोर द्वन्द छिड़ जाने से वो  तथाकथित पहली गैरकांग्रेसी सरकार असमय ही काल कवलित हो गई थी .जनता पार्टी के धडों में जिन मुद्दों पर घमासान छिड़ा था उनमें से तीन मुद्दे आज भी भारतीय राजनीति को प्रभावित कर रहे हैं. [१]राष्ट्रीय स्वयं सेवकों का गैर राजनैतिक संगठन आर एस एस में काम करते हुए या काम कर चुकने के बाद 'राजनीति ' में केरियेर  तलाशना,[२]राजनीति में विचारधारा वनाम जतीय्तावाद  का नासूर.[३]वैदेशिक आर्थिक नीति और घरेलु आर्थिक मोर्चे पर कोरी शाब्दिक लफ्फाजी.
   वैदेशिक आर्थिक नीतियों में तब तक कोई खराबी नहीं जब तक कि घरेलु बचतें सुरक्षित रहें,राजकोषीय घाटा सकल राष्ट्रीय आय से ज्यादा न होऔर आयात-निर्यात में उचित संतुलन हो.किन्तु जब राष्ट्रीय हितों की अनदेखी कर अंधाधुन्द निजीकरण ,अंधाधुन्द मशीनीकरण और बाज़ार की ताकतों को सिर्फ और सिर्फ मुनाफाखोरी के लिए लाइसेंस दिए जायेंगे तो आर्थिक नीति को  असफल होना ही था.
   सोवियत पराभव उपरान्त जब दुनिया एक धुर्वीय होकर रह गई तो अमेरिकी साम्राज्वाद के प्रभाव में अधिसंख्य दुनिया समेत भारत के दक्षिणपंथी अर्थश्स्त्रियों ने आई एम् ऍफ़ और विश्व बैंक से निर्देशित 'नयी आर्थिक नीति '
को भारत के लिए उपयुक्त समझकर चरण बध्ध लागु भी कर दिया.जिन लोगों ने इन प्रतिगामी और विनाशकारी आर्थिक नीतियों की मुक्त कंठ सेपैरवी की थी उन्ही में से एक प्रमुख हैं हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री जी और वे अब  भी उन नीतियों को जबरिया देश पर थोपते चले जा रहे हैं,जिनके चलते आज का भारतीय युवालगभग  विद्रोह की मुद्रा में आ चूका है.जो नीतियां अमेरिका में फेल हो गईं  वे भारत का उद्धार करेंगी यह  सिद्धांत उसे स्वीकार्य नहीं.
   हमारे देश केउच्च शिक्षित नौजवानअमेरिका समेत सारी दुनिया के विकसित राष्ट्रों में अपनी योग्यता का झन्डा बुलंद किये हुए हैं.यह क्यों संभव नहीं की वे स्वदेश के दीनता और दारिद्र निवारण में देश का नेत्रत्व करें?
  यह तो हर कोई जानता है की भारत ही दुनिया का  वो देश है जो सबसे अमीर होते हुए भी सबसे ज्यादा गरीबों की सबसे बड़ी गरीब जनसंख्या- ३० करोड़ को भूंख -कुपोषण -महामारी और घोर यंत्रणा  के साथ २१ वीं शताब्दी के दुसरे दशक में भी निर्लज्जता से बनाए रखे है.किसी भी कसबे या महानगर में   पूस की रातों में कडकडाती ठण्ड में सेकड़ों वेरोजगारों को फुटपाथों पर भूंख और ठण्ड दोनों को भोगते देखा जा सकता है.यह नजर देखने के लिए इंसानियत और जज्वे की नजर चाहिए.
     भारत में एक बिडम्बना है की  उपजाऊ जमीन जिनके पास है ;उन्ही बड़े जमींदारों के बच्चे अच्छे स्कूलों में पढने  की क्षमता रखते हैं ,इसके आलावा जिनके बापजी-माताजी किसी सरकारी गैरसरकारी संसथान में मुलाजिम हैं या जो राज्यसत्ता के गलियारों तक पहुँच रखते हैं ऐसे लोग ही बेहतर शिक्षा के सोपान तक और परिणामस्वरूप सामाजिक आर्थिक और पारलोकिक आनंद के भोक्ता हो सकते हैं.इन्ही में से कोई एक आर वी आई का गवर्नर ,कोई आर्थिक सलाहकार बनता है फिर सवाल उठता है की मांग और आपूर्ती के बारे में ,गड़बड़ी क्यों है?भारत की ८० करोड़ जनता के पास मोबाइल हैं ,लगभग ४० करोड़ भारतीय गोदामों में भरे पड़े हैं और इनमें से ५० फीसदी 'मेड इन चाइना'ही हैं ,भारत में ऐसी क्या कमी है की आज तक एक भी मोबाइल देश में नहीं बन सका .आदरणीय प्रधानमंत्री जी की सदिच्छा है की भारत भी चीन जैसा बने! तो क्या  दुनिया भर के देशों की आउट डेटेड टेक्नोलाजी देश में लानेसे,  उनका कबाड़ा महंगे दामों पर खरीदने से,अपने राष्ट्रीय स्थापित उद्द्य्मों को देशी -विदेशी पूंजीपतियों के हाथो बेचने से वो गौरव और राष्ट्रीय स्वाभिमान  हासिल हो सकेगा जो चीन ने अपनी जनता की जनवादी क्रांति  की बदौलत हासिल किया है?

      श्रीराम तिवारी